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30.4.09

ज्वाइंट वेंचर बनाम ज्वाइंट एफर्ट?



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अंग भारत पब्लिकेशन को भागलपुर में चाहिए पत्रकार

Company Name: Ang Bharat publication
Job title : Sr.sub editor/sub editor/compositor
Qul: Must know hindi typing & be familiare qurakXpress(Both require)
Location: Bhagalpur (Bihar)
Contact persons: Mr. Uday shankar khaware, Excuetive editor
Mail Id: angbharat@gmail.com
Phone number: 09386258783
salary: negatioble
Company provide house/room for all outside candidate.
(भड़ास तक मेल के जरिए भेजी गई जानकारी पर आधारित)

अंधेरे .......

ये अंधेरे ही तो मेरे अपने हैं
इनमें ही मेरी जिन्दगी के सपने हैं
लोग कहते हैं रात मैं होते हैं अंधेरे
जरा अपनी गहराई मैं जाकर देखो
तुम पाओगे अंधेरे
जब भी दिल बुझ जाता है तो होते हैं अंधेरे
वक्त बुरा आने पर
साथ छोड़ देते हैं उजाले
इन्हें अपना कर देखो
हमेशा तुम्हे गले से लगायेंगे अंधेरे .......

ग़ज़ल

ज़मीं पे चल न सका आसमान से भी गया
कटा के पर को परिंदा उड़ान से भी गया।

तबाह कर गई पक्के मकान की हसरत
मैं अपने गाँव के कच्चे मकान से भी गया।

पराई आग में ख़ुद जलके क्या मिला तुझको
उसे बचा न सका अपनी जान से भी गया।

भुलाना चाहे तो भुलाने की इंतिहा कर दिल
वो शख्स अब मेरे वहमो-गुमान से भी गया।

किसी के हाथ का निकला हुआ वो तीर हूँ मैं
हदफ़ को छू न सका और कमान से भी गया।
शाहिद क़बीर
प्रस्तुति-मकबूल

जो झूठा मक्कार ,फरेबी नेता वही महान यहाँ | Loksangharsha


हमारे देश की आबादी एक अरब से ऊपर है जिसमे 85 करोड लोगो का खर्च 6 रुपये से लेकर 20 रूपए प्रतिदिन हैइसी में 26 प्रतिशत यानि लगभग 28 या 30 करोड लोगो को दो जून की रोटी नसीब नही हैकरोडों लोग प्रतिवर्ष बिना अनाज के दम तोड़ देते है और करोडों बच्चे कुपोषण का शिकार है90 प्रतिशत लोग अपने बच्चो का दाखिला डाक्टरी इंजीनियरिंग में नही करा पातेमैनेजमेंट संस्थानों द्वारा अवैध तरीके से फीस बढायी गई हैइनमे अपने बच्चे पढाने वाले कितने लोग हैसस्ती शिक्षा इस चुनाव का मुद्दा नही है
खेती - बाडी के हालत ख़राब है। राजग सरकार से संप्रंग सरकार तक 8 रूपए प्रति लीटर बिकने वाला ङीज़ल ३६ रूपए तक बिका । अब चार या पाँच रूपए कम हुआ है, जबकि अंतर्राष्टीय कीमत के हिसाब से यह 18 रूपए प्रति लीटर होना चाहिए । खाद की कीमतों में अबाध वृद्धि हुई परन्तु अनाज की कीमते अब बहुत कम है। उस घाटे की खेती के फलस्वरूप किसानो ने पूरे देश में आत्महत्याएं की वामपंथियों के दबाव के चलते कुछ कर्जा माफ़ किया गया परन्तु किसानो के हालत में कोई सुधर नही हुआ । यह भी सवाल चुनाव सेगायब है।
आज उत्तर प्रदेश के बनाराश इलाके में लाखो कारीगर बेरोजगार हो गए है क्योंकि बनारस के साड़ी बनने वाले दस्तकारों के पास काम नही है। बनारसी साड़ी उद्योग संकट में है । सूखे के कारण जो पैकेज बुंदेलखंड इलाके को दिया गया था वह बंदरबांट का शिकार हो गया और बड़े विज्ञापन अखबारों में देकर बेशर्मी से फोटो खिंचवाकर जनता को गुमराह किया जा रहा है । राष्ट्रीय स्तर पर के हालात सुधारने के लिए सस्ती , सिंचाई ,खाद,बीज की कोई कारगर नीति बनाने की आवशकता है ,परन्तु यह मुद्दा भी चुनाव का मुद्दा नही।
आज सपा , बसपा ,कांग्रेस या भाजपा की सरकारें और इनके पुलिस प्रशासनिक अफसर ,माफिया,नेताओं, नेताओ के गठजोड़ ने आम नागरिक का जीना दूभर कर रखा हैभ्रष्टाचार का बोलबाला
है ,और आम आदमी को नाच नचा रहे है मालूम कितने लोगो की जमीन इस गठजोड़ की भेट चढ़ चुकी है । सड़के मानक के हिसाब से नही बनती है। न नहरों की सफाई होती है,जनता की गाढी कमी की टैक्स की रकम यह गठजोड़ खाए जा रहा है। परन्तु सब जानते हुए भी यह लोग अखबारों में झूंठा प्रचार करके जनता को गुमराह कर रहे है।
डॉक्टर राम गोपाल वर्मा
क्रमश :
लोकसंघर्ष पत्रिका के चुनाव विशेषांक में प्रकाशित

प्रसिद्ध उर्दू लेखक कमर रईस नहीं रहे

उर्दू के जाने माने साहित्‍यकार और विद्वान डा. कमर रईस का कल रात दिल्‍ली के बत्रा हास्पिटल में निधन हो गया। 77 वर्षीय रईस पिछले कई दिनों से पीलिया का इलाज करा रहे थे। उनके परिवार में पत्‍नी और एक पुत्री है। कमर रईस भारत सरकार के संस्‍कृति विभाग में काम करते हुए कई वर्षों तक ताशकंद में रहे। वहीं उन्‍होंने मुगल बादशाह जहीरूदीन बाबर के जीवन पर अपनी मशहूर किताब लिखी जिसमें बाबर के जीवन के अछूते पक्षों पर खोजपरक दृष्टि से अनेक महत्‍वपूर्ण जानकारियां दी गई हैं। कमर रईस ने अपने ताशकंद प्रवास के दौर में ही एक और अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण किताब का संपादन किया ‘अक्‍टूबर रिवोल्‍यूशन – इंपेक्‍ट आन इंडियन लिटरेचर’। इस किताब की भूमिका पूर्व प्रधानमंतगी इाई.के. गुजराल ने लिखी थी। कमर रईस ने सज्‍जाद जहीर और रतननाथ सरशार की जीवनियां लिखीं। उर्दू साहित्‍य में मुंशी प्रेमचंद का महत्‍व स्‍थापित करने में उनकी बडी भूमिका रही। प्रेमचंद पर उर्दू में उनकी प्रसिद्ध किताब है ‘प्रेमचंद का फन’। वे करीब पच्‍चीस बरस तक प्रगतिशील लेखक संघ के उर्दू संगठन अंजुमन तरक्‍कीपसंद मुसन्‍नफीन के सेक्रेट्री रहे। फिलवक्‍त वे दिल्‍ली उर्दू एकेडमी के वाइस चेयरमैन थे।
मेरी उनसे एक ही मुख्‍तसर सी मुलाकात रही, जब उन्‍होंने अंजुमन तरक्‍कीपसंद मुसन्‍नफीन की जानिब से इलाहाबाद में सज्‍जाद जहीर की जन्‍मशती का भव्‍य समारोह करवाया था। उस समारोह में पाकिस्‍तान से जाहिदा हिना सहित करीब पच्‍चीस लेखक आए थे।

29.4.09

रोशनी ......

एक मोमबती ले निकली हूँ । घुप अँधेरी रात है ।
मेरे लिए नही यह कोई नई बात है । सारे जग में कर दूंगी उजाला ।
हिम्मत है तो रोक कर दिखाओं ।

.................. रोशनी

जरूरी नहीं कि प्रार्थना रटी रटाई हो


विनय बिहारी सिंह

जरूरी नहीं कि प्रार्थना रटे- रटाए शब्दों में हो। आप मुंह से एक शब्द न बोलें और दिल से ईश्वर से लगातार प्रार्थना करते रहें तो वह ज्यादा प्रभावशाली होगी। अनेक लोगों ने कहा है- प्रार्थना शब्दों से परे है। बस आपके दिल से सच्ची पुकार निकलनी चाहिए। वह सीधे भगवान तक पहुंचती है। भगवान दिल की पुकार सुनते हैं। टालस्टाय की एक बहुत सुंदर कहानी है। एक द्वीप पर तीन संत रहते थे। वे एक ही प्रार्थना जानते थे- हे प्रभु हम तीन हैं और तुम भी तीन हो। हम पर कृपा करो। बस यही उनकी सुबह शाम की प्रार्थना थी। एक विशप ने सुना तो उनके मन में आया कि क्यों न इन संतो को अच्छी सी प्रार्थना सिखा दी जाए। वे उस द्वीप में गए और संतों को एक पुरानी प्रार्थना सिखा दी। फिर वे नाव से लौटने लगे। जब विशप बीच नदी में पहुंचे थे तभी उन्होंने देखा- उनकी ओर प्रकाश का एक गोला आ रहा है। यह गोला जब नजदीक आया तो उन्होंने देखा- ये तो वही तीनों संत थे जिन्हें उन्होंने प्रार्थना सिखाई थी। वे पानी पर दौड़ रहे थे। विशप तो चकित हो गए। निश्चय ही इन संतों के पास दिव्य शक्ति थी। पास आकर ये संत बोले- फादर, हम वह प्रार्थना भूल गए जो आप सिखा कर आए। विशप ने कहा- महान संतों, तुम्हें प्रार्थना सिखाने की कोई जरूरत ही नहीं है। तुम अपनी पुरानी प्रार्थना ही जारी रखो।

Loksangharsha: 'जो झूठा मक्कार , फरेबी नेता वही महान यहाँ '


आज से लगभग 50 वर्ष पहले मेरे विद्यालय के अध्यापक की एक कविता छापी थी जिसकी यह पंक्ति थी 'जो झूठा मक्कार , फरेबी नेता वही महान यहाँ 'तब मैं 10 वी कक्षा का विद्यार्थी था। मैं इस पंक्ति का अर्थ समाज और राजनीति के सन्दर्भ में समझ नही पा रहा था । परन्तु आज तो यह पंक्ति पूरी तरह से लागू होती है आज ऐसे लोग और राजनैतिक पार्टियाँ सत्ता के लिए बढ़- चढ़ कर दावे कर रही है, और वह यह भूल जाती है की उन्होंने देश की सर्वोच्च संस्था 'लोकसभा' में क्या अपने देश की विदेश नीति के सिलसिले में किस-किस किस्म के भ्रम फैलाने वाले बयान दिए है। बहरहाल पिछली सरकार के समय में एक न्युनतम साझा कार्यक्रम तैयार हुआ और उसके वादे जिस तरह से सरकार ने क्रियान्वित किए,क्या यह देश के साथ धोखा नही है ?
आज मंदी का नाम लेकर इस देश के लगभग 12 लाख लोग अपनी नौकरिया गवां चुके है । बड़ी संख्या में लोगो के वेतन में कटौती की जा रही है और हमारे गृहमंत्री उद्योगपतियों से सिफारिश कर रहे है की वेतन भले घटा दे परन्तु नौकरियों से निकाले मंदी के नाम पर अब काम के घंटे 12 हो गए है और वेतन भी काट लिया गया है। प्राइवेट कंपनियों के अफसर और मजदूर सन 1886 के काम के घंटे के बराबर काम कर रहे है लगभग सवा सौ साल बाद परन्तु इस सरकार को मजदूरों की दशा पर सोचने के लिए कोई मौका नही है।
फर्जी और झूठे आंकडे पेश किए जाते है की मुद्रा स्फ़ीति शून्य हो गई है। यह झूठ तब उजागर होता है , जब आम आदमी बाजार जाता है और वहां पर किसी भी चीज की कीमत घटी हुई नही पता है। परन्तु मीडिया से, अखबारों से इस झूठ का इतना प्रचार किया जा रहा है कि यह सच लगने लगे । यह गोवेल्स जो हिटलर का प्रचार मंत्री था की तकनीक है, की झूठ का निरंतर प्रचार किया जाए।
पूंजीपतियों की सेवा में बैकों की ब्याज दर घटाई जा रही है और L.I.C के शेयर बेचने के लिए लोकसभा में प्रस्ताव पेश है यह बिक्री एक अमेरिकन दिवालिया कंपनी के नाम पर है । सत्यम जैसी कंपनिया आम जनता को हजारो करोड़ रुपयों का चूना लगा चुकी है। अरबो रुपयों का स्टांप घोटाला तेलगी जैसे लोगो ने किया । बड़ी संख्या में हमारे राजनैतिक पार्टियों के बड़े-बड़े नेता,हवाला कांड और स्टिंग ऑपरेशन व घूसखोरी में पकड़े गए। सवाल पूछने के लिए हमारे माननीयों ने पैसा लिया, परन्तु यह सवाल सब पीछे है

-डॉक्टर राम गोपाल वर्मा
क्रमश :
लोकसंघर्ष पत्रिका के चुनाव विशेषांक में प्रकाशित

रिश्तों की गांठ .....

