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31.1.12

नेता जी क्या कहते हैं ?






नेता जी क्या कहते हैं ? 


जिस जनता की खातिर 
हम तिल-तिल कर हैं मरते ,
सरकारी गाड़ी में हम 
दौरे करते फिरते ;
वो जनता जब  देती  ताने 
वो भी सहते हैं ,
नेता जी क्या कहते हैं ?

वोट के बदले नोट हैं देते 
उन्हें पिलाते दारू ,
सत्ता-दूध इसी से मिलता 
जनता गाय दुधारू ;
ये जो रूठे;सपने टूटे 
आंसू बहते हैं ,
नेता जी क्या कहते हैं ?

मीठे-मीठे भाषण देकर 
झूठे करते वादे ;
घोटाले करते रहते 
वैसे हैं सीधे-सादे ;
सत्ता पाकर सत्ता-मद में 
डूबे रहते हैं ;
नेता जी क्या कहते हैं ?

ए. सी. रूम  के भीतर  
नीति  निर्धारित करते 
लूट के जनता का पैसा 
अपने घर में भर लेते ;
जनता जूते मारे तब भी 
हम हँस देते हैं ;
                                                     शिखा कौशिक 

ब्लॉग- पहेली-१२


ब्लॉग- पहेली-१२

इस बार दिए गए हैं तीन ब्लोगर्स  के परिचय  .आपको  बताने हैं इनके नाम .सर्वप्रथम  व् सही जवाब देने पर बन सकते हैं आप ''विजेता '' तो देर किस बात की है?


                       शुभकामनाओं के साथ 
                                   शिखा कौशिक 

सरस्वती के उद्दंड बेटे-ब्रज की दुनिया

मित्रों,वक़्त को आते हुए तो सभी देखते हैं पर कब वह चुपके से,दबे पांव सरक लेता है कोई नहीं जान पाता.देखते-देखते नववर्ष और मकर-संक्रांति की तरह ही वसंत पंचमी भी गुजर गयी और साथ ही सरस्वती पूजा भी.फिर शुरू हुआ विद्या और विवेक की अधिष्ठात्री भगवती सरस्वती की प्रतिमाओं को विसर्जित करने का सिलसिला.सरस्वती-पुत्र जुलूस की शक्ल में सड़कों से गुजरने लगे.ठेले पर देवी की प्रतिमा सबसे पीछे,उसके आगे भारी-भरकम साउंड बॉक्सों से लैस ट्रॉली और सबसे आगे शराब के नशे में धुत्त,अश्लील-फूहड़ गानों की बेहूदा धुनों पर लड़खड़ाते हुए नृत्य-जैसा कुछ करते सरस्वती के बेटे अथवा भक्त.कई बार तो जी में आया कि लाठी उठाऊँ और एक सिरे से सबकी पिटाई कर दूं परन्तु परिणाम की सोंचकर हर बार गुस्से को जज्ब कर गया.
                        मित्रों,लगभग पूरे बिहार से इस समय प्रतिमा-विसर्जन के दौरान नदियों-तालाबों में युवकों के डूबकर मारे जाने की ख़बरें आ रही हैं.क्या जरुरत है खतरा मोल लेकर ज्यादा गहरे पानी में प्रतिमा  को विसर्जित करने की?यहाँ तक कि खचाखच भरी नावों में भी इन नशेड़ियों की उच्छृंखलता नहीं रूकती जिसका परिणाम होती है जानलेवा दुर्घटनाएं.जुलूस के रास्ते में भी इनका रवैया निहायत अफसोसनाक होता है.कभी-कभी ये लोग रास्ते में वैध-अवैध आग्नेयास्त्रों से गोलीबारी भी करते चलते हैं.कल कुछ इसी तरह की एक दुखद घटना में सहरसा में रेशमा नाम की एक लड़की मारी गयी.इसी तरह की एक और हिंसात्मक घटना में मुजफ्फरपुर में विवेक नाम के एक सरस्वती-भक्त की दूसरे भक्तों ने चाकुओं से गोदकर हत्या कर दी.
                         मित्रों,आप सोंच रहे होंगे कि इस तरह की घटनाएँ क्यों हो रहीं है?निश्चित रूप से इसके लिए हमारी दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली और समाज का नैतिक-स्खलन तो जिम्मेदार हैं ही हमारे द्वारा दिया गया चंदा भी कम दोषी नहीं है.हम चंदा तो दे देते हैं लेकिन यह नहीं देखते कि हमारे बच्चे उन पैसों का कर क्या रहे हैं जबकि यह हमारा ही कर्त्तव्य है.हम उन्हें चंदा देते हैं पूजा-पाठ में खर्च करने के लिए और वे जनाब उसका शराब पी जाते हैं.इतना ही नहीं कभी-कभी तो हमारे द्वारा प्रदत्त राशि से नृत्यांगनाएं भी बुलाई जाती हैं और उनसे कामुक और भौंडे नृत्य कराए जाते हैं.भगवान वैद्यनाथ की नगरी देवघर की  एक ऐसी ही घटना इनदिनों खूब चर्चा में है.आश्चर्य है कि ये लोग जाहिर तौर पर पूजा तो कर रहे हैं बुद्धि और विवेक की देवी सरस्वती की और कर रहे हैं बुद्धि और विवेक के सबसे बड़े शत्रु मदिरा का सेवन और अर्द्धनग्न स्त्रियों का साक्षात् दर्शन.मुझे नहीं लगता कि जिन स्थानों पर टिंकू जिया,शीला की जवानी और उ लाला उ लाला जैसे अतिअश्लिल गीत बजे जाते हैं वहां माता सरस्वती का क्षण भर भी टिक पाना संभव होता होगा.
                                       क्या सरलता,सादगी और पवित्रता की देवी की अर्चना सरल सामग्री-साधनों द्वारा,बिना किसी तड़क-भड़क के और सरल-सच्चे मन से नहीं की जानी चाहिए?अन्यथा पूजा का कोई मतलब भी नहीं रह जाता क्योंकि कोई भी पूजा अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिए की जाती है न कि दिखावे,प्रदर्शन और अपने उच्छृंखल मन को संतुष्ट करने के लिए.सरस्वती पूजा कोइ आप युवा सरस्वती-पुत्रों की ईजाद नहीं है.पूजा हमने भी की थी.तब यानि आज से कोई २५ साल पहले हम अपने नाजुक कन्धों पर उठाकर देवी को १० किलोमीटर दूर बांदे करनौती से जगन्नाथपुर लाया करते थे.कोई लाउडस्पीकर या साउंड बॉक्स नहीं होता था पूजा-स्थल पर.विसर्जन के समय भी हम प्रतिमा को अपने कन्धों पर ही उठाते थे और गाँव के प्रत्येक अमीर-गरीब के घर के सामने रखते थे ताकि महिलाएँ देवी को विधिवत-पुत्रीवत खोईछा भरकर विदाई दे सकें.तब सूरज पासवान की कमर में ढोलक बंधा होता था और जयलाल रविदास अति मधुर और भक्ति-भीना स्वर में 'हंसा पर सवार हे माता,हंसा पर सवार हे' गाते चलते थे.साथ में हम जैसे अन्य युवा-किशोर झाल-करताल बजा-बजाकर संगत करते चलते थे.कहीं कोई उच्छृंखलता या अश्लीलता नहीं;चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ भक्ति का पवित्र वातावरण.क्या वह युग फिर से वापस नहीं आ सकता?अगर नहीं तो क्यों नहीं?बंद करिए लाउडस्पीकर,डीजे और म्युजिक ट्रॉली का प्रयोग.उठाईये ढोलक और झाल-करताल.शराब पीना और अश्लील सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तो निर्विकल्प रूप से बंद होना ही चाहिए.अंत में,मेरी सरस्वती के सभी उद्दंड पुत्रों से हाथ जोड़कर विनम्र निवेदन है कि जो हुआ सो हुआ आगे से अगर वे सचमुच माता सरस्वती को प्रसन्न करना चाहते हैं तो इन बातों का अवश्य ख्याल रखेंगे.लेकिन क्या मेरे युवा-किशोर अनुज मेरी यानि सरस्वती के इस तुच्छ साधक की सुनेंगे?

30.1.12

पचपन और बचपन


पचपन की उम्र का सेहरा पहने मिश्रा जी बगीचे में अकेले बैठे उबासी ले रहे थे। तभी उनका पाँच वर्ष का पौता, करन कुछ टूटे हुए खिलौने लिए भागा-भागा उनके पास आया और चिल्लाते हुए बोला, ‘‘ दादा जी बचाओ-बचाओ दादा जी। मम्मी मेरे खिलौने कबाड़ी वाले को दे रही हैं। ये मेरे खिलौने हैं, मैं नही दूँगा इन्हें।’’ रूआँ सा करन दादा जी के पीछे खुद को छिपाने का असफल प्रयास कर रहा था और खिलौने वाले हाथों को अपनी कमर के पीछे छिपा रहा था।
‘‘क्या हुआ बहू? क्यों ले रही हो इसके खिलौने?’’, दादा जी ने पूछा।
‘‘पिताजी! ये सारे टूटे हुए खिलौने हैं। मैं कह रही हूँ कि इन्हें छोड़ दे, हम इससे भी अच्छे नये खिलौने इसे दिला देंगे। पर ये है कि मानता ही नही। पुराने-टूटे खिलौनों से घर भर रखा है।
करन, बेटा नये खिलौने ले लेना........इन्हंे मम्मी हो दे दो। मैं तुम्हें बिलकुल ऐसे ही नये खिलौने दिला दूँगा।
नहीं दादा जी, मुझे इन्हीं से खेलना है। मैं नहीं दूँगा।
अच्छा बहू, रहने दो। मत दो इसके खिलौने। खेलने दो इन्ही से इसे।
परेशान मम्मी वापस लौट जाती हैं।
अच्छा करन! ज़रा दिखा तो क्या खिलौने हैं तेरे पास, जिनके लिए तू मम्मी से इतना लड़ रहा था।
दिखाऊँ? मासूमियत से पूछते हुए करन ने एक टूटा ट्रक, कुछ तिल्लीनुमा लकड़ी, एक कपड़ा और पतंग का मंज्ज़ा आगे बढ़ा दिया।
दादा जी भी उस सामान को देखकर हैरान थे। परन्तु खिलौनों के प्रति करन का अनुराग देखकर उनकी उन खिलौनों में उत्सुकता बढ़ गई।
करन, इनसे खेलोगे कैसे?
आप खेलोगे दादा जी मेरे साथ?
हाँ-हाँ, क्यों नही! बताओ कैसे खेलना है?
मैं बताता हूँ। पहले तो आप ये स्टिक पकड़ो। अब इन्हें है ना इस ट्रक के चारों कोना पर लगाओ। इन छेदों में इन्हें लगा देते हैं। अब उस मंज्ज़ा से है ना इन स्टिक्स् को बाँधो, नी तो ये गिर जायेंगी। अब ये कपड़ा इन स्टिक्स् पर ऐसे लगा दो। ये बन गया हमारा घर। देखो दादा जी अच्छा है ना? और पता है ये चल भी सकता है।
दादा जी हैरान, करन को देख रहे थे। बच्चों के जो खिलौने हमारे लिए व्यर्थ का सामान होते हैं उन्हें लेकर कितनी कल्पनाएँ उनके संवेदनशील संसार में होती हैं। कैसा अद्भुत सान्निध्य उन सड़क पर ठोकर खाने वाले पत्थरों के प्रति, जो इनकी दुनिया में आकर सुंदर इमारत का रूप धर लेते हैं। ये बच्चें ही तो हैं जो पुरानी निर्जीव चीजों में से भी व्यर्थ का विशेषण हटा, उनके महत्व को बढ़ा देते हैं अन्यथा आज तो जीवित प्राणी भी का अस्तित्व भी अर्थहीन हो चला है। तभी तो पचपन का बचपन को किया गया प्यार लौटाने का समय आता है तो बचपन पचपन से उकता जाता है।
दादा जी के एकाग्रता के तार को करन की आवाज ने झनकारा और ‘चलो दादा जी खेलते हैं’ का सुर उत्पन्न हुआ। और एक बार फिर बचपन-पचपन का खेल प्रारम्भ हो गया।

सृजन पथ: आज शहीद दिवस है

सृजन पथ: आज शहीद दिवस है: आज शहीद दिवस है राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का बलिदान दिवस।गांधीजी के अवदान को लेकर तमाम बातें की जा सकती हैं पर शांति ,अहिंसा और प्रेम का ...

