sahajsamachar .blogspot .com पर पिछले दिनों एक खबर छपी जिसमे ग्रामीण यांत्रिकी सेवा आर ई एस के द्वारा कराये गए कार्यो का भंडाफोड़ किया गया था. इस खबर को इस इस ब्लॉग के माध्यम से कटनी के कुछ अखबारों ने भी प्रकाशित किया. अब इस पूरे खेल को अंजाम देने वाले इंजीनिअर बौखलाए हुए है और खबर के प्रकाशक अखिलेश उपाध्याय को देख लेने की खमकी दे रहे है.
कटनी जिले की जनपद पंचायत बहोरिबंद में जुजावल पंचायत में एक नवीन तालाब का निर्माण किया गया है जिसकी विस्तृत रिपोर्ट सहज समाचार डोट ब्लॉग स्पोट पर की गई है. खबर आने के बाद से आर ई एस के देख लेने की खमकी दे रहे है.
इस ब्लॉग के माध्यम से अखिलेश उपाध्याय ने कम समय में कटनी एवं आस पास के जिलो में चल रही विसंगतियो को बड़े जोर शोर से उठाना चालू किया है. यह उनकी आवाज को दबाने का एक असफल प्रयास है.
इस विषय में ब्लॉग लेखक अखिलेश उपाध्याय का कहना है की ऐसी किसी भी धमकी के आगे नहीं झुकने वाले है, यह मिडिया से जुड़े लोगो के प्रति एक खतरनाक शुरुआत है, ब्लॉग लेखन और अभिव्यक्ति को कुचलने का प्रयास है इस धमकी से सच का आईना दिखाने का काम कभी बंद नहीं होगा.
यदि कोई व्यक्ति यदि हमारी से इत्तफाक रखता है तो कलम के जरिये विरोध करे. प्रतिकार का यह कैसा तरीका ?
31.7.10
ईन्जिनिअर के खिलाफ खबर छपने पर मिली धमकी
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कापुरुष कब तक नारी जीवन स्वेदना से खेलते रहेंगे ,
कापुरुष कब तक नारी जीवन स्वेदना से खेलते रहेंगे ,
नारी जीवन को कबतक आत्महत्या की काली गर्द में फेंकते रहेंगे
पुरुष और लड़कियों की मानसिकता में बहुत अंतर होता है ! पुरुष अपनी भड़ास को औरतो पर चिल्ला कर निकाल लेता है! क्योंकि उसका काम है औरत के विचारो को दबाना ! पर एक लड़की अपनी सारी भड़ास अपने अन्तःकरण में समा लेती है, और अग्नि की तरह जलती रहती है ! हो सकता है सारे लोग इस विचार से इतफ़ाक रखते हो। पर यदि यह मत गलत होता तो आज के परिवेश में महिला आत्महत्या दर निरन्तर नहीं बढ़ता। आंकड़ों का सत्य कहता है महिला आत्महत्या दर पुरषों की अपेक्षा 10 गुना अधिक है ! यदि आंकड़ों पर द्रष्टि डालें तो देखेंगे की बहार काम करने वाली लड़कियां जो आत्मनिर्भर हैं तथा समाज में उनका अपना मुकाम है और वो अपने जीवन के सारे फैसले स्वयं ले सकती हैं! इसके बावजूद भी उन महिलाओं की आत्महत्या दर अधिक है चाहे वो आम लड़की हो या सेलेब्रिटी जब उन्हें प्यार में धोखा मिलता है तो वो धोखे का आघात बर्दाश्त नही कर पाती है ! तब वे अपने जीवन को समाप्त करना ही एक आसान रास्ता मानती है ! अभी हाल ही में प्रसिद्ध माडॅल विवेका बाबा ने आत्महत्या कर ली , कारण अपने प्रेमी का धोखा और तिरस्कार बर्दाश्त नही कर सकी तो उन्होंने आत्महत्या कर ली वाही मिसइण्डिया रही नफीसा जोसेफ ने भी अपने प्रेमी से धोखा खाकर कुछ समय पूर्व आत्महत्या कर ली थी। ऐसे ही यदि आंकड़ों पे दृष्टि डालें तो देखेंगे की रोजाना कोई न कोई लड़की प्रेम में आघात पाकर अपनी जीवन लीला समाप्त करती जा रही है ! मनोविज्ञानिको का मत्त है ‘आज के परिवेश में जहाँ लोगों को अपने जीवन निर्वहन के लिए अधिक परिश्रम करना पड़ रहा है घर और बाहर अत्यंत मानसिक तनाव झेलना पड़ रहा है वही प्यार में धोखा खाना उनके लिए असहनीय होता है और उनके लिए जीवन समाप्त करना एक आसान उपाय लोगों को दिखता है ’ चाहे कोई औरत पूरी तरह स्वतंत्र या आत्मनिर्भर क्यों न हो प्यार का धोखा उसके लिए असहनीय होता है क्योकि स्त्रियों में संवेदनशीलता एवेम भावुकता अधिक होती है। पुरुषमानसिकता स्त्रियों की मानसिकता से बिलकुल विपरीत होती है! पुरुष का आकर्षण स्त्रियों के शारीरिक सौन्दर्य पर केन्द्रति होता है ! उसका प्रेम शरीर से शुरू होकर उसी शरीर पे समाप्त हो जाता है और वो आसानी से एक को छोड़ कर दूसरे से जुड़ जाता है! उसके लिए प्रेम प्यार की बातें आम होती हैृ! परन्तु एक लड़की किसी भी पुरुष से आत्मा तथा मन से जुडती है और जब उसे आत्मिक आघात होता है , तो वो अघात उसके लिए असहनीय होता है और तब उसके सामने सबसे आसान विकल्प बचता है अपनी जीवन लीला को हमेशा हमेशा के लिए समाप्त कर दें ! स्त्री मानसिकता मतलब समय से पहले अपने आप को उम्र से बड़ा मान लेना ! इसका बड़ा कारण ईश्वरी बेइंसाफी भी है ! एक पुरुष 60 वर्ष की आयु में भी पिता बन सकता है पर एक स्त्री का 3५ से 3७ वर्ष की आयु के बाद उसका माँ बनना कठिन होता है! और आज जहाँ लोग अपना कैरियर बनाने के लिए 30 का आंकड़ा पार कर जाते हैं तो उस उम्र में प्यार में धोखा खाना उनके लिए असहनिय हो जाता ह। और उनका सारा आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है! तब या तो अपनी पूरी उर्जा को इन्साफ की गुहार के लिए लगा देती हैं! तब उन पर दूसरा आघात उनके चरित्र पर होता है जो उनकी आत्मा पर असहनीय प्रहार होता है! क्या किसी ने सोचा है कभी भी महिला हो या लड़की उनमे संवीदनशीलता होती है! क्या वो ऐसे ही मरती जाएँगी ? उन्हें भी जीने का हक्क है ! इन नपुंसक व का-पुरुषों को किसने हक्क दिया है रोज रोज लड़कियों एवम महिलाओं को ऐसे ही मारते जा रहे हैं!
