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31.3.10

बिन बोले बहुत कुछ कहते हैंऊंचे पहाड़ और छोटे

रास्तेपहाड़ों के बीच जब हम पहुंचते हैं तो 'जो कुछ हैं हम ही हैंÓ वाला अहं सर्पीले रास्तों वाली ढलान से फिसल कर कहां चला जाता है। हमें इसका अंदाज तक नहीं लग पाता। ऊंचे पहाड़ों के बीच सुरक्षित शिमला की खूबसूरती देखने के लिए देश-विदेश से आने वाले सैलानियों को ये पहाड़ और इन पहाड़ों के बीच से होकर गुजरने वाले रास्ते कद, पद और मद की शून्यता का अहसास भी करा देते हैं।माल रोड पर दिन में कई चक्कर लगाने वालों को बहुत जल्द ही यह पता चल जाता है कि रास्तों का उतार-चढ़ाव सांस फुला देने वाला होता है कोई सैलानी कुली से ज्यादा मोल भाव नहीं करना चाहता। दुकानों से सामान खरीद कर जब मालदार लोग बाहर निकलते हैं तो खरीदे गए सामान पर लोगों की नजर पड़े ना पडं़े इन सैलानियों की नजर जरूर कुली को तलाश रही होती है कि सब कुछ उसके हवाले कर के खाली हाथ सफर करें। ये पहाड़ सैलानियों को जीवन दर्शन कराते हैं कि जितना ऊंचा उठने की सोचोगे उतना ज्यादा खाली हाथ होना पड़ेगा। बात जीवन की अंतिम यात्रा की करेंं तो गौरीशंकर से मिलन के लिए भी तो निर्भर होकर ही पहुंचा जा सकता है।जैसे अंतिम यात्रा पर जाते वक्त हम अपने साथ लाव-लश्कर नहीं ले जा पाते, उसी सत्य को ये पहाड़ भी बड़ी सहजता से समझाते हैं कि ज्यादा बोझ साथ रखोगे तो सांस फूल जाएगी, आसानी से सफर तय नहीं कर सकोगे। पहाड़ों की भाषा किसी को समझ न आए तो जिंदगी में आने वाले उतार-चढ़ाव की याद दिलाते, छोटी-छोटी सीढिय़ों को साथ लेकर चलने वाले संकरे रास्ते भी बताते चलते हैं कि इन पहाडों के सामने अपने पद और कद की अकड़ दिखाने की कोशिश भी मत करना, क्यों कि पहाड़ों केे आगे सिर्फ पहाड़ों की ही अकड़ चलती है। मुझे तो लगता है कि इन पहाड़ों को भी पता है कि उनकी यह अकड़ भी दर्शन काबिल तभी है जब अकड़बाज सैलानी यहां तक आ-जा सकें। इसीलिए इन पहाड़ों ने अपने से छोटे, तुच्छ समझे जाने वाले रास्तों को भी गले लगा रखा है। आसमान छूने को आतुर सी लगतीे चोंटियां और इनके बीच तंगहाल जिंदगी की तरह गुजर-बसर करते इन रास्तों की पहाड़ों से जुगलबंदी कृष्ण-सुदामा की मित्रता सी लगती है।सैलानी यह संदेश लेकर भी जाते ही होंगे कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में ऊंचा उठने वालों को सदैव याद रखना चाहिए कि जाने कितने छोटे-छोटे लोगों का सहयोग रहता है किसी एक को पहाड़ जैसी ऊंचाई तक पहुंचाने में। ये पहाड़ तो कुछ कहते नहीं लेकिन जो इन से मिलकर जाते हैं उन्हें तो ताउम्र याद रहता ही होगा कि झुककर चलने वाले ही ऊंचाई तक पहुंच पाते हैं और लंबे वक्त तक चोटी पर बने रहने के लिए अनुशासन, संयम और त्याग जरूरी होता है वरना तो एक जरा सी गलती पल भर में गहरी घाटियों के हवाले कर देती है। ऊपर आने का मौका तलाश रहे लोग तो वैसे भी घात लगाए बैठे रहते हैं कि शिखर पर शान से खड़े व्यक्ति से कोई चूक हो और उन्हें टांग खींचने का मौका मिल जाए।

लो क सं घ र्ष !: सत्ता की डोली का कहार, बुखारी साहब आप जैसे लोग हैं

दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद उल्ला बुखारी ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता का ढोंग रचने वाली सियासी पार्टियों ने आजादी के बाद से मुसलमानों को अपनी सत्ता की डोली का कहार बना दिया है।
बुखारी जी आपका बयान बिल्कुल ठीक है परन्तु क्या आप इस बात से इत्तेफाक़ करेंगे कि सियासी पार्टियों को यह मौका फराहम कौन करता है? आप और आपके बुज़रगवार वालिद मोहतरम जो हर चुनाव के पूर्व अपने फतवे जारी करके इन्हीं राजनीतिक पार्टियों, जिनका आप जिक्र कर रहे हैं, को लाभ पहुँचाते थे। लगभग हर चुनाव से पूर्व जामा मस्जिद में आपकी डयोढ़ी पर राजनेता माथा टेक कर आप लोगों से फतवा जारी करने की भीख मांगा करते थें। वह तो कहिए मुस्लिम जनता ने आपके फतवों को नजरअंदाज करके इस सिलसिले का अन्त कर दिया।
सही मायनों में राजनीतिक पार्टियों की डोली के कहार की भूमिका तो मुस्लिम लीडरों व धर्मगुरूओं ने ही सदैव निभाई जो कभी भाजपा के नेतृत्व वाली जनता पार्टी या एन0डी0ए0 के लिए जुटते दिखायी दिये तो कभी गुजरात में नरेन्द्र मोदी का प्रचार करने वाली मायावती की डोली के कहार।
मुसलमानो की बदहाल जिन्दगी पर अफसोस करने के बजाए उसकी बदहाली की विरासत पर आप जैसे लोग आजादी के बाद से ही अपनी रोटियाँ सेकते आए हैं। शायद यही कारण है कि हर राजनीतिक पार्टी अब अपने पास एक मुस्लिम मुखौटे के तौर पर मुसलमान दिखने वाली एक दाढ़ी दार सूरत सजा कर स्टेज पर रखता है और मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं का शोषण राजनीतिक दल इन्हीं लोगों के माध्यम से कराते आए हैं। लगभग हर चुनाव के अवसर पर आप जैसे मुस्लिम लीडरों की बयानबाजी ही मुसलमानों की धर्मनिरपेक्ष व देश प्रेम की छवि को सशंकित कर डालती है और अपने विवेक से वोट डालने के बावजूद उसके वोटों की गिनती जीतने वाला उम्मीदवार अपने पाले में नहीं करता।


-मोहम्मद तारिक खान

भागो कांग्रेसी...बच्चन आया

(उपदेश सक्सेना)

बचपन में बच्चों को विभिन्न तरीकों से डराया जाता है, कभी उन्हें 'बाबा' द्वारा उठा ले जाने की बात कहकर बहलाया जाता है, तो कभी अँधेरे में भय की आकृति दिखाई जाती है. अमिताभ बच्चन इन दिनों कांग्रेस के लोगों के लिए उसी 'बाबा' का रूप बन गए हैं. अमिताभ अब कांग्रेस के नेताओं के सपनों में आकर 'भूतनाथ' की तरह डराने लगे हैं. दुश्मन के दोस्त को भी दुश्मन मानने वाली कांग्रेस के हाईकमान ने पार्टी नेताओं को बच्चन से दूरियां बनाने के कोई निर्देश निश्चित रूप से नहीं दिए होंगे, मगर कांग्रेसियों के खून में बह रही चाटुकारिता की रक्त कणिकाएं ज्यादा उबाल मार रही हैं. इंदिरा गांघी के प्रादुर्भाव के बाद कांग्रेस में चाटुकारिता की हवा जमकर बही, इसका असर यह हुआ कि, कांग्रेस से जुड़े नेताओं की आत्मा मर गई. सोनिया गांधी ने १०, जनपथ की मज़बूत दीवारों के पीछे से पार्टी पर अपनी लगाम ऐसी कसी कि हर कोई दीवार भेदक आँखें चाहने लगा है. 'किसी चीज़ को जितना छुपाओ, उसे देखने-जानने कि लालसा उतनी बलवती हो जाती है.' उनका पार्टी पर होल्ड इतना मज़बूत है कि सर झुकाने को कहने पर सामने वाला दंडवत हो जाता है. यह सोनिया के व्यक्तित्व का ही असर है कि उनके सामने पूरी कांग्रेस रीढ़-विहीन दिखाई देती है.
अमिताभ बच्चन ने मनोरंजन जगत के माध्यम से निश्चित ही भारत की छवि विदेशों तक में बनाई है. उम्र के उस पड़ाव में जबकि आम आदमी खटिया पकड़ लेता है, ऊर्जा से भरे बच्चन यदि सक्रिय रहकर किसी भी तरह से काम में जुटे हैं तो उसे राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए. कांग्रेस उस नज़रिए से देखती जिसमें बुरे(राजनीतिक कारणों से) व्यक्ति के साथ रहने वाले को भी बुरा समझा जाता है. नरेन्द्र मोदी उस गुजरात राज्य के मुख्यमंत्री हैं जहां की जनता काफी शिक्षित है ओर उसने उन्हें लगातार दूसरी बार सत्ता सौंपी है. विपक्ष की भूमिका सरकार के कामकाज पर टीका टिप्पणी करने वाले की होती है, मगर आज यह सभी मर्यादाएं लांघ चुकी है. अमिताभ बच्चन की पिछले दिनों से भाजपा के नेताओं से नजदीकियां बढ़ी हैं, इसका अर्थ यह नहीं लिया जाना चाहिए कि वे उस दल की नीतियों के समर्थक हो गए है. आज की राजनीति में कार्यकर्ताओं को उनकी मौलिक सोच से दूर रहकर जी-हजूरी करने के लिए प्रेरित किया जाता है. कांग्रेस ऐसे ही नेताओं की ज़मात बन चुकी है, भाजपा ऐसे रोबोट तैयार कर रही है. तमाम दल सामंतवाद की नीतियों पर चल पड़े हैं, जहां वफादारी का पर्यायवाची शब्द गुलामी कहलाता है. हमने स्वतंत्रता पाई है, जिसे आज हम अपनों से बचने के लिए उपयोग कर रहे हैं. वैसे इस पूरे नाटक में अमिताभ की ख्याति में और इजाफा हुआ है. यह अमिताभ के व्यक्तित्व का ही कमाल है की, उन्होंने अशोक चाव्हाण, शीला दीक्षित, जयराम रमेश, जैसे कई नेताओं को भयभीत कर दिया है.सभी कांग्रेसी भागो.... चिल्ला रहे हैं ...क्योंकि अमिताभ आ रहे हैं.