सीनियर्स के संन्यास लेने की माँग........ अपरिपक्वता की निशानी।

दोस्तों, टीम इंडिया के इंग्लैंड दौरे के जख्म अभी भरे भी नहीं थे कि टीम इंडिया ने क्रिकेट प्रेमियों को एक और जख्म दे दिया।पिछले इंग्लैंड दौरे पर तो टीम एक भी मैच जिते बिना ही देश लौट आई थी।4 टेस्ट, 1 टी-ट्वेंटी और 5 वन-डे की सीरिज में टीम एक भी मैच जितने में असफल रही थी।और उस खराब प्रदर्शन के कारण टीम को टेस्ट मैचों में नंबर एक का ताज भी गंवाना पड़ा।ठीक उसी तरह की स्थिति अभी टीम इंडिया की ऑस्ट्रेलिया में भी है।4 टेस्ट मैचों की सीरिज में तो टीम का सफाया हो ही चुका है और अगर टीम के खिलाड़ियों ने प्रदर्शन में सुधार नहीं किया तो वो दिन भी दूर नहीं जब टीम को ऑस्ट्रेलिया से भी खाली हाथ लौटना पड़ेगा।टीम को अभी ऑस्ट्रेलिया से दो टी- ट्वेंटी मैचों की सीरिज और एक त्रिकोणीय सीरिज भी खेलनी है जिसकी तीसरी टीम श्रीलंका है।अगर टीम को ऑस्ट्रेलिया में अपनी लाज बचानी है तो आने वाले मैचों में निश्चित रूप से अच्छा प्रदर्शन करना होगा।
   टीम के ऑस्ट्रेलियाई दौरे में खराब प्रदर्शन पर सबसे ज्यादा आलोचना झेलना पड़ा सचिन, द्रविड़, लक्ष्मण सरीखे त्रिदेव और कप्तान धोनी को।माना कि खराब दौर से तो सभी टीमों और कप्तानों को गुजरना पड़ता है लेकिन पिछले दो विदेशी दौरों पर टीम का प्रदर्शन सचमुच निराशाजनक रहा है।इस खराब प्रदर्शन के लिए किसी दो या तीन खिलाड़ी को जिम्मेदार ठहराना बिल्कुल गलत है।खासकर त्रिदेव और कप्तान धोनी पर ही सारा दोष डालना तो बेमानी होगी।पूरी टीम अगर एकजुट होकर अच्छा प्रदर्शन करती है तभी किसी टीम को जीत मिलती है, किसी एक या दो खिलाड़ियों के ही अच्छा प्रदर्शन कर लेने से टीम नहीं जीतती है।उसी तरह अगर टीम हारती भी है तो उसकी ज़िम्मेवार पूरी टीम है, न कि एक या दो खिलाड़ी।हाँ, यह बात अलग है कि जब टीम जीतती है तो अच्छा प्रदर्शन तो टीम के सभी खिलाड़ी करते हैं लेकिन सबसे ज्यादा क्रेडिट ले उड़ते हैं टीम के कप्तान।और इस बार जब टीम इंडिया लगातार दूसरे विदेशी दौरे पर टेस्ट मैचों में वाइटवाश हो चुकी है तो इसकी जिम्मेदार तो पूरी टीम है लेकिन एक कप्तान के रूप में सबसे ज्यादा जिम्मेदार धोनी ही हैं, जो उन्होंने स्वीकारी भी है।
   पहले इंग्लैंड और फिर ऑस्ट्रेलियाई दौरे पर टीम के शर्मनाक प्रदर्शन के बाद धोनी को टेस्ट टीम की कप्तानी से हटाने की माँग तेज हो गई।कपिल देव और सुनील गावस्कर सरीखे क्रिकेट के दिग्गजों ने भी धोनी को कप्तानी से हटाने की बात कही।अगर क्रिकेट बोर्ड धोनी को टेस्ट टीम के कप्तानी से हटा भी देती है तो वैसे भी टीम के खराब प्रदर्शन के बाद यह कोई आश्चर्यजनक फैसला तो होगा नहीं लेकिन मुझे नहीं लगता है कि इससे कोई हल निकलने वाला है।अगर धोनी कप्तानी से हटा दिए जाते हैं तो मौजूदा टीम में मुझे तो कप्तानी के लिए कोई ठोस दावेदार नजर नहीं आ रहा है।धोनी के बाद आप किसे बनाओगे टेस्ट टीम का कप्तान?टीम के उपकप्तान सहवाग भी अपने उस रंग में नजर नहीं आ रहे हैं जिसके लिए वो जाने जाते हैं।वैसे तो धोनी के बाद सहवाग ही कप्तान के मुख्य दावेदार हैं लेकिन उनकी कप्तानी में भी वो बात नहीं है जो टीम के लिए फायदेमंद हो।युवाओं में अगर आप विराट कोहली की बात करें तो वो भी इस जिम्मेदारी के लायक नजर नहीं आ रहे हैं।सिर्फ एक पारी में उन्होंने शतक लगा लिया तो इसका यह मतलब नहीं कि वह टेस्ट टीम की कप्तानी के लायक हो गए।माना कि उनमें प्रतिभा है जिसपर किसी को संदेह नहीं है लेकिन उन्होंने भी पूरी सीरिज में अपनी प्रतिभा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं किया।इसलिए भलाई इसी में है कि धोनी को अभी और मौका देना चाहिए।
   अगर टीम के खराब प्रदर्शन की बात की जाए तो पूरी टीम अपनी रंग में नजर नहीं आई।बैटिंग, बौलिंग, किसी भी क्षेत्र में टीम खड़ी नहीं उतरी।बौलिंग में ईशांत शर्मा ने तो लुटिया ही डूबो दी।पूरे सीरिज में कभी भी वो रंग में नजर नहीं आए।आर. आश्‌विन को भी सिलेक्टर्स ने जिस उम्मीद से टीम में चुना था, वह भी सिलेक्टर्स की उम्मीद पर खड़े नहीं उतरे।बौलिंग तो टीम की लगभग ठीक ही रही क्योंकि टीम के गेंदबाजों ने कुछ मौकों पर ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को रन बनाने के मौके नहीं दिए।कुछ मौकों पर भारतीय गेंदबाजों ने ऑस्ट्रेलियाई टीम के शुरूआती विकेट झाड़ कर उनकी बल्लेबाजी की रीढ़ तोड़ दी।लेकिन वे पूरे सीरिज में निरंतर अच्छा प्रदर्शन करने में नाकाम रहे।टीम की बल्लेबाजी तो काफी शर्मनाक रही।टीम के बल्लेबाज कभी भी ऑस्ट्रेलियाई टीम से मुकाबला के मूड में नहीं दिखे।ऑस्ट्रेलियाई टीम के अनुभवहीन लेकिन प्रतिभाशाली गेंदबाजों के आगे हमारी वर्ल्ड-क्लास अनुभवी और प्रतिभाशाली बैटिंग लाइन-अप ने घुटने टेक दिए।विराट कोहली को छोड़ बाकी कोई भारतीय बल्लेबाज तो पूरी सीरिज में शतक भी नहीं लगा सके।गौतम गंभीर जिन्हें भारतीय टीम के बेस्ट ओपनरों में से एक माना जाता है, वो पूरे सीरिज में रन बनाने के लिए जूझते रहे।हमारे टीम के दोनों ओपनरों ने टीम को अच्छी शुरूआत देकर एक बड़े स्कोर की नींव रखने की अपनी जिम्मेदारी को बिल्कुल नहीं निभाया।सहवाग को देखकर तो लग ही नहीं रहा था कि ये वही सहवाग हैं जिन्होंने पिछले वेस्ट-इंडीज दौरे पर वन-डे इतिहास का दूसरा दोहरा शतक लगाकर आक्रामकता और टेक्निक के मेल का क्रिकेट इतिहास का सबसे अच्छा परिचय दिया था।कप्तान धोनी पूरे सीरिज के दौरान बल्लेबाजों को अच्छा प्रदर्शन करने के लिए बोलते रहे।कप्तान धोनी ने तो खुद भी पूरे सीरिज में बल्ले से अच्छा प्रदर्शन नहीं किया।
   टीम के खराब प्रदर्शन के बाद क्रिकेट फैंस ने हमारे त्रिदेव की जमकर आलोचना की।त्रिदेव ने तो खराब प्रदर्शन किया ही लेकिन टीम के युवाओं ने कौन सा अच्छा प्रदर्शन किया।क्या भारतीय टीम ऑस्ट्रेलिया में हमारे सीनियर्स की वजह से हारी है?नहीं।पूरी टीम ने मिलकर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तभी टीम हारी। हम आखिर किस मुँह से कहते हैं कि हमारे त्रिदेव को संन्यास ले लेना चाहिए?वे लगभग पिछले डेढ़ दशक से भारतीय क्रिकेट को अपनी सेवा दे रहे हैं।कठिन से कठिन परिस्थितियों में उन्होंने टीम का साथ निभाया है।कई मौकों पर उन्होंने टीम को जीत दिलाई है।भारतीय क्रिकेट की पहचान हैं हमारे त्रिदेव।ऐसे में एक या दो सीरिज से उनके प्रदर्शन को तौलना और उनके संन्यास लेने की माँग करना तो अपरिपक्वता और नासमझदारी भरी माँग है।भारतीय दर्शकों में यही दिक्कत है, अगर यह टीम जीत जाती तो सभी कहते कि यह सर्वश्रेष्ठ टीम है।जब टीम हार गई तो सभी हमारे त्रिदेव को संन्यास लेने की माँग करने लगे।माना कि त्रिदेव ने निराशाजनक प्रदर्शन किया लेकिन हार का सारा दोष उन पर डालना और उनके संन्यास की माँग करना तो बेमानी होगी।सुनिल गावस्कर हमारे सीनियर्स की आलोचना करते हैं तो वो तो उनका अधिकार है।वे भारतीय क्रिकेट के दिग्गज हैं।हमारे त्रिदेव के भी गुरु हैं।हम सभी उनका सम्मान करते हैं।इसलिए उन्होंने एक गुरू के नाते हमारे त्रिदेव को फटकार लगाई जो कि बिल्कुल सही है।लेकिन हम क्या उनके गुरु हैं कि हम उन पर संन्यास लेने का दबाव डाल रहे हैं?सचिन, द्रविड़ और लक्ष्मण हम से ज्यादा समझदार हैं और वो क्रिकेट को हमसे ज्यादा अच्छी तरह से जानते और समझते हैं।संन्यास का फैसला किसी भी खिलाड़ी का निजी फैसला होता है।हमें या बोर्ड को उन पर संन्यास का दबाव नहीं डालना चाहिए।वे इतने दिनों से क्रिकेट में हैं, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि कब उनके संन्यास लेने का समय है।हम कहते हैं कि अब उनमें रन बनाने की क्षमता नहीं रह गई है।अरे! मैदान में वो खेलते हैं, वो हमसे अच्छी तरह से अपनी खेल की क्षमता को जानते हैं।त्रिदेव हमारे टीम का अभिन्न हिस्सा हैं, वे जो भी फैसला लेंगे टीम हित में ही लेंगे।
   कुछ लोग खराब प्रदर्शन का दोष आईपीएल को दे रहे हैं। माना कि आईपीएल में खिलाड़ी टेक्निक को भूलकर तेजी से रन बनाने में ही लग जाते हैं।लेकिन हार का एकमात्र कारण आईपीएल ही नहीं है।आईपीएल कोई खिलाड़ियों को जबर्दस्ती खेलने को नहीं कहता है।वो तो किसी खिलाड़ी की खुद की मर्जी है कि वह आईपीएल में खेलना चाहता है या नहीं।हार का कारण मुख्य रूप से टीम के सभी बल्लेबाजों का गैरजिम्मेदाराना तरीके से आउट होना और रन बनाने में बिल्कुल असफल होना है।टेस्ट मैचों में आपको विकेट पर टिककर खेलना होता है।आप अगर अपनी पारी के शुरूआती दस ओवर भी संभलकर डिफेंसिव मोड में खेल लेते हो तो ज्यादा संभावना है कि आप एक बड़ी पारी को अंजाम दे सकते हो।आप तीन-चार बड़े शॉट लगाकर एक अच्छी पारी टी-ट्वेंटी में खेल सकते हो, टेस्ट मैचों में नहीं।भारतीय टीम के खिलाड़ियों को रिकी पोंटिंग से सीख लेनी चाहिए।पिछले दो साल से उन्होंने टेस्ट में शतक नहीं लगाया था, और देखिए क्या शानदार वापसी की है उन्होंने।माइकल क्लार्क का भी कप्तानी करियर कुछ ठीक नहीं चल रहा था।पर उन्होंने भी जोरदार वापसी की।भारतीय क्रिकेट के बल्लेबाज भी उनकी तरह वापसी कर सकते हैं।
   भारतीय बल्लेबाजों को आलोचकों पर ध्यान न देकर अपने खेल पर ध्यान देना चाहिए।तभी वे वापसी कर पाएँगे।धोनी की कप्तानी में भारत जब हारने लगा तो ऑस्ट्रेलियाई मीडिया में कुछ इस तरह की खबर आई कि धोनी की कप्तानी वन-डे क्रिकेट के लिए ठीक है, टेस्ट क्रिकेट के हिसाब से वे बेहद सुस्त हैं।ये मीडिया उस वक्त कहाँ थी जब भारत धोनी की कप्तानी में पहली बार टेस्ट में नंबर-वन बना था।धोनी भारतीय टीम के सर्वश्रेष्ठ कप्तान हैं।उन्हें आलोचकों पर ध्यान न देकर अपनी वही चमक फिर से हासिल करनी होगी।अच्छे समय में तो सभी साथ देते हैं।बुरे वक्त में अपने भी साथ छोड़ जाते हैं।जब धोनी की कप्तानी में भारतीय टीम पहली बार टेस्ट में नंबर-वन बनी थी तब तो किसी को धोनी से ऐतराज नहीं था।बस एक या दो सीरिज से ही आपलोगों ने भारत के सर्वश्रेष्ठ कप्तान को हटाने की माँग कर दी।धोनी जैसा कप्तान मिलना बहुत मुश्किल है।माना कि मौजूदा सीरिज में उनका प्रदर्शन बेहद ही साधारण रहा था लेकिन हम उन्हें इतनी आसानी से नहीं खो सकते।किस खिलाड़ी या कप्तान के बुरे दिन नहीं आए हैं?सभी को इस दौर से गुजरना पड़ता है।धोनी को अभी हमारे साथ की जरूरत है।मैं धोनी और पूरी टीम इंडिया के साथ हूँ।और आप? 