जीवन मैं दर्द
एक नही है
कभी गम
कभी त्रास
कभी कुंठा
कभी ख़ुद को झुठलाने वाला
रोज एक नया सपना है ।

जीवन सिर्फ़ एक चादर है
जिसमे भरा है गर्द गुबार
कुछ अपना
कुछ दूसरो के समान
कुछ कम का
बाकि बेकार ।

सब कुछ समेटकर
चादर मैं
लगा दी जाती है
रिश्तों की गांठ
ढोने के लिए
ता उम्र भर ।

एक छोटा सा कमजोर धागा
वजन पड़ने पर
नहीं संभाल पता है
ख़ुद को
और बन जाता है
चादर मैं छेद ।

चादर से हर रोज गिरता है
एक एक सामान
अंत मैं
रह जाती है
सिर्फ़ एक गांठ
कपड़ा
कितना कमजोर क्यों न हो
मुश्किल है तो
सिर्फ़
एक गांठ को खोल पाना .........

28.4.09

सवाल- जवाब


प्यारे साथियो! आज मै कुछ लिख नही रही हूँ बल्कि आप लोगो से एक सवाल कर रही हूँ। जब जिन्दगी मे कई लक्ष्य होते है तब जिन्दगी छोटी लगने लगती है या बड़ी ? और कैसे ? आप के जवाब की प्रतीक्षा में । आरती आस्था

खुशबू बिखेरती...बेटियाँ...



घर भर को जन्नत बनाती है बेटियाँ॥! अपनी तब्बुसम से इसे सजाती है बेटियाँ॥ ! पिघलती है अश्क बनके ,माँ के दर्द से॥! रोते हुए भी बाबुल को हंसाती है बेटियाँ॥! सुबह की अजान सी प्यारी लगे॥, मन्दिर के दिए की बाती है बेटियाँ॥! सहती है दुनिया के सारे ग़म, फ़िर भी सभी रिश्ते .निभाती है बेटियाँ...! बेटे देते है माँ बाप को .आंसू, उन आंसुओं को सह्जेती है .बेटियाँ...! फूल सी बिखेरती है चारों और खुशबू, फ़िर .भी न जाने क्यूँ जलाई जाती है बेटियाँ...

Loksangharsha: राजनीतिक भँवर में अपने वजूद को ढूंढता मुसलमान

तीसरे उनके धार्मिक विद्वान् जो मस्जिदों के अहातों,मजारो की खानकाहों और मदरसों की मसनद से निकलकर अपने फतवे जारी करके मुसलमानों को उनके गडे मुर्दे याद दिलाकर उनके दिमाग पर धार्मिक भावनाओ की अफीम का नशा चढा देते है। इन सब के बीच मुस्लमान अपने रोजी- रोटी ,नौकरियों व विकास के मुद्दों को ताक पर रखकर केवल अपनी सुरक्षा की नकारात्मक भावना से ओत -प्रोत होकर तितर -बितर हो जाता है। और इस पूरी साजिश के पीछे साम्राज्यवादी,सांप्रदायिक एवं फासिज़्म की सोंच वाली शक्तियों का हाथ रहता है जिसका रिमोट विदेश में बैठे उनके आकाओ के पास है वही से उन्हें दिशा - निर्देश व आर्थिक सहायता मिलती है और नियंत्रित भी किया जाता है।
जब तक मुसलमान अपने मतभेद मिटाकर अपने भीतर मिल्ली एकता पैदा नही करेंगे और उनके सियासी लीडरों में पहले अपने अन्दर इस्लामी व्यक्तित्व बाद में सियासी व्यक्तित्व की भावना नही पैदा होगी तब तक राजनेता मंडी का माल समझ कर उन्हें खरीदते व बेचते रहेंगे । मुसलमानों के सामने अनेक उदाहरण देश में उन्ही के अपने अल्पसंख्यक भाइयो ,सिख ,ईसाई , यहूदी , जैन व पारशी लोगो के है जो अपनी धार्मिक पहचान पर गर्व करते है परन्तु आज मुसलमान अपनी तहजीब अपना इस्लामी किरदार अपनी जुबान सबसे दूर हो चला है उसके अन्दर से आकिबत का खौफ निकल गया है या इस पर उसका ईमान ढुलमुल हो चला है तभी तो उसके अन्दर शोक दुनिया हावी हो गई है और खौफे खुदा कमजोर। अंतर्राष्ट्रीय सतह से लेकर देश को मुसलमानों में ऐसोआरम की प्रवृत्ति ने उन्हें मज़ाहिद के स्थान पर अय्याश व एशपरस्त बना दिया है उनकी इसी कमजोरी का लाभ कभी बुश उठाता है तो कभी मुलायम तो कभी मायावती तो कभी सोनिया गाँधी और यहाँ तक मोसाद भी। मुसलमान अपने शानदार अतीत में इतिहास का अध्ययन करके झांक कर जरा देखे तो जब इज्जत दौलत हुकूमत सभी उनके पास थी क्योंकि वह धर्म के सच्चे अनुयाई थे और वह ईसाई auर यहूदी जिन का समाज अन्ध्विश्वशो व धार्मिक कट्टरता के कारण बर्बाद हो गया इस्लामी हुक्मरानों को संपर्क में आने को बाद उन्होंने अपनी दुनिया ही बदल डाली । अफसोस की हमारी विरासत उनके पास चली गई और गिलाजत हमारे पास ॥
तारिक खान
(समाप्त)

यांदें ...

कितनी लम्बी हैं उसकी यांदें ...
हर जगह संजोई हैं यांदें
तब अलग था याद करने वाला
रोने और मुस्कराने मैं थी यांदें
फ़िर.....
कुछ समय बिता यांदें धूमिल हुंई
चढ़ती उम्र मैं
बहुतेरे वर्ष उसकी यांदों मैं बीतेऐ
सच कहें तो
याद करके हम बहुत पछताए
आखिरकार .......
वह उम्र भी कहीं बहुत पीछे छुट गयी
वो यांदें न जाने कहाँ खो गयी
लेकिन बीमारी यह हुयी की
दिल को हमेशा याद करने की फितरत हो गयी
अब कोई नही है हमारा अपना
जिसकी यादें आयें
यश हो प्रतिष्ठा हो
प् द हो या सम्पदा हो
भीतर बैठे फैलाकर
ठीक ठीक कहिये तो चौकरी मारकर
दो कोडी की चीज भी यहाँ सस्ती नहीं मिलती
यह दुकान कीसी को दिखायी नही देती
और
अपनी याद करने की आदत को अब क्या कहूँ
जिंदगी के आखिरी मुकाम पर भी थमती नही दिखती .......

अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो ......

जी टीवी पर प्रसारित हो रहे धारावाहिक अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो .......को देखा । लाली का गौना होने वाला है । सजी-सवरी लाली खुश है। उसके पति गणेशी को न देखकर गाँव वाले पूछते है की बिना दुल्हे के ही गौना होगा क्या ? लाली के माँ-बाबू बहाना बना देते है की गणेशी ठाकुर साहब के यहाँ कम करता है,वो उसे छोटे भाई की तरह मानते है । विदाई की रस्मो के दौरान अचानक ठाकुर साहब उठ जाते है ,उन्हें याद आता है की लाली तो छोटी जाति की है । उसका शुद्धिकरण किए बिना कार में कैसे बिठाया जा सकता है ! अब शुरू होता है शुद्धिकरण का दौर । मंत्रो को सुनकर गाँव वाले कहते है की ये तो शुद्धिकरण के मंत्र है ......लाली भी इस नए कम से अचंभित है......खैर आगे तो कल ही पता चलेगा की लाली के साथ क्या होगा ? पर ये सारे दृश देखकर मन में सवाल उठता है की जातिवाद हमारे देश में किस गहरे से पकड़ बना चुका है ।
हम सब केवल जाति और समूहों में ही सिमटे हुए है। हमारी सभी बाते बस जाति और धर्म पर आ कर ख़त्म हो जाति है । हाँ ,अपने मतलब या फायदे की बात होते ही हम जाति-धर्म सब भूल जाते है । ऊपर से तो बहुत ज्यादा परम्परावादी बनते है और अंदर एक शैतान छुपा हुआ है ।
अब समाया आ गया है की इन दकियानूसी बातो को भुलाकर केवल देश और समाज की उन्नति के बारे में सोचा जाए । भूल जाना होगा की कौन किस जाति और धर्म का है ,याद रखना होगा तो सिर्फ़ मानवता का धर्म । चेहरे से नकाब उतारकर ख़ुद को सही तौर पर पेश करने की जरुरत है । हम जो है वही रहे क्या जरूरत है की दूसरों के सामने दिखावा करे । बस थोडी सी झूठी तारीफ के लिए अपने को क्या छुपाना.कोई आपकी थोडी सी बुराई ही तो करेगा। कम से कम आप ख़ुद अपनी आत्मा के गुनाहगार तो नही रहेगे ।
आज बस इतना ही दोस्तों,लगता है कुछ ज्यादा ही हो गया पर क्या करू ये भड़ास उगलनी जरूरी थी .........

27.4.09

भड़ास blog: दु:ख के सब साथी सुख में ना कोय

भड़ास blog: दु:ख के सब साथी सुख में ना कोय

दु:ख के सब साथी सुख में ना कोय

क्यों ! चौंक गए ना। आपको शायद यह शीर्षक उल्टा-पुल्टा लगा होगा। या तो लेखक सिरफिरा लगा होगा। लिखना चाहिए था "सुख के सब साथी दु:ख में ना कोय" यही बोल तो "गोपी" फिल्म में नायक ने गाया था, जबकि यहां लेखक ने लिख मारा "दु:ख के सब साथी सुख में ना कोय"। पर भाईजान मेरे हिसाब से आज के जमाने में यही शीर्षक सोलह आने खरा है। बोले तो गोलघर वाले सुनार की दुकान जितना। हमारे गोलघर वाले सुनार महोदय अक्षय तृतीया पर खरा सोना देने का दावा कर रहे हैं। यानि बाकी के दिनों में कैसा? वैसे तो हमारे देश की सबसे विश्वसनीय मानी जाने वाली बैंकिग संस्था भारतीय स्टेट बैंक ने भी सभी लोकप्रिय अखबारों में मोटे-मोटे अक्षरों विज्ञापन दिया है कि उनके यहां अक्षय तृतीया को अंतर्राष्ट्रीय मानक वाला खरा सोना रियायती दाम पर मिलेगा। पर मेरे हिसाब से गोलघर वाले सुनार से खरीदना ज्यादा अच्छा होगा। पूछो क्यों? अरे भाई, गोलघर वाले सुनार महोदय ने सोने के दाम का फुल फाइनेंस करने का भी तो वायदा किया है। यानि हमें किश्तों में इसका भुगतान करना पड़ेगा। है ना फायदे वाली बात। आजकल वैसे भी किश्तों पर सामान लेने का प्रचलन चल पड़ा है। जिसे देखो वो अपने जरूरत की चीजें थोड़ा पैसा खर्च करके किश्तों ले रहा है। टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, कार, बाइक सहित जितनी भी लक्जरी के सामान हैं, सभी तो आसान किश्तों पर मार्केट में उपलब्ध हैं। तो हम क्यों एकमुश्त रकम अपनी गांठ से खर्च करके सामान खरीदें। टीवी पर विज्ञापन देने वाली बहनजी भी कहती हैं - समझदारी इसी में है।

हां तो हम बात कर रहे थे शीर्षक की- "दु:ख के सब साथी सुख में ना कोय"। अपने आस-पास जरा निगाह उठाकर देख लीजिए। आपको इससे संबंधित ढ़ेर सारे उदाहरण बिना अधिक प्रयास के मिल जाएंगे। इसीलिए मेरा मानना है कि यह शीर्षक बिलकुल खरा है। चाहें तो किसी भुक्तभोगी की कसौटी पर रखकर इसे परख सकते हैं। ऐसे ही एक भुक्तभोगी से मेरी मुलाकात हुई। खैर-खैरियत का आदान-प्रदान हुआ। बातचीत के दौरान उसने बड़े ही गूढ़ रहस्य से मुझे अवगत कराया। बोले- शर्माजी, आप क्या सोचते हैं। क्या जो भी आपके दु:ख में शामिल होता है, वे सभी आपके शुभचिन्तक हैं? मैंने कहा-हां। उन्होंने कहा- नहीं, उनमें से अधिकांश आपके दु:ख का सुखभोग करने आते हैं। उनका ऊपर से मुख उदास, अंदर से मन उल्हास होता है। आप जितने ज्यादा दु:खी, वे उतने ज्यादा प्रसन्न होते हैं। वे आपके दु:ख में शरीक तो होते हैं। परन्तु बाहर निकलते ही आपके अवगुणों का बखान कर-करके अपनी भड़ास निकालते हैं। बड़ा सयाना बनता फिरता था। हाथ ही नहीं रखने देता था। अब मजा चखेगा। इसके विपरीत जहां आप प्रसन्नचित्त दिखे नहीं कि लगा उनके कलेजे पर सांप लोटने। आपको खुश देखकर वे बिचारे दु:खी हो जाते हैं। आज के जमाने में अगर किसी से पूछा जाए कि आप दु:खी क्यों हैं। वह कहेगा कि मेरा पड़ोसी सुखी है। इसी प्रकार किसी दिन वह प्रसन्न दिख जाए तो पूछा जाए कि वह इतना प्रसन्न क्यों है। वह कहेगा कि मेरा पड़ोसी बड़ा दु:खी है। आज के जमाने में सुख-दु:ख के अनुभव का पैमाना दूसरों के दु:ख-सुख पर आधारित हो गया है। पड़ोसी दु:खी हम सुखी, पड़ोसी सुखी हम दु:खी। मैंने उन सज्जन का इस गूढ़ रहस्य से परिचित कराने के लिए हृदय से आभार प्रकट किया।

