31.3.08
राखी सावंत बनीं इस बार की पहली अप्रैल फूल
अपनों की बेरुखी
- मंतोष कुमार सिंह
भटे भाजी की तरह पनप रहे मीडिया स्कूल और कॉलेज
डा. हेमंत जोशी का पत्रकारिता शिक्षा पर किया गया विश्लेषण बिल्कुल सटीक है। जबलपुर सहित पूरे मध्यप्रदेश में वर्तमान में पत्रकारिता शिक्षा के संस्थान, जिस प्रकार कुकरमुत्ते की तरह फैलना शुरु हुए हैं, वह आश्चर्यजनक है। बिना किसी प्रशिक्षित अध्यापकों के जिस प्रकार पत्रकारिता शिक्षा दी जा रही है, वह इस प्रकार के संस्थानों को मान्यता देने वाले विश्वविद्यालयों की ईमानदारी पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती है। पत्रकारिता शिक्षा के संस्थान युवक-युवतियों को राजदीप सरदेसाई, विनोद दुआ, पुण्यप्रसून वाजपेयी, बरखा दत्त से लेकर स्थानीय रोल मॉडलों का उदाहरण देते हुए, उनके समकक्ष या उससे अधिक ऊंचाई तक पहुँचाने का प्रलोभन देते हैं। इस प्रकार के प्रलोभन से गांव के साथ-साथ शहर के स्नातक और पोस्ट ग्रेजुएट विद्यार्थी दिग्भर्मित हो जाते हैं।
मुझे याद है कि एम. काम उत्तीर्ण एक सीधे साधे विद्यार्थी को जबलपुर के एक मीडिया स्कूल के संचालक ने सब्ज-बाग दिखा कर पब्लिक रिलेशन्स के कोर्स में एडमिशन करवा दिया। इसके लिए उस विद्यार्थी ने यहां वहां से जुटा कर बड़ी रकम फीस के रुप में दी। आज लगभग चार वर्ष हो रहे हैं, वह विद्यार्थी आज भी सड़कों पर ही घूम रहा है। इस विद्यार्थी ने जब मीडिया स्कूल में एडमिशन लिया, तब वहां कोई भी पोस्ट ग्रेजुएट स्तर में अध्यापन करने वाला अध्यापक नहीं था और न ही आज है। इस प्रकार के तथाकथित मीडिया स्कूल और संस्थान वर्ष भर विद्यार्थियों से लंबी-चौड़ी रकम ले कर पत्रकारिता शिक्षा के नाम पर बहलाते और फुसलाते रहते हैं। साल भर विद्यार्थी भी इस मुगालते में रहता है कि बस कुछ दिन में ही वह एक बड़ा पत्रकार या टीवी जर्नलिस्ट बनने वाला है। जब हकीकत सामने आती है, तब वह सिर्फ पछताता ही है। बैचलर आफ जर्नलिज्म जैसे कोर्स में अध्यापकों का वेतन देने से बचने के लिए पूरा कोर्स साल भर के स्थान पर दो-तीन महीने में खत्म कर दिया जाता है और शेष समय में संस्थान का संचालक स्वयं ही पत्रकारिता का व्यवहारिक व सैद्घांतिक ज्ञान बांटने लगता है।
जबलपुर में आजकल टीवी के साथ-साथ रेडियो जॉकी के फर्जी कोर्स का धंधा भी पनपना शुरु हो गया है। इन कोर्स के लिए नौजवानों के साथ अधेड़ भी रुचि लेने लगे हैं। एफएम के इस दौर में प्रत्येक व्यक्ति को महसूस होने लगा है कि उसमें शायद एक अच्छे रेडियो जॉकी या एनाउंसर बनने की क्षमता है। लोगों के इसी भ्रम का फायदा उठा कर जबलपुर के मीडिया स्कूल और संस्थान एक-दो महीने के क्रेश कोर्स संचालित कर रहे हैं। इसी प्रकार के एक मीडिया स्कूल में जाने पर मैंने देखा कि वहां अधिकांश संख्या अधेड़ महिलाओं की थी, जो कि रेडियो जॉकी बनने की तमन्ना से क्रेश कोर्स कर रही थीं। उनके अलावा अन्य विद्यार्थी 'स' और 'श' का उच्चारण में फर्क नहीं कर पा रहे थे। मुन्ना भाई में रेडियो जॉकी की भूमिका निभाने वाली विद्या बालन की "गुड मार्निंग मुंबई" की तर्ज पर "गुड मार्निंग जबलपुर" की लाइनों को दोहरा कर सबको इस बात की अनुभूति करवाई जा रही थी कि वे ही जबलपुर की विद्या बालन हैं। सभी विद्यार्थी अपनी टेप की गई आवाज सुन-सुन कर खुश हो रहे थे।
दरअसल मीडिया स्कूल और संस्थानों में इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर कृछ नहीं रहता है। एक अलमारी में 10-20 किताबें रख कर विद्यार्थियों को इस भ्रम में रखा जाता है कि उन्हें किताबें खरीदने की जरूरत नहीं होगी। परीक्षाओं के समय विद्यार्थियों को जब पुस्तकें नहीं मिलती है, तब उन्हें पत्रकारिता शिक्षा का सच समझ में आता है।