नकल, एक और कालिख ?

राजकुमार साहू, जांजगीर, छत्तीसगढ़
निश्चित ही छत्तीसगढ़ विकास की दिशा में अग्रसर हो रहा है, लेकिन कई रोड़े भी नजर आ रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में अनेक बदलाव के कारण यहां की प्रतिभाएं निखर कर सामने आ रही हैं। फिर भी शिक्षा नीति में कई बदलाव की जरूरत है। इसमें सबसे बड़ी जरूरत है, छग को नकल के कलंक से मुक्त करना। ऐसा लगता है, जैसे छत्तीसगढ़ का नकल से चोली-दामन का साथ हो गया है, तभी तो एक मामले को भूले भी नहीं रहते, नकल के दूसरे मामले आंखों के सामने आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में नकल की प्रवृत्ति को खत्म करने सरकार को कड़े कदम उठाने चाहिए, तभी प्रदेश की प्रतिभाओं का भला होगा। नहीं तो, प्रतिभाओं के हिस्से को ‘मुन्नाभाई’ आकर चट करते रहेंगे और इससे कहीं न कहीं छग को ही नुकसान होगा। जाहिर सी बात है, ऐसे हालात में प्रतिभा पलायन भी होगा।
दरअसल, नकल का मामला एक बार फिर इसलिए गरमा गया है, क्योंकि पीडब्ल्यूडी सब इंजीनियर के लिए ली जाने वाली भर्ती परीक्षा में भी नकल के प्रकरण बने हैं और कई नकलची पकड़े गए हैं। उनके खिलाफ कार्रवाई की बात कही गई है, मगर इतने भर से काम चलने वाला नहीं है, क्योंकि नकलचियों पर सख्ती नहीं बरतने का ही परिणाम है कि प्रतिभाओं का दम तोड़ने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। नकल को कहीं न कहीं हम नौकरी पाने तथा किसी परीक्षा में सफल होने के लिए ‘चोर दरवाजा’ ही मान सकते हैं। नकल के कारण प्रदेश की प्रतिभाएं ज्यादा बदनाम होती हैं, क्योंकि जब वे बाहर शिक्षा के लिए जाती हैं तो उन्हें हमेशा कमतर आंका जाता है, जिसका खामियाजा उन्हें अपने कॅरियर निर्माण में भी भुगतना पड़ता है। समय-समय पर सरकार तथा शासन में बैठे लोग भी स्वीकारते हैं, लेकिन नकल पर रोक लगाने के लिए कारगर कदम नहीं उठाए जाते। लिहाजा, यह कृत्य रह-रहकर पुरानी बोतल से बाहर आते रहते हैं। नकल की दुष्प्रवृत्ति के घातक परिणाम से शिक्षाविद् आगाह भी करते हैं, लेकिन जिस तरह के हालात बनते जा रहे हैं, उससे तो लगता है कि नकल की प्रवृत्ति, एक तबके के खून में समा गई है, क्योंकि उन्हें अपनी वैतरणी पार लगाने के लिए कोई दूसरा सहारा नजर नहीं आता। कहीं न कहीं, पीडब्ल्यूडी की परीक्षा में नकल का मामला सामने आने से प्रदेश की परीक्षा तथा शिक्षा व्यवस्था पर एक बार फिर कालिख पूत गई है।
ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ में नकल के मामले पहली बार सामने आए हैं। कुछ बरसों की स्थिति को देखें तो प्रदेश में नकल की प्रवृत्ति ने व्यापक पैमाने पर पैर पसार लिया है। यही राज्य है, जहां बारहवीं व दसवी की बोर्ड परीक्षा की मेरिट सूची में गड़बड़ हो गई। इस प्रकरण से शिक्षा प्रणाणी तथा परीक्षा में बरती गई लापरवाही को लेकर प्रदेश का काफी छिछालेदर हुआ था। उससे पहले पीएससी की परीक्षा भी विवादों में रही है। इन मामलों के मध्य पर नजर डालें तो यही राज्य है, जहां पिछले साल प्री-पीएमटी की परीक्षा तीन बार आयोजित हुई। पीएमटी परीक्षा में फर्जीवाड़े ने सरकार को हिलाकर रख दिया, क्योंकि बिलासपुर जिले के तखतपरु में फर्जीवाड़े का खुलासा होने के बाद कई नामचीन लोगों के नाम आए, जिन्होंने अपने बेटे-बेटियों को परीक्षा पास कराने लाखों रूपये दिए थे। फिलहाल इस मामले में पुलिस जांच कर रही है, कुछ परीक्षार्थी पुलिस के हत्थे चढ़ गए हैं तो कुछ अपने रसूख तथा भूमिगत होने के कारण बचे हुए हैं। कई को कोर्ट से जमानत भी मिल गई है।
कुल-मिलाकर कहना यही है कि प्रदेश की शिक्षा की नींव, नकल के कारण कमजोर हो रही है। इसे मजबूत बनाने के लिए नकल माफिया से प्रदेश को बचाना होगा। शिक्षा के क्षेत्र में सतत् विकास हो रहा है, मगर जिस तरह नकल के सहारे तथा शॉर्टकट आजमाने की करतूत बढ़ती जा रही है। इसे विकास पथ पर अग्रसर प्रदेश के लिए बेहतर नहीं कहा जा सकता है। नकल पर लगाम लगाने के लिए सरकार को ध्यान देना होगा। प्रदेश के कई जिले हैं, जहां के प्रतिभावान छात्र इसलिए भी शंका की नजर से देखे जाते हैं कि वे उस जिले से ताल्लुक रखते हैं, जहां नकल की शिकायतें हैं। यहीं पर प्रतिभाओं का मनोबल टूटता है। ऐसी स्थिति में कहीं न कहीं सरकार और उनकी नीति जिम्मेदार मानी जा सकती है, क्योंकि देश, प्रदेश तथा समाज के हित में रोड़ा बन रही ‘नकल’ पर सरकार कहां रोक लगा पा रही है ? यदि ऐसा नहीं होता तो रह-रहकर नकल के मामले उजागर नहीं होते। सरकार की ढिलाई का ही नतीजा है कि ऐसे कृत्यों को बल मिल रहा है। आशा है कि सरकार, इस दिशा में सख्त निर्णय लेगी और प्रदेश की प्रतिभाओं को आगे लाने प्रयास करेगी, क्योंकि विकास के लिए शिक्षा की अहम भूमिका है, किन्तु ‘नकल’ बड़ा रोड़ा बनती जा रही है।

29.1.12

गडकरी के बयानों से और बढ़ेगा घमासान


अब तक की सर्वाधिक बदनाम कांग्रेस सरकार की विदाई की उम्मीद में भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो चुका है। बड़े मजे की बात ये है कि उस घमासान समाप्त करने अथवा छुपाने की जिम्मेदारी जिस शख्स पर है, खुद वही नित नए विवाद की स्थिति पैदा कर रहा है। इशारा आप समझ ही गए होंगे।
बात भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की चल रही है। हाल ही उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त बता कर अन्य दावेदारों को सतर्क कर दिया था। अभी इस पर चर्चा हो कर थमी ही नहीं थी उन्होंने एक बयान में अरुण जेटली और सुषमा स्वराज को भी प्रधानमंत्री के योग्य करार दे दिया। हालांकि यह सही है कि उन्होंने जैसा सवाल वैसा जवाब दिया होगा और उनका मकसद किसी को अभी से स्थापित करने का नहीं होगा, बावजूद इसके उनके बयानों से पार्टी कार्यकर्ताओं में तो असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो ही रही है। होता अमूमन ये है कि पत्रकार ऐसे पेचीदा सवाल पूछते हैं कि उसमें नेता को हां और ना का जवाब देना ही पड़ता है और जो भी जवाब दिया जाता है, जाहिर तौर पर उसके अर्थ निकल कर आ जाते हैं। जवाब देने वाला खुद भी यह समझ नहीं पाता कि ऐसा कैसे हो गया। उसका मकसद वह तो नहीं था, जो कि प्रतीत हो रहा होता है। कमोबेश स्थिति ऐसी ही लगती है। पता नहीं किस हालात में गडकरी ने मोदी को प्रधानमंत्री के पद के योग्य बताया और पता नहीं किस संदर्भ में उन्होंने सुषमा व जेटली को भी उस पंक्ति में खड़ा कर दिया। मगर जब इन सभी जवाबों को एक जगह ला कर तुलनात्मक समीक्षा की जाती है तो गुत्थी उलझ जाती है कि आखिर वे कहना क्या चाहते हैं। संभव है कि उन्होंने कोई विवाद उत्पन्न करने के लिए ऐसा नहीं किया हो, मगर उनके बयानों से पार्टी में असमंजस तो पैदा होता ही है।
जरा पीछे झांक कर देखें। आडवाणी के रथयात्रा निकालने के निजी फैसले पर जब पार्टी ने मोहर लगाई और उनका पूरा सहयोग किया, तब ये मुद्दा उठा कि आडवाणी अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं अथवा पार्टी उन्हें फिर से प्रोजेक्ट करने की कोशिश कर रही है। तब खुद गडकरी को ही यह सफाई देनी पड़ गई कि आडवाणी की यात्रा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के रूप में नहीं है। उस वक्त आडवाणी की दावेदारी को नकारने वाले गडकरी के ताजा बयान इस कारण रेखांकित हो रहे हैं कि वे क्यों मोदी, सुषमा व जेटली को दावेदार बता कर विवाद पैदा कर रहे हैं। स्वाभाविक सी बात है कि उनके मौजूदा बयानों से लाल कृष्ण आडवाणी और उनके करीबी लोगों को तनिक असहज लगा होगा कि गडकरी जी ये क्या कर रहे हैं। इससे तो आडवाणी का दावा कमजोर हो जाएगा। संभावना इस बात की भी है कि उन्होंने ऐसा जानबूझ कर किया हो, ताकि कोई एक नेता अपने आप को ही दावेदार न मान बैठे, लेकिन उनकी इस कोशिश से मीडिया वालों को अर्थ के अर्थ निकालने का मौका मिल रहा है। विशेष रूप से तब जब कि जिस गरिमापूर्ण पद वे बैठे हैं, उसके अनुरूप व्यवहार नहीं करते। उनकी जुबान फिसलने के एकाधिक मौके पेश आ चुके हैं। उनके कुछ जुमलों को लेकर भी मीडिया ने गंभीर अर्थ निकाले हैं। जैसे एक अर्थ ये भी निकाला जा चुका है कि भाजपा के इतिहास में वे पहले अध्यक्ष हैं, जिन्होंने अपनी बयानबाजी से पार्टी को एक अगंभीर पार्टी की श्रेणी पेश कर दिया है। इसे भले ही वे अपनी साफगोई या बेबाकी कहें, मगर उनकी इस दरियादिली से पार्टी में तंगदिली पैदा हो रही है। इससे पार्टी में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर चल रही जंग को नया आयाम मिला है।
उल्लेखनीय है कि लोकसभा में विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के बीच ही इस पद को लेकर प्रतिस्पद्र्धा चल रही थी। बाद में गुजरात में लगातार दो बार सरकार बनाने में कामयाब रहे नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायायल के निर्देश को अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर अपनी छवि धोने की खातिर तीन दिवसीय उपवास कर की, जो कि साफ तौर पर प्रधानमंत्री पद की दावेदारी बनाने के रूप में ली गई। यूं पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी दावेदारी की जुगत में हैं। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष गडकरी भी गुपचुप तैयारी कर रहे हैं। वे लोकसभा चुनाव नागपुर से लडऩा चाहते हैं और मौका पडऩे पर खुल कर दावा पेश कर देंगे। कुल मिला कर भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए चल रहे घमासान को गडकरी के बयानों से हवा मिल रही है।
-tejwanig@gmail.com

ये हवा चौपट

ये हवा चौपट हमारे देश में क्यों बह रही ?
रस मलाई है जो , अपने को जिलेबी कह रही ॥
हुस्न परदे से झलकता काबिले तारीफ़ है ,
किस लिए वह ज़माने की बेहयाई सह रही ॥
इल्म हासिल कर ,वफ़ा की राह पर चलते रहो ,
बुजुर्गों ने जो बनायी थी ईमारत ढह रही ॥
ये हवा चौपट ............................ ॥

व्यंग्य - घोषणा ही तो है...