उन्हें किसने हक दिया है कि झूठे प्रेम जाल में फंसाओ और जब सच सामने आता है तो वो इंसान भाग खड़ा हो ता है और जब उसका सच समाज के लोगों और उसके परिजनो व प्रियजनो को बताया जाए तो वे नारी चरित्र पर प्रहार करते है जान से मारने की भी धमकी देते है ! तब लड़की के पास दो रास्ते होते हैं या तो अपने सम्मान के लिए लड़ाई लड़े और अपने चरित्र पर प्रहार करने वाले को सबके सामने लज्जित करे और अपने स्वाभिमान की रक्षा करे। पर मै जानती हूँ की कोई भी लड़की किसी भी परुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती और वो जिस भी पुरुष से अपने इन्साफ की गुहार करेगी वो उसे इन्साफ नहीं दिला सकते क्यूंकि वो भी स्वयं पुरुष है तब लड़की मजबूर हो जाती है क्यूंकि उसका एक कदम उसके माता पिता के नाम पर सवालिया निशाँ लगा देता हैै।
उसके लिए तीसरा रास्ता बचता है अपने आपको अनंत अँधेरे में झोंक दे जिसमे वो तिल तिल मरती है पर उसको मरता हुआ कोई नही देख पाता आज मेरा प्रश्न ईश्वर और समाज से है ऐसे नपुंसक पुरुष कब तक नारी जीवन स्वेदना से खेलते रहेंगे और नारी को कब तक आत्महत्या की काली गर्द में फेंकते रहेंगे।
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।विकलांग जीवन:हाय तुम्हारी यही कहानी
भड़ास blog: वैसे जीवन के लिये संघर्ष हरेक प्राणी के अस्तित्व के लिये अनिवार्य है। लेकिन यदि प्राणी विकलांगता का शिकार हो जाये तो आज के समय में यह बहुत कठिन चुनौती है। समाज में आज जिस तरीके से गला काट कम्पटीशन चल रहा है,ऐसे समय में विकलांगों को कुछ सहयोग की दरकार बन गयी है।राजकीय शब्दावली में विकलांगों को फिजीकली चैलेंज कहने का आदेश है। अब यह एक शोध का विषय हो सकता है कि इस नये शब्द के प्रयोग से विकलांगों के प्रति हमारे नजरिये में क्या फर्क आया है।अब तक यह माना गया था कि प्रत्येक राजकीय संस्थांओं में विकलांगों की काबिलियत को परखकर विशेष शिक्षण, प्रशिक्षण दिया जायेगा ताकि वह अपनी योग्यता को विकसित कर अपना भविष्य बना सके व समाज को अपना योगदान दे सके। लेकिन यह सब सुनियोजित तरीके से नहीं हो पा रहा,अन्यथा काफी अधिक सरकारी बजट खर्च करने के बाद भी क्यों विकलांग सार्थक भूमिका नहीं प्राप्त कर पा रहें हैं।इसके स्थान पर किसी भी पब्लिक स्थान पर आप पहले से ज्यादा असहाय विकलांगों को पायेंगें। किसी भी विकलांग को भीख मांगते देखकर आप अक्सर परेशान होते होंगें।काफी संख्या में ऐसे औधौगिक घराने हैं,जो चाहते हैं कि उनका सहयोग ऐसे लोंगो के जीवन में सुधार ला सके तो अच्छा है। लेकिन ऐसे कारखानेदार ऐसे भी हैं,जो कहते हैं कि विकलांगों की आर्थिक मदद तो कर सकते हैं लकिन वे उन्हें कामगार के तौर पर नहीं रख सकते हैं। क्योंकि इससे उन्हें दोहरा नुकसान उठाना पडेगा। वास्तव में यह अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से मुंह मोडना है। क्योकि प्रत्येक उधोग में ऐसे काम जरूर होते है,जो सामान्य प्रकार के होतें हैं,जिसके लिये विकलांग उपयुक्त हो सकते हैं।बस हमें उनके रेजीडुअल गुणों का असेसमेंट करने की जरूरत है। कहते हैं यदि किसी में कोई कमी होती है,तो अल्लाह उसे खास करम से नवाजता है,वास्तव में यही रेजीडुअल गुण कहलाते हैं। अनेक विकलांग इन्हीं गुणों के बल पर समाज में शान से स्थापित हैं।हम सब ऐसे अनेक लोंगों को जानते होंगें,जिन्हें विकलांगता कभी आडे नहीं आयी होगी। हम फिल्म उधोग के रविन्द्रजैन जी को अच्छी तरह जानते हैं।लेकिन फिर भी काफी डिसऐब्लिड ऐसे हैं,जिनके सामने कठोर चुनौतियां हैं। सरकार ने विकलांगों को नौकरियों में 3 प्रतिशत आरक्षण्ा कर रखा है,लकिन यह कानूनी दांव-पेंच में उलझगया है। अब्बल तो सभी सरकारी विभाग यह तय नहीं कर पाते कि उन्हें अपने कुल अभी तक की गयी नियुक्त पदों की गणना अनुसार आरक्षण देना है या कुल स्वीक्रत व कार्यरत पदों के आधार पर।