इस संबंध में वर्षों से विश्वविद्यालय में संचालित होने वाले पत्रकारिता विभागों की स्थिति कुछ अच्छी नहीं हैं। यहां अध्यापन करने वाले शिक्षक स्वयं भ्रम के शिकार हैं। उन्हें पत्रकारिता की नई प्रवृत्तियों की जानकारी नहीं है। किताबी ज्ञान तो बांट दिया जाता है, लेकिन व्यवहारिक शिक्षा देने में विश्वविद्यालय के अधिकांश अध्यापक असफल रहते हैं, क्योंकि उनका स्वयं का व्यवहारिक अनुभव शून्य ही रहता है। पत्रकारिता शिक्षा के संबंध में यह बात भी महसूस की गई है कि अध्यापक पत्रकारिता के व्यवहारिक पक्ष को समझा नहीं पाते हैं और वहीं प्रोफेशनल पत्रकार अपने पेशे का ज्ञान तो दे सकते हैं, लेकिन वे क्लास रूम में एक अच्छे शिक्षक की भूमिका नहीं निभा पाते हैं। इस दृष्टि से पत्रकारिता प्रशिक्षण का मानकीकरण होना चाहिए, जिससे पत्रकारिता शिक्षा और प्रशिक्षण का स्तर तो ऊंचा हो और अच्छी-खासी फीस लेने पर भी नियंत्रण लगे।
दैनिक भास्कर का नई दिल्ली आफिस सील, दिल्ली पुलिस और प्रशासन का निंदनीय कृत्य
भड़ास को मिली पुख्ता सूचना के मुताबिक मीडिया हाउस दैनिक भास्कर के नई दिल्ली स्थित गोल मार्केट वाले आफिस को सील कर दिया गया है। यहां कुछ ही दिनों पहले दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण का कार्यालय नोएडा से शिफ्ट किया गया था। होली से पहले दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण का आफिस नोएडा में हुआ करता था। गोल मार्केट वाले आफिस में दैनिक भास्कर के नेशनल ब्यूरो की टीम, लोकल ब्यूरो की टीम, फीचर की टीम, मार्केटिंग व मैनेजमेंट की टीम बैठा करती थी।
भास्कर प्रबंधन ने तय किया कि दिल्ली संस्करण के प्रकाशन से जुड़ी पूरी टीम भी गोल मार्केट वाले आफिस में ही शिफ्ट कर दी जाए। इसी के तहत कई महीनों से गोल मार्केट वाले आफिस में निर्माण कार्य चल रहा था। और होली के छुट्टी वाले दिन नोएडा से सारे स्टाफ व सारे सामानों को गोल मार्केट वाले आफिस शिफ्ट कर दिया गया। अभी वहां शिफ्ट हुए कुछ ही दिन हुए थे कि स्थानीय नागरिकों की शिकायत पर पुलिस पहुंच गई। तब किसी तरह मामले को दबाया गया।
बाद में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का हवाला देते हुए दिल्ली पुलिस ने रेजीडेंशियल इलाके में व्यावसायिक कार्य न होने के आधार पर दैनिक भास्कर के आफिस को सील कर दिया। इससे परेशान दैनिक भास्कर प्रबंधन ने हर कीमत और हर मुश्किल के बावजूद अखबार प्रकाशित करने की ठानी है। इस मुहिम के तहत अपने सारे स्टाफ को गोल मार्केट आफिस में इकट्ठा होकर गाड़ियों के जरिए पानीपत आफिस पहुंचने को कहा है। फिर से नोएडा में आफिस शिफ्ट किए जाने तक दैनिक भास्कर, दिल्ली संस्करण का प्रकाशन पानीपत से ही हुआ करेगा।
हर हाल में अखबार प्रकाशित किए जाने की चुनौती दैनिक भास्कर के पत्रकारों ने स्वीकार कर ली है। वे कपड़े लत्ते से भरे बैग लेकर दैनिक भास्कर के पानीपत आफिस के लिए कूच कर चुके हैं। भड़ास की तरफ से इन सभी योद्धा पत्रकार साथियों को शुभकामनाएं। हम उम्मीद करते हैं कि जल्द ही दैनिक भास्कर इस मुश्किल से उबरेगा और अखबार का प्रकाशन हर हालत में सुनिश्चित करेगा ताकि अखबार प्रकाशन रोकने का मंसूबा पाले पुलिस व प्रशासन को करारा सबक सिखाया जा सके।
भड़ास का मानना है कि इस मामले में पुलिस और प्रशासन ने जल्दबाजी दिखाई और मामले को बातचीत के जरिए सुलझाने की कोशिशों के बजाय अखबार का प्रकाशन बंद करने की साजिश रची। इस सरकारी साजिश का पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए। इसी दिल्ली में एक से एक बड़े राजनीतिक और प्रशासनिक मगरमच्छ न जाने क्या क्या कर रहे हैं पर दिल्ली पुलिस उन पर नजर इसलिए नहीं डालती क्योंकि सत्ता की तेजाबी नजर से उसकी आंख फूट सकती है। उसने इस मामले में इसलिए जल्दबाजी दिखाई ताकि एक बड़े मीडिया हाउस को बदनाम किया जा सके। हम पुलिस और प्रशासन के इस कृत्य की निंदा करते हैं और सभी पत्रकार साथियों से अपील करते हैं कि वो इस साजिश के खिलाफ खुलकर बोलें।
जय भड़ास
यशवंत
हैप्पी फस्ट एपरिल टू यू.....
कुछ समझ न सका कैसी उलझन है तू
हैप्पी फस्ट एपरिल टू यू.....
ओ मेरी चंपा कली, मिसरी की डली
रहना यूं ही खिली मेरे गुलशन में तू
हैप्पी फस्ट एपरिल टू यू.....
सोलह बच्चों की मां, तू अभी तक जवां
जरा मस्ती में आ, मेरी टुनटुन है तू
हैप्पी फस्ट एपरिल टू यू.....
एपरिल फूल चंद
पं. सुरेश नीरव
30.3.08
एक बेनाम आँसू
साभार एक पाकिस्तान के मित्र से
मराथागिरी
मराथागिरी
दिल्ली-अहमदाबाद-मुंबईः पहली जहाज यात्रा, पहली मुलाकातें, उनकी बातें, वो ढेर सारी यादें......