आतंक पर दोहरे मानदंड

अमेरिका-पाकिस्तान में पक रही खिचड़ी से भारत की सुरक्षा पर खतरा मंडराता देख रहे हैं अरुण नेहरू
फिलहाल, सुरक्षा हमारी चिंता का विषय बना हुआ है। बाहरी खतरे और माओवादियों व अन्य उग्रवादी तत्वों द्वारा देश में मचाए जा रहे उत्पात को देखते हुए हमें भविष्य के लिए अपने लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट कर लेने चाहिए। मुंबई में आतंकी हमले पर अमेरिका का रवैया और आतंकवादी डेविड कोलमैन हेडली से पूछताछ की भारत की मांग पर बार-बार बयान बदलने से भ्रम फैल रहा है। हेडली डबल एजेंट था, जो अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के लिए काम कर रहा था। मेरे ख्याल से ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि भविष्य में अफगानिस्तान से विदाई में अमेरिका पाकिस्तान से सहयोग की अपेक्षा कर रहा है। इस संबंध में बातचीत पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के नेतृत्व में होगी, किंतु इसमें जनरल एपी कियानी और आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल शुजा पाशा भी निर्णायक भूमिका निभाएंगे। इन परिस्थितियों से हमें बड़ी समझ-बूझ से निपटना होगा। पिछले एक साल में पाकिस्तान की निचली अदालतों में मुंबई हमलों के सूत्रधारों को सजा दिलाने के संबंध में खास प्रगति नहीं देखी गई है। आतंकवाद पर हाय-तौबा मचाने वाली अमेरिकी सरकार पाकिस्तान को अरबों डालर की सहायता राशि देने के बावजूद अपेक्षित सहयोग प्राप्त नहीं कर सकी है। इस राशि में आर्थिक मदद के साथ-साथ तालिबान से लड़ने के लिए हथियार और अन्य सैन्य साजोसामान भी शामिल है। पाकिस्तान ने बड़ी कुशलता से दोहरा खेल खेला है। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने खंडित जनादेश का पूरा फायदा उठाया है। इस बातचीत के नतीजे से स्पष्ट संकेत मिल जाएंगे कि आतंकवाद से युद्ध समेत अन्य बहुत से मुद्दों पर अमेरिकी प्रशासन का रवैया क्या रहता है। जमीनी सच्चाई यह है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश इराक और अफगानिस्तान युद्ध में जबरदस्त दबाव में हैं। रोजाना आत्मघाती धमाकों और इस कारण बड़ी संख्या में अमेरिकी सैनिकों की मौत से वहां जनमत सरकार के खिलाफ है। इसके अलावा राष्ट्रपति बराक ओबामा की मध्यपूर्व नीति पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। अमेरिकी प्रशासन का 11 सितंबर को न्यूयार्क पर हुए आतंकी हमले और 26 नवंबर को मुंबई हमले पर दोहरे मानदंड अपनाना दुर्भाग्यपूर्ण है। डेविड हेडली अमेरिकी नागरिक है और अमेरिका व उसके बीच सौदेबाजी से मुंबई में नरसंहार के आरोपों से उसे बरी कैसे किया जा सकता है? उसका भारत में प्रत्यार्पण होना ही चाहिए। क्या अमेरिका से आतंकी गतिविधियां चलाने वाले आतंकवादियों पर अलग नियम लागू होते हैं। भारत में जनमत पाकिस्तानी सेना व आईएसआई का तुष्टिकरण स्वीकार नहीं कर सकता। पिछले तमाम अवसरों पर पाकिस्तान ने अमेरिकी हथियारों का भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया है। बराक ओबामा एक प्रभावशाली वक्ता हैं और सुहाने वाली बातें करते आए हैं। उन्हें शांति के नोबल पुरस्कार से नवाजा गया है। किंतु पाकिस्तान को आपूर्ति किए गए हथियारों के संबंध में क्या उनकी कथनी करनी से मेल खाती है? गलत कारणों से मायावती और बसपा सुर्खियों में छाए हुए हैं। मुलायम सिंह यादव को लोहिया की मूर्ति पर माल्यार्पण करने से रोकने का प्रयास करना एक शर्मनाक घटना है। इस तरह की हरकतें कांग्रेस का काम आसान कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में चुनाव करीब आ रहे हैं। जनादेश किसी भी किस्म की गुंडागर्दी का लाइसेंस नहीं है। मायावती भी इस नियम की अपवाद नहीं हैं। इसी तरह महिला आरक्षण का विरोध करते हुए मुलायम सिंह यादव की अभद्र टिप्पणियां बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं। स्पष्ट तौर पर अब उन्हें पार्टी में अन्य लोगों के लिए स्थान खाली कर देना चाहिए। किंतु इसमें वंश परंपरा आड़े आ सकती है क्योंकि उनके पुत्र अखिलेश सिंह में परिपक्वता नजर नहीं आती। समाजवादी पार्टी अपने वोट आधार का अच्छा-खासा हिस्सा गंवा चुकी है, जो कांग्रेस और बसपा ने झटक लिया है। अमर सिंह के जाने से इसे और झटका लगा है। केंद्रीय नेतृत्व के स्तर पर भाजपा स्थिर होती दिखती है किंतु उत्तर प्रदेश में वह अपना आधार नहीं बना पा रही है। यहां मुख्य मुकाबला कांग्रेस और बसपा में ही रहेगा। दक्षिण भी उत्तर के साथ कदमताल कर रहा है। द्रमुक में एमके अलगिरी और एमके स्टालिन के बीच संघर्ष चल रहा है। यह भी वंश राजनीति का एक हिस्सा है। वहां उत्तराधिकारी के बारे में स्पष्ट राय नहीं बन पा रही है। पार्टी के सुप्रीमो कमजोर पड़ गए हैं। तमिलनाडु में दो पत्‍ि‌नयों, उनके बेटों, बेटियों, भतीजों-भतीजियों के बीच भीषण संघर्ष छिड़ गया है। इस लड़ाई को बंद करने में कांग्रेस कोई दखल नहीं दे रही है। वह तो किनारे बैठकर भविष्य के विकल्पों पर विचार कर रही है। पीएमके किसी भी पक्ष की विश्वासपात्र नहीं है। डीएमडीके विजेता गठबंधन के साथ जुड़ सकती है। अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता आराम से तमाशा देख रही हैं। सत्ता संघर्ष का ज्वार द्रमुक को खतरे में डाल सकता है। शंकालु द्रमुक तमिलनाडु में कांग्रेस को अपना आधार मजबूत करते हुए देखेगा। वह राहुल गांधी के प्रयासों की उपेक्षा नहीं कर सकती। द्रमुक परिवार के बहुत से सदस्य मुख्यमंत्री के। करुणानिधि के जीवनकाल में ही उत्तराधिकारी का मसला हल कर लेना चाहते हैं। अगर स्टालिन को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया जाता है तो अगले कुछ माह में वहां के हालात का जायजा लगा पाना कठिन होगा। ऐसा होने पर तमिलनाडु में उथल-पुथल का दौर शुरू हो सकता है, जो द्रमुक के भीतर तथा गठबंधन सदस्यों के बीच होगा। (लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

पंथ के आधार पर आरक्षण

पंथ के आधार पर आरक्षण प्रदान करने के दुष्परिणामों की ओर इंगित कर रहे हैं संजय गुप्त
आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा अपने यहां के मुस्लिम समुदाय को चार प्रतिशत आरक्षण देने के फैसले को उच्चतम न्यायालय ने अंतरिम मंजूरी देने के साथ मामले को जिस तरह संविधान पीठ के हवाले किया उससे एक नई बहस का माहौल तैयार हो गया है। आंध्र प्रदेश सरकार पिछले कई वर्षों से अपने यहां की मुस्लिम आबादी को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देने के लिए प्रयासरत थी, लेकिन उसके ऐसे हर प्रयास को आंध्र उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। वैसे तो देश के कुछ राज्यों में मुस्लिम समाज को अन्य पिछड़ा वर्ग घोषित करके आरक्षण की सुविधा दी गई है, लेकिन यह पहली बार है जब आंध्र प्रदेश सरकार ने पंथ के आधार पर इस समाज को आरक्षण प्रदान किया। यही कारण है कि उसे उच्च न्यायालय ने हर बार अमान्य किया। वैसे भी यह समझना मुश्किल है कि आंध्र प्रदेश का समस्त मुस्लिम समाज पिछड़ा कैसे हो सकता है? चूंकि भारतीय संविधान पंथ के आधार पर आरक्षण को अमान्य करता है इसलिए इस आधार पर आरक्षण देने की कोई भी कोशिश गंभीर परिणामों को जन्म दे सकती है। ऐसा आरक्षण भारतीय समाज के लिए अत्यन्त घातक भी साबित हो सकता है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में औसत मुस्लिम समाज शिक्षा के मामले में अन्य दूसरे समाजों से बहुत पीछे है। इसके चलते उसे गरीबी और अभावों से जूझना पड़ रहा है। आर्थिक रूप से पिछड़े होने के कारण मुस्लिम समाज देश की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो पा रहा है। देश में अनेक राजनीतिक दल ऐसे हैं जो मुस्लिम समाज के हितों के प्रति खास तौर पर सचेत नजर आते हैं, लेकिन उनकी यह सजगता सिर्फ इस समाज के वोट थोक रूप में प्राप्त करने के लिए ही अधिक है। इन राजनीतिक दलों के रवैये के चलते मुस्लिम समाज एक प्रकार की असुरक्षा की भावना से ग्रस्त दिखता है। समस्या यह है कि खुद को उसका हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं कि यह समाज असुरक्षा की भावना से मुक्त हो, क्योंकि ऐसा होने पर उनके लिए मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में एकजुट रखना और इसी आधार पर अपनी राजनीति चलाना मुश्किल हो जाएगा। देश में लगभग 16 प्रतिशत आबादी मुस्लिम समाज की है। भारत में इंडोनेशिया के बाद सबसे अधिक आबादी मुसलमानों की है। मुस्लिम आबादी के इतने प्रतिशत को देखते हुए उन्हें अल्पसंख्यक नहीं कहा जा सकता, लेकिन विडंबना यह है कि आज अल्पसंख्यक और मुस्लिम एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द बन गए हैं। मुस्लिम समाज की एक समस्या यह भी है कि उसमें राष्ट्रीय नेतृत्व का अभाव है। इस अभाव के कारण यह समाज इस या उस राजनीतिक दल को अपना हितैषी मानने के लिए विवश होता रहता है। मुस्लिम समाज का शैक्षिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ा होना कोई शुभ संकेत नहीं, क्योंकि यह पिछड़ापन एक तो उन्हें तमाम रूढि़यों से जकड़ रहा है और दूसरे खुद उसे तथा देश को आर्थिक तौर पर पीछे ढकेल रहा है। मुस्लिम समाज की यह स्थिति सामाजिक विषमता को बढ़ाने वाली भी है। मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाने आवश्यक हैं, लेकिन इसमंें संदेह है कि पंथ के आधार पर शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देने से इस समाज की समस्याओं का समाधान हो जाएगा। मुस्लिम समाज आजादी के बाद से ही कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक रहा है। बावजूद इसके कांग्रेस इस समाज की दशा सुधारने में सहायक नहीं हो सकी। ऐसा तब हुआ जब आजादी के 40 वर्षो तक देश में कांग्रेस का ही शासन रहा। समय के साथ मुस्लिम समाज का कांग्रेस से कुछ मोह भंग हुआ और वे अन्य राजनीतिक दलों के निकट चले गए, लेकिन उनके लिए भी वे एक वोट बैंक ही रहे। वर्तमान में भाजपा और शिवसेना को छोड़कर जो भी राजनीतिक दल खुद को मुस्लिम समाज का हितैषी बताते हैं वे इस समाज को एक वोट बैंक ही अधिक मानते हैं। समाज के किसी वर्ग, समुदाय का आरक्षण के आधार पर उत्थान करने की किसी कोशिश के पहले इस प्रश्न पर गौर किया जाना चाहिए कि क्या आरक्षण से अनुसूचित जातियों-जनजातियों का वास्तव में उद्धार हुआ है? इस प्रश्न पर इसलिए भी विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि एक ओर जहां उच्चतम न्यायालय ने मुस्लिम समाज को चार प्रतिशत आरक्षण देने की आंध्रप्रदेश सरकार की मांग स्वीकार कर ली वहीं दूसरी ओर रंगनाथ मिश्र आयोग की उस रपट को लागू करने की मुहिम तेज होती दिख रही है जिसमें धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की सिफारिश की गई है। पश्चिम बंगाल सरकार ने तो चुनावी लाभ लेने के लिए इस सिफारिश पर अमल की घोषण भी कर दी है। यह माना जा रहा है कि उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद केंद्र सरकार रंगनाथ मिश्र आयोग की रपट पर अमल की संभावनाएं तलाशेगी। इसके आसार इसलिए भी अधिक हैं, क्योंकि महिला आरक्षण विधेयक में मुस्लिम महिलाओं को अलग से आरक्षण देने की व्यवस्था नहीं है और इसी कारण सपा, बसपा, राजद और कुछ अन्य दल कांग्रेस को मुस्लिम विरोधी बताने में लगे हुए हैं। यदि उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के बाद रंगनाथ मिश्र आयोग की रपट पर अमल होता है तो आरक्षण की राजनीति एक नया रूप ग्रहण करेगी। यह समय ही बताएगा कि आरक्षण की मौजूदा राजनीति से कांग्रेस को कितना राजनीतिक लाभ मिलेगा, लेकिन यह तय है कि देश को आरक्षण की अन्य अनेक मांगों का सामना करना पड़ेगा। यह मांग तो अभी से उठनी शुरू हो गई है कि ईसाई और मुस्लिम दलितों को भी आरक्षण दिया जाए। नि:संदेह ईसाई और मुस्लिम दलित आर्थिक रूप से कमजोर हैं, लेकिन इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि इन लोगों ने मुख्यत: आर्थिक पिछड़ेपन से छुटकारा पाने के लिए ही धर्मातरण किया था। यदि एक बार पंथ के आधार पर किसी समाज को आरक्षण दिया गया तो अन्य समाज भी इसी आधार पर आरक्षण अवश्य मांगेंगे। क्या यह सही समय नहीं जब राजनीतिक दल इस पर विचार करें कि आखिर आरक्षण की यह राजनीति कहां खत्म होगी और क्या सामाजिक समरसता के नाम पर की जा रही यह राजनीति भारतीय समाज को विभाजित नहीं कर रही? इस आवश्यकता से कोई इनकार नहीं कर सकता कि समाज के वंचित, विपन्न एवं पिछड़े तबकों का उत्थान प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए, लेकिन क्या इसके लिए कोई ऐसा तरीका नहीं हो सकता जिससे वोट बैंक की राजनीति को और बढ़ावा न मिले तथा आरक्षण की राजनीति भारतीय समाज को बांटने का काम न करे? समाज का समग्र विकास करने का यह कोई आदर्श तरीका नहीं कि जाति, पंथ, क्षेत्र, भाषा के आधार पर आरक्षण का सिलसिला तेज होता जाए।
साभार :- दैनिक जागरण