राजकुमार साहू, जांजगीर, छत्तीसगढ़
मैं बचपन से ही ‘घोषणा’ के बारे में सुनते आ रहा हूं, परंतु यह पूरे होते हैं, पता नहीं। इतना समझ में आता है कि ‘घोषणा’ इसलिए किए जाते हैं कि उसे पूरे करने का झंझट ही नहीं रहता। चुनावी घोषणा की बिसात ही अलग है। चुनाव के समय जो मन में आए, घोषणा कर दो। ये अलग बात है कि उसे कुछ ही दिनों में भूल जाओ। जो याद कराने पहुंचे, उसे भी गरियाने लगो। यही तो है, ‘घोषणा’ की अमर कहानी। नेताओं की जुबान पर घोषणा खूब शोभा देती है और उन्हें खूब रास आती है। यही कारण है कि वे जहां भी जाते हैं, वहां ‘घोषणा की फूलझड़ी’ फोड़ने से बाज नहीं आते। लोगों को भी घोषणा की दरकार रहती है और नेताओं से वे आस लगाए बैठे रहते हैं कि आखिर उनके चहेते नेता, कितने की घोषणा फरमाएंगे।
बिना घोषणा के कुछ होता भी नहीं है। जैसे किसी शुभ कार्य के पहले पूजा-अर्चना जरूरी मानी जाती है, वैसे ही हर कार्यक्रम तथा चुनावी मौसम में ‘घोषणा’ अहम मानी जाती है। तभी तो हमारे नेता चुनावी ‘घोषणा पत्र’ में दावे करते हैं कि उन्हें पांच साल के लिए जिताओ, वे गरीबों की ‘गरीबी’ दूर कर देंगे। न जाने, और क्या-क्या। लुभावने वादे की चिंता नेताओं को नहीं रहती, बल्कि गरीब लोगों की चिंता बढ़ जाती है। वे गरीबी में पैदा होते हैं और गरीबी में मर जाते हैं। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक केवल घोषणा का शंखनाद सुनाई देते हैं। चुनाव के दौरान घोषणा का दमखम देखने लायक रहता है। नेता से लेकर हर कोई घोषणा की लहर में हिलारें मारने लगता है, क्योंकि ‘घोषणा’ ऐसी है भी।
मन में जो न सोचा हो, वह घोषणा से पूरी हो जाती है। घोषणा की बातों का लाभ न भी मिले, तो सुनकर मन को तसल्ली मिल जाती है। गरीबों की गरीबी दूर करने की घोषणा चुनाव के समय होती है, लेकिन यह सभी जानते हैं कि गरीब, सत्ता व सरकार से हमेशा दूर रहे और गरीबी के आगे नतमस्तक होकर गरीब ही घोषणा के पीछे गुम होते जा रहे हैं।
अभी उत्तरप्रदेश समेत अन्य राज्यों में चुनावी सरगर्मी तेज है। हर दल के नेता ‘घोषणा’ पर घोषणा किए जा रहे हैं। सब के अपने दावे हैं। घोषणा में कोई छात्रों की सुध ले रहा है, किसी में गरीबों की धुन सवार है। कुछ आरक्षण के जादू की छड़ी घुमाने में लगा है। जो भी हो, घोषणा ऐसी-ऐसी है, जिसे नेता कैसे पूरी करेंगे, यह बताने वाला कोई नहीं है। इसी से समझ में आता है कि घोषणा का मर्ज जनता के पास नहीं है। लैपटॉप के बारे में छात्रों को पता न हो, मगर नेताओं ने जैसे ठान रखे हैं, चाहे तो फेंक दो, घर में धूल खाते पड़े रहे, कुछ दिनों बाद काम न आ सके, किन्तु वे लैपटॉप देकर रहेंगे। शहर में रहने वाले ‘गाय’ न पाल सकें, लेकिन वे घोषणा के तहत गाय देंगे ही। ये अलग बात है कि उसकी दूध देने की गारंटी न हो और उसके स्वास्थ्य का भी। नेताओं की घोषणा भी ‘गाय’ की तरह होती है, एकदम सीधी व सरल। सुनने में घोषणा, किसी मधुर संगीत से कम नहीं होती, लेकिन पांच साल के बीतते-बीतते, यह ध्वनि करकस हो जाती है।
नेताओं को भी घोषणा याद नहीं रहती। वैसे भी नेताओं की याददास्त इस मामले में कमजोर ही मानी जाती है। जब खुद के हक तथा फंड में बढ़ोतरी की बात हो, वे इतिहास गिनाने से नहीं चूकते। घोषणा की यही खासियत है कि जितना चाहो, करते जाओ, क्योंकि घोषणा, पूरे करने के लिए नहीं होते, वह केवल दिखावे के लिए होती है कि जनता की नेताओं की कितनी चिंता है। घोषणा के बाद यदि नेता चिंता करने लगे तो जनता की तरह वे भी ‘चिता’ की बलिवेदी पर होंगे। घोषणा की परवाह नहीं करते, तभी तो पद मिलते ही कुछ बरसों में दुबरा जाते हैं। जनता को भी पांच साल होते-होते समझ में आती है कि आखिर ये सब जुबानी, घोषणा ही तो है... ?

