अब खुद उठकर पी लेता हूं पानी।
अब जली रोटियां भी खा लेता हूं।
अब नहीं खलता खाने में सब्जी का न होना।
मां अब मैंने देख ली है दुनिया।।
अब कोई नहीं पूछता कहां गए थे।
अब कोई नहीं पूछता क्या कर रहे हो।
अब कोई नहीं पूछता आगे क्या करोगे।
अब्बू अब मैंने देख ली है दुनिया।।
अब मुझसे नहीं लडते मेरे भाई।
अब बहन नहीं करती कोई जिद।
अब दोस्त नहीं ले जाते घूमने के लिए।
अब मैंने देख ली है दुनिया।।
हां अम्मी मैंने देख ली है दुनिया।।
अबरार अहमद
abraarji kya khub hai itni si kavita me hi sab kah diya.
ReplyDeleteसंवेदना है....मां के लिए प्रेम है...और अपने अकेले होने का अहसास....बहुत से लोगों की व्यक्तिगत ज़िंदगी को खोलती हुई कविता.....उम्दा
ReplyDeleteकम शब्दों में बहुत कुछ कहना कोई आप से सीखे अबरार जी। परिवार से अलग होने की तडप और उससे दूर होकर कोई कैसे जीता है उसी की सुंदर अभिव्यक्ति है यह कविता। दिल को छू गई। लिचते रहिए।
ReplyDeleteबहुत अच्छे अबरार भाई सीधे दिल के अन्दर चले गये । कोटिश बधाई
ReplyDeleteशशिकान्त अवस्थी
कानपुर
बहुत सुंदर अबरार भाई. और हाँ अच्छा किया जो इसी उम्र में दुनिया देख ली . पता तो चल ही गया होगा कि ये दुनिया फानी है, पानी पर लिखी एक कहानी है.
ReplyDeleteनयी ग़ज़ल के इंतजार में
वरुण राय
अबरार भाई,
ReplyDeleteये दुनिया देखने की कहानी बड़ी अपनी सी लगती है. ऐसा लगता है कि जैसी तजुर्बे कि बयार बह चली हो.
बेहतरीन है.
बधाई
हौसलाअफजाई के लिए सभी साथियों का शुक्रिया। यह आप सब का प्यार ही है जो मुझे लिखने को प्रेरित करता है। आगे भी इसी तरह से हौसला बढाते रहिएगा ताकि मेरी कलम चलती रहे। शुक्रिया।
ReplyDeleteअबरार भाई, रुला दिया न मेरे जैसे ढीठ को....
ReplyDeleteबहुत अच्छे। आगे जाओगे।
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