मैंने अपनी पहली हवाई यात्रा उसी रोमांच के साथ की जिस रोमांच के साथ मैंने जीवन में पहली बार साइकिल चलाना सीखा था। जहाज पर बैठने के बाद मेरी गुर्दन मुड़ी ही रही, नीचे धरती को एकटक देखता और निहारता रहा। किस तरह धरती की हर चीज धीरे धीरे छोटी होते होते एकदम से अदृश्य हो गईं और बादलों का संसार धरती पर कब्जा जमाए दिखा। बड़े बड़े शहर यूं नजर आए जैसे चींटी। नदियां, पहाड़, शहर, गांव सब एक ऊंचाई पर आने के बाद एकाकार हो गए और सब कुछ धुआं धुआं बादल बादल धूसर धूसर मिट्टी मिट्टी पानी पानी प्रकाश प्रकाश आसमान आसमान के रूप में दिखने लगा।
मुझे जो निजी तौर पर दिक्कतें आईं उसे जरूर बताना चाहूंगा। मैं सीट बेल्ट बांध नहीं पाया। जिधर से बांधने की कोशिश कर रहा था वो उल्टा वाला साइड था। आखिरकार पसीना पोंछते हुए मैंने अपने पड़ोसी से पूछा...भइया, इ बेल्टवा कइसे बांधा जाता है...। उस उन बंधु ने अपने चेहरे पर बिना यह शो कि लगता है तुम देहाती हो, पूरे सम्मान के साथ फटाक से मेरा बेल्ट बांध दिया और इस कदर फिर अपने काम में डूब गये जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। मैं अपेक्षा यह कर रहा था कि वो थोड़ा मुस्करायेंगे, पूछेंगे, समझायेंगे....पर ऐसा कुछ न हुआ। शरीफ आदमी थे।
दूसरी दिक्कत ये रही कि सुबह पांच छह गिलास पानी पीने के आदत के चलते जब एयरपोर्ट पर पहुंचा तो सू सू करने की स्थिति बन गई थी लेकिन मैं इसलिए ज्यादा दाएं बाएं नहीं घूमा टहला कि कहीं कोई समझ न ले कि इ ससुरा पहली बार आया लगता है...बोले तो मन ही मन तय कर लिया था कि अबकी एक अच्छे देहाती की तरह चुपचाप सब भांपना देखना है और जहाज पर चढ़कर यात्रा कर के नीचे उतर लेना है। अगली बार दो कदम और आगे बढ़ेंगे और मूतेंगे भी। तो सू सू करने का जो प्रेशर बना था उसे हवाई जहाज में भी दबाए रहा। हालांकि मैं देख रहा था कि भाई लोग किस तरह उठ उठ कर टायलेट की तरफ जा रहे थे पर मैंने रिस्क नहीं लिया। दूसरे, उठने पर नीचे वाला सीन, धरती वाला दृश्य मिस करने का भी रिस्क था, सो अहमदाबाद में एरपोटर् के बाहर एक कोना पकड़कर हलका हुआ।
अहमदाबाद में आफिस का काम निपटाने के बाद वरिष्ठ ब्लागर संजय बेंगाणी से मिलने उनके अड्डे पहुंचा। संजय और पंकज जी ने बेहद प्रेम से अपनी टिफिन से खाना खिलाया और देर तक बतियाये। मैं बेहद सहज और अपनापा महसूस करता रहा। लगा, जैसे कि अभी दिल्ली में ही हूं, अपने घर के आसपास। संजय जी ने कुछ बातें इस मुलाकात के बारे में अपने ब्लाग पर कहीं हैं जिसे आप पढ़ व देख सकते हैं। उन्होंने विस्तार से लिखने के बारे में मुझे कहा है पर मैं क्या लिखूं, कुछ सूझ नहीं रहा, सिवाय इसके कि हिंदी ब्लागिंग ने हम अपरिचितों को इतना परिचित करा दिया है कि अब कोई शहर बेगाना, अनजाना नहीं लगता। हर शहर में अपने लोग मिल जाते हैं। और ये अपने लोग ही हैं जो पूरी दुनिया में फैले हैं, बस संजय पंकज की तरह हम सभी अपनी हिंदी और अपने हिंदी वालों पर गर्व करना शुरू कर दें, लिखना शुरू कर दें, देखिए...जमाना अपना है।
संजय जी से मिलने के बाद सुभाष भदौरिया जी का फोन नंबर पता कराया। और सफलता भी मिली। कानपुर आईनेक्स्ट के अपने दद्दा अनिल सिन्हा जी ने तुरंत मेरी मदद की और जाने कहां से डा. सुभाष भदौरिया का मोबाइल नंबर मुझे उपलब्ध कराया। डाक्टर साहब को फोन किया तो वे अहमदाबाद से बाहर एक कालेज में परीक्षा कराने में जुटे थे। उन्होंने वादा किया कि परीक्षा खत्म होते ही वे उस बस के पास पहुंच जाएंगे जिससे मुझे मुंबई जाना था। और डाक्टर साहब वादे के मुताबिक पहुंचे भी। डा. सुभाष भदौरिया, जिन्हें मुख्य धारा के ब्लागरों ने जाने क्या क्या कहा है और जाने किस किस तरीके से परेशान किया है, ये किस्सा पुराना है पर मैं तो हमेशा से डाक्टर साहब को एक बेहद सहज और सच्चा इंसान मानता रहा हूं। तभी तो डाक्टर साहब सच बोलकर जमाने भर के गम उठाते रहे हैं। डाक्टर साहब से पल भर की मुलाकात रही पर इस मुलाकात को जी लेने और कैद कर लेने की उनकी सहृदय बेचैनी ने मुझे भाव विभोर कर दिया। ये कैसे अनजाने रिश्ते होते हैं, जिनमें दो लोग अपने आप एक दूजे को चाहने लगते हैं। डाक्टर साहब ड्राइवर को पांच मिनट और रुकने की विनती करते रहे पर ड्राइवर किसी विलने की तरह ना में सिर हिलाकर गाड़ी बढ़ाने लगा, तब मुझे भी मजबूरन बाय बाय कहते हुए बस में घुसना पड़ा। डाक्टर साहब से पल भर की मुलाकात ढेर सारी यादें दे गईं। उनसे फिर मिलने का वादा है।
मुंबई पहुंचा तो सीधे अपने अड्डे डाक्टर रूपेश के यहां पहुंचा। डाक्टर साहब ने अपनी फोटो तो कभी भड़ास या इधर उधर डाली नहीं सो उनकी शक्ल को लेकर मैंने ढेरों कल्पनाएं कर रखी थीं। पर वो तो निकले बेहद हैंडसम नौजवान। गठीला और योगीला शरीर। इलाके के यंग एंग्री मैन। कोई बार-वार नहीं चलना चाहिए। विकास की किसी योजना में कोई धांधली नहीं होनी चाहिए। ढेरों सच्चे पंगे ले रखे हैं डाक्टर साहब ने अपने इलाके में। पनवेल में उनके आवास पर रुका तो डाक्टर साहब के मुंबई भड़ासी ब्रांच के सारे कुनबे से मुलाकात हुई। बच्चों सी मुनव्वर आपा, कोमल हृदय और सुंदर व्यक्तित्व की स्वामिनी मनीषा दीदी, अनुभवों और सोच के धनी रूपेश जी के बड़े भाई भूपेश जी....।