दूसरे समान्य आरक्षण से कुछ बचे तो विकलांगों को अवसर प्राप्त हो पाये। क्योंकि इस प्रकार तकनीकी रूप से आरक्षण पचास प्रतिशत के उपर हो जाता है। इस मामले में जंगल की वह कहानी याद आती है,जिसमें एक बकरी की सहायता के लिये एक बन्दर काफी उछल कूद करता है। अन्त में जब बकरी को कोई राहत प्राप्त नहीं हो पाती तो बन्दर अपना स्पष्टीकरण देता है कि उसने बकरी की सहायता के लिये कोई कसर नहीं छोडी,ऐसे में उसने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी है।क्या सरकार के आधे-अधूरे मन से किये गये प्रयासों के बारे ऐसा ही कुछ है। मुझे एक बार राष्ट्रीय अन्धता संस्थान देहरादून व लुधियाना का अवलोकन करने का अवसर मिला। नििश्चत रूप से देश के कुल ऐसे चारों संस्थान अपनी क्षमता अनुरूप सराहनीय कार्य कर रहें हैं।लेकिन लुधियाना संस्थान के एक कटु अनुभव का जिक्र करना बहुत जरूरी है।वहॉं में कुछ सहयोगियों के साथ था। जहॉं हम ठहरे थे,वहॉं एक विदेशी बूढी औरत रहती थी। इस महिला की उम्र काफी अधिक थी।वह ठीक से चल भी नहीं पा रही थी।इस उम्र में भी वे काफी सुन्दर थीं। उनके कपडे काफी गन्दे व फटे थे। वो जिस कमरे में रहतीं थी,वह काफी अस्त-व्यस्त व गंदा था। हमारे वहॉं पहुंचते ही वे जोर-जोर से अंग्रजी बोलते वहॉं आ गयीं।उनका सबसे पहले सामना मुझसे ही हुआ। हममें से किसी की अंग्रेजी अच्छी नहीं थी।लिहाजा पहली नजर में हम सब एक दूसरे के कमजोर अंग्रेजी ज्ञान पर हँसने लगे। लेकिन हमारा यह व्यवहार उनको अच्छा नहीं लगा,वे जोर-जोर से हम सबसे नाराजगी व्यक्त कर रहीं थीं। उनको नाराज होते देखकर हम सब चुपचाप कमरे छोडकर बाहर चले गये।उनके बारे में पता चला कि वे लुधियाना संस्थान की स्थापना के समय के सबसे पहले अंग्रेज निदेशक के साथ स्टेनो के रूप में भारत आकर बस गयीं।अब उनकी मानसिक स्थिती अच्छी नहीं हैं। वे बहुत अच्छी स्टेनो थीं। वे खाना बनाने की अवस्था में नहीं थीं। उनका बहुत बुरा हाल था,उसको देखकर में स्वंय बहुत दुखी रहा। वहॉं के मैस संचालक से मैने निवेदन किया कि वह उन्हें अपने हाथ से सुबह शाम खाना खिला दिया करे तो यह बहुत नेक काम होगा।लेकिन मेरा दुख यहीं खत्म नहीं हुआ। रात होते ही मेरे जहन व्रद्ध असहाय महिला का विचार चल रहा था,कि रात के लगभग ग्यारह बजे मेर बराबर के कमरे से चीखने की आवाज आने लगी। मेरे साथ मेरे कमरे में मेरा दोस्त दूसरे बैड पर था। हम लोगों ने उठकर सबसे पहले देखा,पता चला कि तीन-चार द्रष्टि बाधित लडकियों के कमरे में तीन लडके घुसकर लडकियों से जबरदस्ती करने की कोशिश कर रहे थे।यह देखते ही हमने उन लडकों को एकाध हाथ जड दिये,वे लडके शराब के नशे में थे।उन लडकों ने उल्टे हम दोस्तों पर आरोप लगा दिया। लडकियां अन्धी थीं,वे किसी को देख नहीं सकती थीं। वो घबराहट में कँपकँपा रहीं थीं। सुबह होने पर हम सबने संस्थान के निदेशक से मिलकर शिकायत की,उन्होंने जॉंच कराकर दोषी को दण्ड दिये जाने की बात कहकर हमें रूखसत किया। लेकिन विकलांगता के सामने चुनौतियों के सम्बध में ये मेरे भाई के अनुभव काफी अनंत व द्रवित करने वाले हैं।क्या हम मानकर चलें कि विकलांग जीवन की कहानी इसी तरह दर्दनाक बनी रहेगी।क्या हमारी सभ्यता हमें इनके प्रति सदाशय नहीं बना सकती।इस आलेख के काफी अंश मेरे भाई की डायरी से हैं।
Posted by Shishu Sharma 0 comments
खाखी को रुपया दो वैध को अवैध करालो
कटनी 31 जुलाई
देश भक्ति जन सेवा का नारा देने वाली कटनी जिले की पुलिस बेहद रिश्वतखोर है. जिले के थानों में बिना रिश्वत लिए छोटा सा भी काम कराना बेहद मुश्किल है, यदि किसी के खिलाफ कोई झूठी शिकायत भी करता है तो यह तो निश्चित है की उसपर केस बने या न बने लिकिन उसे अपनी जेब जरूर ढीली करनी पड़ती है. चार पांच हज़ार में बड़ा से बड़ा मामला रफा दफा हो जाता है,