 लोथर हरनाइसे के तीन इक्के (3E Program)
लोथर हरनाइसे विश्व के महान कैंसर अनुसंधानकर्ता और जर्मनी की लाभ-निरपेक्ष संस्था “पीपुल अगेन्स्ट कैंसर” के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। यह अतर्राष्ट्रीय संस्था कैंसर पर अनुसंधान, शिक्षा व वैकल्पिक और परम्परागत कैंसर चिकित्सा के लिए कार्य करती है। इनकी पुस्तक कीमोथेरेपी हील्स कैंसर एन्ड द वर्ल्ड इज़ फ्लेट कुछ ही महीनों में बैस्टसेलर साबित हुई। इस पुस्तक में लोथर ने 100 से ज्यादा वैकल्पिक कैंसर चिकित्सा प्रणालियों पर वर्षों तक किये गये अनुसंधान, अनुभव, कैंसर के नये तथा कैंसर को पराजित कर चुके रोगियों के साक्षातकार और तजुर्बों  के बारे में  विस्तार से लिखा हैं। यहां हम लोथर द्वारा कैंसर के कारण, बचाव और उपचार पर किये गये अनुसंधान के बारे में चर्चा करेंगे। लोथर शुरू से ही डॉ. जॉहाना बुडबिज और आधुनिक जर्मन चिकित्सा-विज्ञान के पिता  के नाम से विख्यात डॉ. राइक गीर्ड हेमर से बहुत प्रभावित थे। लोथर बीमारियों के कारण एवं उपचार में आध्यात्मिक पहलुओं को काफी महत्व देते थे। वे कैंसर चिकित्सा में आहार, प्रकाशऊर्जा तथा जीवनशैली की भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे और सभी वैकल्पिक कैंसर चिकित्सा प्रणालियों में डॉ. बुडविग पद्धति को सबसे अच्छी मानते थे।
लोथर ने विभिन्न वैकल्पिक कैंसर चिकित्सा प्रणालियों पर अनुसंधान किये। उन्होंने वर्षों तक विभिन्न देशों का भ्रमण किया। कैंसर के सैंकड़ों कैंसर को परास्त कर सामान्यस्वस्थ और कैंसरमुक्त जीवन जी रहे योद्धाओं से  साक्षात्कार किया और उनके तजुर्बों के बारे में बारीकी से पूछताछ की। इन अनुभवों को उन्होंने तीन बिंदुओं पर कैन्द्रित करते हुए अपना कैंसर-रोधी कार्यक्रम तैयार किया था जो लोथर के तीन इक्कों (3E - Eat right, Eliminate or Detoxification and Energy) के नाम से मशहूर हुआ। मैं उनके अनुभवों को उन्हीं के शब्दों में  नीचे लिख रहा हूँ। क्योंकि हिन्दी में ये बिन्दु उ से शुरू होते हैं इसलिए हम इन्हें तीन उ – उपचार (उत्तम आहार, उत्सर्जन और ऊर्जा) कहेंगे।
उत्तम आहार Eat right - कैंसर पर विजय पाकर स्वस्थ जीवन जी रहे लोगों में से लगभग 80ने अपने आहार में मूलभूत परिवर्तन किया था।
उत्सर्जन Eliminate or Detoxification - कम से कम 60लोगों ने गहन विषहरण (Detoxification) क्रियाओं को पूरे विश्वास और भावना से अपनाया था।
ऊर्जा Energy work - कैंसर को परास्त कर चुके शत प्रतिशत लोगों में मैंने असीम शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रवाह होते देखा।  
उत्तम आहार
सही आहार कैंसर उपचार का पहला बिंदु है।  लेकिन जो लोग इन बातों पर विश्वास नहीं यह करते हैं कि स्वस्थ और विवेकपूर्ण चुने हुए आहार को सेवन करने से कैंसर जैसा घातक रोग भी ठीक हो सकता है या कैंसर चिकित्सालयों के बड़े बड़े प्रोफेसर जो कैंसर-रोधी आहार को महज़ बकवास बताते हैं। तो वे सब झूंठे हैं। उन्हें मेरा फोन नंबर दे दीजिये। मैं साबित कर दूँगा कि कैंसर उपचार में अच्छे आहार का कितना ज्यादा महत्व है। सच तो यह है कि कैंसर-रोधी आहार कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी से ज्यादा प्रभावशाली है। मैं ऐसे हजारों लोगों को मिल चुका हूँ जिन्होंने अपने आहार में बदलाव करके अपने कैंसर जैसे रोग पर विजय  प्राप्त की है और आज सामान्यस्वस्थ और कैंसरमुक्त जीवन जी रहे हैं। मैं बराबर उनके सम्पर्क में हूँ।  जब हम आहार की बात करते हैं तो ऊर्जा के बारे में चर्चा करना जरूरी हो जाता है। हम तीन तरीकों से ऊर्जा ग्रहण करते हैं। 
1-   पहला है प्रकाश, जो सचमुच ऊर्जा का अव्वल स्रोत है। यह शत प्रतिशत सत्य है।
2-   दूसरा तरीका है “जैविक आहार”, जो शरीर को ऊर्जा से भर देता है। दूसरी ओर जब आप बर्गर खाते हैं (जिसमें कोई ऊर्जा नहीं है) तो खाने के बाद आप भारी और ऊर्जाहीन महसूस करते हैं। क्योंकि जब भी आप बर्गर खाते हैं आपकी ऊर्जा का ह्रास होता है।
3-   तीसरा तरीका है अपने विचारों या ध्यान द्वारा शरीर में ऊर्जा का मुक्त प्रवाह होने देना। याद कीजिये अपने जीवन के वो लम्हें जब आपको पहली बार प्यार हुआ था। क्या वह अहसास आप आज तक भुला सके हैंक्या प्यार ने आपके डी.एन.ए. की संरचना में बदलाव किया थाया आपकी सासों की लय बदल दी थीसच में बदला तो कुछ भी नहीं था, हाँ पर शरीर की हर कोशिका में एक नई उर्जा की अनुभूति हुई थी। क्योंकि प्यार ने आपके शरीर के सारे चक्रों और बंधनों को खोल दिया था और शरीर में ऊर्जा का उन्मुक्त प्रवाह होने लगा था। यही अच्छे स्वास्थ्य का रहस्य है कि शरीर इस आध्यत्मिक ऊर्जा से सराबोर रहे  और यह ऊर्जा शरीर में उन्मुक्त रूप से प्रवाहित भी होती रहे। इसका मतलब यह हुआ कि हमारी मानसिक और आध्यात्मिक ऊर्जा स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। 
हम पुनः आहार पर चर्चा करते हैं। वैसे तो कई कैंसर-रोधी आहार पद्धतियां हैं लेकिन सर्वश्रेष्ठ तो है बुडविग की आहार-पद्धति ही है। डॉ. जॉहाना बुडविग की खोज सचमुच अदभुत, असाधारण और अविश्वसनीय है। उन्होंने हमे बतलाया कि अलसी के तेल को पनीर यानी गंधकयुक्त अमाइनो एसिड जैसे सिस्टीन और मीथियोनीन के साथ मिलाने पर एक नया पदार्थ बनता है जो पानी में घुलनशील होता है। और सीधे कैंसर कोशिकाओं में पहुँच कर ऑक्सीजन को आकर्षित करता है और कैंसर खत्म होने लगता है। यही इस पद्धति का रहस्य है।
डॉ. बुडविग ने अपने उपचार से कैंसर के हजारों रोगियों का सफल उपचार किया था। वे आज स्वस्थ हैं और सामान्य जीवन जी रहे हैं। मैं सौभाग्यशाली हूँ कि डॉ. बुडविग में मुझे उनके पते दिये और उनसे मिलने की अनुमति दी। उनकी कैंसर उपचार पद्धति सर्वोत्तम है। कैंसर जैसे जानलेवा रोग की अंतिम अवस्था  के रोगी भी इस उपचार से पूर्णतया ठीक होकर आज सकून से जी रहे हैं। उनके साक्षातकार सचमुच अविश्वसनीय, असाधारण और अचंभित करने वाले थे। उनके द्वारा बनाये गये एलडी तेल के मालिश मात्र से कैंसर की अंतिम अवस्था से जूझ रहे बेहोश रोगी उठ खड़े होते थे और वे ठीक होकर आज भी जीवित हैं। जो यह कहते हैं कि कैंसर को बुडविग आहार चिकित्सा ठीक नहीं कर सकती है, उन्हें कहिये मुझसे मिलें मैं ऐसे सैंकड़ों रोगियों से हाथ मिला चुका हूँ जो बुडविग आहार चिकित्सा से अपना कैंसर ठीक कर चुकें हैं।   
उत्सर्जन
दूसरा बिन्दु उत्सर्जन या निर्विषीकरण है अर्थात शरीर को हानिकारक या उत्सर्जी पदार्थों से मुक्त रखना। निर्विषीकरण की शुरूवात आंतों की सफाई से शुरू होती है। मालिश, क्लींजिंग एनीमा दिये जाते है। खराब और सड़े हुए दांत निकलवाना भी बहुत जरूरी है। खराब और मृत दांतों की रूट केनाल कीटाणुओं से भरी रहती है तथा यकृत और लसिका तंत्र को निरन्तर संक्रमण पहुंचाती रहती है। ऑक्सीजन की कमी के कारण कोशिकाएं ग्लुकोज को पूरी तरह नहीं तोड़ पाती है और लैक्टिक एसिड बनाकर ऊर्जा प्राप्त करती है। यकृत इस लैक्टिक एसिड को पुनः ग्लुकोज में बदल देता है और यह ग्लुकोज कैंसर का पोषण बनता है। यह एक दुष्चक्र है। लैक्टिक एसिड शरीर की अम्लता बढ़ाता है तथा कई तरह के कष्ट और दर्द का कारक बनता है। इस लैक्टिक एसिड का उत्सर्जन बहुत जरूरी है। इस के लिए सस्ता और सुन्दर समाधान सोडा-बाईकार्ब स्नान है जो सौ फी सदी कारगर उपचार है। आप रोजाना अपने स्नान-कुण्ड (बाथटब) को गुनगुने (लगभग 370 दी 380 C) पानी से भरें, उसमें सौ या डेढ़ सौ ग्राम खाने का सोडा मिलाकर हिलाएं और आधे घंटे तक  कुण्ड में लेट कर स्नान का आनंद लें। सोडा पानी को क्षारीय बनाता है जो शरीर से अम्लता निकालता है। शरीर से   लैक्टिक एसिड निकल जाने पर रोगियों को दर्द निवारक दवाइयां कम खानी पड़ती हैं। उष्मा शरीर से हानिकारक तत्वों के उत्सर्जन में बहुत सहायक होती है। रोगी को खूब पानी पीना चाहिये, निर्विषीकरण में पानी के महत्व को कभी भी कम न समझें।                 
ऊर्जा
हजारो रोगियों और वैकल्पिक चिकित्साशास्त्रियों से साक्षात्कार करने के बाद लोथर इस नतीजे पर पहुँचे कि जो रोगी अपनी बुद्धि और विवेक से ज्यादा अपने दिल की बात मानते हैं, उन्हें सहजता से स्वास्थ्य की सही डगर मिल जाती है। यदि हम यह समझना चाहते हैं कि कैंसर के गंभीर रोगी भी कैसे ठीक हों और पुनः स्वस्थ जीवन जीने लगें, तो सबसे पहले हमें ऊर्जा या जीवन-शक्ति (Energy) के बारे में जानना होगा। क्या कभी आपने सोचा है कि एक व्यक्ति के मृत शरीर और कुछ ही क्षण पहले जब बह जीवित था, में क्या अन्तर होता है। शायद कुछ नहीं भले आप सूक्ष्मदर्शी से देखें या उसका सी.टी. स्केन करें। कुछ कहेंगे कि उसकी आत्मा निकल जाती है, अब वह मात्र एक शरीर है, मांस का लोथड़ा है। लेकिन लोथर कहते थे कि फर्क सिर्फ ऊर्जा का है। उन्होंने इसे अपने तरीके से परिभाषित भी किया है। उनके अनुसार ऊर्जा एक अदृष्य शक्ति है जो न तो नष्ट हो सकती है और न बनाई जा सकती है, यह सिर्फ या तो प्रवाहित हो सकती है या नहीं हो सकती है।
हम ऐसी स्थितियां पैदा कर सकते हैं कि जब इस ऊर्जा का उन्मुक्त प्रवाह शुरू हो जाये जैसे एक नये शिशु का जन्म के समय होता है। या हम इस ऊर्जा के प्रवाह को कई तरह से नुकसान पहुँचाने की कौशिश करते हैं (जिसे हम रोग की स्थिति  कहते हैं) या इसके प्रवाह को पूरी तरह रोक देते हैं (इस स्थिति को मृत्यु कहते हैं)। इनके बीच हजारों स्थितियां हो सकती हैं जैसे प्यार, विश्वास, सहानुभूति, नफरत, करुणा, संताप, अवसाद आदि आदि, इन्हें हम आम जीवन में रोज देखते हैं।
लोथर मानते हैं कि इसी ऊर्जा का प्रवाह सुनिश्चित करता है कि रोगी मृत्यु को प्राप्त करेगा या स्वास्थ्य की राह पर चल पड़ेगा। चिकित्साशास्त्रियों ने शरीर में इस ऊर्जा के प्रवाह को सही करने के कई उपचार और समाधान बतलाये हैं जैसे प्रार्थना, ध्यान, प्राणायम, योग, अपने कैंसर से अनुबन्ध करना, सुखद भविष्य के स्वप्न देखना या कल्पना करना (जैसे कि आप कल्पना या Visualization) करते हैं कि आप छः महीने बाद क्रिकेट खेल रहे हैं), जीवन में आशा और उत्साह भर देना, ई.एफ.टी., एक्यूप्रेशर, एक्यूपंचर आदि। ये सब शरीर में ऊर्जा का प्रवाह ठीक कर देते हैं। ईश्वर पर विश्वास, सकारात्मकता सोच, कैंसर को परास्त कर देने का जज़्बा बहुत जरूरी है। लोग भगवान से विनती करते हैं कि हे भगवान तू मुझे ठीक करदे मैं तुझे सवा सौ रुपये का प्रसाद चढ़ाऊँगा या गौशाला में गायों के लिए हजार रुपये का चारा दान करूँगा और ईश्वर उनकी मदद कर देता है। लोथर कहते हैं कि बहुत से रोगी अपने कैंसर से सौदेबाजी कर लेते हैं। और उन्हें बहुत लाभ होता है। वे कैंसर से वार्तालाप करते हैं और कहते है, हे अर्बुद श्रेष्ठ ! यदि आप इसी तरह बढ़ते रहेंगे तो मैं भी मरूंगा और आपका अस्तित्व भी खत्म हो जायेगा। लेकिन यदि आप घुल कर छोटे से हो जायेंगे, तो आपको भी मरना नहीं पड़ेगा और इसका मतलब है कि मैं भी जीवित रह सकूँगा। इसके बदले में मैं अपनी जीवनशैली सुधार लूँगा, टॉक्सिन्स से हर हाल में बचूँगा और बुडविग द्वारा बताये गये उपचार को पूरी श्रद्धा और भावना से लूँगा।   
कैंसर - समस्या नहीं समाधान
लोथर बलपूर्वक कहते हैं कि कैंसर शरीर की समस्याओं का समाधान है। कई बार कैंसर की गांठ इसलिए बनती है कि शरीर पर्याप्त ऐड्रिनेलीन नहीं बना पाता है। ऐड्रिनेलीन ग्लूकोज का दहन करता है। आपको मालूम होगा कि अधिक ग्लूकोज शरीर के लिए घातक है और कैंसर के जन्म देती है। उधर कैंसर ग्लूकोज का खमीर करके दहन करता है, कोशिकाओं का तेजी से विभाजन करता है और जिसके लिए वह ऊर्जा ग्लूकोज से लेता है। इसीलिए कई कैंसर की गांठ या ट्यूमर बड़ी तेजी से बढ़ता है। कैंसर कोशिकाएं यकृत की तरह कार्य करती हैं परन्तु अधिक कुशलता से और शरीर के टॉक्सिन्स से हमारी रक्षा करती हैं। बिना ट्यूमर के हम बीमार पड़ जायेंगे। इसीलिए लोथर कहते हैं कि ट्यूमर समस्या नहीं समाधान है, जो शरीर के आन्तरिक आघात (टॉक्सिन्स, फंगस आदि) को हमारे रक्त-प्रवाह से दूर रखता है। इसीलिए अक्सर बायोप्सी परीक्षण में ट्यूमर के गर्भ में फंगस आदि देखे जाते हैं। जब शरीर पर इन टॉक्सिन्स का आतंक कम हो जाता है तो गांठे स्वतः पिघलने लगती हैं। इसीलिए फ्रांस के डॉ. कोसमीन कहते हैं कि कैंसर की गांठों की तुरन्त शल्य-क्रिया करवाने की नहीं सोचें। पहले शरीर का निर्विषीकरण (detoxify) करें, फिर भी गांठे नहीं पिघलने लगें तो शल्य करवाएं।
कैंसर का अहम कारक - तनाव
प्रसन्न और सार्थक जीवन कैंसर उपचार की पहली सीढ़ी है। लोथर पूरे आत्मविश्वास से कहते हैं कि कैंसर हमेशा तनाव से शुरू होता है, बिना तनाव के कैंसर होना असंभव सा है। यह तनाव भौतिक या मनोवैज्ञानिक हो सकता है, कोशिका को क्या फर्क पड़ता है कि तनाव कहां से आया है। कैंसर में हमेशा ग्लूकोज संबन्धी समस्या होती है। इंसुलिन ग्लूकोज को कोशिका में भेजता है। ऐड्रिनेलीन ग्लूकोज को कोशिका से बाहर करते हैं, इस कार्य में कोर्टीजोल और ग्लूकागोन भी थोड़ा हाथ बंटाते हैं। यह तो सभी जानते हैं कि जब भी शरीर तनावग्रस्त होता है तो शुरू में शरीर का ऐड्रिनेलीन बढ़ता है। यह सही है लेकिन यदि शरीर लंबे समय तक तनाव में रहे तो ऐड्रिनेलीन का स्राव धीरे-धीरे घटने लगता है। कैंसर में यही होता है और कोशिका में ग्लूकोज की मात्रा भरपूर रहती है, और उसका दहन नहीं हो पाता है। ये कोशिकाएं मरने लगती हैं। इतनी मात्रा में ग्लूकोज एक विष है, यह धमनियों, गुर्दों और हड्डियों को नुकसान पहुँचाता है। इस खतरे से बचाने के लिए शरीर कैंसर को जन्म देता है क्योंकि ग्लूकोज की इस अधिकता से बचने के लिए शरीर के पास यही एक अंतिम विकल्प बचता है।   
कैंसर - दूसरा जिगर (विषालय या Toxic Reservoir)
लोथर मानते हैं कि जब शरीर में टॉक्सिन्स या उत्सर्जी पदार्थ इतने बढ़ जाते हैं कि गुर्दे और यकृत भी उनका उत्सर्जन नहीं कर पाते हैं तो शरीर इन टॉक्सिन्स को मुख्य रक्त-प्रवाह से दूर रखने के उद्देष्य से इन्हें कैंसर की गांठों में छुपा कर रख देता है। या यूँ कहे कि शरीर इन कैंसर की गांठो या अर्बुद को आपातकालीन विषालय (Toxin Reservoir) के रूप में प्रयोग करता है। जर्मनी के विख्यात टॉक्सिकोलोजिस्ट मैक्स डोन्डरर कैंसर की गांठों की बॉयोप्सी किया करते थे और गांठों के भीतर सड़े हुए दांतो के भरे जाने वाले अमलगम के अवशेष या अन्य धातुएं और फॉरमेल्डिहाइड आदि अक्सर देखने को मिलते थे। डॉ. हल्डा क्लार्क पी.एचडी. ने अपनी पुस्तक "द क्योर फॉर ऑल डिजीजेज" में लिखा है कि अधिकतर ठोस कैंसर की गांठों में फाइबर-ग्लॉस, एस्बेस्टस, फ्रियॉन, प्रोपाइल अल्कॉहॉल और अन्य टॉक्सिन्स पाये जाते हैं। ये टॉक्सिन्स तो बड़ी गांठों के कैंद्र में थोड़ी सी जगह ही घेरते हैं लेकिन कालान्तर में इन गाठों में साल्मोनेला, शिगेला और स्टेफाइलोकोकस ऑरियस का संक्रमण हो जाता है।   