कांग्रेस का मुस्लिम कार्ड

आंध्र प्रदेश में पंथ आधारित आरक्षण को कांग्रेस की तुच्छ राजनीतिक अवसरवादिता करार दे रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
पिछड़े मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण देने के आंध्र प्रदेश सरकार के फैसले पर सम्मति जताकर सुप्रीम कोर्ट ने शायद अनजाने में ही सामाजिक विप्लव के बीज बो दिए हैं, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे और ये पूरी तरह भारत के हित में नहीं होंगे। सच है कि पंथ आधारित आरक्षण जिस पर 1950 में सर्वसम्मति नहीं बन पाई थी, सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण संवैधानिक पीठ को सौंप दिया गया है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने में समय लग सकता है, फिर भी आंध्र प्रदेश को मिली अनुमति निश्चित तौर पर आरक्षण की नई महामारी का आधार बनेगी। सामाजिक इंजीनियरिंग का नया अखाड़ा पहले ही तैयार हो चुका है। रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट में मुसलमानों को 10 प्रतिशत और दलित ईसाइयों को अतिरिक्त कोटे की अनुशंसा पर कांग्रेस का ध्यान है, जो महिला आरक्षण विधेयक को लेकर मुसलमानों की तीखी प्रतिक्रिया को ठंडा करने के उपाय तलाश रही है। पार्टी की दोषपूर्ण नीतियों में नए समीकरण तैयार किए जा रहे हैं। कांग्रेस पिछड़ी जातियों और मुसलमानों की उभरती एकता को पहले से जारी पिछड़े कोटे में मुसलमानों की हिस्सेदारी के आधार पर खंडित करना चाहती है, क्योंकि पिछड़ी जातियों में, खासतौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में, 1967 के बाद से कांग्रेस को समर्थन देने का रुझान नहीं रहा है, इसलिए सर्वश्रेष्ठ चुनावी रणनीति यही है कि आरक्षण के आधार पर मुसलमानों को लुभाया जाए। दक्षिण भारत में दलित ईसाई और मुस्लिम वोट कांग्रेस के लिए अतिरिक्त रूप से फायदेमंद होंगे। वस्तुत: जब महिला आरक्षण विधेयक से अनपेक्षित रूप में शक्तियों के नए समीकरण बन गए तो कांग्रेस ने इस मामले को ठंडे बस्ते में डालना उचित समझा। उसकी हिचक का कारण यह विश्वास है कि मुस्लिम कोटे से भाजपा में नई जान पड़ जाएगी और उच्च जातियां भाजपा की तरफ झुक जाएंगी। कांग्रेस मानती थी कि सामान्य परिस्थितियों में भाजपा के हाथ से उच्च जातियां और मध्यवर्ग फिसल जाएगा, विशेष तौर पर अगर कांग्रेस का पुनरुत्थान होता है। यह दिलचस्प है कि भाजपा के भय का अनेक मुस्लिम संगठनों को एहसास नहीं हुआ। उनका आकलन था कि आंतरिक तौर पर बंटी हुई भाजपा हिंदू वोटों को अपने पक्ष में नहीं रख पाएगी और इसलिए पंथ आधारित आरक्षण के लिए कांग्रेस पर दबाव बनाना चाहिए। महिला आरक्षण विधेयक और आंध्र प्रदेश फैसले के बाद मुस्लिम संगठन कांग्रेस की कमजोर नस पर हाथ रखकर उस पर दबाव बढ़ाना शुरू कर देंगे। जहां तक भाजपा का सवाल है, मुस्लिम गुट दीर्घकालीन Oास के अपने पुराने आकलन में संशोधन नहीं कर रहे हैं। घात-प्रतिघात के इस जटिल खेल से भारत की बदरंग तस्वीर उभर रही है। 2009 की चुनावी जीत को कांग्रेस जिस हक की राजनीति की उपज मान रही थी, अब वह पूरी तरह उन्माद में बदल गई। अगर महिला आरक्षण विधेयक असमान लैंगिक आधारित खामी के रूप में स्वीकारता है तो रंगनाथ रिपोर्ट देश को पंथिक खेमों में बांटती है। 1950 में संविधान लागू होने के बाद से सांप्रदायिक निर्वाचन और पंथ-आधारित आरक्षण का कोई दूसरा उदाहरण देखने को नहीं मिलता। संवैधानिक सभा का मानना था कि देश के बंटवारे के लिए पंथिक मतभेदों का संस्थानीकरण जिम्मेदार है और वह इस प्रक्रिया का दोहराव न होने देने के लिए प्रतिबद्ध थी। 28 अगस्त, 1947 को संविधान सभा में मुस्लिम लीग के बचे हुए सदस्यों को संबोधित करते हुए सरदार वल्लबभाई पटेल ने दोटूक कहा, अतीत को भूल जाओ। आप जो चाहते थे, आपने पा लिया। आपको एक अलग राष्ट्र मिल गया और याद रखें कि आप ही वे लोग हैं, जो इसके लिए जिम्मेदार हैं, वे नहीं जो पाकिस्तान में रह गए हैं..आपने देश का विभाजन कराया और मुझसे चाहते हैं कि अपने छोटे भाइयों का स्नेह प्राप्त करने के लिए मैं फिर से देश को विभाजित करूं। अगस्त 1947 में अलगाववादी शक्तियों के दबाव में न आने का कांग्रेस में जो सुस्पष्ट संकल्प दिखाई दे रहा था, अब वह मुर्झा गया है। इसका कारण अधिकारों की नई खोज नहीं है, बल्कि सीधा-सादा विचार है कि ठोस मुस्लिम वोट बैंक 75 से 120 लोकसभा सीटों के परिणाम पर असर डालता है किंतु कोई भी ऐसी सांगठनिक शक्ति नहीं है, जो इसका इस्तेमाल कर सके। जिस दिन ऐसी प्रतिरोधक शक्ति उभरकर सामने आएगी, उसी दिन कांग्रेस अलगाववादी दबाव के सामने और समर्पण कर देगी। 1947 में कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज पार्टी थी, जिसका अपना जनाधार था। 2010 में कांग्रेस अन्य पार्टियों के समान हो गई है, जिसका अपना पक्का वोट बैंक नहीं है। एक तरह से यह आज के भारत की वास्तविक त्रासदी है। देश के राजनीतिक विखंडन में एक प्रतिबद्ध, सुसंगठित अल्पसंख्यक समुदाय मौके की नजाकत का फायदा उठा लेने की ताक में है, चाहे इसके लिए उसे संविधान को उलटना ही क्यों न पड़े। अगर संप्रग सरकार रंगनाथ मिश्रा के बताए रास्ते पर चलती है तो यह पूरे देश के लिए खतरनाक संदेश होगा। 2009 में मध्य वर्ग के मतदाताओं ने उकसाऊ राजनीति को नकार दिया और एक संयत, उदार व आधुनिक रुख का समर्थन किया। अगर कांग्रेस दुर्भाग्यपूर्ण अतीत के भूत को फिर से जगाती है और पंथिक आग्रहों को उभारती है तो यह जनादेश का मखौल होगा। आधुनिक भारतीय पहचान की चिंता न करें, सत्तारूढ़ दल हमें हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई बनने की नसीहत दे रहा है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

टर्मिनेटर बीजों का प्रयोग

देश में बीटी बैगन का विवाद थमा भी नहीं था कि बिहार में एक और बड़ा हादसा हो गया। मक्का यहां की प्रमुख फसल है। जिन किसानों ने पूसा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित बीज या अपने परंपरागत बीज बोए थे उनके पौधों में दाने भरपूर हैं। लेकिन लगभग दो लाख एकड़ भूमि में टर्मिनेटर सीड (निर्वश बीजों) का प्रयोग किया गया। इसके पौधे लहलहाए जरूर लेकिन उनमें दाने नहीं निकले। जिन किसानों ने टर्मिनेटर बीजों का प्रयोग किया, उनके खेतों में पौधों से दाने गायब थे। किसानों ने इन बीजों को 180 से 285 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर खरीदा था। खाद, बीज सिंचाई, मेहनताना सब मिलाकर प्रति एकड़ लगभग 10 हजार रुपये की लागत आई थी। यानी 25 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर। 80 प्रतिशत किसानों ने महाजनों से पांच रुपये प्रति सैकड़ा/ महीना की दर पर कर्ज लेकर खेती की थी। बड़ी जद्दोजहद के बाद मुख्यमंत्री ने स्वीकार किया कि एक लाख उनसठ हजार एकड़ (63 हजार हेक्टेयर) में मक्के की फसल में दाने नहीं आए। सरकार ने प्रति हेक्टेयर 10 हजार रुपये (यानी प्रति एकड़ सिर्फ चार हजार रुपये) मुआवजा देने की घोषणा की है। यह रकम खेत में लगी लागत के आधे से भी कम है। मुआवजा तो लागत के अतिरिक्त फसल की संभावित उपज के आधर पर दी जानी चाहिए थी। फिर जो किसान दूसरों से बटाई पर जमीन लेकर खेती कर रहे थे उनको तो एक पाई भी नहीं मिलेगी। आज से सात साल पूर्व 2003 में भी बिहार में ऐसा ही हादसा हुआ था। तब टर्मिनेटर (निर्र्वश) बीजों के प्रयोग के कारण फसल में दाने नहीं आए थे। देश में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां टर्मिनेटर बीजों का व्यापार करती हैं। इन बीजों से उत्पादित मक्का, गेहूं, टमाटर या कपास को खेत में दोबारा नहीं उगाया जा सकता। आखिर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किसने यह अधिकार दिया कि इस प्रकार किसानों को अंधेरे में रखकर बड़े पैमाने पर अपने बीजों का ट्रायल करें। इन कंपनियों को इस गफलत के लिए कानूनी घेरे में लिया जाना चाहिए और उनसे किसानों के हर्जाने की भरपाई करानी चाहिए। उन पर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए। इसी तरह कृषि विभाग के जो अधिकारी इन बीजों के प्रयोग की छूट देने के लिए जिम्मेदार हैं उन्हें भी जेल भेजा जाना चाहिए। सन 2002 में मध्य प्रदेश में किसानों को प्रलोभन देकर दस हजार एकड़ में बीटी कपास की खेती करा‌र्‌र्र्ई ग‌र्‌र्र्ई। पूरी फसल बर्बाद हो ग‌र्‌र्र्ई। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात तथा अन्य राज्यों में भी जीएम बीजों के कारण फसल बर्बाद हुई है और वहां के किसान लगातार इसका विरोध कर रहे हैं। टर्मिनेटर बीज बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां मूलत: रसायन बनाने वाली कंपनियां हैं। इन बड़ी कंपनियों की वैश्विक आय का आधा खरपतवार नाशकों तथा अन्य रसायनों से आता है। आज दुनिया भर के जेनेटिकली मोडिफायड बीजों के व्यापार का अधिकांश इन्हीं कंपनियों के हाथों में है। ये कंपनियां राजनेताओं, नौकरशाहों और कृषि वैज्ञानिकों को आर्थिक लाभ पहुंचाकर अपने पक्ष में फैसले करवाने के लिए कुख्यात हैं। यह ध्यान रहे कि पूरे विश्व में निर्वंश बीजों का विरोध हो रहा है। यूरोप के कई देशों में इन पर प्रतिबंध भी लगाया गया है। खेती में जहरीले रसायनों के प्रयोग से पंजाब में कैंसर तथा अन्य घातक बीमारियों को तेजी से प्रसार हुआ है। वहां के खेत ऊसर होते जा रहे हैं। अनाज का कटोरा कहे जाने वाले इस प्रदेश में किसानों की हालत बिगड़ती जा रही है और वे आत्महत्या के लिए विवश हो रहे हैं। बड़ी-बड़ी बीज कंपनियों की लोलुप नजरें विकासशील देशों की जैव विविधता पर लगी हैं। एक ओर ये जीएम बीज बनाकर उनका पेंटेंट करा रही हैं और दूसरी ओर बीजों का एकाधिकार कायम करने के लिए निर्वंश बीजों के द्वारा हमारे बीजों के भंडार तथा हमारी जैव विविधता को नष्ट कर रही हैं। जिन खेतों में निर्वंश बीजों का प्रयोग होता है उसके आस-पास की दूसरी फसलों पर भी इनके पराग फैल जाते हैं और उन फसलों के बीजों को भी निर्र्वश कर देते हैं। यह माना जा रहा है कि निर्वंश बीजों से उपजे पौधों में जहरीले रसायन उत्पन्न होते हैं, जो किसी खास कीट को तो नष्ट कर देते हैं लेकिन अन्य प्रकार के कीटों को मारने के लिए अन्य जहरीले रसायनों का प्रयोग करना पड़ता है। यही नहीं, रासायनिक फर्टिलाइजर तथा सिंचाई की भी इसमें भरपूर जरूरत पड़ती है। इनके पौधे जहरीले हो जाते हैं इसलिये चारे के रूप में इन्हें खा कर पशु बीमार पड़ते हैं और कई बार मरते भी हैं।
साभार:-दैनिक जागरण

क्यों सजती है लड़कियां


क्यों सजती है लड़कियां, कहीं ये उनकी मजबूरी तो नहीं हैं। किसी भी क्षेत्र की बात करें तो वहां पर काम करने वाली हर लड़की मेकअप करके ही वहां जाती है। कालेज, बाजार में घूमने, दफ्तर में, यहां तक की पड़ोस के किसी मंदिर में भी पूजा के लिए जाते वक्त भी वो मेकअप करती है। मेरे हिसाब से 70 फीसदी से अधिक लड़कियां खुद को सजा कर रखना चाहती है।सप्ताह में एक बार पार्लर में जाना. फैशियल करवाना, आईब्रो बनवाना कई तरह के सोन्दर्य प्रशाधन है, जिनका वो इस्तेमाल करती है। क्यों..