मुझे एक कहानी भी याद आ रही है, जो बचपन में मेरे पिताजी ने मुझे सुनाई थी। एक कामी व्यक्ति था। कामी से मेरा आशय कामना रखने वाला चाहे, अपने हित की कामना रखता हो या किसी के अहित की। पहले के जमाने में भी अधिकांश तपस्वी किसी ना किसी के अहित की कामना लेकर ही तपस्या किया करते थे और अब भी करते हैं। हां तो उस कामी व्यक्ति ने भगवान शिव को तपस्या के लिए चुना क्योंकि वह जानता था कि भगवान शिव ही ऐसे भोले हैं, जो अत्यल्प तपस्या से ही प्रसन्न हो जाते हैं। इसमें सती (गौरी) की तपस्या अपवाद मानी जाएगी, क्योंकि उन्होंने शिव को पतिरूप में पाने के लिए हजारों वर्षों तक उनकी तपस्या की, तब जाकर शिव प्रसन्न हुए थे। इस घोर कलयुग में भगवान ने किसी मानव को इतनी ज्यादा आयु ही नहीं दी और आज के मानव के पास इतना फालतू समय ही नहीं है कि वह सौ वर्ष तक भी तपस्या कर सके। लब्बो-लुआब शिव उस कामी व्यक्ति की तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्होंने उससे कोई एक वर मांगने को कहा, परन्तु भगवान तो ठहरे अंतर्यामी। वे जानत-बूझते थे इस कामी की इच्छा। अत: उन्होंने जानबूझ कर एक शर्त भी जोड़ दी कि जो तुम अपने लिए मांगोगे उससे दूना तुम्हारे पड़ोसियांे और शुभचिन्तकों को स्वयमेव मिल जाएगा फ्री में। याचक परेशान। भगवान ने उसे यह किस दुविधा में डाल दिया। जिस इच्छा को लेकर उसने तपस्या की थी कि वह अपने पड़ोसियों और अपने इष्ट-मित्रों से अधिक सार्मथ्यवान, धनवान हो जाए। परन्तु भगवान ने तो सारा गुड़-गोबर ही कर दिया। तपस्या मैंने की परन्तु जितना मैं अपने लिए मांगूंगा उससे दूना उन लोगों को फ्री में मिल जाएगा। हाय रे ! भगवान की अद्भुत कृति ईर्ष्यालु जीव, उसने काफी सोच-विचार भगवान से कहा कि मेरी एक आंख फूट जाए। आगे क्या हुआ होगा आप जान ही गए होंगे। भगवान ने यह कैसा जीव पैदा कर दिया जो दूसरों अहित में ही अपना हित समझता है।

मैंने पुस्तकों में थ्यौरी पढ़ी है कि दु:ख में जो साथ निभाए वही आपका सच्चा मित्र, सच्चा साथी, सच्चा हितैषी होता है। पर अनुभव (प्रैक्टिकल) ने बताया कि दु:ख में शामिल होने वाले सभी आपके सच्चे मित्र, सच्चे हितैषी नहीं होते हैं। बल्कि उनमें से अधिकांश हितैषी की खाल ओढ़कर आपके घाव को कुरेद कर उस पर आयोडायज्ड नमक छिड़ककर परमानन्द का सुखभोग करने वाले होते हैं। ऐसा ही अपने को मेरा परम हितैषी घोषित करने वाले मेरे एक मित्र ने जब सुना कि मेरा एक्सीडेंट हो गया और उसमें मेरा पैर फ्रैक्चर हो गया। उसने मुझे फोन करके अपनी संवेदना प्रकट की और लगे हाथ एक सप्ताह पहले बीते हुए मेरे जन्मदिन की मुबारकबाद भी दे डाली। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि मेरे इस शुभचिन्तक ने मुझे मेरे जन्मदिन पर अपनी संवेदना प्रकट करने के लिए फोन किया था या पैर फ्रैक्चर होने की मुबारकबाद देने के लिए। काफी मनन-मंथन करने के पश्चात मेरे मन ने मुझसे कहा कि वह मेरा सच्चा हितैषी है उसे मेरे जन्मदिन पर मुबारकबाद देने की फुरसत न मिली हो न सही। कम से कम उसने मेरा पैर फ्रैक्चर होने पर अपनी संवेदना प्रकट करने के लिए समय तो निकाल ही लिया। इससे एक बात तो सिद्व होती है कि वह मेरे सुख के दिन का साथी न सही दु:ख का तो साथी है ही।

आपको कुछ शुभचिन्तक अथवा परम हितैषी ऐसे भी मिल जाएंगे जो आपके दु:ख में घड़ियाली आंसू बहाते हैं, परन्तु जहां आपने उन हितैषी बंधु से किसी मदद, चाहे समय की हो या धन की या तन की, अपेक्षा की नहीं कि वे लगते हैं अपने को ब्रह्माण्ड का सबसे दीन-हीन एवं अभावग्रस्त बताने। वे अपनी विपदा की पोथी-पत्रा बांचने बैठ जाते हैं। अब आप सोचने लगते हैं कहीं हम भी इनके दु:ख की कल-कल बहती नदी के वेग में बह ना जाएं। आपको झट से अपना आवेदन वापस लेना पड़ता है और बड़े विनम्र भाव से, परन्तु अंदर से कुढ़ते हुए, उनसे कहना पड़ता है कि आप आए, दु:ख में शामिल हुए, अपनी संवेदनाएं प्रकट की, मेरे घाव पर नमक सॉरी मरहम लगाया, शहद से भींगे हुए दो फ्री के मीठे बोल बोले यही हमारे लिए दुनिया की सर्वश्रेष्ठ शुभकामना है। आपका वह अनन्य मित्र, परम हितैषी भी मन ही मन ईश्वर को लाख धन्यवाद देगा कि चलो मदद-वदद की बला से छुटकारा मिला। वरना फालतू में धन-जन-तन की बाट लग जाती।

आजकल मैं भी अपने अनुभव का लाभ अपने ईष्ट मित्रों में धड़ल्ले से बांटने में लग गया हूं। इससे मुझे भी एक अनिर्वचनीय आत्मिक सुख का अनुभव होता है। मस्तराम जी, कहने को तो मेरे परम मित्र हैं, पर उनको मुझे दु:खी देखना बड़ा रास आता है। जबसे मुझे उनकी इस अभिलाषा के बारे में ज्ञान हुआ, तब से मैंने भी उनको प्राय: दु:ख के झटके देना प्रारम्भ कर दिया है। एक सुबह वे मॉनिंग वॉक पर मिल गए। बोले कैसे हैं शर्माजी ! आज मैंने उनको झटका देने का पूरा प्लान बना रखा था। अत: चहक कर बोला- बड़ी गुड न्यूज है। मेरा छोटा बेटा कल अपनी क्लास में 93 प्रतिशत अंको से पास हुआ है। मैं जानता हूं कि उनका सुपुत्र कभी भी 60 प्रतिशत अंकोंे से उबर नही पाया है। अत: मेरा दमकता चेहरा देख कर उनको हांफी चढ़ गई। उच्च रक्तचाप की शिकायत महसूस करने लगे। लगा अभी मूर्छित हो जाएंगे। उनकी यह दशा देखकर मेरे तुरन्त ही उनके कान में कहा कि पर मेरे बेटे की क्लास में सातवीं पोजीशन आई है। छ: बच्चे उससे ज्यादा अंक पाए हैं। इतना सुनना था कि आश्चर्यजनक रूप से मस्तराम जी की हालत में सुधार होने लगा। धीरे-धीरे वे सामान्य पोजीशन में आ पाए।

इसी तरह मेरे एक और अजीज है छठी प्रसाद जी। वे भी मस्तराम जी की तरह ही दूसरों के दु:ख में सुख और सुख में दु:ख का अनुभव करने वाले जीव। मैं उन्हें भी अक्सर सुख और दु:ख का मजा चखाता रहता हूं। इससे मुझे भी एक अनोखे मानसिक सुकून का अनुभव होता है। देखा जाए तो मैं भी तो उसी ईश्वर की कृति हूं जिसकी हमारे अन्य ईष्ट-मित्र। इसलिए मुझे भी दूसरों को दु:खी करके प्रसन्नता होती है जो कि स्वभाविक ही है। मैं जिस विभाग में कार्यरत हूं। मेरे द्वारा किए गए सर्वश्रेष्ठ कार्य (संगी-साथियों की नज़रों में तेल लगाने) के लिए मेरे अधिकारी द्वारा विभाग के सर्वोच्च पुरस्कार के लिए विगत कई बार से मेरे नाम को संस्तुत किया जाता था। परन्तु किन्हीं कारणों से मेरे नाम पर विचार नही हो पाता था। इसकी सूचना पाकर मेरे कथित संगी-साथियों को अपार हर्ष होता था, उनमें हमारे छठी प्रसाद जी सबसे आगे रहते थे। वे अपने खिले हुए थोबड़े के साथ अपनी संवेदना प्रकट करने मेरे पास अवश्य आते थे और मैं अंदर ही अंदर कुढ़ कर रह जाता था। इस बार भी मेरा ही नाम पुन: सर्वोच्च पुरस्कार के लिए नामित किया गया। छठी प्रसाद जी एंड कंपनी को पूरा विश्वास था कि इस बार भी विगत वर्षों की भांति ही हश्र होगा। वे आश्वस्त थे। पर इस बार प्रसन्न होने की बारी मेरी थी। जैसे ही छठी प्रसाद जी एंड कंपनी के लिए इस अशुभ समाचार की सूचना विभाग में आई। लगा छठी प्रसाद जी को फालिज मार जाएगा। वे संज्ञाशून्य होकर मेरा दमकता चेहरा देख रहे थे। उनको दु:ख के सागर में गोता लगाते देखकर मैं भी मन ही मन प्रसन्न हो रहा था। अन्त में उनको और अधिक दु:खी करने उद्देश्य से मैंने उनसे कहा- क्यों मित्र ! क्या मुझे बधाई भी नहीं दोगे। उन्होंने बुझे मन से मुझे बधाई दी। उनका बुझा चेहरा देखकर मेरा मन-मयूर नाच रहा था।

ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव रूपी यह जीव वाकई बड़ी ईर्ष्यालु है। यह दूसरों के दु:ख में सुखी और दूसरों के सुख में दु:खी होता है। यह ईर्ष्यावश दूसरों के सुख को शेयर नही करता और यदि करता भी है तो मात्र दिखावे के लिए। परन्तु किसी के दु:ख में सुखलाभ लेने के लिए अवश्य ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है और जरूरत पड़ने पर घड़ियाली आंसू बहाने में भी गुरेज नहीं करता है। इसीलिए मेरा मानना है- दु:ख के सब साथी सुख में ना कोय।

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भारतीय चुनाव

बिहार के चुनाव में सभी दल हल्ला बोल में लगे हैं और इसमे भी कुछ खास हैं। जैसे लालू प्रसाद .......... रामविलास पासवान ............ कल तक ये दो एक दुसरे को सुहाते तक ना थे और आज ................. कल भी साथ रहने का वडा करते हैं। बेचारे लालू जी की तो जवान फिसलन का दौरा पर गया है ........ कभी रोलर चलाने का वडा करते हैं तो कभी अपने खेवनहार कांग्रेस पार्टी को ही जो इन्हें सी बी आई बचा रही है चारा निगलने के आरोप में , को ही कह देते हैं की बाबरी मस्जिद को तोड़ने का जिम्मा कांग्रेस पर भी आता है। लालू यादव का तो माय टूट गया । बिहार का मुस्लिम मतदाता लालू फोबिया से अपने को अलग कर रहा है। कांग्रेस को वो देख रहा है । इसी को लेकर लालू जी को बौखलाहट आ गई की मेरे मुस्लिम वोट को कांग्रेस क्यों तोरे। भारत के मुस्लिम मतदाताओं की एक बड़ी त्रासदी यही है की सभी राज्य में अलग अलग दल भाजपा नाम का भूत दिखा कर उसे फुसला लेते हैं। वोट लेने के बाद उनकी सुध किसी को नही होती। आख़िर कब तक ये ब्लैक मेलिंग चलता रहेगा । रावरी देवी भी लालू जी की ही तरह आज कल तोप ही छोर ही रही है। कौन नहीं जानता की अधिकांश नेताओं का चरित्र किस तरह का होता है। समाज को धोखा देना तो इनका पहला वसूल है ही इश्क से लेकर फरेब तक इनके आचरण में शामिल रहता है। ऐसे आचरण के ही अधिकांश नेता नेत्री हैं। तो किसी एक को टारगेट करने से कुछ नहीं होने वाला । अपने घर में भी रावरी जी को देखना चाहिए। खैर ये सब चुनाव तक ही। फिर नेता जनता को लूटने में लग जायेंगे।