डाक्टर रुपेश के साथ ही मुंबई को छान मारा। वो भी लोकल ट्रेन के भीड़ भरे डिब्बे में नहीं बल्कि लोकल ट्रेन को चलाने वाले ड्राइवरों की केबिन में ससम्मान बैठकर। इसे कहते हैं डाक्टर रुपेश का जलवा। ड्राइवरों से डाक्टर साहब यूं मराठी में बतियाते कि जैसे कभी प्रतापगढ़ में पैदा ही नहीं हुए हों बल्कि जन्मना मराठियन महाराष्ट्रियन हों।
डाक्टर रुपेश के साथ ही दो वरिष्ठ ब्लागरों लोकमंच वाले शशि सिंह और बतंगड़ वाले हर्षवर्धन से मुलाकात हुई। साथ में अपने आफिस के वरिष्ठ साथी रंजन श्रीवास्तव जी भी थे। लोवर परेल के कैफे काफी डे में हाट डाग रोल खाते और लेमन डेमन पीते हुए इहां से उहां तक खूब बतियाया गया।
शशि सिंह आजकल वोडाफोन में मैनजेर हैं। मैं इस बात का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि चिरकुट माइंडसेट वाले पत्रकार जान लें कि हिंदी पत्रकार अब नाकाबिल नहीं रहा बल्कि वो अपनी काबिलियत सिर्फ कलम की कथित मजबूरी के जरिए नहीं बल्कि बिजनेस और मार्केटिंग जैसे आधुनिक दुनिया के रहस्यों को सुलझाने के जरिए कर रहा है। शशि सिंह हमेशा से मेरे लिए एक समझने वाली चीज रहे हैं, उत्साह से लबालब व्यक्तित्व ऊर्जा से भरी सोच, इंटरप्रेन्योर माइंडसेट का मालिक, कुछ अलग करने रचने जीने सीखने को हमेशा तत्पर रहने वाला युवा......। शशि सिंह से ये मेरी दूसरी मुलाकात थी और हर्षवर्धन जी से पहली। हर्षवर्धन जी के बारे में मेरी सोच ये थी कि वो दिल्ली में ही किसी न्यूज चैनल में कार्यरत हैं पर वो निकले मुंबइया। इन दोनों पूरबिहों से मिलने बतियाने के बाद अगले दिन एक भयंकर वाली ब्लागर मीट हुई।
छात्र संगठन पीएसओ उर्फ आइसा के पुराने धुरंधरों दिग्गजों जिन्होंने अपने जमाने में संस्कृति से लेकर राजनीति तक को नए सिरे से समझने समझाने को क्रम को बखूबी अंजाम दिया था, अब मुंबई के भिन्न कोनों में रहते जीते लिखते सोचते हैं। इन सभी से एक साथ मुलाकात हो जाए, मैंने सोचा भी न था। इसके पीछे धारणा बस यही थी कि हम लंठ भड़ास वाले, कच्ची उम्र व सोच वाले, इन धुरंधरों के पासंग भी फिट नहीं बैठते तो ये लिफ्त क्यों मारेंगे। पर मेरी सोच मनगढ़ंत साबित हुई। वरिष्ट ब्लागर प्रमोद सिंह ने अभय तिवारी जी के घर मुलाकात तय कर दी तो मैंने लगे हाथ ढेर सारे परिचितों को वहां पहुंचने के लिए न्योत दिया। स्क्रिट राइटर सुमित अरोड़ा, डा. रुपेश और मैं तो उधर से अभय तिवारी जी, प्रमोद सिंह, अनिल रघुराज, बोधिसत्व, उदय यादव आदि थे। तीन बजे से बतकही शुरू हुई तो जाने कब पांच छह बज गया, पता ही नहीं चला। इतनी बड़ी मुंबई में एक जगह इतने सारे ब्लागरों और साथियों का इकट्ठा हो जाना मेरे लिए सपने सरीखा था। जीवन, दर्शन, हिंदी पट्टी, सोच, संवेदना, ब्लागिंग, एग्रीगेटर, निजी, सार्वजनिक, विवाद, मौलिकता, लेखन, व्यक्तित्तव, पहचान, हरामीपन...जैसे ढेरों विषयों से टकराते बूझते आखिर में भड़ास पर चर्चा ठहरी। साथी लोगों ने लतियाया, धोया, सिखाया, समझाया तो मैंने भी अपनी पेले रखी और उनकी सुनने समझने की मुद्रा बनाए रखी। इन लोगों की ढेर सारी बातों को मैं अमल करने लायक मानता हूं और इस पर कोशिश पहले ही शुरू कर दी गई है, आगे और भी कोशिशें होंगी।
और हां, ये बता दूं कि मुंबई के इन सभी लोगों से मेरी पहली मुलाकात थी, सिवाय सुमित अरोड़ा के जो मेरठ से मेरे साथी रहे हैं। प्रमोद सिंह की क्या पर्सनाल्टी है भाई, यूं बड़ी बड़ी मूंछें, गब्बर सिंह माफिक, भर पूरा चेहरा, ठाकुर माफिक, देह पर कुर्ता पाजामा क्रांतिकारियों की माफिक....जय हो....:)। जब आप प्रमोद सिंह के लिखे को पढ़ेंगे तो दूसरी ही तस्वीर उभरती है जिसे लेकर मैं मुंबई पहुंचा था। अभय तिवारी जी, सबसे दुबले पतले, पर सबसे गुस्सैल, क्या क्लास ली भाई ने मेरी, भड़ास और ब्लागवाणी विवाद पर:)। बोधिसत्व जी...अरे बाप रे...छह फुटा आदमी, बिलकुल हष्ट पुष्ट जैसे राष्ट्रपति के प्रधान अंगरक्षक, जैसे सीमा सुरक्षा बल के कमांडर, जैसे दुष्टों के दलन को आए महामानव....कहीं से कवि नहीं नजर आए:)। अनिल रघुराज जी, सकुचाए, चुप्पा, विनम्र, सहज.....बोलेंगे तो धारधार वरना चुप रहेंगे:)
और इन सभी की खबर ली डाक्टर रुपेश ने, नाड़ी नब्ज टटोलकर:) किसी की वात उठी हुई थी तो किसी की पित्त। अब ये भड़ासी डाक्टर और आयुर्वेद का मास्टर डाक्टर रुपेश श्रीवास्तव इन मुंबइया ब्लागरों की नब्ज हमेशा देखता रहेगा ताकि कभी उंच नीच न हो जाए:)
उदय यादव जी के साथ मैं पार्टी के दिनों बनारस में काफी कुछ सीखा है, उनसे मिलना बारह पंद्रह साल बाद हो रहा था पर उदय भाई के व्यक्तित्व में कोई खास बदलाव नहीं। वही गठीला शरीर, वही मुस्कान, वही सहजता।