वहीं अगर बात करें लड़कों की तो लड़कियों की अपेक्षा वे सोन्दर्य प्रसाधनों में कम विश्वास रखते है। कभी कभी बगैर शेविंग किये ही कई भी चले जाते है कैसे भी कपड़े पहना उन्हें पसंद है फिर चाहे वो गंदे ही क्यों हो.. और लड़के शायद ही 20 फीसदी ऐसे हो जो मेकअप अथवा सोन्दर्य प्रसाधन का प्रयोग करते हो। वो अपनी हर परिस्थियों को जबरन फैशन और नया ट्रेन्ड मान कर समय के साथ समझौता कर लेते है। लड़कियां ऐसा क्यों नहीं कर पाती है। आखिर क्यों सजती है लड़कियां...

विडंबनाओं से भरा देश

विश्व के सबसे धनी उद्योगपतियों और भूख से मरते लोगों के बीच टूटे सूत्रों को जोड़ रहे हैं महीप सिंह
भारत बड़ी तेजी से आर्थिक विकास की सीढि़यां चढ़ रहा है। संसार के दस सबसे धनवान व्यक्तियों में तीन भारत के हैं। हमारे देश के भगवान भी संपन्नता में किसी से पीछे नहीं हैं। संसार में शायद ही कोई ऐसा धर्मस्थल हो जो तिरुपति स्थित बालाजी मंदिर का मुकाबला कर सके। इस मंदिर में समृद्ध भक्तजनों द्वारा जो चढ़ावा चढ़ाया गया है, उसका मूल्य 30 से 50 हजार करोड़ रुपये है। पिछले वर्ष कर्नाटक के पर्यटन मंत्री और बेल्लारी खदानों के मालिक जी. जनार्दन रेड्डी ने इस मंदिर में 42 करोड़ रुपये मूल्य का हीरो-मोतियों से जड़ा मुकुट चढ़ाया था। इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। भारत में आज भी लगभग 40 करोड़ लोग गरीब हैं जिनकी आय 50 रुपये रोजाना भी नहीं है। इस देश के आधे से अधिक लोग कुपोषण के शिकार हैं। विश्व खाद्य कार्यक्रम के अनुसार संसार में भुखमरी की शिकार कुल आबादी का एक-चौथाई भारत में हैं। भारत गेहूं और चावल के उत्पादन में संसार में दूसरे स्थान पर है। सरकारी गोदामों में पांच करोड़ टन अनाज सदा जमा रहता है। इतने विशाल खाद्य भंडार के बावजूद भूख से मरने वालों के समाचार आए दिन समाचार पत्रों में आते रहते हैं। ताजा समाचार यह है कि आदिवासी बाहुल्य बस्तर संभाग के बीजापुर जिले से काम की तलाश में आंध्र प्रदेश गए पांच आदिवासियों की रास्ते में भूख-प्यास के कारण मौत हो गई। भूख से मरने वालों के ऐसे समाचार उड़ीसा, बिहार, आंध्र प्रदेश, बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों से यदा-कदा आते रहते हैं। क्या यह विडंबना नहीं है? एक ओर अमेरिका के बाद सबसे अधिक अरबपति भारत में हैं और दूसरी ओर संसार के सबसे अधिक गरीब और कुपोषण के शिकार भी इसी देश में हैं। यदि कुछ लोग भूख-प्यास से दम तोड़ दें तो इससे बड़ा कलंक और अपराध कोई हो ही नहीं सकता। इस देश में न कभी धन की कमी रही न धान्य की। मध्य एशिया के कबाइली आक्रांता सदैव इन दो चीजों को लूटने के लिए इस देश में आते थे। विदेशी आक्रमणकारी या तो यहां के छोटे-बड़े राजाओं को लूटते थे या मंदिरों को। अकूत धन इन दोनों के पास होता था। आज भी स्थिति लगभग वैसी ही है। देश का सारा धन तीन स्थानों पर केंद्रित है उद्योगपति, राजनेता और मठ-मंदिर। सामान्य जनता पहले भी लुटती थी, आज भी लुटती है। केंद्र सरकार में एक मंत्रालय है- गरीबी उन्मूलन मंत्रालय। प्रश्न यह है कि क्या इस मंत्रालय की योजनाएं उन क्षेत्रों तक पहुंच रही हैं जहां आज भी गरीबी सबसे बड़ी व्याधि बनी हुई है। यह असंतुलन कैसे दूर होगा? यह सही है कि अच्छी चिकित्सा सुविधाओं और स्वास्थ्य संबंधी बढ़ती जागरूकता के कारण देश के लोगों की औसत आयु बढ़ी है। किंतु क्या ऐसी सुविधाएं और जागरूकता उन लोगों तक भी पहुंच रही हैं, जिनकी गणना 40 करोड़ से अधिक है और जो उन भागों में रहते हैं जहां विकास का प्रकाश पहुंचने में लंबा समय लग रहा है। सरकार को एक घोषणा तुरंत करनी चाहिए कि इस देश में किसी को भूख से मरने नहीं दिया जाएगा। इसके लिए दंड विधान होना चाहिए। जिस भी क्षेत्र में किसी व्यक्ति की मृत्यु भूख-कुपोषण के कारण होती है तो वहां के जिलाधिकारी के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। देश के गोदामों में आज भी पांच करोड़ टन अनाज भरा हुआ है। यह भी आशा जताई जा रही है कि इस वर्ष अनाज की भरपूर पैदावार होगी। सरकार की ओर से यह चिंता व्यक्त की जा रही है कि इस भरपूर पैदावार को कहां रखा जाएगा क्योंकि सरकारी खाद्यान्न भंडारों में इतना स्थान नहीं है। यह भी कैसी विडंबना है कि एक ओर करोड़ों व्यक्ति अनाज के अभाव में भूखे हैं और दूसरी ओर गोदामों में अनाज भरा पड़ा है। कई बार तो अच्छे रख-रखाव के अभाव में बड़ी मात्रा में यह सड़ जाता है। क्या इस देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कही बहुत बड़ा दोष है? क्या इस क्षेत्र में फैला भ्रष्टाचार इतना व्यापक है कि थोड़े से अनाज के लिए त्राहि-त्राहि करते लोगों तक वह पहुंच नहीं पाता। मेरे मन में प्रश्न उठता है कि क्या हमारे देश के अरबपति और अत्यंत समृद्ध धर्म-स्थल देश के असंख्य लोगों की विपन्नता दूर करने में कुछ नहीं कर सकते? संकट यह है कि सभी करोड़पति और अरबपति मूलत: व्यापारी हैं। एक व्यापारी धन खर्च नहीं करता, वह धन का निवेश करता है। जहां कहीं भी वह दान करता है, वह आशा करता है कि भगवान उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसकी समृद्धि में और बढ़ोतरी करेगा। जिस व्यक्ति ने बालाजी के लिए 42 करोड़ रुपये का मुकुट भेंट किया, उसके पास कितना धन होगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। किंतु वह भी संसार के गिने-चुने अरबपतियों में अपनी गणना करवाना चाहता होगा। उसका विश्वास हेागा कि तिरुपति के बालाजी की एक अनुकंपा भरी दृष्टि उसे गन्तव्य तक पहुंचा सकती है। जी. जनार्दन रेड्डी ने इस अनुकम्पा को पाने के लिए 42 करोड़ रुपये का निवेश कर दिया। जिस भगवान के संबंध में हम बचपन से सुनते आए हैं उसे दरिद्रनारायण कहा जाता है। यदि आज बालाजी के पास पचास हजार करोड़ की संपत्ति है तो क्या उसका उपयोग दरिद्रों और गरीबों के लिए नहीं होना चाहिए? उसे अनेक सुरक्षा कर्मियों की बंदूकों की छाया में बंद रखने की क्या आवश्यकता है? गरीबी उन्मूलन में स्वयंसेवी संगठन भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। लगता है कि इस देश की प्राथमिकताओं में कुछ गड़बड़ है। हम 25 करोड़ रुपये की लागत से अयोध्या में भव्य राम मंदिर अवश्य बनाना चाहते है किंतु यदि कुछ राम-भक्त भूख से तड़पते हुए मर जाएं, तो वह हमारी चिंता का विषय नहीं है। (लेखक जाने-माने साहित्यकार हैं)

कांग्रेस का नया कार्यक्रम

बच्चन परिवार को अवांछित करार देने के कांग्रेस के कृत्य को घटिया राजनीति बता रहे हैं राजीव सचान
यह लज्जास्पद ही नहीं, बल्कि घृणास्पद भी है कि देश का नेतृत्व कर रही कांग्रेस देश-दुनिया की समस्याओं से जूझने की बजाय यह सुनिश्चित करने में लगी हुई है कि हिंदी फिल्मों के अप्रतिम अभिनेता अमिताभ बच्चन और उनके परिवार को कैसे अपमानित और लांछित किया जाए? यदि कांग्रेस महज एक राजनीतिक दल के रूप में ऐसा क्षुद्र आचरण कर रही होती तो उसका किन्हीं तर्को-कुतर्को के साथ बचाव किया जा सकता था, लेकिन आखिर कांग्रेस शासित केंद्र एवं राज्य सरकारें किसी भारतीय नागरिक को अवांछित कैसे घोषित कर सकती हैं और वह भी तब जब उस नागरिक का नाम अमिताभ बच्चन हो? कांग्रेस को अमिताभ से असहमत होने और यहां तक कि उनका विरोध करने का अधिकार है, लेकिन उसके मंत्री और मुख्यमंत्री उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार कैसे कर सकते हैं? क्या अमिताभ बच्चन देशद्रोही हैं? यह संभव है कि कांग्रेस की ओर से जो राजनीतिक तुच्छता दिखाई जा रही है उससे अमिताभ बच्चन की सेहत पर फर्क न पड़े, लेकिन यह तथ्य आम भारतीयों को ग्लानि से भर देने वाला है कि विनम्र-विद्वान छवि वाले मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए आम कांग्रेसी नहीं, बल्कि उसके मंत्री-मुख्यमंत्री देश के सबसे लोकप्रिय अभिनेता की बेइज्जती कर रहे हैं? कांग्रेस अपने ऐसे आचरण के जरिये एक तरह से यह कहने में लगी हुई है कि आओ, हमसे सीखो कि अमिताभ बच्चन जैसे शख्स को कैसे बेइज्जत किया जा सकता है? यह सही है कि अमिताभ बच्चन गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर बन गए हैं, लेकिन क्या यह कोई गुनाह है? क्या गुजरात देश के बाहर का कोई ऐसा हिस्सा है जहां से भारत विरोधी गतिविधियां चलाई जा रही हैं? हालांकि अमिताभ बच्चन यह स्पष्टीकरण दे चुके हैं कि वह गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर हैं, नरेंद्र मोदी के नहीं, फिर भी अनेक लोगों को उनका फैसला रास नहीं आया है और वे उनकी आलोचना कर रहे हैं। इस आलोचना में कोई बुराई नहीं, बुराई इसमें है कि महाराष्ट्र, दिल्ली की सरकारों के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता के प्रतिनिधि अमिताभ बच्चन को अवांछित बताने का काम कर रहे हैं। चूंकि अशोक चव्हाण के साथ-साथ कांग्रेस के एक प्रवक्ता साफ तौर पर कह चुके हैं कि सरकारी कार्यक्रमों में बच्चन की मौजूदगी मंजूर नहीं है इसलिए इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं कि बिग बी को अपमानित करने का फैसला कांग्रेसी सरकारों का नीतिगत निर्णय है। आखिर ऐसा भी नहीं है कि गुजरात का ब्रांड एम्बेसडर बनना कोई गैर कानूनी कृत्य हो। अभी यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर के रूप में उसी तरह का काम करेंगे जैसा उन्होंने मुलायम सिंह के शासन में उत्तर प्रदेश का ब्रांड एम्बेसडर बनकर किया था। तब वह कहा करते थे कि यूपी में दम है..। हो सकता है कि वह गुजरात के बारे में भी ऐसा ही कुछ रहें या फिर केवल इस राज्य की प्राकृतिक-सांस्कृतिक विरासत का गुणगान करें। संभव है कि लोगों को उनकी ओर से गुजरात की तारीफ में जो कुछ कहा जाए वह पसंद न आए, लेकिन क्या इसके आधार पर उनके किसी राज्य के ब्रांड एम्बेसडर बनने के अधिकार पर कुठाराघात किया जा सकता है? दिल्ली में आयोजित अर्थ ऑवर शो प्रतीकात्मक ही सही, एक बड़े उद्देश्य के लिए था। कांग्रेसजनों को इस शो के ब्रांड एम्बेसडर अभिषेक बच्चन के पोस्टर हटाने अथवा हटवाने के पहले इस पर लाज क्यों नहीं आई कि कम से कम ग्लोबल वार्मिग के प्रति आम जनता को जागरूक बनाने के इस कार्यक्रम में संकीर्णता दिखाने से बचा जाए? अर्थ ऑवर शो में हुए अनर्थ पर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की इस सफाई पर आश्चर्य नहीं कि उन्हें नहीं पता कि अभिषेक इस कार्यक्रम के ब्रांड एम्बेसडर हैं। चूंकि बच्चन परिवार की बेइज्जती का कांग्रेसी कार्यक्रम शासनादेश जारी कर नहीं चलाया जा रहा इसलिए शीला दीक्षित को झूठ का सहारा लेना पड़ा। इसके पहले अमिताभ के भय से जयराम रमेश बाघ बचाओ अभियान के कार्यक्रम से गायब रहे। इसी तरह अशोक चह्वाण को पुणे में आयोजित एक साहित्यिक कार्यक्रम में एक दिन पहले हाजिरी बजानी पड़ी। इस पर गौर करें कि कांग्रेसजन कैसे कार्यक्रमों में अपनी ओछी राजनीति का परिचय दे रहे हैं-अर्थ ऑवर शो में, बाघ बचाओ अभियान में और मराठी साहित्य सम्मेलन में। कम से कम ऐसे कार्यक्रमों को तो घटिया राजनीति से दूर रखा ही जा सकता था। बीते दिनों कांग्रेस के आग्रह के बावजूद मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने गांधी नगर में उस समारोह में शिरकत की जिसमें नरेंद्र मोदी भी थे। क्या अब कांग्रेस उनका भी अमिताभ बच्चन की तरह विरोध करेगी? बेहतर होगा कि कांग्रेस बच्चन परिवार को कानूनी रूप से अवांछित घोषित करा दे। तब कम से कम कांग्रेसी नेता अमिताभ-अभिषेक से कन्नी काटने के लिए झूठ का सहारा लेने से तो बच जाएंगे। माना कि कांग्रेस को नरेंद्र मोदी से चिढ़ है और वह उनके साथ खड़े होने वालों को भी बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं, लेकिन क्या इस तथ्य को झुठला दिया जाए कि वह भारत के एक प्रांत के मुख्यमंत्री भी हैं और उन्हें ठीक उसी तरह लोगों ने चुना है जैसे शीला दीक्षित और अशोक चह्वाण को? क्या अब कांग्रेस अमिताभ बच्चन की तरह रतन टाटा, मुकेश अंबानी आदि को भी अवांछित करार देगी, क्योंकि ये दोनों न केवल गुजरात में भारी निवेश कर रहे हैं, बल्कि मोदी की तारीफ भी कर रहे हैं? क्या मुख्यमंत्रियों के अगले सम्मेलन में कांग्रेसी राज्यों के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को घुसने से रोकेंगे या फिर उनके आते ही सम्मेलन छोड़कर चले जाएंगे? (लेखक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)

मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की-ब्रज की दुनिया

यह कहावत पुराने ज़माने में शायद किसी वैद्य ने किसी न ठीक न होने वाली बीमारी के ईलाज के दौरान परेशान होकर कहा होगा.लेकिन आदमी को होनेवाली सभी पुरानी बिमारियों का ईलाज तो ढूँढा जा चुका है.कुछ नई बीमारियों पर भी शोध कार्य जारी है.मगर कोई देश अगर किसी लाईलाज बीमारी से ग्रस्त हो जाए तो.हमारा देश भी एक बहुत-ही पुरानी बीमारी से ग्रस्त है और जैसे-जैसे दवा की डोज़ बढ़ाई जा रही है वह बीमारी भी बढती जा रही है.मुग़ल शासन के समय भी भ्रष्टाचार था लेकिन सब्जी में नमक की तरह इसकी मात्रा काफी कम थी.अंग्रेजों ने येन-केन-प्रकारेण भारत को लूटा क्योंकि वे लूटने के लिए ही आये थे.फ़िर भी भ्रष्टाचार अभी पूड़ी में तेल की तरह काफी कम थी.लोगबाग अब भी कानून और समाज से डरते थे.आजादी मिलने के बाद भ्रष्टाचार की नाली दिन-ब-दिन चौड़ी होती गई अब उसने महासागर का रूप ले लिया है.महासागर भी इतना बड़ा और गहरा कि जिसमें हमारा देश डूब भी सकता है.आजादी के बाद नेहरु और शास्त्री के समय तक भ्रष्टाचार का दानव नियंत्रण में था लेकिन महत्वकांक्षी इंदिरा गांधी के समय इसने संस्थागत रूप ग्रहण करना शुरू कर दिया.वैसे नेहरु के समय ही जीप घोटाला के नाम से पहली बार उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार देश के सामने आया था.लेकिन तंत्र अब भी काफी हद तक स्वच्छ था.कम-से-कम हमारे शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के बारे में आंख मूंदकर यह दावा किया जा सकता था.लेकिन इंदिरा जी ने राजनीति की समस्त मान्यताओं और परिभाषाओं को ही बदल कर रख दिया.भाई-भतीजावाद और घूसखोरी अब अपराध नहीं बल्कि कला बन गई.कुर्सी बचाने के लिए उन्होंने देश को आपातकाल की आग में झोंक दिया.विपक्षी दलों के शासनवाले राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगा देना तो जैसे उनके लिए रोजाना की बात थी.पूरे भारत में सत्ता का अब एक ही केंद्र बच गया.संवैधानिक निष्ठा के बदले आलाकमान के प्रति निष्ठा का महत्व ज्यादा हो गया.इंदिराजी का स्थान अब संविधान से तो ऊपर हो ही गया उनके कई चाटुकार तो उन्हें ही भारत भी मानने लगे.आपातकाल के बाद सत्ता तो विपक्ष के हाथों आ गई लेकिन भ्रष्टाचार पर कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा.इंदिराजी की हत्या के बाद उनके पुत्र १९८४ में सत्तासीन हुए.लेकिन न तो वे भारत को समझ पाए और न ही भारत उन्हें समझ पाया और जब तब ये दोनों एक दूसरे को समझ पाते राजीवजी की आयु ही समाप्त हो गई.इस बीच वी.पी. और चंद्रशेखर की सरकारों पर उस तरह तो भ्रष्टाचार के सीधे आरोप नहीं लगे जैसे राजीव गांधी की सरकार पर लगे थे लेकिन चंद्रास्वामी जैसे लोगों की बन जरूर आई.राजीव जी के समय बोफोर्स तोप घोटाला सामने आया और देश को पता चला कि लगभग सभी रक्षा खरीद में दलाली और कमीशनखोरी होती है.यानी अब हमारे देश की सुरक्षा भी भ्रष्टाचार के कारण खतरे में है.फ़िर केंद्र में आये नरसिंह राव जी जिनका अधिकतर समय उनके दफ्तर में नहीं बल्कि कोर्ट-कचहरी का चक्कर काटते बीतता था.हवाला कांड से लेकर पेट्रोल पम्प आवंटन घोटाला और दूरसंचार घोटाला तक कितने ही घोटाले राव साहब के समय सामने आये और समय की धूल के नीचे दबकर रह गए.किसी भी मंत्री को सजा नहीं हुई.पंडित सुखराम तो बाद में हिमाचल में किंग मेकर बनकर भी उभरे.इसी दौरान मंडल आयोग के रथ पर सवार होकर लालू दोबारा बिहार के मुख्यमंत्री बने.अचानक मुख्य परिदृश्य पर आगमन हुआ एक बेहद ईमानदार सी.बी.आई. अफसर यू.एन.विश्वास का.बिहार में रोज-रोज नए-नए घोटालों का पर्दाफाश होने लगा.चारा से लेकर अलकतरा तक लालू मंडली खा-पी गई.लालू जेल भी गए लेकिन हाथी पर सवार होकर मानों भ्रष्टाचार के मामले में जेल जाना गौरव की बात हो.बाद में यू.एन.विश्वास के रिटायर हो जाने के बाद सी.बी.आई. भी सुस्त पड़ गई और कई बार तो ऐसा भी लगा कि वह लालू को सजा दिलाने के बदले उसे बचाने का प्रयास ज्यादा गंभीरता से कर रही है.वैसे भी वह अपने ६९ साल के इतिहास में आज तक किसी भी राजनेता को सजा कहाँ दिलवा पाई है? बाद में उत्तर प्रदेश की दलित मुख्यमंत्री मायावती का माया से लगाव के कई मामले भी उजागर हुए.लेकिन इससे उनके राजनीतिक भविष्य पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि उनका वोट-बैंक और भी तेजी से बढ़ता गया और वे इस समय अकेले ही उत्तर प्रदेश में सत्ता चला रही हैं.इसी तरह लालूजी भी भ्रष्टाचार के मामले उजागर होने के बाद भी ८ साल तक सत्ता में बने रहे.सी.बी.आई. और अन्य भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियां तो सरकारी हुक्म की गुलाम हैं लेकिन सबसे दुखद बात तो यह है कि जनता भी भ्रष्टाचार को मुद्दा नहीं मानती है और उनके बीच यह सोंच विकसित होती जा रही है कि ऐसा तो होता ही है.यह उदासीनता ही देश के लिए सबसे खतरनाक है क्योंकि जनता किसी के हुक्म की गुलाम नहीं है.किसी को सत्ता में पहुँचाना और सत्ता से निकाल-बाहर कर देना उनके ही हाथों में तो है.क्यों और कैसे एक भ्रष्ट नेता जाति-धर्मं के नाम पर जनता को बरगलाकर चुनाव-दर-चुनाव जीतता जाता है?बिहार में २००५ में नीतीश कुमार चुनाव जीते लेकिन रा.ज.द. सरकार के समय सर्वत्र व्याप्त भ्रष्टाचार इस चुनाव में मुद्दा नहीं था बल्कि वे इसलिए चुनाव जीते क्योंकि इस बार जातीय समीकरण उनके पक्ष में था.उन्होंने वर्षों से सो रहे निगरानी विभाग को जगाया और रोज-रोज भ्रष्ट कर्मी और अफसर रंगे हाथ पकड़े जाने लगे.लेकिन नीतीश भ्रष्टाचार पर प्रभावी प्रहार करने में अब तक असफल रहे हैं क्योंकि अब निगरानी विभाग के अफसर और कर्मी खुद ही घूस खाने लगे हैं.अब इन्हें कौन पकड़ेगा और कौन इनके खिलाफ जाँच करेगा?निगरानी की चपेट में आये कई कर्मी-अफसर घूस देते पकडे जाओ तो घूस देकर छूट जाओ का महान और स्वयंसिद्ध फार्मूला अपनाकर फ़िर से अपने पुराने पदों पर आसीन होने में सफल रहे हैं और फ़िर से भ्रष्टाचार में डूब गए हैं.नरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए बिहार सरकार ने प्रत्येक जिले में लोकपाल की नियुक्ति करने का निर्णय लिया है लेकिन लोकपालों की ईमानदारी पर कौन ईमानदारी से नज़र रखेगा?लोकपाल भी भ्रष्टाचार में लिप्त हो गए तो सरकार के सामने कौन-सा विकल्प बचेगा?कुल मिलाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ तंत्र बनाने या बढ़ाने से इस महादानव की सेहत पर कुछ भी असर नहीं आनेवाला.आवश्यकता है मजबूत ईच्छाशक्ति की.अगर सरकार दृढ़तापूर्वक चाह ले तो वर्तमान तंत्र से भी अच्छे परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं.केंद्र सरकार ने इस बार के बजट में केंद्रीय सतर्कता आयोग के बजट में ही कटौती कर दी है.क्योंकि सरकार का मानना है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लग ही नहीं सकता इसलिए उसने बुरा मत देखो की नीति अपना ली है.भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध में पहली और अंतिम उम्मीद सिर्फ जनता है क्योंकि वही किसी मुद्दे को मुद्दा बनाती है, किसी नेता को ताज पहनाती है और सत्ता के मद में चूर नेता को धूल में भी वही मिलाती है.समस्या यह है कि किसी भी राजनीतिक दल का दामन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इतना पाक-साफ नहीं है कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी तरीके से आन्दोलन खड़ा कर सके और चला सके.आप अब तक समझ गए होंगे कि भ्रष्टाचार की बीमारी से हमारा देश किस स्तर तक ग्रस्त हो चुका है.सबसे बड़ी चिंता तो यह है इस बीमारी का न तो कोई ईलाज ही ढूँढा जा रहा है और न ही देश को कोई दवा ही दी जा रही है. हाँ सरकारें ईलाज का ढोंग जरूर कर रही है.क्या आपके पास कोई नुस्खा या दवा है?अगर आपका जवाब हाँ में है तो फ़िर हमें भी बताईये न, छिपाने से तो यह बीमारी और भी बढ़ेगी और मरीज यानी हमारा देश कमजोर होगा.