कन्या भ्रूण हत्या

इस हफ्ते लगता है कि लिखने के लिए कुछ अच्छा नहीं मिल पायेगा जिस पर लिख सकूं। बीते दिनों में सीतापुर के बीच से बहने वाली सरायन नदीं के आस-पास नवजात भ्रूण मिलने का सिलसिला जारी है। अब कौन और किन परिस्थियों में यह सब कर रहा है किसी को नहीं पता परन्तु एक बात तो है कि हम अपने को चाहे जितना सभ्य, चरित्रवान, संस्कारी आदि कहते रहें पर इस तरह का घटियापन हमारे से दूर होना ही नहीं चाहता। यदि जीवन को सहारा देने की इच्छा नहीं है तो किस लिए एक बच्चे को इस दुनिया में लेन की कोशिश की जाती है ? क्यों नहीं ऐसे लोग सोचते कि उनके माँ-बाप ने यदि इस तरह से किया होता तो वे भी कुछ लोगों के लिए जबानी ख़बर बन कर ख़त्म हो चुके होते। आज की तरह उनकी लाश को किसी अखबार का पन्ना भी नसीब नहीं होता। जीवन कितना सुकून देता है और मौत किस तरह से तोड़ देती है ? मैं एक चिकित्सक हूँ अरमान फिल्म का अमिताभ बच्चन की कही बात याद जाती है कि जब कोई मर जाता है तो चिकित्सक हार जाता है। हमारा सारा ध्यान एक जान को बचा लेने में ही लगा रहता है पर क्यों कुछ लोग एक मासूम जान को इतनी आसानी से मार डालते हैं ? अब यह तो नहीं पता कि इस प्रक्रिया में सदैव बच्चे की माँ भी शामिल होती है या नहीं पर यह काम उससे सहमति या ज़ोर से करवा ही लिया जाता है अब आप लोग यह मत पूछना कि वो भ्रूण किसके थे क्योंकि कोई अपने "वंश को चलाने वाले" को कभी भी घूरे पर या नदी में नहीं फेंकता है , यह तो केवल "घर का बोझ समझी जाने वाली कोई लड़की" ही होती है जिसके बिना ऐसे मानसिक रोगियों का वंश नहीं चल सकता है ? यह मामला सीधे तौर पर कन्या भ्रूण हत्या सरीखा ही लगता है पर चुनाव में दबी जा रही पुलिस चुनाव कराये या सामाजिक सरोकार निभाए। कोई नेता भी इस मसले पर दो आंसू बहाने नहीं आया शायद चुनाव आयोग का डर होगा क्योंकि यह आधी, दबी-कुचली, मार खाने वाली, प्रताड़ना सहने वाली, फिर भी वंश को आगे बढ़ाने वाली आबादी की कहानी है और दुर्भाग्य से उसे भी लोक-तंत्र के इस महायज्ञ में आहुति डालने के लिए चुना गया है ?

Loksangharsha: राजनितिक भँवर में अपने वजूद को ढूंढता मुसलमान-5


उधर मुलायम सिंह ने राज्य मे मुख्यमंत्री के तौर पर और केन्द्र में रक्षामंत्री के तौर पर सत्तासीन होने के बाद अपनी सौगातों का पिटारा केवल यादवो के लिए ही खोला । इस बात का लाभ उठाकर सपा विरोधी पार्टियों ने मुसलमानों को मुलायम विरुद्ध शनेः शनेः बरगलाना शुरू किय नतीजे में मुसलमानों कर भीतर मुलायम के विरुद्ध नाराजगी में इजाफा होता चला गया और मुसलमान एक बार फिर वही गलती दोहराने लगे,अर्थात मुलायम में भी उसी प्रकार कीडा नजर आने लगे जैसे की कांग्रेस में उन्हें मिलते थे। वास्तव में सांप्रदायिक शक्तियों का पहला लक्ष्य मुसलमानों की वोट पॉवर को छिन्न भिन्न करना था वह नही चाहती थी की मुस्लिम एक राजनितिक छतरी के नीचे रहे । उनके इस कार्य में उन्हें भरपूर सहायता उन्ही के सोच से उपजा साम्राज्यवाद का पौधा अमर सिंह नाम के एक राजनेता ने दी। अमर सिंह ने मुलायम सिंह के समाजवादी चरित्र को एकदम धोकर रख दिया और मुलायम के ऊपर अमर प्रेम का ऐसा नशा चढा की समाजवाद व मुस्लिम प्रेम अमर सिंह के ग्लामौर की चकाचौंध में फीका पड़ता चला गया । के उत्तर प्रदेश k uttar pradesh विधान सभा चुनाव में काफी संख्या में मुस्लमान मायावती की पार्टी बहुजन के पक्ष में अपना वोट देकर उन्हें स्पष्ट बहुमत से नवाजा परन्तु फिर वाही कहानी?उनकी गिनती कम और पंडितो की अधिक आज कल्याण सिंह के साथ मुलायम सिंह की दोस्ती ने उन्हें कही का नही छोडा है साम्प्रदयिक शक्तियों व मौका परस्तो की तो किस्मत खुल गई है। मीडिया में भी कल्याण मुलायम दोस्ती और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप मुस्लिम नाराजगी को खूब बढ़ा चढा व चटखारे लगा के पेश किया जा रहा है उन्हें अब कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद गिरवाने का दोषी और आजम खान को मुस्लिम हीरो बताने में कोई हर्ज नही दिखलाई दे रहा है।वरना यही मीडिया जब कल्याण सिंह भाजपा के वफादार थे तो उनके कसीदे पढ़ा करती थी और आजम खा को सर फ्हिरा कट्टरपंथी मुस्लिम लीडर मन करती थी। उधर वह मुस्लिम धर्मावलम्बी जो पहले मुलायम चलीसा पढ़ा करते थे आज मायावती के दरबार की रौनक बनकर नंगे पैर खड़े नजर आते है। मुलायम सिंह पर सांप्रदायिक शक्तियों के साथ हाथ मिलाने का आरोप लगते वक्त उलेमा व कथित मुस्लिम लीडर मायावती का मोदी प्रेम कितनी आसानी से भूल जाते है । कल्याण सिंह व नरसिम्हा राव को यदि बाबरी मस्जिद का ध्वस्तीकरण का जिम्मेदार कहा जा सकता है तो ढाई हजार मुसलमानों का नरसंहार व उनकी करोडो की संपत्तियों को बर्बाद करने वाले भगवा हिंदुत्व के अग्रीणी लीडर नरेंद्र मोदी के हक में प्रचार करने वाली मायावती को सांप्रदायिक शक्तियों का समर्थक क्यों नही कहा जा सकता जो तीन बार केन्द्र में राजग सरकार से हाथ मिला चुकी है ।
वास्तव में मुसलमानों की दुर्दशा के असल जिम्मेदार तीन लोग है एक मुसलमान स्वयं जो सियासत के मैदान में जहाँ उन्हें भावनाओ के स्थान पर अपने दिमाग का इस्तेमाल करना चाहिए तह वह भावनाओ में बहकर कभी माया में अपना मसीहा ढूंढते है तो कभी मुलायम में दूसरे वह कथित मुस्लिम लीडर जो अपना स्वार्थ साधने के लिए उनके वोटो का सौदा गुप्त रूप से करतें है
तारिक खान
(क्रमश :)

हर जगह मातम ...सिर्फ मातम..और कुछ नही


इस रोड पर इस कदर कीचड़ पडी है हर किसी का पाव घोटूंओ तक सना है शायद कभी दुष्यंत कुमार ने यह नहीं सोचा होगा की उनकी लिखी हुई पंक्तिया अपने देश के किसी पर ठीक बैठेंगी इस देश में मातम है, या हर किसी को मातम में जीने की आदत पड़ गई है,सुबह के 11:30 बज रहे है ,मैं मोजूद हूँ अपने न्यूज़ रूम में जहा से अपना ब्लॉग टाइप कर रहा हूँ ,मन में बार बार यही सवाल कोंध रहा है की क्या होगा .टॉप मेनेजमेंट बार यही कह रहा है की अब छटनी नहीं होगी ,.लेकिन टॉप का मतलब टॉप ही होता है खैर एक बड़े न्यूज़ रूम से बड़े न्यूज़ स्कूल का मतलब क्या होता है क्या आपका भविष्य एक नई परिभाषा को रच देगा ,आप की ज़िन्दगी उन मुकामों की कहानी रच देगी जिसके बारे में आपने और मैंने कभी नई सोचेगा ...आज तक ,न्यूज़ २४ ,वौइस् ऑफ़ इंडिया .और अब NDTV की दुकाने अब सजने लगी है जहा पर सपने बिकते है जहा हर रोज़ नए सपने जिस तरीके से दाखिल होते है उससे कही बुरी तरह वो टूट जाते है ,कुछ ऐसा ही हो रहा है ,आज हमारे साथ PKG 15000 जब हम एक बड़े न्यूज़ चेनल के एक बड़े स्कूल के दाखिल हुई तो कुछ सपने मैंने भी देखे थे ,उम्मीद करता हूँ मेरी माँ ने भी कोई ख्वाब देखा हो क्योकि ख्वाब तो वो आँखें देखती है जो कभी सोती हों ,लेकिन उन आँखों का क्या जो कई मुद्दतों से सोई ही ना हो ,मेरे माँ भी कुछ ऐसी है ,मेरे तरह से सेकडों लोग ऐसे है जो अपने सपनो को हर रोज़ यहाँ लुटते हुए देख रहे है ,सिर्फ देख रहे है हम कुछ नहीं कर सकते है ,कईयों के सपने टूट गए ,कई लोग ऐसे है जो अपने घर में सबसे बड़े है वो जिनके घर में कोई बड़ा नहीं था जो अपनी पूरी ज़मीन बीस हज्जार में बेच कर आये थे ,अपने सपनो को खरीदने के लिए ........लेकिन उन्हें अभी पता लगा है की उनको चेनल से निकाल दिया जायेगा ,बिना किसी कारण .हम कुछ नहीं कर सकते HR के पास जा जा कर अब थकावट महसूस होने लगी है .जिन लोगो ने ब्याज पे पैसा लिया था वो अब दुगना हो गया है ,कुछ ऐसे भी है जिनके पास कल के खाने के लिए रोटी नहीं है कुछ ऐसे भी जो अपने घर जाना नहीं चाहते ,क्योंकि उनको याद आते है वो पल जो वो घर से आते वक्त वो अपनी माँ के सीने से लिपटकर सजाकर आये थे ,मैं भी सोच रहा था की उन सपनो का क्या होगा ,शायद हमारा भविष्य उस बिसात पर चल रहा है जहा मोहरे के भूमिका पर हम और चलाने वालो की भूमिका किसी और की है ,मैं जानता हूँ कि खामोशी भी बोलती है... कि बहते हुए आंसुओं से ज्यादा तकलीफ पलकों पर ठहरे मोती पैदा करते हैं...कि रुलाइयों से ज्यादा असरदार भिंचे हुए होठों के पीछे छुपाए गए दुख होते हैं।जाहिर है भक्त मीडिया और बाजार का यह रिश्ता पहले से मजबूत हुआ है और आगे भी होता रहेगा। हम अजीब लोग हैं। उपभोग और आध्यात्म को साथ साथ जीते हैं। दोनों से कोई टकराव नहीं बल्कि दोनों से हमारा एक समझौता है। मैं नही जानता की कहानी क्या रंग लाएगी ,लेकिन इतना जरुर है की लोकतंत्र का यह कौन सा प्रहरी है जो आज अपने दुकानों को सज़ा रहा है जहा हर रोज़ सपनो को बेचा जा रहा है ,लेकिन शर्मशार उस वक्त होते है जब इन दुकानों में हम सब नीलाम हो रहे है कबाडे के भाव ,सवाल मेरे नही सवाल उन लोगों का जो अपनी ज़मीन बेचकर अपना सब कुछ बेचकर इन दुकानों में आए थे ,......................

हमें शिकायत करने का हक़ नही है...!!! भाग - २

प लोगो ने पिछली पोस्ट पढ़ी थी अब मैं आपको शिकायत न करने की कुछ और वजह बताता हूँ.....

रिश्वत देने मे और सिफारिश करने मे हम सबसे आगे होते हैं लेकिन जब अपना काम नही होता है तो कहते हैं की बहुत भर्ष्टाचार बढ़ गया है जिसको देखो रिश्वत मांग रहा है....बच्चे के पैदा होने से पहले उसका लिंग पता करने के लिए रिश्वत कुछ कहो तो कहते हैं की आगे तैयारी करने मे आसानी होती है, उसकी पैदा होने के बाद उसके जन्म प्रमाण - पत्र मे उसकी उम्र बदलवाने के लिए हम रिश्वत देते हैं, जब स्कूल में उसका दाखिला कराना होता है तो किसी अच्छे स्कूल में दाखिला कराने के लिए हम रिश्वत देते हैं चाहे हमारा बच्चा उस स्कूल की पढाई झेलने के लायक हो या नहीं हमें उससे कोई मतलब नहीं हैं, किसी खेल की टीम उसको खिलाने के लिए हम रिश्वत और सिफारिश सब कर लेते हैं, और हमारा बेटा खेल लेता हैं वो भी उस लड़के वो निकाल कर जो हमारे बच्चे से बहुत बेहतर खिलाडी है, चाहे जो करना पड़े खेलेगा हमारा बेटा,

बच्चे ने साल बार पढाई नहीं में अब इम्तिहान में कैसे पास होगा लेकिन कोई बात नहीं तेअचेर को रिश्वत देकर किसी और से पेपर दिलवा देंगे, अगर यह नहीं हुआ तो क्लास में चीटिंग का इन्तेजाम करा देंगे, अगर यह भी नहीं हुआ तो कॉपी में नंबर बडवा देंगे, वर्ना हम कॉपी ही बदलवा देंगे, सब कुछ कर्नेगे लेकिन अपने बच्चे को पास करवा कर छोडेंगे.