पहली रात डाक्टर रुपेश के पनवेल वाले घर में गुजारी तो दूसरी रात सुमित अरोड़ा के यहां, लोखंडवाला इलाके में। डाक्टर रुपेश के यहां मनीषा दीदी ने बड़े प्यार से मछली पकाई थी। चूंकि डाक्टर साहब खुद शुद्ध शाकाहारी और मांस मदिरा से दूर रहने वाले प्राणी हैं तो मछली पकाने का उपक्रम मनीषा दीदी ने मुनव्वर सुल्ताना आपा के घर पर किया।
दूसरी रात सुमित अरोड़ा के यहां पहूंचा तो भाई ने पृथ्वी थिएटर में लगातार बीमार नामक (अगर नाम न भूल रहा हूं तो) नाटक के शो के टिकट बुक करा लिए थे। इसी दौरान अजय ब्रह्मात्मज जी का फोन आ गया। यहां मैं बता दूं कि अभय तिवारी जी के यहां आने के लिए मैंने वमल वर्मा जी, आशीष महर्षि जी, अजय ब्रह्मात्मज जी को भी संदेश भेजा था पर ये तीनों अपनी व्यस्तताओं की वजह से समय नहीं निकाल पाए। तीनों ही लोगों के फोन या एसएमएस आए कि वे कोशिश करके भी उस टाइम पर उस जगह पहुंच नहीं पा रहे।
तो अजय जी के फोन आने पर बात हुई तो पता चला कि सुमित के घर के ठीक सामने पत्थर मारने भर की दूरी पर (शब्द साभार अजय ब्रह्मात्मज) ही अजय जी का भी घर है। और जब मैं बीयर गटकने के बाद सुमित के बाथरूम से नहाधोकर निकला तो सामने अजय जी को सुमित व उनके दोस्तों से बतियाता पाया। धन्य हो मुंबई वालों का प्रेम। अजय जी से जानकारी मिली की वही नाटक देखने विभा भाभी जी भी जा रही है। अगली सुबह नाश्ते पर अजय जी के घर आने का वादा कर मैं सुमित के साथ नाटक देखने निकल गया। इंटरवल में विभा जी ने खुद ही पकड़ लिया, आप यशवंत जी हैं ना....। मैंने मसाला मुंह में घुलासा हुआ था और एक अपिरिचित जगह पर एकदम से किसी महिला के इस तरह मुझे पहचान लेने से एकदम अकबकाया मैं वो पूरा मसाला गटक गया और फिर तुंरत बोल पड़ा...जी मैं ही हूं। तब भाभी जी ने बताया कि वो विभा हैं और अजय जी ने उन्हें मेरी हुलिया फोन पर बता दी थी। और साहब, मालूम है, कपड़ा कौन पहना था, हरे राम हरे कृष्णा वाला कुरता जो ऋषिकेश में घूमने के दौरान खरीदा था। सो, उस दर्शक वर्ग में एकमात्र मैं आदमी थी जो एकदम से हरा हरा नजर आ रहा था।
अगली सुबह देर से नींद खुली और देर से अजय जी के घर पहुंचे। तोसी कोसी का नाम ब्लागिंग के जरिए मेरी जुबान पर पहले से ही था। तोषी तो लाहौर में हैं, कोसी एकदिन पहले ही हाईस्कूल की परीक्षा देकर आजाद पंछी की माफिक मुस्करा रही थीं। विभा भाभी को प्रमोशन मिला था और उनका बर्थ डे भी था, अजय जी को पुरस्कार लेने का दिन भी वही थी, एक साथ एक ही दिन ढेर सारी खुशियां जश्न उत्सव मनाने का मौका....। ईश्वर ये खुशी बनाए रखे, सबको दे, इसी तरह। गरम गरम पूड़ियां और छोला और सब्जी और चटनी और पापड़ और .....। गले तक नाश्ता किया बोले तो पूरा भोजन ही कर लिया।
इस चार दिनी यात्रा का वृतांत कमोबेश यही है। आशीष महर्षि ने संदेश भेजा कि मिलने के लिए समय न निकाल पाने के लिए वे माफी चाहते हैं.......अरे भाया, इसमें क्षमा जैसी क्या बात आ गई यार, जिंदी रहे तो जरूर मिलेंगे भाया, दिल तो अपन लोग का मिला ही हुआ है, फिजिकल डिस्टेंस का आज के युग में कोई मतलब नहीं है।
तो डाक्टर रूपेश जी, मैंने यात्रा की समरी रख दी। कई चीजें छूट गई होंगी, कई नाम भूल गए होंगे, कई प्रसंग अनुल्लिखत होंगे.....प्लीज....उन कड़ियों को आप जोड़ दीजिएगा, एक नई पोस्ट डालकर।
अंत में, आप सभी हिंदी ब्लागर दोस्तों को, जो भारत से लेकर दुनिया भर के देशों में फैले हुए हैं, दिल से आभार के कहना चाहूंगा कि आप और हम अलग अलग होकर भी जब मिलते हैं तो यूं परिचित लगते हैं जैसे कभी अपिरचय था ही नहीं। मैं इस पूरे घटनाक्रम से अभिभूत हूं।
मुंबई जाने की सोचकर कभी फटा करती थी, वहां कौन है तेरा.....बर्तन माजना होगा, धक्के खाना होगा, कुचलकर मर जाएगा.....टाइप की बातें बताई जाती थीं। और जब पहली बार मुंबई गया तो लगा ही नहीं ये शहर दिल्ली से अलग है, परिचय के मामले में, जीने के मामले में, सहजता के मामले में, रिश्तों के मामले में...। और ये सब है हिंदी ब्लागिंग की बदौलत। मा बदौलत, यह दस्तूर कायम रहे.....।
जय भड़ास
यशवंत
ये भड़ास है या चमचों का चबूतरा....संदर्भ: पुण्य प्रसून वाजपेयी की विदाई वाली पोस्ट
यहां मैं यह भी बताना चाहूंगा, खासकर बेनामी अनामी महोदय को कि पुण्य प्रसून पर एक और पोस्ट भड़ास पर डाली गई थी... क्या लालू यादव से डायलागबाजी के चलते निकाले गए पुण्य प्रसून। इसमें उन सारी बातों को शामिल किया गया था जिसके चलते पुण्य प्रसून के बाहर जाने के हालात बने। हो सकता है कि अंदरखाने और आफिस की पालिटिक्स की कुछ बातें छूट गई हों लेकिन हम आपकी पोस्ट डालकर यह बताना चाहेंगे कि भड़ास चापलूसों का मंच कतई नहीं है। ... जय भड़ास, यशवंत))
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[भड़ास] New comment on पुण्य प्रसून के सहारा समय छोड़ने के निहितार्थ.