अब जबकि छोटी छोटी बाते भी बिना ऍफ़ आई आर के पूरी नहीं होती तो निश्चित है आपकी मजबूरी के लिए खाखी वर्दी वाले बैठे है पैसा बसूलने के लिए. आपका सिम कार्ड खो जाए, बैंक की पास बुक खो गो गई हो या ड्राइविंग लाइसेंस गलती से कही गिर गया हो तो आपको स्थानीय थाने में ऍफ़ आई आर दर्ज कराना आवश्यक हो गया है. आपकी खोई हुई बस्तु मिले या न मिले लेकिन उसकी सूचना पुलिस को देना अनिवार्य कर दिया गया है. जब भी ऐसे व्यक्ति थाने जाते है तो उनसे बिना झिझक सरकारी फीस की तरह रूपये मागे जाते है. जब कोई रुपया देना अपने अधिकारों का हनन समझता है और एक सरकारी कर्मचारी को उसका कर्त्तव्य याद दिलाता है तो उससे कहा जाता है की नोटरी का हलफनामा बनवाकर लगाओ.
जबकि हलफनामा मांगने का कई नियम नहीं है, झंझटो से बचने के लिए लोग बुझे मन से खाखी वर्दी वाले यमदूत को चाय पान के नाम पर 100 -50 रूपये देने के लिए विवश हो जाते है,
इसमें पुलिस कर्मी अच्छी खासी कमाई कर रहे है, इसमें माहिर बहुत से पुलिसकर्मी प्रार्थना पत्र पर मोहर ठोक कर चिड़िया बना देते है. शिकायत कर्मी आश्वस्त हो जाता है और फिर वे उसको फाड़कर फेक देते है. जबकि प्रार्थना पत्र का जीडी में दाखिल करना तथा रिसीविंग स्थान पर जीडी नंबर दर्ज करना चाहिए.
बेचारा छोटा सा सिपाही करे भी तो क्या करे क्योकि हर थाने से एसपी कार्यालय को हफ्ता जो पहुचना होता है और एस पी भी क्या करे उसको भी ऊपर मत्री संत्री और उच्चधिकारियो को नजराना पेश करना होता है,
राजे-रजवाड़े तो ख़त्म हो गए लेकिन आज भी सामंतवाद हिंदुस्तान की नसों में दौड़ रहा है तभी तो सरकारी तंत्र में बैठे जनता के सेवक वास्तव में गद्दी में बैठे उन राजाओं और उनके सिपहसालारो के गुलाम है जो इनके द्वारा जनता का खून चूस रहे है. हिंदुस्तान में कहने को लोकतंत्र है. शिकायत करने पर गरीब की शिकायत कूड़ेदान में डाल दी जाती है या उसे इतना भटकाया जाता है की वह स्वयं थक हार कर बैठ जाता है.
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हंगामा तोड़फोड़ और कारोबार
प्राइवेट हॉस्पिटल के अन्दर बाहर हंगामे की खबर चंद पलों में ही शहर की हवा में घुल गई। गली,नेशनल हाई वे, गाँव, शहर के छोटे बड़े ,नामी बेनामी नेता हॉस्पिटल पहुँच गए। उनके आगे पीछे आये मीडिया कर्मी। हॉस्पिटल कैम्पस में स्ट्रेचर। उस पर एक पूरी तरह से ढका हुआ एक शव। स्ट्रेचर के निकट दर्जन भर लोग लुगाई। रोना पीटना, हल्ला गुल्ला। नेताओं के पहुंचते ही माहौल गरमा गया। प्रतीकात्मक तोड़ फोड़ हुई। मीडिया कर्मी जुट गए अपने काम में ,नेता अपने।फोटो,बातचीत,कमेन्ट,तर्क- वितर्क के साथ कुतर्क भी। तमाशबीनों की भीड़ आ डटी। पोलिसे अधिकारी भी आ गए दल बल के साथ। नगर के जाने माने नागरिक, डाक्टर के रिश्तेदार, मित्रों ने भी आना ही था। ऐसे मामले में नेताओं से वार्ता करने वाले भी आ गए, बुला लिए गए। नेताओं ने स्ट्रेचर के निकट खड़े लोगों से जानकारी ली और डाक्टर व उसके स्टाफ को दोषी करार देकर उनकी गिरफ्तारी की मांग कर डाली। मध्यस्थों ने डाक्टर से बात की। डाक्टर का कहना था कि उसने इनमे से किसी का या उसकर रिश्तेदार का इलाज नहीं किया। ना हॉस्पिटल में किसी की इलाज के दौरान मौत हुई है। लेकिन डाक्टर की बात सुनाने वाला वहां कोई नहीं था। डाक्टर की सफाई के बाद हंगामा और बढ़ गया। नारेबाजी में अधिक जोर लगा, तोड़ फोड़ फिर हुई। मीडिया कर्मियों को नए सीन मिले। पुलिस अलर्ट हुई। तमाशबीन थोडा पीछे हते, हटाये गए। कई घंटे इसी प्रकार गुजर गए। सयाने आदमी आगे आये। भीड़ से डाक्टर के प्रति कमेंट्स आने लगे। समझौता वार्ता आरम्भ हुई। माइक लग गया। नेता गला साफ करने लगे। हॉस्पिटल में जो भर्ती थे वे हाथों में ग्लूकोज की बोतल, पेशाब की थैली पकडे कहीं ओर चले गए। हॉस्पिटल में नेताओं ओर उनके समर्थकों का कब्ज़ा था। स्ट्रेचर के आस पास जितने लोग लुगाई शुरू में दिखे वे अब वहां नहीं थे। लम्बी वार्ता के बाद समझौता हो गया। डाक्टर आइन्दा लापरवाही नहीं करेगा। जो कुछ हुआ उसकी माफ़ी मांगेगा। पीड़ित पक्ष थाना में अर्जी देगा तो मुकदमा दर्ज किया जायेगा। वे चाहे तो पोस्टमार्टम करवा ले, पुलिस दवाब नहीं डालेगी। नेताओं ने माइक पर समझौते का ऐलान करते