बेटा पास हो गया, अब वो बड़ा हो गया है उसको गाडी भी चाहिए लेकिन लाईसेन्स कैसे बनेगा उसकी तो अभी उम्र नहीं हुई है, कोई बात नहीं है हम दलाल से बनवा लेंगे थोड़े पैसे ही तो लगेंगे, गाडी से वो जम कर कानून तोडेगा दो चार लोगो को तोडेगा तो क्या हुआ गलती तो सबसे होती है, हम थानेदार को थोड़े पैसे देकर अपने बेटे को छुड़ा लेंगे क्या हुआ अभी छोटा ही तो है उसकी उम्र ही क्या हैं, नादान है,

अब उसकी नौकरी कैसे लगेगी, पढाई तो उसने की नहीं है लेकिन कोई बात नहीं है हमारे पास पैसा बहुत है, कुछ भी कर कर उसकी नौकरी हम लगवा देंगे, थोड़े पैसे क्लर्क को देंगे, थोडी मिठाई जूनियर मेनेजर को देंगे, थोडी मिठाई और एक नेता का सिफारिश लैटर मेनेजर आगे पढ़े...

जरनैल सिंह को ढेर सारे थैंक्स

सॉरी, जरनैल सिंह जी। जिस दिन आपने गृह मंत्री पर जूता फेंका था उस दिन मैंने आपको बहुत बुरा भला कहा था। मैं नादान था गलती हो गई। तब तो नारदमुनि यही समझता था कि आजकल कौन पत्रकारों का अनुसरण करता है। उनके किए और लिखे पर कौन ध्यान देता है? अब समझ आ रहा है कि नारदमुनि तू कितना ग़लत था। उस दिन तो जरनैल सिंह ने जूता फेंक कर देश में एक नई क्रांति की शुरुआत की थी। हम इराकी नहीं हैं जो एक बार में बस कर जायें,हम तो वो हैं जो एक बार कोई बात पकड़ लें तो उसका पीछा नहीं छोड़ते। हाँ, बात ही हमारा पीछा छोड़ दे तो अलग बात है। तो जरनैल सिंह जी आपने जो कुछ पत्रकार के नाते लिखा होगा उसका असर कभी हुआ या नहीं आपको पता होगा, लेकिन आप इस बात की खुशी तो मना ही सकतें हैं कि आपके किए का असर हुआ और लोग भी अब आपके पद चिन्हों पर चल रहें हैं। किसी के लिए इस से ज्यादा खुशी और क्या हो सकती है कि देश वासी उसका अनुसरण कर रहें हैं। जरनैल सिंह जी,नारदमुनि दर दर भटकने वाला अज्ञानी है। आपको कोई सलाह , सुझाव,राय देना सूरज को दीपक दिखाना है। फ़िर भी कुछ कहने की गुस्ताखी कर रहा हूँ। जरनैल सिंह जी आप के पास समय हो तो जूता फेंकने के सम्बन्ध में कुछ टिप्स लोगों को देन। आपने देखा कि आपके जूते ने जितना असर दिखाया था उतना किसी के जूते ने नहीं। इसलिए आप सबको बताओ कि जूता किस एंगल से फेंका जाए। जूता फेंकने वाला नेता से कितनी दूरी पर हो। जूते का वजन लगभग [ मोटे रूप में ] कितना हो। कौनसा समय उत्तम होता है जूता फेंकने के लिए। जूता कोई खास कंपनी का हो या कोई भी कंपनी चलेगी। आप कोई रिकमंड करो तो...... । जूता फेंकने के लिए पहले क्या तैयारी करनी जरुरी है। जूता फेंकने वाले को क्या क्या सावधानी रखनी चाहिए। जूता नया हो या पुराना,या फ़िर नेता की शक्ल सूरत के हिसाब से नया पुराना तय करें।हो सके तो कोई किताब ही लिख डालो। क्योंकि आपके मार्ग दर्शन के बिना जूता क्रांति दम तोड़ सकती है। हम नहीं चाहते कि पत्रकार द्वारा शुरू की गई क्रांति बे असर रहे। जरनैल सिंह जी थोड़ा लिखा ज्यादा समझना। उम्मीद है आप करोड़ों देशवासियों की उम्मीद नहीं टूटने देंगें। कीमती समय में से थोड़ा सा समय निकाल कर मार्गदर्शन जरुर करेंगें।

26.4.09

होसला ......

टहनियों पर यांदो का इक सिलसिला रह जाएगा
लौट जायेंगे परिंदे घोसला रह जाएगा
टूट जायेंगे पर बोलेंगे सच ही
आईनों का येही इक सिला रह जाएगा
किस तरह से जी रहे हैं जन लोगे देख कर
ख़त हमारा एक भी गर अधजला मिल जाएगा
तुम भले बंद कर लेना मेरी यादों का रोशनदान
कोई न कोई झरोखा मेरी याद दिला ही जाएगा
फिर बसा लेगा वो पंछी अपना आशियाँ कहीं
पास उसके गर कुछ हौसला रह जाएगा ...

hosla

आज मैंने ऐसे कमाया चार सौ रुपया

मैं एक पत्रकार हूँ और साथ में ही भडासी भी हूँ। भड़ास पैर हूँ तो जाहिर है की पत्रकार ही होऊंगा। मेरे पास टी वी चैनल्स के साथ साथ एक अख़बार भी है अब अंपनी डेस्क के कहने से मैं नैनताल लोक सभा सीट से चुनाव लड़ रहे कैंडी डेट से विज्ञापन मांगने गया। मेरा पन्द्रह प्रतिशत कमीशन तै हुआ । लेकिन मुझे किसी भी कैंडी डेट ने विज्ञापन नहीं दिया। एक कैंडी डेट के समर्थक ने मुझसे कहा की तुम मेरे साथ जन सम्पर्क पर चलो तो तुम्हें मैं सौ रुपया दूंगा। मैंने भी सोचा की अगर आज घर पर दाल चावल नहीं ले कर गया तो घर मैं खाने को नहीं मिलेगा । मैंने कैंडी डेट के चमचे के साथ ४ घंटे दिए और वोट मांगे। ४ घंटे बाद मैंने कहा अब मैं चल रहा हूँ मेरा सौ रुपया दे दो। मुझसे बोला की चार घंटे मैं सौ रुपया मैंने कहा के पत्रकार की भी कोई इज़त होती है आप तो बिल्कुल मजाक मैं ले रहे हैं। खैर उसने मुझे सौ रूपये दे दिए और कल के लिए भी बुक कर लिया। आब मुझे समझ मैं आ गया की चुनाव मैं पैसा कैसे कमाया जाए। अब मैं रोज सुबह दो घंटे भाजपा के लिए, दोपहर को कांग्रेस के लिए, शाम को बसपा के लिए और रात को सपा के लिए वोट मांगता हूँ मेरा सभी से सौ रुपया तै है। आखिर पत्रकार किस के लिए वोट मांगे तो वोह तो जीतेगा ही ना। लेकिन मुझे आज तक नहीं पता की मैं अपना वोट किसे दूंगा। जो भी मेरा भाई इस फार्मूले को इस्तेमाल करना चाहे कर सकता है और कौन सी पार्टी को वोट दूँ आप अपने भाई के मोबाइल नम्बर ०९०१२००४३१०० पर जरुर बता देना या फिर मुझे मैं कर देना आप भाई लोगों की कृपा होगी हमारे यहाँ १३ को चुनाव है इससे पहले पहले मुझे एक जोड़ी चप्पल भी खरीदनी है। ऐसे मैं आप भाई मुझे नया तरीका बता कर इस गरीब पत्रकार की मेरी मदद करें।

Loksangharsha: राजनितिक भँवर में अपने वजूद को ढूंढता मुसलमान-4

राजनितिक भँवर में अपने वजूद को ढूंढता मुसलमान-4

इस घटना ने देश के मुसलमानों को तोड़ कर रख दिया उनके अस्तित्व का सावल उठ खड़ा हुआ बल्कि यूं कहा जाए तो बेजा न होगा की बाबरी मस्जिद ध्वस्तिकरण कांड ने वास्तव में देश को दो कौमों हिंदू व मुसलमान के बीच बाँट दिया जो काम विभाजन न कर सका था वह नरसिम्हा राव ने भाजपा के साथ मिलकर दिखा दिया। संकट की इस घड़ी में केवल मुलायम सिंह का हाथ आगे बढ़ा और उन्होंने आतंकित मुसलमानों को सहारा दिया वरना बाबरी मस्जिद आन्दोलन में आगे-आगे चलने वाले और आदम सेना बनाकर उसकी रक्षा करने वाले सब बिल में दुबक के बैठे रहे।
जिस वक्त देश भर में 6 दिसम्बर 1992 की रात्रि शौर्य दिवस मनाया जा रहा था और शंखनाद हो रहा था मुसलमानों की अग्रिम पंक्ति कर सियासी नेता व धार्मिक लीडरों का कही पता नही था।
मुलायम सिंह को मुसलमानों ने अपना मसीहा मानकर कांग्रेस से अपना दामन झटक लिया नतीजे में कांग्रेस कमजोर होते ही केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार का गठन एक नही तीन -तीन बार हुआ । मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने तब अटल बिहारी बाजपेई के कसीदे पढने शुरु कर दिए । इससे पूर्व यही लोग नरसिम्हा राव के सर पर कभी लाल, कभी नीली, कभी हरी बांधा करते थे।
मुलायम सिंह मुस्लिम बहुमत को पाकर और दलित लीडर कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी को साथ लेकर सांप्रदायिक शक्तियों से सीधी टक्कर लेने निकल पड़े परन्तु उनकी बहुजन समाज पार्टी के साथ दोस्ती अधिक दिन नही चली । काशीराम का दाहिना हाथ मायावती नाम का एक गुमनाम राजनीतिक चेहरा अचानक उत्तर प्रदेश की राजनीतिक पटल पर उभर कर सामने आया । मायावती की महात्वाकांक्षाओं की उड़ान में पर लगते हुए सांप्रदायिक शक्तियों ने मुलायम व माया के बीच कडुवाहट घोलनी शुरू कर दी जिसका नतीजा गेस्ट हाउस कांड के रूप में सामने आया और मुलायम सिंह की काशीराम व मायावती कर साथ दोस्ती हमेशा कर लिए रंजिश में बदल गई । यह पहली कामयाबी मिली सांप्रदायिक शक्तियों को जब उन्होंने न केवल मुस्लिम ,पिछडा दलित गठजोड़ को टुकड़े टुकड़े कर दिया बल्कि मुस्लिम वोट बैंक को भी विभाजित करने की दाग बेल डाल दी। तदोपरांत मायावती ने चंद मुस्लिम लीडरों को साथ लेकर सपा के मुस्लिम वोट बैंक पर डोरे डालने शुरू किए परन्तु उन्हें कामयाबी न मिल सकी ।
मायावती ने भाजपा के साथ तीन बार राजनीतिक विवाह किया और हर बार समय पूरा होने से पूर्व तलाक़ हो गई।
उधर कांग्रेस नरसिम्हा राव को हाशिये पर डालने के बावजूद मुसलमानों की नाराजगी को दूर न कर सकी और मुस्लिम कांग्रेस को अछूत मानकर हमेशा उससे दूर ही रहा । मायावती कल्याण सिंह विवाद फिर मायावती कलराज मिश्र विवाद व मायावती राजनाथ सिंह विवाद के बीच मायावती की राजनैतिक किश्ती आगे तो नही बढ़ सकी परन्तु भाजपा के सहारे उनकी वर्ष 2002 की सरकार में सवर्णों को उत्पीङितकर कर भाजपा से उन्हें दूर करने में विशेष भूमिका अदा की।
तारिक खान
(क्रमश :)

आलू के बहाने दिल की बात

पड़ोसन अपनी पड़ोसन से चार पांचआलू ले गई। कई दिनों बाद वह उन आलुओं को वापिस करने आई। मगर जिसने आलू दिए थे उसने आलू लेने से इंकार कर दिया। उसके अनुसार आलू वापिस करना उनके अपमान के समान है। बात तो इतनी सी है। लेकिन है सोचने वाली। क्योंकि उन बातों को अधिक समय नहीं हुआ जब पड़ोसियों में इस प्रकार का लेनदेन एक सामान्य बात हुआ करती थी। यह सब बड़े ही सहज रूप में होता था। इस आपसी लेनदेन में प्यार, अपनापन,संबंधों की मिठास छिपी होती थी। किसी के घर की दाल मोहल्ले में ख़ास थी तो किसी के घर बना सरसों का साग। फ़िर वह थोड़ा थोड़ा सबको चखने के लिए मिलता था। शाम को एक तंदूर पर मोहल्ले भर की महिलाएं रोटियां बनाया करती थीं। दोपहर और शाम को किसी ने किसी के घर के चबूतरे पर महिलाओं का जमघट लग जाता था। पास की कहीं हो रहा होता बच्चों का शोर शराबा। पड़ोस में शादी का जश्न तो कई दिन चलता। मोहल्ले की लड़कियां देर रात तक शादी वाले घर में गीत संगीत में डूबी रहतीं। घर आए मेहमानों के लिए,बारातियों के लिए घर घर से चारपाई,बिस्तर इकठ्ठे किए जाते। किसी के घर दामाद पहली बार आता तो पड़ोस की कई लड़कियां आ जाती उस से मजाक करने। कोई नहीं जाती तो उसकी मां, दादी, चाची ताई लड़की से पूछती, अरे उनके जंवाई आया है तू गई नी। जा, तेरी मासी[ पड़ोसन] क्या सोचेगी। तब आंटी कहने का रिवाज नहीं था। तब हम रिश्ते बनाने में विश्वास करते थे। कोई भाभी थी तो कोई मामी हो जाती। इसी प्रकार कोई मौसी,कोई दादी, कोई चाची, नानी आदि आदि। पड़ोस में नई नवेली दुल्हन आती तो गई की सब लड़कियां सारा दिन उसको भाभी भाभी कहती हुई नहीं थकती थीं। गली का कोई बड़ा गली के किसी भी बच्चे को डांट दिया करता था। बच्चे की हिम्मत नहीं थी कि इस बात की कहीं शिकायत करता। आज के लोगों को यह सब कुछ आश्चर्य लगेगा। ऐसा नहीं है, यह उसी प्रकार सच है जैसे सूरज और चाँद। आज सबकुछ बदल गया है। केवल दिखावा बाकी है। हम सब भौतिक युग में जी रहें हैं। लगातार बढ़ रही सुविधाओं ने हमारे अन्दर अहंकार पैदा कर दिया है। उस अहंकार ने सब रिश्ते, नातों, संबंधों को भुला दिया , छोटा कर दिया। तभी तो पड़ोसन अपनी पड़ोसन को आलू