Anonymous has left a new comment on your post "पुण्य प्रसून के सहारा समय छोड़ने के निहितार्थ":
मुझे समझ नहीं आता ये भड़ास है या चमचों का चबूतरा जहां कभी भई कोई आता है और मक्खन मलना शुरू कर देता है । पुण्यप्रसून की आपने जिस तरह ठकुर सुहाती की है वो बदकिस्मती है पत्रकारिता की । आप जैसे लोग क्या पत्रकारिता करते होंगो पता नहीं । जिस पुण्य प्रसून को आप मिलस सार बताते हैं जमाना जानता है कि वो बेहद घटियापन की हद तक अहंकारी है । अपने दफ्तर में काम करने वाले लोगों की नमस्ते का जवाब नहीं देना और जिसका चाहे मान मर्दन करना पुण्य की पहचान है । और सहारा से अगर वो बाहर कर दिए गए तो इसीलिए कि उन्होंने अपने अहंकार का परिचय देते हुए अपने ही पत्रकार भाईयों को मूर्ख और अनाडी बताने की कोशिश की ।वो लोगों को क्या पत्रकारिता सिखाएंगे पहले खुद तहजीब सीख लें । उनके स्टाइल के अलावा उनके पास कुछ नहीं है । वो भी उन्होंने स्वर्गीय एसपी सिंह से चुराया है। खुद को सरे आम हिंदी न्यूज का अमिताभ बच्चन कहने वाले पीपी को विनम्रता का पाठ सीख लेना चाहिए वर्ना लोग उनका नाम तक भूल जाएंगे ।
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Posted by Anonymous to भड़ास at 29/3/08 11:33 PM
मेनका की मनमानी
29.3.08
संगीता बहन तुम्हे तुम्हारी खुशी छीन कर देंगे हम...हिम्मत रखो सब साथ हैं.
जय यशवंत
मनीष राज बेगुसराय
भड़ास से प्यार करने वाले बांहे फैला कर गले लगाने दौड़े चले आये....
जरा सा एक पल का विराम दीजिये ,दादाश्री खुद ही पोस्ट करेंगे कि क्या- क्या फाड़ा और क्या जोड़ा है। उनके आते ही एक अनौपचारिक ब्लागर-मीट हो गई । भड़ास से प्यार करने वाले बांहे फैला कर गले लगाने दौड़े चले आये। सबने उलटियां करीं और यशवंत दादा उनके मुंह में उंगली डाल-डाल कर गले में ,दिल में अटका मसाला निकालते रहे और हम खामोशी से सबकी उल्टियों के सैम्पल एकत्र करते रहे। एनालिसिस की रिपोर्ट दिल्ली भेजी जाएगी और फिर आपको बताया जाएगा कि किसको क्या हैं और किसको क्या नहीं है। यकीन मानिये इन सारे लोगों में कोई मुझे मेरे चाचा जैसा लगा, कोई ताऊजी जैसा और कोई म्रे बड़े भाई जैसा; कोई परायापन नहीं अगर आपस में एक दूसरे पर चिल्ला भी रहें हैं तो बीच-बीच में कहते जा रहें हैं कि अबे चाय पी वरना ठंडी हो जाएगी। ऐसा अद्भुत सा रहा सब कि उसकी सत्यता पर यकीन ही नहीं हो रहा कि एक ओर जहां दुनियादारी में इतनी उठापटक और कुत्ताघसीटी है वहीं दूसरी ओर ऐसा भी है कि वो लोग जिन्होंने कभी एक दूसरे को प्रत्यक्ष देखा तक नहीं है वे आपस में एक दूसरे से इतना प्यार कर सकते हैं। मैं दिल से यह बात स्वीकारता हूं कि यह सब भड़ास की ही महिमा और माया है और इस भड़ास जगत के रचयिता ब्रह्माजी हैं यशवंत दादा। समझ में नहीं आ रहा कि लिखूं क्या और कैसे इसलिये अगली खुराक कल दूंगा तबतक आप इस गोली को चूसिये।
जय जय भड़ास
28.3.08
जय जय भड़ास..
यशवन्त दादा और अंकित का शुक्रिया
दरअसल पिछले काफ़ी समय से अपने मन का गुबार निकालना चाहता था भडास पर, लेकिन अब लगता है कि मन की मुराद पूरी होगी।
और भविष्य में आप सभी भडासियों के अच्छे अच्छे लेख और ब्लाग्स पढने को मिलेंगे।
आपका भडासी भाई
खालिद हसन
टेलिविज़न पत्रकार
सहारनपुर
सुरेश नीरव की ताजा गजल
कविता के आज बन रहे वो दादा फालके
मरने के बाद यार ने ऐसा किया सुलूक
जूते पहन के फिरता है वो मेरी खाल के
मीना बाजार लाएगा वो अब खरीदकर
निकला है घर से जेब में इक सिक्का डाल के
दिल में हजार वाट का जलने लगा है बल्ब
उसने पिला दीं बिजलियां शीशे में ढाल के
अच्छी भली किताब का अब तो अकादमी
करती है खूब फैसला सिक्का उछाल के
नीरव महरबां हुए यारों पर इस तरह
बकरे हों जैसे ईद पर यारो हलाल के
THANKS FROM SURESH NEERAV....
iam greatfull to mr.bhardwaj Dainik Bhaskar jalandher,vinya chaturvedi Prabhat khabar ranchi, dr.bhagwan swaroop chaitanya Nai dunia gwalior and miss rakshanda from dehradoon who responded positively on my poetry and ghazal. I am very much hopefull to get more creative relationship with my all BHADASSI fraiendes in future too. With regards..