लोथर हरनाइसे द्वारा डॉ. बुडविग का साक्षात्कार
लोथर -   आपकी खोज का मुख्य आधार क्या है?
डॉ. जॉहाना बुडविग -  यह सन् 1951 की बात है जब मैं फेडरल हेल्थ ऑफिस के फार्मास्युटिकल और फैट्स विभाग में वरिष्ट विशेषज्ञ थी। यह देश का सबसे बड़ा पद था जो नई दवाओं को जारी करने की स्वीकृति देता था। उन दिनों मेरे पास सल्फहाइड्रिल (सल्फर युक्त प्रोटीन यौगिक) श्रेणी की कैंसररोधी दवाओं के कई आवेदन स्वीकृति के लिए आये थे। उन दिनों कैंसर के उपचार में फैट्स की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण मानी जा रही थी। तत्कालीन विख्यात प्राध्यापक नोनेनब्रुच की रिसर्च रिपोर्ट से भी यही संकेत मिल रहे थे। लेकिन दुर्भाग्यवश उन दिनों फैट्स को पहचानने के लिए कोई रसायनिक परीक्षण उपलब्ध नहीं नहीं थे। 
सन् 1951 में ही मैं और प्रोफेसर कॉफमेन ने मिल कर फैट की रासायनिक रचना को पहचानने की तकनीक विकसित की थी। कॉफमेन जनरल फेडरल इन्स्टिट्यूट में अनाज, आलू और फैट अनुसंधान कैंद्र के निर्देशक थे। मैने पहली बार पेपर क्रोमेटोग्राफी तकनीक विकसित की थी। इसका मतलब यह है कि हम  0.1 ग्राम फैट में भी फैट्स, फैटी-एसिड्स और लाइपोप्रोटीन्स को भी पहचान सकते थे। Co 60 आइसोटोप्स की मदद से लिनोलेनिक एसिड और लिनोलिक एसिड को पृथक करने में सक्षम थे। रेडियोआयोडीन द्वारा फैट्स की सही-सही आयोडीन वेल्यू का आंकलन कर सकते थे। यह खोज बहुत अहम थी। सरकार ने हमारी सहायता के लिए 16 पीएच.डी. प्रवेशार्थी नियुक्त कर दिये थे। हमारी खोज के प्रतिवेदन "फैट अनुसंधान में नई दिशा" में प्रकाशित हुए थे। हमने उन्हें सभी को बताये और सभी जरनल्स में खूब प्रचारित और प्रकाशित करवाये। मैंने अपनी पुस्तक "फैट सिन्ड्रोम" (1956) में भी इन सबका विस्तार से वर्णन किया है।
तब मैंने नोल कम्पनी, जो सल्फहाइड्रिल (सल्फर युक्त प्रोटीन यौगिक) श्रेणी की दवाओं को कैंसर के उपचार हेतु स्वीकृत करवाना चाहती थी, से उनके द्वारा की गई शोध की पूरी जानकारियां मांगी। 1951 में मेरे समझ में आ चुका था कि मुख्य समस्या कहाँ है। तब सभी जीवित ऊतकों द्वारा ऑक्सीजन के अवशोषण की प्रक्रिया को जानना चाहते थे। तब तक यह तो सब जान गये थे कि सल्फहाइड्रिल ग्रुप (सल्फर युक्त प्रोटीन्स) श्वसन क्रिया कर रही कोशिकाओं में पाया जाता था। लेकिन हमें लगता था कि सल्फहाइड्रिल ग्रुप के अलावा भी कोई तत्व है जो श्वसन क्रिया के लिए आवश्यक है। संभवतः यह कोई अज्ञात फैट होना चाहिये जिसे हम पहचानने में असमर्थ थे। यही फैट वारबर्ग श्वसन एंजाइम पथ में महत्वपूर्ण भूमिका रखता है।
वारबर्ग यह तो जानते थे कि श्वसन एंजाइम या साइटोक्रोम ऑक्सीडेज के अलावा कोई अज्ञात तत्व जो संभवतः कोई फैटी एसिड है, जो कोशिकाओं की श्वसन क्रिया के लिए जरूरी है और जिसका सम्बंध कोशिकाओं में ऑक्सीजन की आपूर्ति के अवरुद्ध होने से है। इसी सिलसिले में उन्होंने ब्युटिरिक एसिड द्वारा कोशिकाओं में ऑक्सीजन को आकर्षित करने हेतु कई प्रयोग किये जिसमें वे असफल रहे।  
लोथर -    क्या इसका मतलब यह है कि वारबर्ग पहले व्यक्ति थे जो ब्युटिरिक एसिड द्वारा कोशिकाओं में ऑक्सीजन को खींचना चाहते थे?
डॉ. जॉहाना बुडविग -  नहीं, सबसे पहले वॉन हेलमोल्ज ने कोशिकाओं में ऑक्सीजन पहुंचाने की कौशिश की थी।पहले उन्होंने कुछ बतकों को ब्लीच्ड चावल खिला कर उनकी श्वसन क्रिया को बाधित किया, जिसके कारण वे उनका दम घुटने लगा और वे छटपटाने लगी। लेकिन उन्हें न तो विटामिन ए, बी, सी, डी, या ई खिलाने से और ना ही ऑक्सीजन देने कोई फायदा हुआ और वे जल्दी मर गयी। यह बात आज भी सही है। यदि किसी अस्पताल में ऑक्सीजन का बम रख दिया जाये तब भी ऑक्सीजन की कमी से जूझते रोगी को कोई फायदा नहीं होगा, बल्कि वह जल्दी मरेगा।
सैंट गियोर्गी ने भी फैट के महत्व को समझा और प्रयोग  भी किये थे। सन् 1952 में उन्होंने लिखा था कि ऑक्सीकरण बहुत जल्दी-जल्दी हो जाता है और फैट्स को पहचानना असंभव सा लगता है। इस संदर्भ में मैंने फैट्स के विश्लेषण हेतु संवेदनशील तथा विशिष्ट तरीके (Paper Chromatography) और स्टेन्स बतलाये थे। पहली बार मैंने फैट्स और उनके घटक फैटी-एसिड्स को सही-सही पहचानने और पृथक करने में सफलता पाई थी।     
लोथर -   ये फैटी-एसिड्स किस तरह कार्य करते हैं?
डॉ. जॉहाना बुडविग -  ये कोशिका के नाभिक में स्थित घनात्मक आवेशित प्रोटीन के विपरीत ऋणात्मक ध्रुव की तरह कार्य करते हैं। ये कोशिका भित्ति में स्थित रहते हैं और पहले इन्हें लाइपॉयड्स (fatty substances) कहा जाता था। पहले हमें यह नहीं मालूम था कि ट्यूमर में विभाजित होती हुई ढ़ेर सारी कोशिकाएं क्यों मौजूद रहती हैं। चिकित्सा जगत में आज भी यह गलत धारणा बनी हुई है कि कैंसर में कोशिकाओं का विभाजन बहुत बढ़ जाता है। लेकिन यह असत्य है। 1956 में प्रकाशित मैंने एक लेख में कहा था कि ट्यूमर में विभाजित हो रही ढ़ेर सारी  कोशिकाएं तो होती हैं और अमाइटोसिस (amitosis) की क्रिया शुरू हो चुकी होती है। ट्यूमर में शिशु-कोशिकाओं का खंडीकरण नहीं होता है और जीर्ण कोशिकाएं बेकार हो जाती हैं। जैसे किसी पौधे की पत्ती टूटती है तो उस जगह त्वचा की नई परत चढ़ जाती है, यह क्षमता, जो कोशिका विकास के लिए आवश्यक है, इलेक्ट्रोन युक्त फैटी एसिड्स के अभाव में बाधित हो जाती है। क्योंकि यह नई परत फैटी एसिड्स से बनती है।
लोथर -   इन फैटी-एसिड्स इलेक्ट्रोन्स फोटोन्स को कैसे आकर्षित करते हैं?
डॉ. जॉहाना बुडविग -  प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री कैनेथ फोर्ड ने 1966 में कहा था कि फैटी-एसिड में मंडराते गुंजन करते सक्रिय इलेक्ट्रोन्स का सूर्य के फोटोन्स के प्रति आकर्षण और आवेश इतना प्रचण्ड होता है कि लगता तो ऐसा है जैसे तेलीय बीजों में संचित इलेक्ट्रोन्स ने अपने पूर्वज सूर्य के फोटोन्स को पहचान लिया हो। बीजों में इलेक्ट्रोन्स की ऊर्जा का संचय सूर्य के फोटोन्स के प्रभाव से ही होता है, इसलिए सूर्य  इन इलेक्ट्रोन का पूर्वज ही कहलाया जायेगा। भौतिकशास्त्र के अनुसार यह सिद्ध भी हो चुका है। पौधे की पत्तियों में सूर्य ऊर्जा का अवशोषण विशिष्ट तरंगदैर्ध्य (wavelength) पर होता है। विज्ञान इसे क्वांटोजोम (quantosomes) के नाम से परिभाषित करता है। पत्तियों में अवशोषित इस ऊर्जा (क्वांटा) की लय फोटोन की लय से बिलकुल मिलती है। इसका मतलब यह हुआ कि यह ऊर्जा (क्वांटा) फोटोन्स के अलावा किसी को आकर्षित नहीं करेगी। ऑक्सीजन की खपत और भोजन से ऊर्जा की उत्पत्ति घनात्मक सल्फरयुक्त प्रोटीन और ऋणात्मक आवेशित इलेक्ट्रोन्स के अन्तरसंबन्ध और पारस्परिक आकर्षण पर निर्भर करती है।
लोथर -    ये इलेक्ट्रोन्स के बादल क्या होते हैं?
डॉ. जॉहाना बुडविग -  जब शरीर में वसा-अम्ल सूर्य के फोटोन्स का भरपूर अवशोषण करते हैं तो वसा-अम्ल की लड़ में इलेक्ट्रोन्स का आवेश, ऊर्जा और सक्रियता इतनी अधिक होती है कि ये हल्के-फुल्के इलेक्ट्रोन्स झुंड ऊपर उठ कर बादलों की तरह तैरने लगते हैं और हाइड्रोजन के भारी परमाणु समेत वसा-अम्ल  की भारी लड़ नीचे रह जाती है। इसीलिए इनको इलेक्ट्रोन्स के बादल (electron cloud) कहते हैं।
लोथर -    इन बादलों का क्या महत्व है?
डॉ. जॉहाना बुडविग - इस पूरी कायनात में सक्रिय और ऊर्जावान इलेक्ट्रोन्स और फोटोन्स को संचय करने की सबसे ज्यादा क्षमता मनुष्य में ही होती है। यह इलेक्ट्रोनिक जीवन ऊर्जा मनुष्य के शरीर में असंत्रप्त वसा-अम्ल में संचित रहती है, इसीलिए इन्हें सजीव और आवश्यक भोजन-तत्व की संज्ञा दी गई है। इनके बिना मनुष्य जीवन अकल्पनीय है।
सामान्यतः रसायनशास्त्री आयोडीन-मान के आधार पर बतलाते हैं कि अमुक तेल संत्रप्त है या संत्रप्त। लेकिन यदि इन तेलों को उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है, तो आयोडीन-मानक के आधार पर तो उन्हें असंत्रप्त वसा-अम्ल ही कहा जायेगा। लेकिन उनकी जीवटता, सक्रियता और आवेश खत्म हो जाता है क्योंकि वे ट्रांस-फैट्स में परिवर्तित हो जाते हैं, वसा के चयापचय में हानिकारक मुक्त-कण (Free radicals) की तरह व्यवहार करते हैं। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है, इसीलिए मैं जोर देकर कह रही हूँ। मैंने गर्म किये हुए इन तेलों में मनुष्य के लिए अत्यंत घातक ट्रांस-फैट्स को पहचाना है।
लोथर -    और आप हमेशा अपने उपचार में इन्हीं टॉक्सिक और मृत फैट्स से परहेज करने की अनुशंसा करती हैं?