25.4.09

जीवन

आकाश को देख रहा हूँ । कोई छोर नही दीखता । इतना फैला हुआ है ...... डर लग लगता है ।
सोचता हूँ । हमारे अलावा इस ब्रह्मांड में कही और जीवन है ???
अगर नही तो रोंगटे खड़े हो जाते है । इतने बड़े ब्रह्माण्ड में हम अकेले है !विश्वास नही होता ...लगता है , कोई तो जरुर होगा ।
फ़िर सोचता हूँ । आकाश को इतना फैला हुआ नही होना चाहिए । कुछ तो बंधन जरुरी है । भटकने का डर लगा रहता है ।


सुना है पृथ्वी गोल है । हो सकता है , ब्रह्माण्ड भी गोल हो । किसे पता ?? भाई हमारी भी तो एक सीमा है । सबकुछ नही जान सकते । कुछ दुरी तक ही भाग दौड़ कर सकते है । भाग दौड़ करते रहे । इसी का नाम तो जीवन है । इतना सलाह जरुर देना चाहुगा की सबकुछ जानने के चक्कर में न पड़े । यह एक बेकार की कवायद है । इस राह पर चल मंजिल को पाना तो दूर की बात है , खो जरुर देगे ।
इधर ये भी सुनने में आया है की एक क्षुद्र ग्रह पृथ्वी से टकराने वाला है ...शायद २०२८ में !
यह सनसनी है या हकीकत नही पता ।
अगर सनसनी है ...तो है ..पर वास्तव में ऐसा है तो परीक्षा की घड़ी आ गई है ...
इस खबर को सुनकर सुमेकर लेवी वाली घटना याद आती है , जब मै बच्चा था । सुमेकर बृहस्पति से जा टकराया था । यह घटना १९९४ की है । उस समय ऐसी ख़बर सुन डर गया था ।
देखते है ...२०२८ में क्या होता है .......

बिन डोर ....

एक रिश्ता बंधा है तुमसे
बिना किसी डोर का
फ़िर भी लगता है
उलझता ही जा रहा हूँ
इतना उलझ चुका हूँ
कि निकलना मुश्किल है
जब तक जिन्दा हूँ
इसी मैं जिऊंगा
काश .... मैं मकडी का जल होता
जन मेरी मकडी लेती
मैं जल मैं उलझा होता
मेरा मृत शरीर
आत्मा भी फंसी होती
तो मुझे रिहाई कि कोई चाह नही होती .....

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है कोई जवाब?

क्या कोई बता सकता है मुझे?
जब पुरी दुनिया कसाब को हाथों में ak47 लिए आतंकवाद का खेल खेलते देख रही है तो हम अब किस बात की जांच कर रहे है और क्यों उस पर सुनवाई चल रही है? क्या सीधे सीधे कस्साब को बीच चौराहे पर पुरी दुनिया के सामने मौत नही दे देनी चाहिए? क्या सत्ताधारियों का आतंक खेल अब ख़त्म नही होना चाहिए? है कोई जवाब?

गधा चाहे चुनाव


गधा बिरादरी चुनाव के कारन बहुत खुस है और गधे चाहते है की सल् में ४ बार चुनाव हो ,आख़िर क्यो गधे ऐसा कहते है पढ़े एक गधे का पत्र इंसानों के नाम में http://uplivenews.blogspot.com/ पे

Loksangharsha: राजनितिक भँवर में अपने वजूद को ढूंढता मुसलमान-3

इससे पूर्व कांग्रेस की जीत में मुस्लिम मतदाताओं की गिनती की जाती थी । मुस्लिम कार्ड के स्थान पर हिंदू कार्ड खेलने की रणनीति ,यही से बनी और फिर वर्ष 1984 में वर्षों से तालाबंद पड़ी बाबरी मस्जिद का ताला तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल में फैजाबाद जिला ज़ज़ के आदेश से खोल दिया गया। उसके बाद सांप्रदायिक शक्तियों का उदय और कांग्रेस के पतन का प्रारम्भ हुआ। यदि यूं कहा जाए तो उचित रहेगा की मुसलमानों से काग्रेसी लीडरशिप को नाराज करने के षड़यंत्र में जहाँ एक और अहम् भूमिका भीतर संघी सोच के हिंदू काग्रेसी ने निभाई तो वहीं मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने अपनी बयानबाजी से मुसलमानों का बहुत नुकसान किया।पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की 31 अक्टूबर 1984 में उन्ही के सुरक्षा गार्ङो के हत्या करने के पश्चात् उनके पायलट बेटे राजीव गाँधी को नेहरू परिवार की राजनीति विरासत की डोर थामनी पड़ी राजीव गाँधी की अनुभवहीनता का लाभ उठाकर अयोध्या में बाबरी मस्जिद राम जन्म भूमि विवादित परिसर में कांग्रेस में मौजूद संघ के लोगो ने यह कहकर शीलन्यास करा दिया कि इससे भाजपा कमजोर होगी । 1991 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का चुनावी अभियान राम की नगरी अयोध्या से प्रारम्भ कर के हिंदू मतदाताओं को यह संदेश देने की कोशिश की गई की हिंदू कार्ड खेलने में कांग्रेस भाजपा से पीछे नही है । चुनाव में तो कांग्रेस को जीत मिली परन्तु उत्तर प्रदेश व बिहार में वह कमजोर हो गई और इसके विपरीत भाजपा को हिंदुत्व का टॉनिक मिल गया और उसने मन्दिर आन्दोलन और तेज किया । फिर राम मन्दिर का ज्वर पूरे देश पर ऐसा चढा की लाल कृष्ण अडवाणी ने सोमनाथ से यात्रा निकालकर पूरे देश में साम्प्रदायिकता का विष घोल डाला । उधर कांग्रेस से मुसलमानों की नाराजगी बढती गई और शाह बानो केस के निर्णय ने जो सुप्रीम कोर्ट से हुआ आग में घी का काम कर गया । पूरा मुस्लिम समुदाय उठ खड़ा हुआ और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का गठन कर किया अली मियाँ ने आन्दोलन की कमान संभाली । राजीव गाँधी को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने लोकसभा में बिल पेश कर के मुसलमानों के गुस्से को थोड़ा शांत किया और मुसलमानों का विश्वाश कांग्रेस में लौट रहा था 1991 के आम लोकसभा चुनाव के बीच ही जब ऐसा लग रहा था की राजीव गाँधी की अपार बहुमत से सरकार बन जायेगी तो उनकी हत्या कर दी गई और देश कांग्रेस की कमान नरसिम्हा राव के हाथो में आ गई । जिन्होंने बाबरी मस्जिद की ईंट से ईंट बजा कर उसे जड़ से समाप्त कर दिया और उस पर अस्थायी मन्दिर का निर्माण कराने के बाद विवादित परिसर के अधिग्रहण एवं उसकी सुरक्षा की व्यवस्था सुद्रढ़ कर के ही दम लिया ।
तारिक खान
(क्रमश :)

तनाव प्रबंधन के कुछ सटीक सूत्र

तनाव मनः स्थिति से उपजा विकार है.मनः स्थिति एवं परिस्थिति के बीच असंतुलन एवं असामंजस्य के कारण तनाव उत्पन्न होता है. तनाव एक द्वन्द है, जो मन एवं भावनाओं में गहरी दरार पैदा करता है. तनाव अन्य अनेक मनोविकारों का प्रवेश द्वार है. उससे मन अशान्त,भावना अस्थिर एवं शरीर अस्वस्थता का अनुभव करते हैं.ऐसी स्थिति में हमारी कार्यक्षमता प्रभावित होती है और हमारी शारीरिक व मानसिक विकास यात्रा में व्यवधान आता है. इससे बचने का एकमात्र उपाय है -परिस्थिति के साथ तालमेल रखना , जिससे तनावरूपी मनोविकार को हटाया-मिटाया जा सके. परिस्थिति को स्वीकार न करने पर तनाव पैदा होता है. यह तनाव कई प्रकार का होता है. पारिवारिक तनाव , आर्थिक तनाव, आफ़िस का तनाव ,रोजगार का तनाव, सामाजिक तनाव. मनोनुकूल परिस्थिति-परिवेश के अभाव में व्यक्ति उद्विग्न ,अशान्त एवं तनावग्रस्त हो उठता है. इसमें केवल एक व्यक्ति प्रभावित होता है, परन्तु यह सीमा जब व्यक्ति को लांघकर परिवार में पहुँच जाती है तो परिवार तनावग्रस्त हो जाता है.पारिवारिक तनाव से परिवार के संवेदनशील रिश्तों में दरार एवं दरकन् पैदा हो जाती है जिससे छोटी-छोटी बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर कलह एवं कहासुनी जैसी उलझनें खड़ी कर दी जाती हैं. सुन्दर व सुरम्य पारिवारिक वातावरण व्यंग्य और तानों का दंगल बन जाता है. वैयक्तिक एवं पारिवारिक स्तर पर संपदा व संपति के सुनियोजन एवं सुव्यवस्था के अभाव में आर्थिक तनाव का जन्म होता है. उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के कारण अपव्यय एवं जीवनशैली की अनियमितता में वृद्धि हुई है,जिससे यह संकट और भी गहरा हुआ है.सामाजिक तनाव समाज के विभिन्न घटकों,समूहों एवं वर्गों के बीच तालमेल के न होने से उत्पन्न होता है.आज का व्यक्ति , परिवार व समाज तनाव के इस विघटन,टूटन एवं दरकन् से ग्रस्त हैं. व्यक्ति हो या समाज,आज ये इस कदर तनावग्रस्त हैं की उन्हें अपना भार भी असह्य लग रहा है. वे अपने ही बोझ से दबे-कुचले किसी तरह अपनी गुजर-बसर कर रहें हैं. तनाव परिस्थिति से नहीं मनः स्थिति से उपजता है.अगर ऐसा नहीं होता तो विपरीत एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आशा,उत्साह एवं उमंग की परिकल्पना नहीं की जा सकती. जीवट के धनियों एवं मनीषियों ने प्रतिकूलताओं में जीवन की राह खोजी है,अपने गंतव्य,लक्ष्य को प्राप्त किया है.सूरदास,अष्टावक्र,सुकरात आदि मनीषियों ने शारीरिक विकृति को हिनताजन्य तनाव नहीं माना और इसी समाज में उत्कर्ष व सफलता की बुलंदियों को स्पर्श किया.सन्त तुकाराम का पारिवारिक जीवन तनाव के घनघोर कुहाँसों में घिरा हुआ था,परन्तु वे इस कुहासा-हताशा के आवरण को चीरकर भक्ति की भावधारा में सदा सरोबार रहते थे.कबीरदास के जीवन में आर्थिक तनाव सघन घन बनकर बरसा था, परन्तु प्रभु के अलावा किसी के आगे उनने हाथ नहीं पसारे,याचना नहीं की और अलमस्त एवं आन्नदपूर्वक जिंदगी जीकर दिखा दी.सामाजिक निंदा,अपमान एवं तिरस्काररूपी गहन आंधी-तूफान के बीच मीराबाई ने कृष्णभक्ति की ज्योति जलाई. विपरीत परिस्थितियों में इन महामानव ने जितना कर दिखाया,उतना तो सामान्य एवं सहज परिवेश में भी संभव नहीं है. इसका एकमात्र कारण है,मनः स्थिति की सुदृढ़ता-सशक्तता. अतः तनाव परिस्थितियों में नहीं दुर्बल व अशक्त मनः स्थिति में वास करता है. मनीषियों व मनस्वियों को यह स्पर्श नहीं कर पाता है. तनावजन्य मनोविकारों का आक्रमण केवल दुर्बल व कमजोर मानसिकताओं पर होता है. परिस्थिति तो सबके लिए समान होती है.एक ही परिस्थिति में रहने वालों में से संकल्पवान अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है और विकल्प तलाशने वाला केवल विकल्प तलाशते रह जाता है. परिस्थितिजन्य तनाव ही प्रमुख व प्रबल होता तो एवरेस्ट के शिखर पर चढ़ा नहीं जा सकता था . जिसका मन परिस्थिति से तालमेल नहीं बैठा पाता उसी के अन्दर तनावजन्य विकृतियाँ अपना जाल बुनती हैं. ऐसे व्यक्ति का तंत्रिकातंत्र मन के आवेग को संभालने हेतु असमर्थ होता है.कष्ट-कठिनाइयों का हल्का झोंका भी इन्हें तार-तार कर देता है. तनाव मुख्य रूप से नर्वस सिस्टम को प्रभावित करता है. तनाव से यह तंत्रिकातंत्र अत्यंत सक्रिय हो जाता है. इसकी सक्रियता हृदयगति एवं शर्करा के स्तर को बढ़ाने में सहायक होती है. इससे घबराहट होती है एवं सिर भारी रहता है. ऐसी अवस्था में नकारात्मक विचार उठते हैं और मन में निराशा-हताशा के बादल मंडराने लगते हैं. तनाव मन में उत्पन्न होता है.अतः तनाव से मन प्रभावित होता है. तनावजन्य नकारात्मक एवं निषेधात्मक विचारों से शरीर की प्रतिरक्षात्मक प्रणाली पर भी विपरीत असर पड़ता है. तनाव की अवधिमें श्वेत रूधिर कोशिकाओं की सहज सक्रियता कम हो जाती है.ये कोशिकाएँ शरीर की रोगों से रक्षा करती हैं तथा शरीर को स्वस्थ एवं निरोग बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती हैं,परन्तु तनाव इस प्रतिरक्षात्मक प्रणाली की मुस्तैदी को कम कर रोगों को प्रवेश करने का अवसर प्रदान करता है. तनाव से मन में कई प्रकार के मनोविकार अपना स्थायी आवास बना लेते हैं. तनाव से चिड़चिड़ापन पैदा हो जाता है. ऐसे व्यक्तियों का मानसिक संतुलन लगभग गड़बड़ा जाता है,परिणामस्वरूप नींद न आना, हताशा-निराशा,कल्पनाओं में खोए रहना, डरना आदि मनोरोगों का प्रादुर्भाव होता है. ऐसे लोगों में निर्णय करने की क्षमता नहीं होती है. तनाव प्रबन्धन का प्रथम सूत्र है- वैचारिक खुलापन अर्थात आग्रह ,पूर्वाग्रह का अभाव . अच्छे विचारों को स्वीकृति एवं समर्थन देना चाहिए.इसी के आधार पर सहयोग- सदभाव की भूमि तैयार होती है. सहयोग से स्वार्थवृति मिटती है और सेवा का भाव पनपता है,जिससे अपना विश्वास प्रगाढ़ होता है. विश्वास ही विकास का मूल मंत्र है,उन्नति - प्रगति का साधन सोपान है. इस स्थिति में आकर ही स्वायत्तता की परिकल्पना की जा सकती है और स्वतंत्र रूप से अपनी योजना को कार्यरूप प्रदान किया जा सकता है.इसी में आंतरिक चेतना के परिष्कार तथा वाह्या उन्नति की समस्त संभावनाएँ सन्निहित हैं.संभावना जब मूर्तरूप लेती है तो प्रामाणिकता के रूप में अभिव्यक्ति पाती है.प्रामाणिकता आत्मविश्वास को जन्म देती है, तभी महान कार्य हेतु स्वयं का योगदान सम्भव हो सकता है और दूसरों का सहयोग मिल सकता है.तनाव प्रबंधन के इन सूत्रों में तनाव का समाधान समाहित है.इसके साथ आवश्यक है सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रति श्रद्धा-आस्था की भावना. ईश्वर सर्वसमर्थ है, वह हमारी सभी समस्याओं का समाधान ,हताशा के कुहासे में ज्योतिर्मय पथ प्रदर्शक है.वह हमारे तनाव का निवारक भी है. वह हमारे सभी मनोविकारों के सघन जंजाल को काटकर उत्साह,आनंद एवं प्रकाश से भर सकता है.अतः उसकी स्मृति को हृदय में बनाए रखने के लिए गायत्री मंत्र की एक माला का न्यूनतम जप करना चाहिए.प्रत्येक दिन अपने नये जीवन का आत्मबोध एवं प्रत्येक रात्रि अपनी मृत्यु का अनुभव तत्त्वबोध भी तनावमुक्ति के लिए रामबाण साधन है. यही तनाव का एकमात्र निदान है और उच्चस्तरीय जीवन का पाथेय पथ भी है.साभार :- अखण्ड ज्योति

