विनीत खरे
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यह बात तब की है जब मैंने अपना कदम जवानी देहलीज पर रखा ही था। उस समय मैं १२वी में पढता था, कुछ भी नहीं पता था कि क्या सही है, क्या ग़लत है, क्या करना है, बस एक सूत्री काम दोस्तो के साथ "मौजा ही मौजा"।
वैसे तो होली मेरे लिए हमेशा ही खास होती है लेकिन उस साल की होली तो मुझे आज तक याद है, हम पांच दोस्त होली की मस्ती मे थे एक दुसरे की टांग खीचते हुए सिविल लाइन्स से चौक की तरफ़ बढे चले। करीब आधे घंटे में चौक पहुचे। वहाँ चौराहे पे करीब २०० से ३०० लड़के अपनी मस्ती नाच गा रहे थे। हम भी उन्ही में शामिल हो गए।
तभी मेरी नजर एक मकान की खिड़की पर पड़ी, उस पर एक लड़की खड़ी थी, मैंने पहले तो टालने की कोशिश की लेकिन नजर थी की कुछ समय बाद वही चली ही जाती। उसकी आखों में अजीब से कशिश थी। मैंने अपने दोस्तो को भी दिखाया लेकिन वह तो होली की मस्ती में चूर थे। लेकिन मैं तो उसे देखता ही रहा। थोडी देर में हम लोग भी अपने अपने घरो के लिए चल दिए। लेकिन मैं घर कब, कैसे और कितनी देर में पंहुचा पता ही नहीं चला।
घर पहुँच के मैं नहा के सो गया लेकिन वह मेरे आखों के सामने घूम रही थी। मैंने सोचा एक दो दिन में यह खुमारी चली जायगी लेकिन मैं जिधर जाता सिर्फ़ वह ही वह नजर आती थी। न ही खेलने में मन लगता न ही किसी और काम में। इस बात को करीब 15 साल हो गए है। सिलसिला आज शायद कम हो गया है लेकिन आज भी वह मुझे नहीं भूलती।
अब तो ख्याल छोड़ दीजिये...बहुत दिन हो गए
ReplyDeleteविनीत भाई,क्यों मेरी बहन की तस्वीर लगा कर जगहंसाई कराना चाहते हो ये अच्छी बात नहीं है...
ReplyDeleteदिवानगी इसी को कहते हैं जनाब
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