हुए अन्य अस्पतालों को सावचेत किया। अब शुरू हुआ शव के परिजनों को माइक पर बुलाने की कोशिश। किसी को मालूम ही नहीं था कि परिजन कौन है? शव किस का है? आदमी का या महिला का? तलाश आरम्भ। हॉस्पिटल की फाइल देखी गई। हर किसी की जुबान पर यही था कि शव को छोड़ कर उसके परिजन कहाँ चले गए ? एक दूसरे से पूछा , कोई जानता हो तो बताये । पुलिस हैरान। हॉस्पिटल का मालिक डाक्टर उनसे अधिक परेशान हैरान। पुलिस का कम बढ़ गया। वह आगे आई। अम्बुलैंस बुलाई गई। स्ट्रेचर से लाश उठाकर जब अम्बुलैंस में राखी जाने लगी तो हवा से कपड़ा क्या उड़ा कि साथ में सबके होश भी उड़ गए। वह कोई इंसानी लाश नहीं पुतला था। नया बखेड़ा खड़ा हो गया। नेता समझौता करवा के जा चुके थे। धीरे धीरे तमाशबीन भी चले गए। पुलिस, डाक्टर और उसके परिजन ही बाकी बचे थे। पुलिस पुतले को देख रही थी और डाक्टर अपने हॉस्पिटल तथा सबके सामने कटी जेब को। उन्होंने किसी के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने से इंकार कर दिया। पुलिस पुतले का क्या करती! वहीँ सड़क पर फैंक कर लौट गई। पुतला पता नहीं कब तक सड़क पर पड़ा रहा।
एक काल्पनिक घटनाक्रम।
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर 1 comments
30.7.10
कांग्रेस चुनावों को लेकर अखबारों ये समाचार सुर्खियों में रहें कि कांग्रेस में चुनाव की सिर्फ औपचारिकता ही पूरी की जा रही हैं। सुपात्र,अपात्र और कृपापात्र को लेकर भी अटकलें लगायी जा रहीं हैं। कृपापात्रों की ताजपोशी की संभावनाये हैं। वैसे भी कृपापात्र और कुपात्र में फर्क करना आसान नहीं हैं क्योंकि हरवंश सिंह के अधिकांश कृपापात्र पार्टी के लिये कुपात्र ही साबित होते रहें हैं। कांग्रेसी हल्कों में इन दिनों एक चर्चा ऐसी भी हैं कि जिला इंका अध्यक्ष महेश मालू के पारिवारिक वारसानों ने उनसे यह आग्रह किया हैं कि यदि इस बार कोई पीले चांवल लेकर भी आयें तो अध्यक्ष बनने की सहमति नहीं देना। शिवराज के बयान पर जिले की इंकाईचुप्पी और हरवंश सिंह के आरोपी बनने पर भाजपा की सदन में चुप्पी सियासी हल्कों की चर्चाओं में आकर्षण का केन्द्र बनी हुयी है। कई दिनों से तो आलम यह है कि इंकायी और भाजपा खेमे में खुलआम नूरा कुश्ती के चर्चे होते हें और छोटे कार्यकत्ताZ यह मानने लगे हैं कि मरना तो अपना ही हैं बड़े नेता तो बुरे वक्त में एक दूसरे का साथ देकर बचा ही लेते हैं। चाहें फिर वह मुख्यमन्त्री का डंपर मामला हो या हरवंश सिंह का जमीन घोटाले मामले में मुिल्जम बनना हो। वैसे तो मामले में दोषी केन्द्र की कांग्रेस सरकार भी हें और प्रदेश की भाजपा सरकार भी हैं। इसलिये जनमंच का आक्रमण दोनों ही दिशा में बराबर रहना आवयक हें अन्यथा राजनैतिक भेद भाव से बचना मुश्किल हो जावेगा।
सुपात्र,अपात्र और कृपापात्र के चर्चे हो रहें हैं इंकाई चुनाव में - जिले में कांग्रेस के चुनाव होने की औपचारिकता पूरी होने लगी हैं।सबसे पहले जिले के चुनाव अधिकारी उस समय आकर चले गये जब ब्लाक कमेटियों ने जिला प्रतिनिधियों का भी चुनाव नहीं किया था। बाद में ब्लाक कमेटियों के चुनाव अधिकारी आये और अपना काम करके चले गये। जिले सहित किसी भी ब्लाक के चुनाव अधिकारी के आने या बैठक लेने कोई विज्ञप्ति जारी नहीं की गई तथा ना ही सभी सुपात्रों को सूचित किया गया जो कि जो कि चुनाव लड़ने की पात्रता रखते हैं। इसे लेकर अखबारों में भी ये समाचार सुर्खियों में रहें कि कांग्रेस में चुनाव की सिर्फ औपचारिकता ही पूरी की जा रही हैं। सुपात्र,अपात्र और कृपापात्र को लेकर भी अटकलें लगायी जा रहीं हैं। सुपात्र तो कांग्रेस आलाकमान की देन हैं जिसके लिये बाकायदा कार्यकत्ताZओं से फोटो सहित फार्म भराया गया हैं और जिनकी सूची बनायी गई हैं। अपात्रों को पात्र जिले इंकाई महाबली हरवंश सिंह और उनकी अंध समर्थक जिला इंका ने बनायी हैं। जिला इंका ने ही अपात्र बनायी थी और फिर ना जाने कैसे और कब जिला इंका ने ही उन्हें पात्र बना दिया। वैसे अपात्र