suresh neerav
9810243966
27.3.08
पंडित सुरेश नीरव की गुदगुदी ग़ज़ल
शर्म आती है यह बताने मैं
इक चवन्नी है बस खजाने मैं
रात गुजरी है गुसलखाने मैं
क्या खिलाया था तूने खाने मैं
एक ही लट थी चाँद पर उनके
वक्त लग्ना था उसे सजाने मैं
कैसे बाहर नदी से वो आते
कपड़े गायब हुए नहाने मैं
कौन संग ले उड़ा उसको
तुम लगे थे जिसे पटाने मैं
दोस्त मुश्किल से एक दो होंगे
इतने बैठे हैं शामियाने मैं
उम्र गुजरी है आजमाने मैं
कोई अपना नहीं ज़माने मैं ।
जय भड़ास
26.3.08
अधिकारियों को जनता से मजाक का संवैधानिक अधिकार
जब कोई भी व्यक्ति अपने मस्तिष्क द्वारा ईश्वर प्रदत्त क्षमता से अधिक कार्य करता है तो वह न सिर्फ़ थक जाता है बल्कि अनिद्रा ,मानसिक अवसाद यानि डिप्रेशन , चिड़चिड़ापन और तात्कालिक याददाश्त का लोप होना जैसी गम्भीर बीमारियों से ग्रस्त हो जाता है । २६ जनवरी १९५० से लेकर अप्रेल २००५ तक एक-एक दिन हमारे जनप्रिय नेताओं ने यह बात बड़ी गहराई से निरीक्षण करके जानी और यह निष्कर्ष निकाला कि सरकारी अधिकारियों के लिये मानसिक बोझ येन-केन-प्रकारेण कम करा जाए । लेकिन चूंकि राष्ट्र को तो दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करनी है तो काम का बोझ कम कैसे हो सकता है ? इसलिए हमारे नेताओं ने तमाम विकसित राष्ट्रों का दौरा कर करके एक मूल्यवान तथ्य खोज निकाला कि यदि सरकारी कार्यालयों का माहौल मजाहिया बना रहे तो अधिकारीजन मजाक करते और हंसते-मुस्कराते हुए अपने काम के बोझ को उठा लेंगे । यह बात कार्यालयीन मनोविज्ञान एवं मानव संसाधन विकास के क्षेत्र में एक मील का पत्थर सिद्ध हुई है । सरकार की तरफ से इस बात को अप्रेल २००५ में बाकायदा संवैधानिक जामा पहनाया गया और ब्यूरोक्रेसी को RTI act यानि कि सूचना प्राप्ति का अधिकार के रूप में सौंप दिया गया । अब अधिकारी अच्छी तरह से जानते हैं कि एक बार उनके निजी साले-साली और सलहजें नाराज हो सकते हैं पर भारत की उदार हृदय जनता हरगिज़ बुरा नहीं मानेगी बस आपके गम्भीर से गम्भीर मजाक पर बस सूखे होंठो से मुस्करा कर रह जाएगी इस इंतजार में कि आप अगला चुटकुला कब सुनाएंगे । तो ज्ञानी जनों अगर आप भी सरकारी अधिकारियों को मजाक का मौका देकर राष्ट्र के उत्थान में सहयोग करना चाहते हैं तो बस दस रुपए खर्च करिये और सरकारी अधिकारियों को अपने साथ मजाक करने का मौका देने के लिये RTI act के अंतर्गत कोई भी जानकारी मांग लीजिये आप समझ जाएंगे कि सरकारी अधिकारी कैसे मजाक कर करके अपने काम के बोझ को हलका करते हैं । इसी मजाक में सहयोग की नियत से मैंने अपने शहर की नरक पालिका(माफ़ करें ,सुधार कर नगर पालिका पढ़िए) से यह जानकारी मांगी कि जिस अपार्टमेंट में मैं रहता हूं उसके बिल्डिंग कन्स्ट्रक्शन का सुपरविजन किसने करा था और लगाई हुई भवन निर्माण सामग्री का सुपरविजन किसने करा था तो यह जानकारी एक फ़ार्म के रूप में बिल्डर विभाग को देता है जिसका कि एक निश्चित फ़ार्मेट रहता है और जिसके प्रत्येक कालम को भरे बिना यह फ़ार्म अपूर्ण रहता है व भवन निर्माण शुरू ही नहीं करा जा सकता लेकिन मुझे मेरी नगर पालिका के अधिकारियों ने RTI act के अंतर्गत उस बिल्डर द्वारा जमा करे गए फ़ार्म की जेराक्स प्रति उपलब्ध करा दी लेकिन वो तो कोरा है एकदम सादा उसमें तो कुछ भरा ही नहीं है लेकिन बिल्डिंग तो सीना ताने कबकी खड़ी है तो आप समझ लीजिये कि साहब लोगों ने तो बस होली पर एक हलका सा मजाक किया है आखिर काम का बोझ जो हल्का करना है ।
वो चेहरे ....
सुर्ख ओ सफ़ेद चेहरा,बड़ी बड़ी रोशन और ज़हीन आँखें,लंबा कद लेकिन जो चीज़ उनकी शख्सियत को सब से ज़्यादा असर अन्गेज़(प्रभावशाली) बनाती थी वो थी उनके चेहरे पर खूबसूरत दाढ़ी- आम रहने से दाढ़ी किसी भी चेहरे की खूबसूरती को कम कर देती है पर कुछ लोगों के व्यक्तित्व में ये चार चाँद लगा देती है.
उनके बोलने का अंदाज़ इतना सेहर अन्गेज़ (जादुई)था की सुनने वाला उनकी बातो के सेहर में खो जाने पर मजबूर हो जाता था. दिल में बसता हुआ धीमा धीमा लहजा रहने बात को तर्क के साथ पेश करने का वो अंदाज़ कि सामने वाला सहमत हुए बिना न रह सके. कुछ ऐसी ही शख्सियत के मालिक थे अतहर अली खान.
बाबा किसी से भी इतने जल्दी प्रभावित नही होते,लेकिन जब से वो रहने रहने मिले थे,उनके होठों पर उन्ही का नाम होता था…किसी की इतनी तारीफ सुनने के बाद अपने आप मन में उस व्यक्ति से मिलने की उत्सुकता जग जाती है,मुझे भी हुयी थी…
ये बात थोडी पुरानी है,लगभग पाँच साल पहले की,उन दिनों हम कोल्कता में रहा करते थे…रहने तो मैं इतनी mature नही थी लेकिन जिंदगी के साथ साथ लोगो को देखने का नजरिया हमेशा से थोड़ा बूढा रहा है मेरा…कभी कभी अपनी दोस्तों की बातें सच लगने लगती हैं रहने रहने तो रहने बूढ़ी है या तेरे अन्दर कोई बूढी रूह समां गई है..