डॉ. जॉहाना बुडविग -  लोथर, तुमने बिलकुल सही कहा है, मैं अपने उपचार में हमेशा इन टॉक्सिक फैट से परहेज करने की सलाह देती हूँ। लेकिन आज भी वसा और तेल निर्माता तेलों को गर्म कर रहे हैं, हाइड्रोजनीकरण कर रहे हैं और रसायनों का प्रयोग भी कर रहे हैं। वे कहते हैं कि यह अरबों-खरबों डालर का धंधा है और नई तकनीक विकसित करने और मशीने बदलने का खर्चा कौन देगा।
दूसरी तरफ कीमोथैरेपी के नुमाइंदे कुछ सुनना ही नहीं चाहते हैं, उनकी दिशा ही गलत है। कीमो एक मारक या विध्वंसक उपचार है जो कैंसर की गांठ को नष्ट करता है, लेकिन साथ में ढेर सारे स्वस्थ ऊतकों को भी मार डालता है। कई बार तो रोगी की मृत्यु हो जाती है। कोशिकाओं की संवृद्धि (growth) मनुष्य की जीवन प्रक्रिया का अहम पहलू है। कीमो मनुष्य के इसी प्रमुख गुण संवृद्धि (growth) को बाधित करती है, इसीलिए मारक उपचार माना जाता है। हम किसी बुरी चीज से कुछ भी अच्छा हासिल नहीं कर सकते हैं। 
लोथर -  क्या आप मुझे असंत्रप्त वसा-अम्ल के बारे में विस्तार से बतलायेगी?
डॉ. जॉहाना बुडविग -  मक्खन में 4 कार्बन की लड़ होती है। इसी तरह बकरी की वसा, भेड़ की वसा और नारियल के तेल में 6, 8, 10 या 12 कार्बन की लड़ होती हैं। असंत्रप्त और सजीव फैटी-एसिड्स में 18 से ज्यादा कार्बन होते हैं। जैतून के तेल में सिर्फ एक ही असंत्रप्त द्वि-बन्ध होता है और इसलिए इसमें सजीव इलेक्ट्रोन बहुत कम होते हैं। वसा-अम्ल की छोटी लड़े जिनमें कम कार्बन होते हैं, मुख्यतः संत्रप्त होते हैं जैसे ब्युटीरिक एसिड, नारियल तेल और पॉम फैट। हालांकि यदि शरीर में  असंत्रप्त-वसा पर्याप्त मात्रा में हों तो संत्रप्त वसा भी ऊर्जा उत्पादन में सहायक कर पाते है। 18 कार्बन वाले वसा-अम्ल बहुत विशिष्ट और आवश्यक माने गये हैं। हालांकि शरीर में 30 कार्बन तक के वसा-अम्ल भी होते हैं।
अलसी के तेल में विद्यमान 18 लड़ वाले वसा-अम्ल जो अत्यंत असंत्रप्त होते हैं, मनुष्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होते हैं, विशेषतौर पर मस्तिष्क की विभिन्न क्रियाओं के लिए।
कार्बन का परमाणु भारी होता है। आप समझ सकते हैं कि दो आदमी अपनी दोनों बाहें फैला कर एक दूसरे को ज्यादा मजबूती से पकड़ सकते हैं, लेकिन यदि वे एक हाथ से पकड़ेंगे तो बन्धन कमजोर रहेगा, वैसा ही कार्बन के साथ होता है। इलेक्ट्रोन्स से भरपूर लिनोलिक-अम्ल जिंदादिल माना गया है। इसमें दो ऊर्जावान द्वि-बन्ध होते हैं, जिनमें भरपूर इलेक्ट्रोनिक ऊर्जा होती है। यह इलेक्ट्रोनिक ऊर्जा स्थिर नहीं रहती, बल्कि गतिशील रहती है। इसके विपरीत रसायनिक यौगिक जैसे नमक में इलेक्ट्रोन्स स्थिर रहते हैं। यह ऊर्जा इलेक्ट्रोन्स और घनात्मक आवेशित सल्फरयुक्त प्रोटीन के बीच घूमती रहती है। यह बहुत अहम है। शायद आपने माइकल एंजेलो का चित्र देखा होगा, जिसमें ईश्वर को एडम को बनाते हुए दिखाया गया है (दो अंगुलियां एक दूसरे की तरफ इंगित करती हैं परन्तु दोनों अंगुलियां कभी छूती नहीं है)। यही क्वांटम फिजिक्स है, यहाँ अंगुलिया छूती नहीं हैं। मैक्स प्लांक, अलबर्ट आइंसटाइन या प्रोफेसर डेस्योर सभी महान वैज्ञानिक यह मानते हैं कि ईश्वर ने  मनुष्य को अपने प्रतिबिंब के रूप में बनाया हैं। आप देखते हैं कि हम मनुष्यों में एक संबन्ध होता है, भावनाएं होती हैं, भले हम एक दूसरे छूते भी नहीं हैं।
एक द्वि-बन्ध वाले जैतून के तेल में द्वि-ध्रुवीयता (dipolarity) सूर्यमुखी तेल (दो द्वि-बन्ध युक्त) की अपेक्षा कम होती है। ये दो द्वि-बन्ध मनुष्य के लिए विशेष महत्व रखते हैं, लेकिन इसी 18 कार्बन की लड़ में यदि तीन द्वि-बन्ध हों तो द्वि-बन्ध की स्थिति के आधार पर इलेक्ट्रोनिक ऊर्जा चुम्बक जैसी प्रबल हो जाती है। यदि द्वि-बन्ध पास-पास हों तो ऊर्जा और बढ़ जाती है। जब ऊर्जा गतिशील होती है तो विद्युत प्रवाहित होती है और चुम्बकीय क्षेत्र बनता है। इसी तरह इन इलेक्ट्रोन्स का भी एक चुम्बकीय क्षेत्र होता है। बरसात में कांच की खिड़की पर आपने देखा होगा कि एक पानी की बूँद दूसरी बूँद को आकर्षित करती है और दोनों मिल कर एक बड़ी बूँद बनाती है। यही सिद्धांत इलेक्ट्रोन्स पर भी लागू होता है।
इलेक्ट्रोन्स में ऋणात्मक आवेश होता है। प्रोटीन के सल्फहाइड्रिल-ग्रुप, जो घनात्मक आवेशित होते हैं, वसा-अम्ल की लड़ से वहीं जुड़ते हैं जहाँ द्वि-बन्ध होते हैं और इलेक्ट्रोन्स के बादल मंडरा रहे होते हैं। इसी बन्धन से लाइपोप्रोटीन बनते हैं। इस तरह यह जीवन-क्रम घनात्मक और ऋणात्मक आवेशित कणों के अन्तर-संबन्धों की ही लीला है। इस क्रिया में दोनों आवेश मिलते नहीं हैं। क्वांटम भौतिकी के अनुसार यही जीवन का रहस्य है। यदि कोशिकाओं की भित्तियां ट्रांस वसा-अम्ल से बनती हैं, जिनके इलेक्ट्रोन्स बादल और ऊर्जा नष्ट हो चुके होती है, तो वे आपस में एक जाल की तरह गुंथे रहते हैं। हालांकि इनमें असंत्रप्त द्वि-बन्ध तो होते हैं परन्तु इलेक्ट्रोन्क ऊर्जा का अभाव रहता है, द्वि-ध्रुवीयता नहीं होती है, ये प्रोटीन से बंध नहीं पाते हैं और ऑक्सीजन को कोशिका में खींचने में असमर्थ होते हैं। यह ट्रांस वसा-अम्ल का कातिलाना प्रभाव है।  
मैंने देखा कि तीन द्वि-बन्ध वाले असंत्रप्त वसा-अम्ल, जिसे लिनोलेनिक-अम्ल कहते हैं, में भी 18 कार्बन होते हैं। इसकी पहचान और संरचना का अध्ययन सबसे पहले मैंने ही किया था। इसमें द्वि-बन्ध हमेशा एक ही जगह नहीं होते हैं। इसकी लड़ में भारी 18 कार्बन की तुलना में इलेक्ट्रोनिक ऊर्जा इतनी ज्यादा होती है, जितनी 20 कार्बन वाले अगले अरकिडोनिक-अम्ल में भी नहीं होती है। अलसी के तेल में विद्यमान लिनोलिक और लिनोलेनिक अम्ल में इलेक्ट्रोन्स की सम्पदा सबसे ज्यादा होती है। लिनोलेनिक-अम्ल लिनोलिक-अम्ल के साथ मिल कर ऑक्सीजन को बड़े प्रभावशाली  ढंग से आकर्षित करता है। अलसी में तीन द्वि-बन्ध वाले लिनोलेनिक-अम्ल और दो द्वि-बन्ध वाले लिनोलिक-अम्ल का अनुपात और संगम इतना उत्तम होने के कारण ही इसे सुपर स्टार भोजन कहा जाता है। मेरे लिए यह सब प्रयोग द्वारा सिद्ध करना सचमुच आसान हो गया था।
लोथर -    क्या यही ऊर्जा कैंसर का उपचार करती है?
डॉ. जॉहाना बुडविग -  तुम ठीक कह रहे हो हैंडसम,  यही ऊर्जा जो गतिशील है, जीवन-शक्ति से पूर्ण है, कैंसर का उपचार करती है या कैंसर की उत्पत्ति ही नहीं होने देती। यदि आपके शरीर में यह जीवन-शक्ति है तो कैंसर का अस्तित्व  संभव ही नहीं है। यही शरीर की रक्षा-प्रणाली को उत्कृष्ट बना देती है। आजकल रक्षा-प्रणाली की बहुत बातें होती है, लेकिन आवश्यक वसा-अम्ल ही रक्षा-प्रणाली को सुदृढ़ बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाते हैं। एक बार एक बच्चे की हड्डी में सारकोमा हो गया था। बच्चा बार-बार कह रहा था कि किसी ने उसे स्कूल में धक्का दे दिया, जिससे वह गिर गया और यह तकलीफ हो गई। सभी डॉक्टर्स ने कहा,  क्या बकवास है, क्या बच्चे को गिरने से सारकोमा से सकता है। लेकिन मैं कहती हूँ कि यदि बच्चे की रक्षा-प्रणाली कमजोर है तो उसका गिरना भी सारकोमा के लिए जाखिम घटक हो सकता है।
लोथर -    क्या ये खराब वसा या तेल खाने वाले सब लोग कैंसर के शिकार हो जायेंगे?
डॉ. जॉहाना बुडविग -  यह बहुत जरूरी है कि हम मनुष्य को शरीर, मन और आत्मा की एक संयुक्त इकाई के रूप में देखें। सभी पहलू महत्वपूर्ण होते हैं। उदाहरण के लिए किसी स्त्री की उसके पति से नहीं बनती है, वह उसे रोज ताने देता है और झगड़ता है, तो मेरा ओम-खण्ड उसे कभी ठीक नहीं कर पायेगा।
लोथर -    आप रोगी को ज्यादा व्यायाम करने की सलाह नहीं देती हो?
डॉ. जॉहाना बुडविग -  हां लोथर, यह सब रोगी की स्थिति पर निर्भर करता है। मैं कैंसर के गंभीर रोगी को तेज चलने, सायकिल चलाने या योग करने की सलाह कभी नहीं दूँगी। उसे तो आराम करना चाहिये। हां रोगी को हमेशा विस्तर में हीं पड़े रहने चाहिये बल्कि थोड़ा सक्रिय रहना चाहिये। रोगी के उपचार में पूरे परिवार की भागीदारी होना चाहिये और घर का वातावरण प्यार भरा होना चाहिये। यदि परिवार के लोगों का यह उपचार पसन्द नहीं हो या वे उसका भोजन प्रसन्नतापूर्वक नहीं बनाये तो उपचार के कोई मायने नहीं रह जायेगे। 
लोथर -    क्या आपके मतानुसार कैंसर की बड़ी गांठे ऑपरेशन द्वारा निकाल देनी चाहिये?
डॉ. यॉहानाः इस बारे में मेरा कोई स्पष्ट मत  नहीं है। हां मैं कीमो और रेडियो के सख्त विरुद्ध हूं। उदर में होने वाले कैंसर के रोगी को हार्मोन उपचार नहीं देना चाहिये। मेरे खयाल से सर्जरी  के बारे में निर्णय रोगी की स्थितियों के अनुसार काफी सोच समझ कर लेना चाहिये। आंतों के कैंसर रोगियों में कोलोस्टोमी (नकली मलद्वार) करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये। आधुनिक चिकित्सा-तंत्र कैंसर रोगियो के साथ न्याय नहीं करता है।