कौन जीतेगा क्या पता !

राजनैतिक पार्टियों सावधान ,क्या तुम्हे पता है की झंडे और बैनर बनवाने का तुम्हारा खर्च बेकार हो गया है। कैसे ? अरे ! शहर की गलियों में जाकर देखो ,इनकी गत समझ में आ जायगे। अब जनता इतनी बेवकूफ नही की झंडे और बैनरों के लालीपॉप के झांसे में आकर मतदान करेगी । अब तो तुम्हारा काम देखा जायगा । पाँच साल के लिए सत्ता की मलाई खानी है तो जनता को भी हिस्सा देना पड़ेगा। अरे हाँ ! बात हो रही थी झंडो और बैनरों की। तो भाई ! बता ही देती हूँ । मतदाताओं ने अपने घरो पैर भाजपा,कांग्रेस से लेकर कई पार्टियों के झंडे लगा रखे है। यह इस बात का सूचक है की मतदाता अपने पत्ते नही खोलना चाहते है की वे किस पार्टी को सत्ता की मलाई खिलाने वाले है । तो जय हो जनता जनार्दन की । अब तो बस चुनाव ख़त्म होने का इंतजार कीजिये ,भगवान् करे कुछ नया हो और शहर और देश का भाग्य सुधरे । इसी दुआ के साथ वोटरों की जय। ..........
जो दिख रहा है सामने वो सच नही है,
देखे की समय ने chupa क्या रखा है ?

24.4.09

कंधमाल के डंक

हेमेन्द्र मिश्र

चुनाव की सीढ़ीयां चढ़ कर ही लोकतंत्र मजबूत होता है। अगर इस सीढ़ी पर डर के साथ कदम रखा जाए तो शायद स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए चुनाव हो रहे है। 16 अप्रैल को पहले चरण के मतदान के साथ ही राजनीतिक तापमान भी चढता जा रहा है। लेकिन पहले चरण में एक ऐसे क्षेत्र में भी मतदान हुआ जहां के मतदाता वोट डालने से कतराते रहे।


अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा है कि लोकतंत्र का अर्थ है वह शासन जिसे जनता चुने,जो जनता के लिए हो और जिसे जनता चला रही हो। यानि लोकतंत्र की बुनियाद आम आवाम है,आम आवाज है। लेकिन अगर यह आवाम मतदान से डरने लगे तो क्या हमारा लोकतंत्र मजबूत होगा? उड़ीसा का कंधमाल भी एक ऐसा ही क्षेत्र है जहां इस बार लोग वोट डालने से कतराते रहे। यह वही कंधमाल है जहां पिछले साल खूनी होली खेली गई थी। यहां एक धर्मगुरू की हत्या हुई और उसके बाद दो समुदाय के बीच दंगा भड़क उठा था। हालात इतने बेकाबू हो गए कि लोगों को घर छोड़कर भागना पड़ा था। हालांकि घर फिर बस गए हैं और जीवन की गाड़ी भी पटरी पर लौट रही है, लेकिन लोग अभी भी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। वैसे प्रशासन का दावा रहा कि चुनाव में पर्याप्त सुरक्षा दिया गया और शायद इसी दावे का असर रहा कि लोग डरकर ही सही सीमित संख्या में घरों से निकले जरुर।


बहरहाल प्रशासन लोगों में समाए डर को कम करने की कोशिश तो कर रहा है। लेकिन बीते साल का अनुभव कंधमाल की आवाम को अभी भी डरा रहा है। ऐसे में भारत के लोकतंत्र की जीवंतता पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। लोकतंत्र तब तक जीवित है जब तक आवाम का विश्वास चुनाव पर है और वे बेखोफ वोट डालने जा रहे हों।

व्योमेश की व्यक्तिगत प्रोफाइल




Loksangharsha: Loksangharsha: राजनितिक भँवर में अपने वजूद को ढूंढता मुसलमान-2


वास्तव में मुसलमानों को कांग्रेस ने नाराज करने में मुस्लिम राजनितिक लीङरों से अधिक उनके धार्मिक नेताओं का हाथ था क्योंकि मुस्लमान हमेशा से अपने राजनैतिक फैसले धार्मिक भावनाओ से ओत-प्रोत होकर करने का आदि रहा । इसी का लाभ उठाते हुए उसके विरोधी उसी के अपने भाइयो को खरीदकर उसे बरगलाकर उसके वोट बैंक को हमेशा विभाजित करते रहे। कांग्रेस से मुस्लिम नाराजगी को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में जहाँ एक ओर दिल्ली जमा मस्जिद का इमाम मौलाना अब्दुल्ला बुखारी पेशो- पेश रहे जो कांग्रेस का उस समय का युवराज संजय गाँधी के सताए हुए थे तो वही दूसरी और रायबरेली की एक अहम् शख्सियत व नदवा के मौलाना अबुल हसन अली नदवी उर्फ़ अली मियाँ भी इंदिरा गाँधी हुकूमत के तौर तरीको से खिन्न थे। मौलाना अब्दुल बुखारी को तो व्यक्तिगत नुकसान संजय गाँधी ने दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके और जमा मस्जिद के आस पास के इलाको में अतिक्रमण हटाने की कार्यवाही के रूप में बुलडोज़र चला कर किया था क्योंकि इन दुकानों को संरक्षण व उनकी तहबाजारी मौलाना बुखारी ही वसूलते थे। मगर मौलाना अली मियाँ की नाराजगी का कारण कभी खुल न सका । मौलाना अली मियाँ ने वर्ष 1980 के लोकसभा चुनाव में खुलेआम R.S.S की प्रवक्ता रही और जनता पार्टी के टिकट पर इन्द्र गाँधी के विरुद्ध चुनाव लड़ रही राजमाता विजया राजे सिंधिया के समर्थन का ऐलान किया । यह बात और है कि अपने इस धार्मिक विद्वान की बात को नकारते हुए मुसलमानों ने इंदिरा गाँधी के पक्ष में मतदान किया ,परन्तु उनकी गिनती कांग्रेस खेमे में नही की गई ,यानि चिडिया ,अपनी जान से गई और खाने वाले को मजा भी न मिला।
परिणामस्वरूप तेजी से उभर रहे नेता वीर बहादुर सिंह और अरुण नेहरू ने इंदिरा गाँधी को यह समझाने में सफलता हासिल कर ली की मुसलमानों का वोट उनके पक्ष में न होने के बावजूद केवल हिंदू मतदाताओं के बल पर उन्हें सफलता मिली है।
तारिक खान
(क्रमश :)

मेरी diary से

७.०३.२००९
किसी का प्यार संभलने में जितनी मदद करता है उससे ज्यादा नफरत लेकिन हाँ नफरत भी उसी की होनी चाहिए जिसके प्यार ने उसे तोडा हो ।
१६.०३.२००९
किसी का भी छोटा मोटा गुनाह कोई भी माफ़ कर देता है लेकिन गुनाह जब हद पार कर जाता है तो कम से कम अच्छा ........ सच्चा और ज्यादातर सहनशीलता दिखानेवाला इंसान बुरी तरह से रिअक्ट जरूर करता है ।

१२.०४.२००९
यह सही है कि दुनिया में अच्छे लोग कम रह गए है ....... कम होते हैं लेकिन जो अच्छे होते हैं वह इतने ज्यादा अच्छे होते हैं कि उनकी अच्छे पर सहज यकीं ही नहीं करता कोई .