30.3.10

इतिहास बनी उत्तराखंड की अनोखी 'गांधी पुलिस'

नायब तहसीलदारों ने भी आज से त्याग दिए पुलिस कार्य
1857 के गदर के जमाने से चल रही पटवारी व्यवस्था से पटवारी व कानूनगो पहले ही थे विरत
 पहले आधुनिक संसाधनों के लिए थे आन्दोलित, सरकार के उदासीन रवैये के बाद अब कोई मांग नहीं, राजस्व पुलिस भत्ता भी त्यागा
अंग्रेजों के जमाने की और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सिद्धान्तों पर आधारित देश की एक अनूठी व्यवस्था 150 से अधिद वर्षों तक सफलता के साथ चलने के बाद आज से तकरीबन इतिहास बन गई है। पूरे देश से इतर उत्तराखण्ड राज्य के केवल पहाड़ी अंचलों में कानून व्यवस्था बनाऐ रखे हुऐ सामान्यतया `गांधी पुलिस´ कही जाने वाली राजस्व पुलिस यानी पटवारी व्यवस्था को आगे जारी रखने की आखिरी उम्मीद भी आज तकरीबन टूट गई है। पटवारी व कानूनगो तो बीते लंबे समय से इसका बहिस्कार किऐ हुऐ थे ही, अब नायब तहसीलदारों ने भी इससे तौबा कर ली है।
हाथ में बिना लाठी डण्डे के तकरीबन गांधी जी की ही तरह गांधी पुलिस के जवान देश आजाद होने और राज्य अलग होने के बाद भी अब तक उत्तराखण्ड राज्य के पर्वतीय भू भाग में शान्ति व्यवस्था का दायित्व सम्भाले हुऐ थे। लेकिन इधर अपराधों के बढ़ने के साथ बदले हालातों में राजस्व पुलिस के जवानों ने व्यवस्था और वर्तमान दौर से तंग आकर स्वयं इस दायित्व का परित्याग कर दिया है। 1857 में जब देश का पहला स्वतन्त्राता संग्राम यानी गदर लड़ा जा रहा था, तत्कालीन हुक्मरान अंग्रेजों को पहली बार देश में कानून व्यवस्था और शान्ति व्यवस्था बनाने की सूझी थी। अमूमन पूरे देश में उसी दौर में पुलिस व्यवस्था की शुरूआत हुई। इसके इतर उत्तराखण्ड के पहाड़ों के लोगों की शान्तिप्रियता, सादगी और अपराधों से दूरी ने अंग्रेजों को इतना प्रभावित किया था कि सम्भवत: इसी कारण उन्होंने यहां पूरे देश से इतर यह व्यवस्था शुरू की। यहां पुलिस के कार्य भूमि के राजस्व सम्बंधी कार्य करने वाले राजस्व लेखपालों को पटवारी का नाम देकर ही सोंप दिए थे । पटवारी, और उनके ऊपर के कानूनगो व नायब तहसीलदार जैसे अधिकारी भी बिना लाठी डण्डे के ही यहां पुलिस का कार्य सम्भाले रहे। गांवों में उनका काफी प्रभाव होता था, और उन्हें सम्मान से अहिंसावादी गांधी पुलिस भी कहा जाता था। इधर बदले हालातों और हाई-टेक हुए अपराधों के बाद कई दशकों तक यह लोग बेहतर संसाधनों की मांग के साथ आन्दोलित रहे। उनका कहना था कि वर्तमान दौर में उन्हें भी  पुलिस की तरह बेहतर संसाधन चाहिऐ, लेकिन सरकार ने कुछ पटवारी चौकियां बनाने के अतिरिक्त उनकी एक नहीं सुनी। इधर 1982 से पटवारियों को प्रभारी पुलिस थानाध्यक्ष की तरह राजस्व पुलिस चौकी प्रभारी बना दिया गया, लेकिन वेतन तब भी पुलिस के सिपाही से भी कम था। अभी हाल तक वह केवल एक हजार रुपऐ के पुलिस भत्ते के साथ अपने इस दायित्व को अंजाम दे रहे थे। उनकी संख्या भी बेहद कम थी। स्थिति यह थी कि प्रदेश के समस्त पर्वतीय अंचलों के राजस्व क्षेत्रों की जिम्मेदारी केवल 1250 पटवारी, उनके इतने ही अनुसेवक, 150 राजस्व निरीक्षक यानी कानूनगो और इतने ही चेनमैन सम्भाल रहे थे। इधर मई 2008 से गांधी पुलिस ने पुलिस भत्ते सहित अपने पुलिस के दायित्वों का स्वयं परित्याग कर दिया। इसके बाद थोड़ा बहुत काम चला रहे कानूनगो के बाद आज 30 मार्च से प्रदेश के रहे-सहे नायब तहसीलदारों ने भी पुलिस कार्यों का बहिस्कार कर दिया है। पर्वतीय नायब तहसीलदार संघ के कुमाऊं मण्डल अध्यक्ष नन्दन सिंह रौतेला के हवाले से धारी के नायब तहसीलदार दामोदर पाण्डे ने इसकी पुष्टि करते हुऐ बताया कि गढ़वाल मण्डल में इस बाबत पहले ही निर्णय ले लिया गया था, जबकि कुमाऊं के नायब तहसीलदारों ने दो दिन पूर्व 28 मार्च को अल्मोड़ा में हुई बैठक में यह निर्णय लिया। लिहाजा प्रदेश के साथ जिले के पांचों नायब तहसीलदारों ने आज से पुलिस कार्य त्याग दिऐ हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्व पुलिस व्यवस्था में अब ऐसा कोई पद संवर्ग नहीं बचा है, जो पुलिस कार्य करने को राजी है। ऐसे में नायब तहसीलदारों के भी पुलिस कार्यों के त्याग से पहाड़ी गांवों में होने वाले अपराधों का खुलासा और ग्रामीणों की सुरक्षा भगवान भरोसे ही रह गई है।


Ganga ke Kareeb: गंगा में प्रवाहित कर दो...............

लो क सं घ र्ष !: लोकसंघर्ष परिवार ने अपना शुभचिंतक खो दिया

लोकसंघर्ष पत्रिका के कार्यक्रम को संबोधित करती मोना. .हार्वे


लोकसंघर्ष परिवार की शुभचिंतक तथा पत्रिका के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान अदा करने वाली अदाकारा मोना. .हार्वे की हत्या उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में बदमाशों ने उनके सर को मेज के पाये से कूंच कर कर डाली। मोना फिल्म उमराव जान में रेखा की सहेली का रोल किया था। वह हमारे देश की सांस्कृतिक धरोहर थी। लालबाग के कंधारी लेन के मकान नंबर 26 में 62 वर्षीय मोना अकेले रहती थी। इससे पूर्व लखनऊ में ही अंतर्राष्ट्रीय महिला संगठन की पूर्व अंतर्राष्ट्रीय महासचिव सुरजीत कौर की हत्या रात को उनके मकान में कैंची से गला काट कर कर दी गयी थी। उत्तर प्रदेश में सरकारें चाहे जो भी दावा करें, कानून व्यवस्था की स्तिथि ठीक नहीं है। अकेले रहने वाली महिलाओं का जीवन सुरक्षित नहीं रह गया है। राह चलते महिलाओं के साथ बदतमीजी, चेन स्नेचिंग आम बात है। प्रदेश के पुलिस मुखिया चाहे जो राग अलापे एक मामूली चोरी का खुलासा करने में असमर्थ हैं लोकसंघर्ष परिवार मोना जी हत्या से अत्यंत दुखी है और हमारे परिवार ने अपना एक शुभचिंतक खो दिया है।


नवाब वाजिद अली शाह की वाल पेंटिंग के साथ मोना.ए.हार्वे

हे दुनिया की महान आत्माओं...संभल जाओ....!

हे दुनिया की महान आत्माओं...संभल जाओ....!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
मेरी गुजरी हुई दुनिया के बीते हुए दोस्तों.....मैं तो तुम्हारी दुनिया में अपने दिन जीकर आ चूका हूँ....और अब अपने भूतलोक में बड़े मज़े में अपने नए भूत दोस्तों के साथ अपनी भूतिया जिन्दगी बिता रहा हूँ....मगर धरती पर बिताये हुए दिन अब भी बहुत याद आते हैं कसम से.....!!अपने मानवीय रूप में जीए गए दिनों में मैंने आप सबकी तरह ही बहुत उधम मचाया था....और वही सब करता था जो आप सब आज कर रहे हो....और इसी का सिला यह है कि धरती अपनी समूची अस्मिता खोती जा रही.... अपने वातावरण से बिलकुल मरहूम होती जा रही है....इसके पेड़-पौधे-नदी-जंगल-तालाब-पहाड़-मौसम और वे तमाम चीज़ें जिनसे हमारा जीवन सुन्दर-प्यारा-रंगीला और सुकुनदायक बनता है उन्हें हम सबने पागलों की तरह ऐसा इस्तेमाल कर डाला,कि ये सारी नेमतें धरती से समय से पूर्व ही नष्ट हो चली हैं,यहाँ तक कि इसके तरह तरह के जीवनदायक मौसम जो हमें आनंद प्रदान करते थे....आज हमें तनाव प्रदान कर रहे हैं.....हम सबने अमीर-अमीर और अमीर बनने के लालच में धरती के समूचे संसाधनों को भुक्खड़ों की तरह गपचा डाला....और बड़े-और बड़े-और बड़े होने के अहंकार को पुष्ट करने के लिए हम सब प्रकार के संसाधनों को यूँ गप्प करते चले गए जैसे कि किसी और को इन सब चीज़ों की कोई आवश्यकता ही नहीं....अपनी ताकत से हर ताकतवर ज्यादा से ज्यादा संसाधन हजम करता गया....इसके एवज में कम ताकतवर इंसान इसका हर्जाना भरता गया.....एक अमीर की अमीरी के पीछे हज़ारों गरीब की गरीबी बढती गयी.....!!
एक ही शरीर....एक ही चेतना....एक ही सृष्टि के सबसे होनहार माने जाने वाले जीव ने अपने जीवन को सहज बनाने की खातिर बाकी हर किसी का जीवन जीना दूभर कर दिया...इतना ही नहीं अन्य मानवेत्तर जीवों की सभी प्रजातियों को भी अपने पागलपन का शिकार बनता गया....हर एक जीव-सजीव-निर्जीव इसके अंतहीन लालच का शिकार बन अकाल काल-कलवित होता गया....सभी चीज़ें एक-एक कर नष्ट होती गयी....होती गयी....होती गयी....धरती रंगों से....या कि जीवन से रंगहीन होती चली गयी....और आज....??....आज हालत यह बन चुकी है कि खुद मानव को को अपना जीवन जी पाना दूभर लगने लगा है...क्योंकि मानव की बनायी हुई हर एक वस्तु से मानव का जीवन देखने में संवरता ही दीखता है....मगर दरअसल उसका जीवन पल-प्रतिपल ख़त्म होता जा रहा है....आदमी के जीने की गति को तेज करने वाले तमाम साधनों से धरती के मरने की गति उससे भी तेजी से बढती जा रही है....अब तो ऐसा लगने लगा है कि धरती की जिन्दगी सौ-पचास वर्ष भी नहीं बची है......!!उससे पहले ही यह ख़त्म हो जायेगी....अपने संग अंतहीन प्राणों की जान लेकर.....!!
मेरी गुजरी हुई दुनिया के वर्तमान प्यारे-प्यारे दोस्तों.....मैं तो अब मर चूका हूँ....इसलिए मैं इस धरती के लिए सिर्फ दुआ ही कर सकता हूँ....!!लेकिन दवा करना तो तुम जिन्दा इंसानों के हाथ में ही है....!!क्या अब भी तुम अपना लालच कम करने को तैयार हो....??क्या तुम्हारा जीवन सिर्फ तुम्हारे पेट की भूख को शांत करके नहीं जीया जा सकता....??क्या ऊँचे-ऊँचे ख्वाब देखना और उन्हें पूरा करने के लिए पागलपन की इन्तेहाँ तक चले जाना और सबका जीवन जीवन मुहाल कर देना ही मानव जीवन का ध्येय है......??क्या रसूख-अहंकार-और कथित बड़प्पन की चाह ही मानवीयता की निशानी है....??
धरती की हे तमाम महान आत्माओं तुम्हारे जीने के इन्ही तथाकथित मकसदों की वजह से तुम जीवन के इस विनाशक मोड़ पर आन पहुंचे हो और अगरचे अब भी यही सब धत्त्करम करते रहे तो याद रखो कि जल्द ही तुम सब ख़त्म हो जाने वाले हो....ये सही है है कि मरना तो सबको ही है मगर जिस तरह से जिस दिशा में जाकर और जिस-जिस तरह के करम करके तुम मरने को तत्पर हो वह शर्मनाक ही नहीं बल्कि निंदनीय भी है....क्या ये बातें तुम तक पहुँच रही हैं....क्या ये बातें तुम सब समझ पा रहे हो....क्या सचमुच तुम्हारे पास वह समझ है जिसके कारण तुम अपने-आप को सृष्टि के बाकी जीवों से महान और बड़ा साबित किये हुए हो ....हालाँकि किसी और ने ये उपाधियाँ तुम्हें नहीं दी हैं बल्कि तुमने खुद ही खुद को दुनिया का खुदा घोषित किया हुआ है यह बात तो खुद में ही बहुत बड़ा मज़ाक है कि कोई खुद ही खुद को सबसे बड़ा-सबसे तेज़-सबसे आगे घोषित कर दे......खैर ये तो दूसरी बात हुई....तुम्हारे लिए अहम् बात अब यही है कि कि अभी तुरत से ही तुम सब संभल जाओ....नेकनीयत बन जाओ....."आदमी" हो जाओ.....क्यूंकि अपनी जिस संतान के लिए तुम जीवन जीते हो....उस संतान के बारे में ही ज़रा सोच लो तो समझ सकोगे कि जो धरती तुम अपने बाद छोड़ कर जाने वाले हो वह जीने के लिए नहीं बल्कि मरने के लिए है....