लोथर -   आपने प्राकृतिक चिकित्सा का लाइसेन्स कैसे प्राप्त क्या?
डॉ. यॉहानाः फैट्स और फार्मास्युटिकल की विशेषज्ञ होने के नाते मैंने प्राकृतिक चिकित्सा का गहन अध्ययन किया था। मैंने अत्यंत असंतृप्त फैट के महत्व और विकृत हाइड्रोजनीकृत फैट के घातक प्रभावों को दुनिया के सामने रखा। काफी बीमार मुझसे मिलते थे, और परामर्श लेते थे। डॉक्टर्स की बिरादरी के लगने लगा था कि मैं उनके कार्यक्षेत्र में दखल दे रही हूं। मैं रोगियों का उपचार रूबी लेजर से भी करती थी।
तभी मैंने विभिन्न तेलों में प्रकाश के अवशोषण की सही सही स्पेक्ट्रोस्कोपिक गणना करके ELDI (इलेक्ट्रोन डिफ्रेन्शियल तेल) भी विकसित किया था। इनकी मालिश करने और रूबी लेजर की मदद से गंभीर रोगी के चयापचय में अभूतपूर्व सुधार होता है। इस सफलता से मैं स्वयं भी आश्चर्यचकित थी। कैंसर के रोगियों को एलडी तेल के प्रयोग से जादुई लाभ मिल रहे थे। तभी मुझे लगा कि अब मेरे दुष्मनों की परेशानी बढ़ने वाली है। इसलिए मैंने प्राकृतिक चिकित्सा का लाइसेन्स ले लिया और लेजर द्वारा रोगियों का उपचार करने के लिए विशेष अनुमति भी ले ली।   
लोथर -    फिर आपने मेडीकल का अध्ययन भी किया
डॉ. बुडविग -  (मुस्कुरा कर) लोथर तुम सच कह रहे हो। गोटिंजन में मैंने कैंसर से पीड़ित विख्यात प्रोफेसर मार्टियस की पत्नि का उपचार किया था, जो बहुत सफल रहा। यह बात कई समाचार पत्रों में भी प्रकाशित हुई थी। इसका वर्णन मैंने "द डैथ ऑफ अ ट्यूमर" वोल्यूम II (The Death of the Tumor Vol. II) में किया है। इसके बाद मैं कैंसर और अन्य बीमारियों के रोगियों का उपचार किया करती थी। मेरे कुछ विरोधियों ने कहा कि बुडविग जब डॉक्टर नहीं है तो वह मरीजों का इलाज क्यों करती है। मुझे यह बुरा लगा और 1955 में मैंने मेडीकल स्कूल में प्रवेश लिया और शरीर-विज्ञान समेत सभी विषयों की नियम पूर्वक मेडीकल की पढ़ाई की।
एक घटना मुझे याद आ रही है। एक रात को एक महिला अपने बच्चे को लेकर रोती हुई मेरे पास आई और बताया कि उसके बच्चे के पैर में सारकोमा नामक कैंसर हो गया है और डॉक्टर उसका पैर काटना चाहते हैं। मैंने उसे सांत्वना दी, उसको सही उपचार बताया और उसका बच्चा जल्दी ठीक हो गया और पैर भी नहीं काटना पड़ा। चूंकि तब मैं मेडीकल स्टूडेन्ट थी। इसलिये मेरे विरोधियों ने मुझ पर केस कर दिया कि मैं अस्पताल के सर्जरी वार्ड से मरीजों को बहला फुसला कर अपने घर ले जाती हूँ, उनका गलत तरीके से इलाज करती हूँ और मुझे मेडीकल स्कूल से निकाल देना चाहिए। म्युनिसिपल कोर्ट ने मुझे पूछताछ के लिये बुलाया। मैंने जज को कहाः “मैं कभी सर्जरी वार्ड में नहीं गई। मुझे तो मालूम भी नहीं वो कहां है। वह महिला स्वयं मेरे पास आई थी। मैं उसके पास नहीं गई। मैंने उसके बच्चे का सफलतापूर्वक इलाज किया और पैर भी नहीं कटने दिया। (इसका उल्लेख मैंने अपनी पुस्तक “डैथ ऑफ ए ट्यूमर वोल्यूम 2” में किया है)” कोर्ट के जज और हमारी यूनिवर्सिटी के काउन्सलर डॉ. हेन्ज दोनों ने कहाः “बुडविग, तुमने बहुत अच्छा काम किया है। यहां कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता है। यदि कोई तुम्हें परेशान करेगा तो चिकित्सा जगत में भूचाल जायेगा।” 
इसके बाद मेडीकल स्कूल के प्रशासन ने मेरी कैंसर उपचार पद्धति का ध्यान से अवलोकन किया और वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने मुझे कहा कि मैं उनके कैंसर विभाग में रेडियाथैरेपी और कीमोथैरेपी ले रहे कैंसर रोगियों का उपचार करूँ, जो मुझे मंजूर नहीं था। मेरे उपचार में  रेडियाथैरेपी और कीमोथैरेपी की कोई जगह नहीं है। फिर वहाँ और भी कई पंगे हुए और अंततः मैंने अपनी मेडीकल पढ़ाई अधूरी ही छोड़ कर गोटिंगन को अलविदा कह दिया।     
लोथर -    क्या आप अपने कुछ व्याख्यान और प्रजेन्टेशन के बारे में बतलाओगी?  
डॉ. बुडविग -  सन् 1964 में अमेरीकन ऑयल कैमिस्ट सोसाइटी ने शिकागो के हिल्टन हॉटल में एक बहुत खास प्रजेन्टेशन के लिए मुझे बुलाया गया था। इससे पहले कि मैं मनुष्य की जीवन-क्रिया में असंत्रप्त वसा के महत्व पर प्रकाश डालती, प्रोफेसर कॉफमेन निश्चिन्त हो जाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मैक कम्पनी से पीली साइटोक्रोम डाई मंगवा कर रख ली थी। उन्होंने एक टिश्यू पेपर पर लगा कर दी और कहा, इसे छूओ और देखो कि क्या यह लाल होती है?” मैंने उसे छूआ और वह तुरन्त लाल हो गया। फिर उन्होंने पूछा, क्या तुमने अपने हाथ में लाल रंग लगा रखा है?” मैंने हंस कर कहा, नहीं प्रोफेसर, आप भी इसे छू कर लाल कर सकते हैं। इसे अपनी अंगुनियों से छू कर तो देखिये। उनकी अंगुलियां भी लाल हो गई और मैंने कहा, मुझे मालूम है प्रोफेसर, आपने भी नाश्ते में अलसी का तेल लेना शुरू कर दिया है। यह देख कर सारे दर्शक खड़े हो गये और मेरी प्रशंसा में जोर से तालियां बजाने लगे। इस प्रस्तुति का विवरण मैंने अपनी पुस्तक कॉस्मिक पॉवर्स अगेंस्ट कैंसर में लिखा है। दूसरी अहम प्रस्तुति मैंने टोकियो में दी थी। वहां किसी सभा में बालने वाली मैं पहली महिला थी। उस रात हॉटल में कई महिलाएं मुझसे  मिली और आधुनिक समाज में नारी की भूमिका पर एक व्याख्यान दूँ, क्योंकि उस दिन सारे अखबारों में यह खबर बड़ी-बड़ी सुर्खियों में थी कि जापान में पहली बार किसी महिला (डॉ. बुडविग) ने किसी सम्मेलन में व्याख्यान दिया है। 
जर्मन डॉक्टर रोह्म ने, जो अमेरिका चले गये थे, वहाँ जाकर मेरी शोध के बारे में एक लेख हू वी आर, वी डॉक्टर्स”? (Who are we, we doctors?) प्रकाशित किया था।
लोथर -    यदि रोगी को कॉटेज चीज़ से एलर्जी है या वह इसे खाना पसन्द नहीं करता है तो आप उसे क्या सलाह देती है?
डॉ. बुडविग -  बायोलोजिकल थेरेपीज सेनेटोरियम, स्वीडन के विख्यात निर्देशक मुझे जानते थे और मेरे उपचार से रोगियों का उपचार किया करते थे। एक बार उन्होंने मुझे फोन किया कि उन्हें अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का उपचार करना है और वे पनीर खाना पसंद नहीं करते हैं। मैंने उन्हें तो कुछ नहीं कहा लेकिन मुझे आज तक कोई रोगी नहीं मिला जिसे अलसी के तेल और पनीर का मिश्रण लेने में कोई परेशानी आई हो।      
लोथर -  आप कैंसर से बचाव के लिये लोगों को क्या सलाह देती हैं, ताकि लोग  कैंसर जैसे रोग से बचे रहें?
डॉ. बुडविग -  खाने के लिए सिर्फ अलसी के तेल की अनुशंसा करती हूँ। मैं फ्रोजन मीट के प्रयोग के लिये हमेशा सख्ती से मना करती हूँ। कभी-कभी ताजा मांस खाया जा सकता है। फूड स्टोर्स के फ्रोजन सेक्शन से तो कुछ भी नहीं खरीदे। अपनी ब्रेड या रोटी खुद बनाएं। ऑलियोलक्स अलसी के तेल की अपेक्षा ज्यादा दिन तक खराब नहीं होता है। इसे ब्रेड, सलाद या सब्ज़ियों  पर डाल सकते हैं। बाजार में मिलने वाले डिब्बा बन्द फलों के रस की जगह घर पर फलों का रस निकाल कर पियें। आलू और पनीर का प्रयोग कर सकते हैं।
हमारे चारों ओर का विद्युत चुम्बकीय वातावरण भी बहुत महत्वपूर्ण होता है। सिन्थेटिक कपड़े शरीर से इलेक्ट्रोन चुराते है। इनके स्थान पर सूती, रेशमी या ऊनी कपड़े पहनें। फोम के गद्दे रात भर में आपकी काफी ऊर्जा सोख लेते हैं। जूट या रूई के गद्दे प्रयोग करना चाहिए। घर के निर्माण में लकड़ी का प्रयोग ज्यादा होना चाहिये। लकड़ी और कालीन बाहरी रेडियेशन को घर के अन्दर नहीं आने देते हैं। अपनी राशि के अनुसार रत्नों को धारण करने से अनावश्यक हानिकारक किरणें दूर रहती हैं। रत्नों के अनुकूल प्रभावों पर पुस्तकें लिखी जानी चाहिये। नियमित समय पर सोना और जागना अति आवश्यक है।
हेलसिंकी के सर्जरी क्लिनिक प्रोफेसर हाल्मे मेरे द्वारा ठीक किये हुए रोगियों का पूरा लेखा जोखा रखते हैं। उनके अनुसार मुझे 90से ज्यादा सफलता मिलती है, वह भी उन रोगियो के उपचार में जहां ऐलोपैथी जवाब दे चुकी होती थी।      
लोथर -    आप अपने रोगियों का उपचार कैसे शुरू करती हैं?
डॉ. बुडविग - जब पहली बार रोगी परामर्श के लिए आता है तो मैं बड़ी शांति से रोगी को सुनती हूँ। मैं दिन के 3 बजे से 5 बजे के बीच रोगियों को देखती हूँ। उसे अपनी तकलीफों, चिकित्सा इतिहास (व्यक्तिगत, भूतकाल तथा पारिवारिक), उसके निदान, उपचार आदि के बारे में विस्तार से बताने देती हूं। मैं उसके व्यवसाय, शौक, आहार, घर के वातावरण आदि की पूरी जानकारी ले लेती हूं।  इस दौरान मैं उसकी जीवन शैली, आहार, दाम्पत्य जीवन आदि के बारे में भी विस्तार से पूछ लेती हूँ।