किसी ज़माने में अकबर इलाहबादी ने कहा था कि :-
खींचो न तीरो कमान न तलवार निकालो।
जब तोप मुकाबिल हो तब अखबार निकालो।
अखबार की ताकत को बयाँ करने वाला यह जुमला शायद आज बेकार हो गया है या फिर शायद बदलते समय के साथ इस शेर और अखबारो की शक्ति क्षीण पड़ गई है। एक समय अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले एवं स्वतंत्र अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम माने जाने वाले इन अखबारों की स्थिति आज ऐसी हो गई है य कर दी गई है कि इन्हे भी अपनी लेखनी और कलम की शक्ति का प्रयोग करने की जगह ज्ञापन सौंपने और विरोधात्मक रैली निकालने जैसे दूसरे दर्जे के साधन अपनाने पड़ रहे हैं। हाल ही में समाचार पत्रों को नए संस्कार देने वाली जबलपुर नगर मे एक ऐसी घटना घटी जो यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इतना कमज़ोर हो गया है कि हवा का एक कमज़ोर झौका उसे आरम से हिला दे? जिस देश में पत्रकारों के लिए यह कहा जाता है कि:-
शक्ल से देखने में यह न गोरे हैं न काले हैं।
न इनके पास पिस्टल हैं न इनके पास भाले हैं।
तबीयत से हैं यह बेफिक्र फाकामस्त जीवन में,
कलम के और कागज़ के धनी अखबार वाले हैं।
उसी देश में पत्रकारों की कलम इतनी भोथरी हो गई है कि उन्हें ज्ञापन सौंपने और विरोधात्मक रैली निकालने जैसे दोयम दर्जे के हथकण्डे अपनाने पड़ रहे हैं। यह बात जितनी हास्यास्पद है उतनी शर्मनाक भी। हम यह भूल गए कि हम उस देश के पत्रकार हैं जिसमे आपातकाल का विरोध समाचार पत्रों ने अपने सम्पादकीय पृष्ठ को खाली रख कर किया था। स्वयं इस क्षेत्र से जुड़े होने के कारण मुझे भी इस बात का क्षोभ होता है कि दूसरों के अधिकारों के हनन के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले माध्यम को आज अपने अधिकारों एवं अस्तित्व की रक्षा करना मुश्किल पड़ रहा है। और आज यह बात कहने में थोड़ा दुख तो होता है परंतु कोई हिचक नहीं होती कि सर्वप्रथम मिशन के रूप मे प्रारंभ होने वाली यह विधा धीरे-धीरे प्रोफेशन में बदली उसके बाद सेंसेशन मे तब्दील हुई। यहाँ तक तो ठीक था परंतु पर आत्मा में कहीं न कहीं एक गहरी चोट लगती है कि अब वह धीरे-धीरे कमीशन में बदल रही हैं। आज विलासिता ने व्यक्ति को इतना निष्क्रीय कर दिया है कि वह कोई भी कदम बिना किसी विचार के उठा लेता है। और यही कारण है कि आज कलम के सिपाहियों को कलम की शक्ति से ज़्यादा भरोसा अन्य चीज़ों पर है।
यदि इस पूरे घटनाक्रम पर नज़र डाली जाए तो यह सम्पूर्ण घटनाक्रम महज़ एक समाचार पत्र मालिक और एक नेता के व्यक्तिगत विवाद से अधिक और कुछ नहीं है। दोनों व्यक्ति एक तरीके से अपनी-अपनी शक्ति प्रदर्शन में लगे हुए हैं। जहां एक ओर नेता अपने राजनीतिक हथकण्डों एवं जन समर्थन का शोषण कर रहा है वहीं समाचार पत्र के मालिक अपने व्यक्तिगत हितों के लिए पत्रकारों का अनुचित प्रयोग कर रहे हैं और एक व्यक्तिगत विवाद को राजनीतिक चादर से ढांकने की कोशिश कर रहे हैं।
यहाँ से नगर की पत्रकारिता में एक नकारत्मक कड़ी यह भी जुड़ती है कि यह घटना जनमानस में पत्रकारिता की छवि को ज़रूर धूमिल करती है और कहीं न कहीं आम जनता के मन मे पत्रकारो और पत्रकारिता की प्रतिबद्धता पर एक सवालिया निशान लगा देती है। और ऐसा इसिलिए क्योंकि पत्रकारों ने अपने कार्य की मूल प्रवृति को छोड़ कर एक दोयम दर्जे का मार्ग अपना लिया जिसकी उनसे अपेक्षा नहीं की गई थी।
कभी कभी यह लगता है कि यह विधा कहीं अपनी चिता अपने ही हांथों से तो तैयार नहीं कर रही? परंतु यहं भी उम्मीद की एक किरण मुझे इसमे भी दिखाई देती है कि हो सकता है कि अपनी हाथों से तैयार की गई चिता मैं नष्ट होने के बाद यह विधा एक बार पुनः जन्म लेगी स्वयं की अस्थियों से फीनिक्स पक्षी की तरह।
sahi kaha vikas ji...
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