एक बार जब बाबा के साथ वो हमारे घर आए थे तब पहली बार
फिर एक बार नही कई बार उन्हें देखा और सुना…अक्सर बाबा उन्हीं के साथ पाये जाते थे..
हमारे बाबा का नजरिया जिन्दिगी के प्रति ऐसा है की कभी कभी हैरानी होती है की अगर उन्होंने उच्च रहने पायी होती तो जाने कहाँ होते…उनके ख्यालों की बारीकियां,उनकी thinking,लोगो को परखने का उनका मापदंड आम लोगों से काफी अलग कर देता है उन्हें…ख़ुद को इस मुआमले में खुश किस्मत मानती हूँ कि मुझे उनका साथ नसीब है.
दिल की खूबसूरती का अक्स हमारे चेहरे पर नज़र आने लगता है..ये बात
ये ज़रूरी नही कि इंसान का चेहरा बहुत खूबसूरत हो,वैसे भी खूबसूरती की रहन अलग अलग लोगो के लिए हमेशा से अलग रही है,गोरा रंग देखने वालों को आकर्षित करते नैन नक्श,सिडोल शरीर योरोपिये दिरिष्टि से खूबसूरती की कसोटी पर खरे हो सकते हैं पर मेरी नज़र में खूबसूरती न तो गोरा रंग है न तीखे नैन तक्ष न ही सिडोल शरीर और लंबा कद, असली सुन्दरता के मायने हैं इंसान का खूबसूरत दिल जो इतना हसीन हो की उसका हुस्न अपने आप चेहरे पर नज़र आने लगे.
अतहर अली खान का दिल कैसा है,ये उनके खूबसूरत व्यक्तित्व से ज़्यादा उनके खयालात और उनके न्ज्रियात से पता चलता था. बात चाहे अपने मज़हब की हो रही हो या किसी और की, सियासत की हो या जिंदगी के दूसरे पहलुओं की..उनके खयालात सच मच मुखतलिफ थे,एक बार बात ओर्तों के हुकूक(अधिकार ) और इस्लाम की हो रही थी, अब ओर्तों के अधिकार की जहाँ बात आए…हमारे बाबा कभी पीछे रहने वाले नही हैं..लेकिन ये सुनकर मुझे बड़ी खुश गवार हैरत हुई की अतहर अली खान ख़ुद बाबा की बातों के हिमायती थे…एक बार
सिर्फ़ हम ही नही , वहां रहने वाले सभी लोगों में वो काफी respected शख्सियत माने जाते थे.
उनकी बीवी भी बड़ी नरमदिल ओर प्यारी थीं. हमेशा दूसरों के काम आने वाली, वो परदा करती थीं लेकिन करीबी collage में जॉब भी करती थीं, जहाँ तक परदे का सवाल है, हो सकता है बहुत से लोगो का नजरिया अलग हो लेकिन मेरे ख्याल में परदा कभी भी ओरत की तरक्की में रुकावट नही बन सकता, हम परदा कर के भी तरक्की की रफ़्तार में उसी स्पीड से दोड़ सकते हैं, जिस तरह बाकी के लोग दोड़ रहे हैं.
बात हो रही थी दूसरी और मैं कहाँ पहुँच गई, ये मेरी पुरानी और बड़ी बुरी आदत है, बहेर्हाल कहने का मतलब ये अतःर अली खान की शख्सियत से सिर्फ़ बाबा ही नही ख़ुद मैं बहुत प्रभावित थी.
वो दोपहर मुझे आज भी अच्छी तरह याद है जब हमेशा की तरह बाबा मुझे school से लेने आए थे,रास्ते में रुक कर उन्होंने फल खरीदते हुए बताया था की अतहर अली कई दिनों से बीमार हैं और रास्ते में वो थोडी देर को उनकी खरियत लेने उनके घर चलेंगे .उनका घरमेरे school के काफी करीब था तो हमारे घर से काफी दूर. हम उनके फ्लैट पर पहुंचे.गर्मी का मौसम था.बाबा ने बेल बजायी पर कोई आवाज़ नही उभरी,शायेद वो ख़राब थी.
दरवाजे पर हाथ रखा तो वो खुलता चला गया.गर्मी के मरे बुरा हाल था.इसलिए हम बिना कोई तकल्लुफ़ किए अन्दर दाखिल हो गए.सारे घर में सन्नाटा था.ड्राइंग रूम भी खाली था .मैं उनके ड्राइंग रूम की शानदार सेटिंग से इम्प्रेस हुए बिना न रह सकी थी.इस से पहले की बाबा अतहर साहिब को आवाज़ देते,करीब ही रूम से बर्तन के ज़ोर से पटखने की आवाज़ के साथ साथ किसी की धीमी मगर गरज्दार आवाज़ उभरी…”ये खाना बनाया है? इसे खाना कहते हैं जाहिल ओरत? तुम लोग कितना भी पढ़ लिख लो रहो गी वही जाहिल की जाहिल” ये आवाज़ बिला शुबहा(निसंदेह) अतहर साहब की थी लेकिन ये पथरीला और सर्द लहजा तो जैसे किसी और का था…जिसमें सामने वाले के लिए बेतहाशा हिकारत थी..जवाब में आंटी की सहमी सहमी सी आवाज़ उभर रही थी पर मैं तो बाबा की ओर देख रही थी जो अजीब सी बेयाकीनी की कैफियत में थे.फिर जाने क्या हुआ,बाबा खामोशी से उसी तरह बाहर आगये जैसे अन्दर गए थे….सारा रास्ता वो खामोश रहे.
मेरा दिल चाह, पूछूँ कि बाबा जिनकी शख्सियत खूबसूरत होती है,क्या वो वाकई में(सचमुच) उंदर से भी उतने ही खूबसूरत होते हैं? पर जाने क्यों मैं नही पूछ सकी.
उस दिन के बाद न कभी बाबा ने अतहर साहब के बारे में कोई बात की न ही
मैं आज भी मानती हूँ की लोगों को परखने के मामले में बाबा का कोई जवाब नही है.लेकिन ये भी तो सच है न कि जीवन में अपवाद होते रहते हैं.अपवाद न हो तो जिंदगी का सारा हुस्न ही खत्म हो जाए.सो अतहर अली खान भी एक अपवाद ही थे.