बनाने की तो बाकायदा विज्ञप्ति प्रकाशित की गईं थीं लेकिन वे पात्र कब और कैसे बन गये इसका पता ही किसी को नहीं चला हैं। अपात्र से पात्र बने ये इंकाई यदि कृपापात्र भी बन गये तो ताज इन्हीं के सिर पर पहना दिया जाये तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये। इंकाई हल्कों में तो लोग चटखारे लेकर यह भी कहने से नहीं चूक रहें कि आलाकमान के सुपात्र भले ही एक कौने में चलें जायें लेकिन हरवंश के कृपापात्र को दरकिनार करना असम्भवा सा ही हैं। वैसे भी कृपापात्र और कुपात्र में फर्क करना आसान नहीं हैं क्योंकि हरवंश सिंह के अधिकांश कृपापात्र पार्टी के लिये कुपात्र ही साबित होते रहें हैं। जिनसे गाली खाओ उन्हीं को टीका लगाओं संस्कृति से त्रस्त- कांग्रेसी हल्कों में इन दिनों एक चर्चा ऐसी भी हैं कि जिला इंका अध्यक्ष महेश मालू के पारिवारिक वारसानों ने उनसे यह आग्रह किया हैं कि यदि इस बार कोई पीले चांवल लेकर भी आयें तो अध्यक्ष बनने की सहमति नहीं देना। उनके परिजन इस बात से दुखी हैं कि जब देखो तब कोई भी गाली गलौच कर के चला जाता हैं। फिर यह भी एक अजीब मजबूरी रहती हैं कि जिससे गाली खाओ उसी का किसी के कहने पर टीका लगाकर सम्मान करो। वैसे भी जिला इंका अध्यक्ष महेश मालू का परिवार स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों का परिवार रहा हैं। ऐसे में जिले के कांग्रेसियों द्वारा उनके परिजनों के साथ ऐसा व्यवहार करना सर्वथा अनुचित हैं। इसीलिये इस बार उनके परिजनों ने विशेषकर वारसानों ने उनसे कहा है कि अब वे उन सब झंझटों से मुक्त हो जायें। अब होता क्या हैं र्षोर्षो यह तो भविष्य ही बतायेगा।प्रदेश में इंका भाजपा में नूरा कुश्ती के चर्चे आम- प्रदेश और जिले के रानजैतिक पटल पर इन दिनों दो महत्व पूर्ण घटनायें हुयी हैं। वषाZकालीन सत्र के पहले मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान ने शिवपुरी जिले के एक गांव में यह बयान देकर सनसनी फैला दी कि उन्हे हटाने के लिये संगठित प्रयास किये जा रहे हैं और भू माफिया इसके लिये पैसा इकट्ठा कर रहा हैं। इसे लेकर कांग्रेस ने दो दिनो तक सदन में हंगामा मचाया और सथगन प्रस्ताव पर चर्चा के बिना माने नहीं। जिले के राजनैतिक पटल पर एक जमीन घोटाले में इंका विधायक एवं विस उपाध्यक्ष हरवंश सिंह पर कोर्ट के निर्देश से धोखा धड़ी का मामला दर्ज हो गया और अब पुलिस उसमें जांच कर रही हैं। पहले ऐसी उम्मीद थी कि 20 जुलाई की पेशी में मामला समाप्त हो जायेगा लेकिन पुलिस ने जांच के लिये समय ले लिया और अब अगली पेशी 19 अगस्त को होगी। इस पर जिले में भाजपा और उनके नेताओं ने काफी हल्ला मचाया लेकिन प्रदेश भाजपा और सदन में इस मामले में भाजपायी चुप्पी सियासी हल्कों में चर्चित हैं। कांग्रेस द्वारा सदन में मुख्यमन्त्री को घेरने के बावजूद भी हरवंश सिंह के मामले में भाजपायी चुप्पी लोगों के गले के नीचे नहीं उतर नहीं हैं। जबकि इस मामले को राजनैतिक रूप से प्रताड़ना का मामला भी नहीं कहा जा सकता हैं क्योंकि यह मामला कोर्ट के निर्देश पर पुलिस ने कायम किया हैं। ब्लकि इस मामलें में पुलिस की आलोचना तो इस बात पर हुई है कि कोर्ट के तीन बार निर्देश दने के बाद बमुश्किल पुलिस ने प्रकरण दर्ज किया था अन्यथा परिवादी के 156(3) के तहत दर्ज किये गये परिवाद में मेन्डेटरी प्रावधानों के बावजूद भी पुलिस ने अपने प्रतिवेदन में बिना अपराध कायम किये यह प्रतिवेदन में लिख दिया था कि आरेपी क्र. 2 और 3 , रजनीश सिंह एवं हरवंश सिंह के खिलाफ कोई साक्ष्य ना होने से अपराध दर्ज नहीं किया गया एवं परिवादी के भाई नियाज अली के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया गया हैं। इसलिये इस मामले में भाजपा की राज्य सरकार या उसकी जिला पुलिस पर राजनैतिक विद्वेष के कारण फर्जी मामला दर्ज करने का आरोप तो कांग्रेस चस्पा ही नहीं कर सकती थी। लेकिन इसके बावजूद भी सदन में कांग्रेस के द्वारा सरीकार को