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5.5.08

मां अब मैंने देख ली है दुनिया

अब खुद उठकर पी लेता हूं पानी।
अब जली रोटियां भी खा लेता हूं।
अब नहीं खलता खाने में सब्जी का न होना।
मां अब मैंने देख ली है दुनिया।।

अब कोई नहीं पूछता कहां गए थे।
अब कोई नहीं पूछता क्या कर रहे हो।
अब कोई नहीं पूछता आगे क्या करोगे।
अब्बू अब मैंने देख ली है दुनिया।।

अब मुझसे नहीं लडते मेरे भाई।
अब बहन नहीं करती कोई जिद।
अब दोस्त नहीं ले जाते घूमने के लिए।
अब मैंने देख ली है दुनिया।।
हां अम्मी मैंने देख ली है दुनिया।।
अबरार अहमद

9 comments:

KAMLABHANDARI said...

abraarji kya khub hai itni si kavita me hi sab kah diya.

Anonymous said...

संवेदना है....मां के लिए प्रेम है...और अपने अकेले होने का अहसास....बहुत से लोगों की व्यक्तिगत ज़िंदगी को खोलती हुई कविता.....उम्दा

भागीरथ said...

कम शब्‍दों में बहुत कुछ कहना कोई आप से सीखे अबरार जी। परिवार से अलग होने की तडप और उससे दूर होकर कोई कैसे जीता है उसी की सुंदर अभिव्‍यक्ति है यह कविता। दिल को छू गई। लिचते रहिए।

शशिश्रीकान्‍त अवस्‍थी said...

बहुत अच्‍छे अबरार भाई सीधे दिल के अन्‍दर चले गये । कोटिश बधाई

शशिकान्‍त अवस्‍थी
कानपुर

VARUN ROY said...

बहुत सुंदर अबरार भाई. और हाँ अच्छा किया जो इसी उम्र में दुनिया देख ली . पता तो चल ही गया होगा कि ये दुनिया फानी है, पानी पर लिखी एक कहानी है.
नयी ग़ज़ल के इंतजार में
वरुण राय

Anonymous said...

अबरार भाई,
ये दुनिया देखने की कहानी बड़ी अपनी सी लगती है. ऐसा लगता है कि जैसी तजुर्बे कि बयार बह चली हो.

बेहतरीन है.
बधाई

अबरार अहमद said...

हौसलाअफजाई के लिए सभी साथियों का शुक्रिया। यह आप सब का प्यार ही है जो मुझे लिखने को प्रेरित करता है। आगे भी इसी तरह से हौसला बढाते रहिएगा ताकि मेरी कलम चलती रहे। शुक्रिया।

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

अबरार भाई, रुला दिया न मेरे जैसे ढीठ को....

मृत्युंजय कुमार said...

बहुत अच्छे। आगे जाओगे।