29.3.10

लो क सं घ र्ष !: तूने जो मूँद ली आँखें

पलक झपकते ही तूने जो मूँद ली आँखें,
किसे खबर थी कभी अब ये खुल पाएंगी
मेरी सदाएँ, मेरी आहें, मेरी फरियादें,
फ़लक को छूके भी नाकाम लौट आएँगी

जवान बेटे की बेवक्त मौत ने तुझको,
दिए वो जख्म जो ता़ज़ीश्त मुंदमिल हुए
मैं जानता हूँ यही जाँ गुदाज़़ घाव तुझे,
मा-आलेकार बहुत दूर ले गया मुझसे

वह हम नवायी वाह राज़ो नियाज़़ की बातें,
भली सी लगती थी फहमाइशें भी मुझको तेरी
एक-एक बात तेरी थी अजीज तर मुझको,
हज़ार हैफ् ! वो सव छीन गयी मता--मेरी

हमारी जिंदगी थी यूँ तो खुशग़वार मगर,
जरूर मैंने तुझे रंज भी दिए होंगे
तरसती रह गयी होंगी बहुत तम्मानाएँ,
बहुत से वलवले पामाल भी हुए होंगे

ये सूना-सूना सा घर रात का ये सन्नाटा,
तुझी को ढूँढती है बार-बार मेरी नज़र
राहे-हयात का भटका हुआ मुसाफिर हूँ,
तेरे बगैर हर एक राह बंद है मुझपर

मगर यकीं है मुझे तुझको जब भी पा लूँगा,
खतायें जितनी भी हैं सारी बक्श्वा लूँगा

ता़ज़ीश्त-आजीवन, मुंदमिल- धुन्धलाना, वलवले- भावनाएँ, हैफ् - अफ़सोस, मता-- सम्पत्ति

महेंद्र प्रताप 'चाँद'
अम्बाला
भारत

पकिस्तान के रावलपिंडी से प्रकाशित चहारसू (मार्च-अप्रैल अंक 2010) से श्री गुलज़ार जावेद की अनुमति से उक्त कविता यहाँ प्रकाशित की जा रही हैजिसका लिपिआंतरण मोहम्मद जमील शास्त्री ने किया है

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

पत्रकारिता को अभिमन्यु की जरूरत : शेष नारायण सिंह


पिछले दिनों मैं और वरिष्ठ साथी शेष नारायण जी बीकानेर गए थे. वहां एक पत्रकार हरिओम गर्ग ने सांध्य दैनिक अखबार की शुरुआत की है जिसका नाम 'जांबाज' है. इस अखबार के लांचिंग समारोह पर शेष नारायण जी ने कई ऐसी बातें कहीं जो समकालीन पत्रकारिता के लिए चिंतन का विषय है. आप पूरी रिपोर्ट को उपरोक्त तस्वीर पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं. यह खबर लखनऊ के प्रमुख हिंदी अखबार डेली न्यूज एक्टिविस्ट उर्फ डीएनए में प्रकाशित हुई है.
आभार
यशवंत

Ganga ke Kareeb: हिन्दु बने 1040 परिवार

28.3.10

लो क सं घ र्ष !: अल्लाह के घर महफ़ूज़ नहीं हैं

महफ़ूज़ नहीं घर बन्दों के, अल्लाह के घर महफूज़ नहीं।
इस आग और खून की होली में, अब कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥
शोलों की तपिश बढ़ते-बढ़ते, हर आँगन तक आ पहुंची है।
अब फूल झुलसते जाते हैं, पेड़ों के शजर महफ़ूज़ नहीं॥
कल तक थी सुकूँ जिन शहरों में, वह मौत की दस्तक सुनते हैं ।
हर रोज धमाके होते हैं, अब कोई नगर महफ़ूज़ नहीं॥
दिन-रात भड़कती दोजख में, जिस्मों का ईधन पड़ता है॥
क्या जिक्र हो, आम इंसानों का, खुद फितना गर महफ़ूज़ नहीं॥
आबाद मकां इक लमहे में, वीरान खंडर बन जाते हैं।
दीवारों-दर महफ़ूज़ नहीं, और जैद-ओ-बकर महफ़ूज़ नहीं॥
शमशान बने कूचे गलियां, हर सिम्त मची है आहो फुगाँ ।
फ़रियाद है माओं बहनों की, अब लख्ते-जिगर महफ़ूज़ नहीं ॥
इंसान को डर इंसानों से, इंसान नुमा हैवानों से।
महफूज़ नहीं सर पर शिमले, शिमलों में सर महफूज़ नहीं॥
महंगा हो अगर आटा अर्शी, और खुदकश जैकेट सस्ती हो,
फिर मौत का भंगड़ा होता है, फिर कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥

-इरशाद 'अर्शी' मलिक

पकिस्तान के रावलपिंडी से प्रकाशित चहारसू (मार्च-अप्रैल अंक 2010) से श्री गुलज़ार जावेद की अनुमति से उक्त कविता यहाँ प्रकाशित की जा रही हैजिसका लिपिआंतरण मोहम्मद जमील शास्त्री ने किया है

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

27.3.10

एकतरफा बोल रही हैं अंजू गुप्ता : कलराज मिश्रा



आडवाणी, जोशी ने मुंह तक नहीं खोला था


शेशाद्रि विभिन्न भाषाओं में लोगों को ढांचा तोड़ने से मना कर रहे थे


पूरा पढें यहाँ: 


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इस लिंक पर :


http://newideass.blogspot.com/2010/03/blog-post_27.html

अर्थ आवर मनाने के लिए बिजली तो दो सरकार....

(उपदेश सक्सेना)
पश्चिम की नक़ल करना हमारा शगल बन गया है. इस नक़ल के चक्कर में हम अपनी औकात तक भूल जाते हैं, हमें यह तक भान नहीं रहता कि पश्चिम के देशों के लोगों का जीवन स्तर हमसे कितना उन्नत है. हम यह भी याद नहीं रखते कि "पश्चिम पर ज्यादा निर्भरता इस लिए भी उचित नहीं क्योंकि वहीँ जाकर तो सूर्य अस्त होता है". यहाँ मेरा उद्देश्य पश्चिम की मुखालफत करना नहीं, बल्कि अपनी औकात देखने के लिए हिन्दुस्तानियों को जगाना है. अर्थ आवर निश्चित रूप से मनाया जाना चाहिए, मगर इसकी सार्थकता भारत में तभी हो सकती है जब यहाँ बिजली तो हो. इस अभियान के सौ से ज्यादा समर्थक देशों के पांच करोड़ लोगों में हमारी गिनती केवल संख्या बढाने वालों की हो सकती है.वर्ल्डवाइड फंड फॉर नेचर के इस अभियान में २७ मार्च को रात ८.३० से ९.३० तक बिजली बंद रखने की अपील की गई है. अब जिनके यहाँ बिजली है उनके लिए अर्थ आवर मानना जायज है, मगर वे लोग इसमें कैसे अपनी भागीदारी निभाएं जिनके लिए "अर्थ आवर" रोजाना का 'अर्थ डे' जैसा होता है.आंकड़ों पर गौर करें तो भयावहता सामने आती है. विश्व की १,६३,४० लाख की आबादी के पास बिजली नहीं है, इनमें भारत का नंबर पहला है, जहां ५७ करोड़ लोग आज भी बिजली से महरूम हैं. यानी विश्व की बिना बिजली वाली आबादी का ३५.४४ फ़ीसदी, बात आधी आबादी की है, बावजूद सरकारों के लिए यह तथ्य चिंताजनक नहीं लगता.
मध्यप्रदेश जैसे विकसित हो रहे राज्यों में हालात चिंताजनक हैं. वहां हमेशा बिजली आने का इंतज़ार होता रहता है. सरकार अपनी जिम्मेदारी केवल गाँवों तक वह भी कहीं-कहीं बिजली के खम्भे लगवाकर यह समझ कर पूरी कर लेती है कि वहां बिजली पहुँच गई. बिजली गुल होने के पीछे सरकारी बहाने भी रटे-रटाये होते हैं, शहरों में बिजली कटौती का कारण खेती के लिए बिजली देना बताया जाता है, गाँवों में बिजली कटौती को उद्योगों-कारखानों के लिए ज़रूरी बताया जाता है. बिजली के करंट को खिलौना बनाकर सरकारों ने खूब खेला. कभी गरीबों को मुफ्त बिजली देकर उनके वोट खरीदे तो कभी किसानों को ऐसे ही प्रयासों से भरमाया. बिजली को सभी सरकारों ने बाप का माल समझ कर खूब लुटाया, और अब जब बिजली है नहीं तब चले हैं अर्थ आवर मनाने. आज़ादी के बाद ६३ साल में बिजली का उत्पादन कितना बढ़ा या लाइन-लॉस रोकने में कितनी सफलता मिली इन सब आंकड़ों के झंझटों से मुक्त होकर सरकारों ने शायद यह मान लिया है कि जनता को कैसे सब्जबाग दिखाकर बहलाया जा सकता है.अमेरिका-ब्रिटेन जैसे देशों में एकाध घंटे के लिए बिजली गुल हो जाने की ख़बरों को भारतीय मीडिया सुर्ख़ियों में दिखाता है, मगर इसी भारत में जहां "देश की आत्मा" (गाँव) ६३ साल बाद भी अँधेरे में डूबी हैं उनकी कोई सुध नहीं लेता. इस पर भी सरकार की यह अपील कितनी हास्यास्पद लगती है कि अर्थ आवर के दौरान दिल्ली वाले कैंडल लाइट डिनर करें. दिल्ली की बड़ी आबादी मजदूर तबके की है. इस वर्ग के पास हर शाम खाने की चिंता बनी रहती है, और सरकार बिजली बचाने के लिए अपनी अपील में भूख का मज़ाक उड़ा रही है. जिस कैंडल लाईट डिनर की बात मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने की है, वह बड़े होटलों में कई हज़ार रुपये का पड़ता है, गरीब तबका तो हर दिन फाकाकशी का "डार्क डिनर" वैसे भी करता ही है. बिजली के साथ-साथ पानी बचाना भी वक़्त की ज़रुरत है.
लेखक पिछले दो दशकों से ज्यादा समय से पत्रकारिता जगत से जुड़े हैं.updesh.saxena@gmail.com

सन्डे के सन्डे:इस सप्ताह के दो ख़ास सक्रिय ब्लॉग


नमस्कार ब्लॉगर साथियों
अपनी माटी ब्लॉग अग्रीगेटर पर आप सभी की पोस्ट को देखते हुए हमने इस सप्ताह के दो ख़ास ब्लॉग घोषित किये हैं.हमारे दूसरे ब्लॉगर साथी इन ब्लोगों को देख  कर कुछ और सार्थक तरीके से ब्लॉग्गिंग कर पायेंगे. चयनित को बधाई.तो अब करते हैं आने वाले सन्डे का इन्तजार.अगले परिणाम तक शुभ जीवन

 इस सन्डे-

रश्मि प्रभा... 

 http://lifeteacheseverything.blogspot.com/
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  अमृत'वाणी'

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एक  सप्ताह पहले तक   -

http://teesarakhamba.blogspot.com/ 
http://lalitdotcom.blogspot.com/  

दो सप्ताह पहले तक   -
http://neelima-apple.blogspot.com/
http://swapnamanjusha.blogspot.com/