कठघरे में खड़ा किये जाने के बाद भी भाजपा की विस उपाध्यक्ष पर दर्ज मुकदमे पर भाजपा की चुप्पी समझ से परे हैं। दूसरी ओर कांग्रेस के प्रवक्ताओं की शिवराज के बयान पर चुप्पी भी सियासी हल्कों में चर्चित हैं। राजनैतिक खांसी और झींक में फर्क बताने में दो दो पेज की विज्ञप्तियां जारी करने में महारथ रखने वाले महारथी इतने संवेदनशील मामले में चुप्पी क्यों साधे रहेर्षोर्षो जबकि जिले के मुद्दों को छोड़ प्रदेश और राष्ट्रीय मुद्दों पर जिले के लोगों ने प्रवक्ताओं का लंबा विज्ञप्ति युद्ध भी देखा हैं। इन सबके चलते कई दिनों से तो आलम यह है कि इंकायी और भाजपा खेमे में खुलआम नूरा कुश्ती के चर्चे होते हें और छोटे कार्यकत्ताZ यह मानने लगे हैं कि मरना तो अपना ही हैं बड़े नेता तो बुरे वक्त में एक दूसरे का साथ देकर बचा ही लेते हैं। चाहें फिर वह मुख्यमन्त्री का डंपर मामला हो या हरवंश सिंह का जमीन घोटाले मामले में मुिल्जम बनना हो।फोर लेन के लिये जनमंच की बैठक संपन्न- सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन नार्थ साउथ कॉरीडोर का मामला एक बार फिर गर्मा गया हैं। बीते दिनों जनमंच की आयोजित बैठक में कई सुझाव आये और कुछ निर्णय भी लिये गये। 1 अगस्त से आन्दोलन की फिर शुरुआत की जा रही हैं। इसके स्वरूप को लेकर रणनीति बनाने के लिये फिर बैठक होगी। वैसे तो मामले में दोषी केन्द्र की कांग्रेस सरकार भी हें और प्रदेश की भाजपा सरकार भी हैं। जनमंच की एक अपील कमिश्नर के यहां लंबित हैं जो कलेक्टर के उस आदेश को निरस्त करने के लिये लगी हैं जिसके कारण काम रोका गया हैं। और एक केस सुप्रीम कोर्ट में लगा हैं जिसमें केन्द्र सरकार के दो विभागों में समन्वय नहीं हो पा रहा हैं। इसलिये जनमंच का आक्रमण दोनों ही दिशा में बराबर रहना आवयक हें अन्यथा राजनैतिक भेद भाव से बचना मुश्किल हो जावेगा।Þमुसाफिरß
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...ऐसे तो ब्रिटेन के म्यूजियम खाली हो जाएंगे
चलिए शीर्षक से जुड़े विषय पर आते हैं। कैमरन ने एक अंग्रेजी खबरिया चैनल को साक्षात्कार दिया है। साक्षात्कार में डेविड कैमरन उस वक्त सोच में पड़ गए, जब साक्षात्कारकर्ता ने उनसे प्रश्न किया - 'भारत सरकार यदि ब्रिटेन से कोहिनूर मांगता है तो क्या ब्रिटिश सरकार कोहिनूर दे सकेगी?' प्रश्न सुनते ही जेम्स टेंशन में आ गए और सोच-विचारने वाली मुद्रा में बैठ गए। थोड़ी देर बाद बोले - 'यह तो संभव नहीं है, क्योंकि एक के लिए हां बोला तो ब्रिटेन का सारा म्यूजियम खाली हो जाएंगा।' उन्होंने ठीक ही कहा था, कहने से पहले सोचा भी था न। वैसे तो यह मुद्दे से इतर जाने का अच्छा जवाब था, लेकिन बहुत कुछ सच तो इसमें भी छुपा था। वो यूं कि, कैमरन का कहना था, यदि वह एक कोहिनूर को वापस करने के लिए हां बोलते है तो हो सकता है कि एक-एक कर सारी लूटी हुई वस्तुओं की मांग भारत करने लगे, फिर तो ब्रिटेन के सारे म्यूजियम खाली होने ही हैं। क्योंकि ब्रिटेन के म्यूजियम लूटी हुई चीजों से ही भरे और सजे पड़े हैं। दो सौ साल बहुत होते हैं किसी देश को लूटने के लिए। ब्रिटेन व्यापार का बहाना लेकर इस देश में घुसा और फिर धीमे-धीमे उसने लूटमार मचाना शुरू किया जो करीब दो सौ साल चला। उसी दो सौ साल में जो कुछ लूटा उसमें से आंशिक ही हिस्सा है जो ब्रिटेन के म्यूजियमों की शोभा बढ़ा रहा है। बाकी का बहुत सारा हिस्सा तो कहां, किस ब्रिटश कंपनी के अफसर के पेट में और अन्य जगह खप गया होगा पता नहीं।
इतना ही नहीं सवाल और जवाब के बीच उन्होंने यह भी सोच लिया होगा कि अगर ब्रिटेन भारत के लिए हां करता है तो बाकि के वे देश भी तो अपनी चीजें वापस मांग सकते हैं, जो कभी अत्याचारी ब्रिटिश उपनिवेश के गुलाम हुआ करते थे। इस तंगहाली के दौर में अगर सबने अपनी-अपनी चीजें मांगनी शुरू कर दीं तो ब्रिटेन नंगा हो जाएगा।
- अगर भारत गरीब और कंगाल था तो क्यों विभिन्न आक्रांताओं ने इस देश पर बार-बार आक्रमण किया?