आंसू


आंसू!
कई बार
बहते है
एक साथ
कई दुखों के लिए
आरती "आस्था"

सचमुच में बड़ी


मेरी udghoshna सुनकर कि
अब बड़ी हो गई हूँ मैं
तुम्हारा यह कहना कि
तुम तो
थीं हमेशा से बड़ी
तुम्हारे विचार ............
तुम्हारी सोंच ने
छोटा कभी
रहने ही नहीं दिया तुम्हें
यदि सही है
तो बताओ मुझे
बच्चों की तरह
अक्सर ही
दिल मेरा
क्यों कहता है कि
जी भर रोऊँ मैं
और गले लगाकर
चुप कराये कोई
किसी भी नन्हें मासूम की तरह
क्यों जब- तब
जिद कर बैठता है
दिल मेरा
ऐसे लोगो की
जो नहीं हो सकते मेरे
क्यों देखती हूँ ख्वाब
बच्चों की मानिंद
बंजर दिलों में
निश्चल भावों के
दरख्त उगाने के
यह देखकर भी कि
हकीकी ख्याल मेरे
तब्दील होते जा रहे हैं
दिन बा दिन ख्वाबों में
सच- सच बताओ मुझे
इसलिए कह रही थी
तुम यह n
ताकि छोड़कर बचपना
बन जाऊँ मैं सचमुच में बड़ी ।
आरती "आस्था"

जूता बनाम लोकतंत्र

हेमेन्द्र मिश्र
इन दिनों नेताओं और जूतों में एक रिश्ता सा बनता जा रहा है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बुश पर जूते क्या चले नेताओं को जूते मारने का चलन सा चल पड़ा। चीनी नेता बेन जियाबाओ, गृहमंत्री पी।चिदंबरम,विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी, यहां तक कि अब अभिनेता जीतेन्द्र भी इस जूते चप्पल के खेल से बच नहीं सके। हालात इतने खराब हो गए हैं कि जूते-चप्पलों से बचने के लिए अब नेताओं को नई व्यवस्था करनी पड़ रही है। जिसकी झलक दिखी अहमदाबाद के नरोडा में, जहां भाजपा के स्टार प्रचारक और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जनता से मुखातिब होने वाले थे। किसी कोने से जूते न उछले इसलिए मंच के आगे भाग को जाल से घेर दिया गया था। अभी तक नरेन्द्र मोदी की तरफ जूते या चप्पल नहीं उछले हैं। लेकिन कहते हैं ना कि दुर्घटना से सुरक्षा भली है-इसलिए यह पूरी कवायद की गई।

खैर, मुद्दा यहां यह नही है कि नेताजी जूते खाने लायक हैं या नहीं। बल्कि हमें यह सोचना चाहिए कि इन घटनाओं से हमारे लोकतंत्र की जीवंतता पर कितना असर पड़ सकता है। ऐसी घटनाओं में हम उस व्यक्ति पर जूते चला रहे होते हैं जिसे हम खुद चुनकर संसद में पहुंचाते हैं। जिसे हम निर्णय लेने वाले हाथ भी कहते हैं। यानि हम अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों का ही जूतों से स्वागत करते हैं। कहा गया है कि कोई घटना अगर पहली बार हो तो इतिहास बनता है, दो-तीन बार हो तो उसे त्रासदी कहते हैं लेकिन अगर वही घटना बार-बार हो तो वह उपहास का पात्र होता है। कुछ ऐसा ही भारत में भी दिख रहा है। जहां जूता मारना अब सियासी खेल बन चुका है। खबर तो यह भी है कि कानपुर के एक गांव में तो जूते मारने की बकायदा स्कूल खोली गई है। जहां बच्चे और बुजुर्ग नेता के एक पुतले पर जूते-चप्पल मारने का अभ्यास कर रहे हैं। हम यह लगभग भूल चुके हैं कि मुंतजर अल जैदी का विरोध तो एक ऐसे ‘तानाशाह’ के खिलाफ था जिसने इराक को अधोषित उपनिवेश बना रखा है।

इसमें दो राय नहीं कि नेताओं ने देश का बंटाधार किया है। लेकिन इसके लिए मात्र नेता ही दोषी नहीं हैं। कसूर अपने को अच्छे कहने वाले लोगों का भी है,जो राजनीति में आने के बजाय इसे गंदा खेल समझते हैं। नेताओं को जूते मारना ही सारी समस्याओं का समाधान नहीं है। हमारे पास वोट का भी तो अधिकार है जिसका बेहतर प्रयोग कर हम देश का भला कर सकते हैं। हलांकि ज्यादातर मतदाताओं की यह शिकायत रहती है कि उनके इलाके में कोई ईमानदार उम्मीदवार मैदान में नहीं है। लेकिन हम ईमानदार उम्मीदवार को भी संसद में कहाँ पहुंचाते हैं? नेताओं को जूते मारने से बेहतर है कि हम चुने हुए प्रतिनिधि को ‘वापस बुलाने के अधिकार’ के लिए लड़े। अभी भी जनांदोलन कितना कारगर है इसका बेहतर उदाहरण सूचना का अधिकार आंदोलन से समझा जा सकता है।

कोई भी काम सही रणनीति बनाकर की जाए तभी उसका परिणाम अच्छा होता है। गलत तत्वों वाले नेताओं से मुक्ति पाने के लिए भी हमें उचित तरीका ही अपनाना होगा। महज मीडिया में आने के लिए जूते चलाना उचित नहीं। जूते चलाकर हम मात्र विरोध के इस बढ़िया औजार का उपहास उड़ा रहे हैं। अभी जरुरत है बेहतर रणनीति बनाकर जनांदोलन को आगे बढ़ाया जाए।

23.4.09

मेरी बहन शर्मीला!

-आवेश तिवारी
क्या आप इरोम शर्मीला को जानते हैं ?वो दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक राष्ट्र में पिछले सालों से भूख हड़ताल पर बैठी है ,उसके नाक में जबरन रबर का पाइप डालकर उसे खाना खिलाया जाता है ,उसे जब नहीं तब गिरफ्तार करके जेल भेज दिया जाता हैं , वो जब जेल से छूटती है तो सीधे दिल्ली राजघाट गांधी जी की समाधि पर पहुँच जाती है और वहां फफक कर रो पड़ती है ,कहते हैं कि वो गाँधी का पुनर्जन्म है ,उसने सालों से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा,उसके घर का नाम चानू है जो मेरी छोटी बहन का भी है और ये भी इतफाक है कि दोनों के चेहरे मिलते हैं | कहीं पढ़ा था कि अगर एक कमरे में लाश पड़ी हो तो आप बगल वाले कमरे में चुप कैसे बैठ सकते हैं ?शर्मीला भी चुप कैसे रहती ? नवम्बर ,२००० को गुरुवार की उस दोपहरी में सब बदल गया ,जब उग्रवादियों द्वारा एक विस्फोट किये जाने की प्रतिक्रिया में असम राइफल्स के जवानो ने १० निर्दोष नागरिकों को बेरहमी से गोली मार दी ,जिन लोगों को गोली मारी गयी वो अगले दिन एक शांति रैली निकालने की तैयारी में लगे थे |भारत का स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले मणिपुर में मानवों और मानवाधिकारों की सशस्त्र बलों द्वारा सरेआम की जा रही हत्या को शर्मीला बर्दाश्त नहीं कर पायी ,वो हथियार उठा सकती थी ,मगर उसने सत्याग्रह करने का निश्चय कर लिया ,ऐसा सत्याग्रह जिसका साहस आजाद भारत में किसी हिन्दुस्तानी ने नहीं किया था |शर्मिला उस बर्बर कानून के खिलाफ खड़ी हो गयी जिसकी आड़ में सेना को बिना वारंट के सिर्फ किसी की गिरफ्तारी का बल्कि गोली मारने कभी अधिकार मिल जाता है ,पोटा से भी कठोर इस कानून में सेना को किसी के घर में बिना इजाजत घुसकर तलाशी करने के एकाधिकार मिल जाते हैं , वो कानून है जिसकी आड़ में सेना के जवान सिर्फ देश के एक राज्य में खुलेआम बलात्कार कर रहे हैं बल्कि हत्याएं भी कर रहे हैं |शर्मिला का कहना है की जब तक भारत सरकार सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून -१९५८ को नहीं हटा लेती ,तब तक मेरी भूख हड़ताल जारी रहेगी | आज शर्मीला का एकल सत्याग्रह संपूर्ण विश्व में मानवाधिकारों कि रक्षा के लिए किये जा रहे आंदोलनों की अगुवाई कर रहा है | अगर आप शर्मिला को नहीं जानते हैं तो इसकी वजह सिर्फ ये है कि आज भी देश में हनन के मुद्दे पर उठने वाली कोई भी आवाज सत्ता के गलियारों में कुचल दी जाती है,मीडिया पहले भी तमाशबीन था आज भी है |शर्मीला कवरपेज का हिस्सा नहीं बन सकती क्यूंकि वो कोई माडल या अभिनेत्री नहीं है और ही गाँधी का नाम ढो रहे किसी परिवार की बेटी या बहु है |


इरोम शर्मिला के कई परिचय हैं |वो इरोम नंदा और इरोम सखी देवी की प्यारी बेटी है ,वो बहन विजयवंती और भाई सिंघजित की वो दुलारी बहन है जो कहती है कि मौत एक उत्सव है अगर वो दूसरो के काम सके ,उसे योग के अलावा प्राकृतिक चिकित्सा का अद्भुत ज्ञान है ,वो एक कवि भी है जिसने सैकडों कवितायेँ लिखी हैं |लेकिन आम मणिपुरी के लिए वो इरोम शर्मीला होकर मणिपुर की लौह महिला है वो महिला जिसने संवेदनहीन सत्ता की सत्ता को तो अस्वीकार किया ही ,उस सत्ता के द्वारा लागू किये गए निष्ठुर कानूनों के खिलाफ इस सदी का सबसे कठोर आन्दोलन शुरू कर दिया |वो इरोम है जिसके पीछे उमड़ रही अपार भीड़ ने केंद्र सरकार के लिए नयी चुनौतियाँ पैदा कर दी हैं ,जब दिसम्बर २००६ मेंइरोम के सत्याग्रह से चिंतित प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने बर्बर सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून को और भी शिथिल करने की बात कही तो शर्मीला ने साफ़ तौर पर कहा की हम इस गंदे कानून को पूरी तरह से उठाने से कम कुछ भी स्वीकार करने वाले नहीं हैं |गौरतलब है इस कानून को लागू करने का एकाधिकार राज्यपाल के पास है जिसके तहत वो राज्य के किसी भी इलाके में या सम्पूर्ण राज्य को संवेदनशील घोषित करके वहां यह कानून लागू कर सकता है |शर्मीला कहती है 'आप यकीं नहीं करेंगे हम आज भी गुलाम हैं ,इस कानून से समूचे नॉर्थ ईस्ट में अघोषित आपातकाल या मार्शल ला की स्थिति बन गयी है ,भला हम इसे कैसे स्वीकार कर लें ?'

३५ साल की उम्र में भी बूढी दिख रही शर्मीला बी.बी.सी को दिए गए अपने इंटरव्यू में अपने प्रति इस कठोर निर्णय को स्वाभाविक बताते हुए कहती है 'ये मेरे अकेले की लड़ाई नहीं है मेरा सत्याग्रह शान्ति ,प्रेम ,और सत्य की स्थापना हेतु समूचे मणिपुर की जनता के लिए है "|चिकित्सक कहते हैं इतने लम्बे समय से अनशन करने ,और नली के द्वारा जबरन भोजन दिए जाने से इरोम की हडियाँ कमजोर पड़ गयी हैं ,वे अन्दर से बेहद बीमार है |लेकिन इरोम अपने स्वास्थ्य को लेकर थोडी सी भी चिंतित नहीं दिखती ,वो किसी महान साध्वी की तरह कहती है 'मैं मानती हूँ आत्मा अमर है ,मेरा अनशन कोई खुद को दी जाने वाली सजा नहीं ,यंत्रणा नहीं है ,ये मेरी मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए किये जाने वाली पूजा है |शर्मिला ने पिछले वर्षों से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा वो कहती है 'मैंने माँ से वादा लिया है की जब तक मैं अपने लक्ष्यों को पूरा कर लूँ तुम मुझसे मिलने मत आना |'लेकिन जब शर्मीला की ७५ साल की माँ से बेटी से मिल पाने के दर्द के बारे में पूछा जाता है उनकी आँखें छलक पड़ती हैं ,रुंधे गले से सखी देवी कहती हैं 'मैंने आखिरी बार उसे तब देखा था जब वो भूख हड़ताल पर बैठने जा रही थी ,मैंने उसे आशीर्वाद दिया था ,मैं नहीं चाहती की मुझसे मिलने के बाद वो कमजोर पड़ जाये और मानवता की स्थापना के लिए किया जा रहा उसका अद्भुत युद्ध पूरा हो पाए ,यही वजह है की मैं उससे मिलने कभी नहीं जाती ,हम उसे जीतता देखना चाहते है '|

जम्मू कश्मीर ,पूर्वोत्तर राज्य और अब शेष भारत आतंकवाद,नक्सलवाद और पृथकतावाद की गंभीर परिस्थितियों से जूझ रहे हैं है |मगर साथ में सच ये भी है कि हर जगह राष्ट्र विरोधी ताकतों के उन्मूलन के नाम पर मानवाधिकारों की हत्या का खेल खुलेआम खेला जा रहा है ,ये हकीकत है कि परदे के पीछे मानवाधिकार आहत और खून से लथपथ है ,सत्ता भूल जाती है कि बंदूकों की नोक पर देशभक्त नहीं आतंकवादी पैदा किये जाते है |मणिपुर में भी यही हो रहा है ,आजादी के बाद राजशाही के खात्मे की मुहिम के तहत देश का हिस्सा बने इस राज्य में आज भी रोजगार नहीं के बराबर हैं ,शिक्षा का स्तर बेहद खराब है ,लोग अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए दिन रात जूझ रहे हैं ,ऐसे में देश के किसी भी निर्धन और उपेक्षित क्षेत्र की तरह यहाँ भी पृथकतावादी आन्दोलन और उग्रवाद मजबूती से मौजूद हैं |लेकिन इसका मतलब ये बिलकुल नहीं है कि यहाँ पर सरकार को आम आदमी के दमन का अधिकार मिल जाना चाहिए ,अगर ऐसा होता रहा तो आने वाले समय में देश को गृहयुद्ध से बचा पाना बेहद कठिन होगा |जब मणिपुर की पूरी तरह से निर्वस्त्र महिलायें असम रायफल्स के मुख्यालय के सामने प्रदर्शन करते हुए कहती हैं की 'भारतीय सैनिकों आओ और हमारा बलात्कार करो 'तब उस वक़्त सिर्फ मणिपुर नहीं रोता ,सिर्फ शर्मिला नहीं रोती ,आजादी भी रोती है ,देश की आत्मा भी रोती है और गाँधी भी रोते हुए ही नजर आते हैं | शर्मीला कहती है 'मैं जानती हूँ मेरा काम बेहद मुश्किल है ,मुझे अभी बहुत कुछ सहना है ,लेकिन अगर मैं जीवित रही ,खुशियों भरे दिन एक बार फिर आयेंगे '|अपने कम्बल में खुद को तेजी से जकडे शर्मीला को देखकर लोकतंत्र की आँखें झुक जाती है |