माणिक

लो क सं घ र्ष !: गिरगिट हैं या भारतीय संघ के अधिकारी


बाबरी मस्जिद को तोड़ने के अपराधिक मामले में आई.पी.एस अधिकारी अंजू गुप्ता ने लाल कृष्ण अडवानी आदि अभियुक्तों के खिलाफ न्यायलय के समक्ष जोरदार तरीके से अभियोजन पक्ष की तरफ से गवाही दी। श्रीमती अंजू गुप्ता ने अपने बयानों में लाल कृष्ण अडवानी के जोशीले भाषण को बाबरी मस्जिद ध्वंश का भी एक कारण बताया है। इसके पूर्व 7 वर्ष पहले श्रीमती अंजू गुप्ता के बयान का आधार पर अभियुक्त तथा पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण अडवानी को विशेष न्यायलय ने आरोपों से उन्मोचित कर दिया था । इस तरह से अदालत गवाह अधिकारियों के गिरगिट की तरह रंग बदलने के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं करती है । उस समय के कमिश्नर फैजाबाद जो घटना के लिए जिम्मेदार थे, एस.पी गौड़ वह आज भी भारतीय संघ में प्रतिनियुक्त पर तैनात हैं। इसके अतिरिक्त अन्य प्रमुख अधिकारी जो बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय थे वे रिटायर हो चुके हैं या मर चुके है। सवाल इस बात का है कि क्या उस समय भारतीय संघ इतना कमजोर हो चुका था कि वह एक मस्जिद कि सुरक्षा नहीं कर पाया ? दूसरी तरफ नौकरशाही कि कोई जिम्मेदारी तय न होने के कारण वह गिरगिट कि तरह रंग बदलती रहती है । कोई भी मामला हो नौकरशाही बड़े से बड़े अपराध कर रही है और भारतीय संघ उनको दण्डित करने में अक्षम साबित हो रहा है । हद तो यहाँ तक हो जाती है कि बड़े से बड़ा अपराधी नौकरशाह समयबद्ध प्रौन्नति के तहत कैबिनेट सचिव तक हो जाता है और उसके द्वारा किये गए अपराधों के लिए दण्डित नहीं किया जाता है, यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है । श्रीमती अंजू गुप्ता को न्यायलय के समक्ष शपथ पूर्वक बयान बार-बार बदलने पर बर्खास्त करके अपराधिक विधि के अनुरूप वाद चलाना चाहिए तभी लोकतंत्र बचेगा

सुमन
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जब देवताओं की तरह पूजे जाने लगे फिल्म स्टार

हिंदी सिनेमा का इतिहास-7

            
              राजेश त्रिपाठी

]आरंभ से ही हिंदी फिल्मों के निर्माण में अहिंदीभाषी क्षेत्रों के लोगों का वर्चस्व रहा। मिसाल के तौर पर दादा साहब फालके, चंदूलाल सेठ, भवनानी, वी. शांताराम, वाडिया ब्रादर्स, विजय भट्ट, शशिधर मुखर्जी, सोहराब मोदी, महबूब खान, एस.एस. वासन, श्रीधर, एल वी प्रसाद, शक्ति सामंत, राज कपूर, जी.पी. सिप्पी, नाडियाडवाला आदि। शुरू-शुरू में दर्शकों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए सीता, अनुसूया, सावित्री आदि सन्नारियों के जीवन चरित्र पर फिल्में बनायी जाती थीं। श्रेष्ठ कहानियों पर शिक्षाप्रद साफ-सुथरी सामाजिक फिल्में भी बनने लगी थीं, जो खूब सराही जाती थीं किंतु जैसे ही सिनेमा दर्शकों पर हावी हो गया और वेतनभोगी कलाकारों की जगह लाखों रुपये लेने वाले कलाकारों का बोलबाला हो गया, फिल्में मौलिक और अच्छी कहानियों से वंचित होने लगीं। पैसे कमाने के लिए निर्माता हालीवुड फिल्मों की अंधाधुंध नकल करने लगे। ढिशुंग-ढिशुंग कैबरे और नायिका के अंग-प्रदर्शन को फिल्म की कामयाबी की कसौटी माना जाने लगा और इस तरह से शुरू हुआ फार्मूला फिल्मों का अंतहीन सिलसिला। वक्त ने ऐसा मोड़ लिया कि पहले जहां लोग फिल्मों में काम करना बेइज्जती समझते थे, वहीं फिल्मी कलाकारों की एक झलक पाने के लिए बेताब रहने लगे। फिल्मी ‘स्टार’ देवताओं की तरह पूजे जाने लगे। आज स्थिति यह है कि सभ्य और संपन्न घराने के युवक-युवतियां भी ‘स्टार’ बनने ख्वाब आंखों में संजो कर चोरी-छिपे बंबई (अब मुंबई) भाग जाते हैं और वहां ठोकरे खाते हैं और जिंदगी तबाह कर लेते हैं, तब कहीं जाकर सिर पर चढ़ा फिल्मी भूत उतरता है। शुरू-शुरू की भारतीय ऐक्शन फिल्में विदेशी फिल्मों से ज्यादा प्रभावित थीं। सेक्सी और ऐक्शन फिल्मों में आलिंगन, चुंबन तथा अंग प्रदर्शन की भरमार होती थी। इस तरह के दृश्यों को निर्माता बड़े शौक से रखते थे। आर.एस. चौधरी द्वारा निर्देशित ‘सच है’ कि नायिका मिस रोजी थी, जो अछूत कन्या बनी थी। एक दृश्य में वह जांघ तक कपड़ा उतार कर पूछती है-‘बोलो तुम्हारी और मेरी चमड़ी में क्या फर्क है? इस दृश्य की वजह से यह फिल्म खूब चली। उन दिनों भारत में अंग्रेजों का शासन था। उन्हें फिल्मों मे सेक्सी दृश्य दिखाने में कोई आपत्ति नहीं थी। स्वाधीनता के पूर्व तक सेंसर की उदारता, उस समय के निर्माताओं के लिए वरदान थी और उसका उन लोगों ने भरपूर फायदा उठाया। सुलोचना (रूबी मेयर्स) ऐसी पहली भारतीय अभिनेत्री थीं, जिन्होंने परदे पर अपने हीरो जाल मर्चेंट का चुंबन लिया था। यह चुंबन दृश्य अर्देशिर इरानी की फिल्म ‘हमरा हिंदुस्तान के लिए फिल्माया गया था। हिमांशु राय और देविका रानी के बीच फिल्माया गया चुंबन दृश्य भी काफी मशहूर हुआ था। 1947 में आजादी के बाद कांग्रेस की सरकार बनी, तो चुंबन और अश्लील दृश्यों पर अंकुश लगाने के बारे में सोचा जाने लगा। 1952 में केंद्रीय सेंसर बोर्ड के गठन के बाद इस पर कारगर ढंग से रोक लगायी जा सकी।

तकनीकी दृष्टि में तब की फिल्में, आज की फिल्मों की तुलना में उन्नीस बैठती हैं। शुरू-शुरू में शूटिंग के लिए जिस कैमरे का प्रयोग किया जाता था, वह हाथ से चलाया जाता था इसलिए फिल्म की गति में एकरूपता नहीं रह पाती थी। बाद मे बिजली से चलनेवाले कैमरे आये और फिल्मों की गति भी सामान्य होने लगी। बोलती फिल्मों का युग आने पर पहले दृश्य और ध्वनि एक साथ निगेटिव फिल्म में ही लेने की व्यवस्था थी। ऐसी स्थिति में फिल्म संपादक को बड़ी परेशानी उठानी पड़ती थी। खासतौर से गानेवाले दृश्यों को कैंची छू नहीं पाती थी। कारण, जरा-सा अंश कटने से गाने के बोल या संगीत की लय में विघ्न पड़ने का अंदेशा रहता था। यदि कलाकारों के संवाद उच्चारण में गड़बड़ी हो जाती तो उस दृश्य को फिर से फिल्माया जाता था, क्योंकि तब डबिंग की व्यवस्था नहीं थी। आजकल आउटडोर शूटिंग में बोले गये संवाद बाद में डबिंग थिएटर में डब कर लिये जाते हैं। (आगे पढ़ें)

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उपन्यास 'प्रेम की भूतकथा'

उदयपुर। मुख्यधारा के साहित्य में ऐसी कृति नहीं है और अपने इसी विशिष्ट
ढंग के कारण यह सर्वथा नया उपन्यास है। रहस्य रोमांच की कथा का आधार लेकर
लिखे गए विभूति नारायण राय के सद्य प्रकाशित उपन्यास 'प्रेम की भूतकथा'
पर आयोजित एक गोष्ठी में प्रो. नवल किशोर ने कहा कि प्रेम कथा के आकर्षण
के अतिरिक्त उपन्यास में फ्रेंच क्रांति का संकेत साम्राज्यवाद-
उपनिवेशवाद के सार्थक विरोध की भूमिका बनाता है। जन संस्कृति मंच द्वारा
आयोजित इस गोष्ठी में प्रो. नवल किशोर ने कहा कि प्रेम कथा इस उपन्यास
में अपने काल संदर्भ में अनूठी बन जाती है और नायिका रिप्ले बीन की
असहायता-विवशता स्वयं में बड़ा संदेश है। उन्होंने उपन्यास में आए भूतों
के चरित्रों को मनुष्य चरित्र के अध्ययन में सहायक बताया। प्रो. नवल
किशोर ने तत्कालीन समय में मौजूद भेदभाव के चित्रण के लिए भी उपन्यास को
उल्लेखनीय माना जिसमें अंग्रेज कैदियों के साथ विशेष व्यवहार किया जाता
था।
इससे पहले शोधार्थी गजेन्द्र मीणा ने उपन्यास के कतिपय प्रमुख अंशों का
पाठ किया। चर्चा में समालोचक और कॉलेज शिक्षा क्षेत्रीय सहायक निदेशक डॉ.
माधव हाड़ा ने कहा कि यथार्थवाद हिन्दी लेखन पर हावी रहा है लेकिन गैर
यथार्थवादी शिल्प के कारण 'प्रेम की भूतकथा' महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है।
उन्होंने कहा कि उपन्यास इस दृष्टि से भी अध्ययन के योग्य है कि लेखक के
वैयक्तिक जीवन और अनुभवों का रचना में कैसा रूपान्तर हो सका है। तफ्तीश
की बारीकियों के संदर्भ में उन्होंने कहा कि उपन्यास को विभूतिजी ने बेहद
रोचक बना दिया है। डॉ. हाड़ा ने कहा कि पंचतंत्र की भारतीय आख्यान परम्परा
यथार्थवाद के दबाव से लुप्त हो रही थी लेकिन 'प्रेम की भूतकथा' ने इसे
नयी वापसी दी है। राजस्थान विद्यापीठ के सह आचार्य डॉ. मलय पानेरी ने कहा
कि अंत तक रोचकता बनाए रखने के लिए उपन्यास पठनीयता की कसौटी पर खरा है।
प्रेम प्रसंग में नैतिकता के दबाव और उससे उपजे तनाव को डॉ. पानेरी ने
वैचारिक उद्वेलन का कारक बताया। आकाशवाणी के कार्यक्रम अधिकारी लक्ष्मण
व्यास ने वर्णन के आत्मीय अन्दाज का कारण उपन्यास की भाषा के खिलन्दड़ेपन
को बताते हुए कहा कि सैन्य जीवन के प्रभावी ब्यौरे उपन्यास का अनूठा पक्ष
है। सेना में पदक्रम की जटिलता और उससे उपजी विषमता को उपन्यास दर्शाता
है। उन्होंने कहा कि अनास्था रखने पर ही कोई भूत वाचक से बात करता है और
अंत में भूत का रोना पाठक को भी विचलित कर देता है। चर्चा में जसम के
राज्य सचिव हिमांशु पण्ड्या ने कहा कि 'हरिया हरक्यूलिस की हैरानी' से
मनोहर श्याम जोशी ने स्पष्ट कर दिया था कि रहस्य खुलना व्यर्थ है क्योंकि
अब दुनिया में 'सस्पेंस' जैसा तत्त्व बचा ही नहीं है। उन्होंने कहा कि अब
सवाल बदल गए हैं और 'क्यों' 'कैसे' से ज्यादा बड़ा सवाल बन कर आ गया है।
'प्रेम की भूतकथा' इसी बात को पुनः स्थापित करता है।
   'बनास' के संपादक डॉ. पल्लव ने कहा कि विक्टोरियन नैतिकता पर सवाल
खड़े करना पुरानी बात होने पर भी नयी है क्योंकि आज भी हमारे समाज में
प्रेम को लेकर भयावह कुण्ठा का वातावरण है। उन्होंने रोचकता की दृष्टि से
इसे बेजोड़ कथा रचना की संज्ञा देते हुए कहा कि भाषा की बहुविध छवियाँ
उपन्यासकार का कद बढ़ाने वाली हैं।
   गोष्ठी पर गंभीर चर्चा में पुनः हस्तक्षेप करते हुए प्रो. नवल किशोर
ने कहा कि 1909 की घटना पर लिखे इस उपन्यास में 1857 की छवियाँ होती तो
यह और अधिक अर्थवान होता। वहीं डॉ. हाड़ा ने इसे जासूसी उपन्यास मानने से
सर्वथा इनकार करते हुए कहा कि भूत और रहस्य को कथा युक्ति ही मानना
चाहिए। लक्ष्मण व्यास ने इसके अंत को एंटीक्लाइमेक्स का अभिनव उदाहरण
बताया। चर्चा में शोध छात्र नन्दलाल जोशी, राजेश शर्मा और ललित श्रीमाली
ने भी भागीदारी की। अंत में जसम के राज्य सचिव हिमांशु पण्ड्या ने कहा कि
कृति चर्चा के ऐसे आयोजन नियमित किये जाएंगे। गणेश लाल मीणा ने आभार
व्यक्त किया।


गजेन्द्र मीणा
जन संस्कृति मंच
403, बी-3, वैशाली अपार्टमेंट्स,
हिरण मगरी, सेक्टर-4, उदयपुर-313002



द्वारा माणिक