- क्यों बाबर (एक अत्याचारी जिसके तथाकथित मकबरे के लिए इस देश में खूब खून बहा है और राजनीति हुई है और हो री है। इतना ही नहीं इस देश के कई लोगों ने इस लुटेरे को अपना आदर्श बना रखा है।), तैमूर लंग और मुहम्मद गजनी, मुहम्मद गौरी आदि ने भारत में लूट मचाई?
- भारत गरीब था तो क्यों ईस्ट इंडिया कंपनी यहां व्यापार के लिए आई और नंगो-भिखारियों के देश में दो सौ साल तक क्या करती रही?
इन सवालों की गूंज पी. चिदंबरम के कानों तक तो उस समय न पहुंची होगी, लेकिन उम्मीद करता हूं कैमरन ने जो कहा उस पर तो उन्होंने गौर किया ही होगा। आखिर महाशय भारत के गृह मंत्री हैं।
Posted by लोकेन्द्र सिंह 2 comments
कुंभकर्णी नींद से जागा एमडीडीए
देहरादून। मसूरी-देहरादून विकास प्राधिकरण अचानक कुंभकर्णी नींद से जाग उठा है। इस नींद की खुमारी का खामियाजा राजधानी में अवैध तौर पर चल रहे शापिंग काम्लेक्सों को भुगतना पढ़ रहा है। पिछले तीन दिनों में एमडीडीए ने छोटे बड़े दर्जन भर प्रतिष्ठानों पर हल्ला बोल कर सील कर दिये। मानो रातों रात इन भवनों का जन्म हुआ हो। पिछले एक दशक से मौजूद इन काम्पलेक्सों पर एमडीडीए उदासीन बना रहा। अब जब इन काम्पलेक्सों के व्यापारी अपना व्यापार स्थापित कर चुके है तो एमडीडीए अचानक हरकत में आ गया है।
शुक्रवार को एमडीडीए के अधिकारियों को अचानक याद आया कि राजपुर रोड स्थित विशाल मेगा मार्ट अवैध रूप से चल रहा है। पिछले पांच-छः वर्षो से चल रहा विशाल मेगा मार्ट काम्पलेक्स एमडीडीए की ही अनुमति के बाद बना है। एमडीडीए जिस हिस्से को व्यवसायिक तौर पर अवैध बता रहा है। उस हिस्से में भी पिछले कई वर्षों से व्यवसाय चल रहा है। एमडीडीए सब कुछ जानते हुए चुप्पी साधे बैठा रहा। अब सवाल यह उठ रहा है कि कई वर्षों की कुंभकर्णी नींद के बाद एमडीडीए अचानक क्यों जाग गया। शहर के विभिन्न हिस्सों में चल रहे व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर अचानक एक साथ हमला बोल देनेे से एमडीडीए की नीयत पर सवाल उठाये जाने लगे है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कहीं इन ताबड़तोड़ हमलों के पीछे पैसे का लेनदेन तो नहीं है। एमडीडीए की कार्यवाही से नाराज व्यापारियों का कहना है कि पिछले कई वर्षों से इनके प्रतिष्ठान चल रहे है। लेकिन एमडीडीए को अब जाकर सुध आ रही है। विशाल मेगा मार्ट में काम करने वाले एक कर्मचारी का कहना है कि एमडीडीए की इस कार्यवाही के कारण राजधानी में सैकड़ों युवाओं व युवतियों को नौकरी से हाथ धोना पड़ रहा है। इन संस्थानों में काम करने वाले कर्मचारियों का मानना है कि अगर इनके प्रतिष्ठान गैर कानूनी तौर पर चल रहे थे तो मसूरी-देहरादून विकास प्राधिकरण को शुरूआती दौर में ही इनके खिलाफ कार्यवाही कर देनी चाहिये थी। अब आठ-दस वर्षों बाद एमडीडीए हरकत में आ रहा है। जिसके कारण व्यापारियों के साथ ही कर्मचारियों को भी नुकसान झेलना पड़ रहा है।
एमडीडीए का अचानक हरकत में आना आम लोगों के भी गले नहीं उतर रहा है। लोगों का मानना है कि बगैर शासन के किसी आदेश के बावजूद शापिंग काम्पलेक्सों तथा दुकानों के खिलाफ एमडीडीए अधिकारियों की यह कार्यवाही संदेह पैदा कर रही है। लोग इसके पीछे पैसे के लेन-देन से भी इंकार नहीं कर रहे है।
Posted by राजेन्द्र जोशी 0 comments
तो फिर क्या आम आदमी ही देश द्रोही है .....???
तो फिर क्या आम आदमी ही देश द्रोही है .....??
जबसे हमने लिखित इतिहास को पढा और उसके माध्यम से सब कालों में "सरकारों"का जो आचरण जाना और समझा है उससे तो ठीक उल्टा ही प्रमाणित होता है,अब तक के लिखित इतिहास के अनुसार हमने यही देखा है कि तरह-तरह की सरकारों ने किस-किस प्रकार के "सुनियोजित-कुकर्म" किये हैं और जब विभिन्न व्यक्तियों या किन्ही सामाजिक संगठनों ने उनके विरुद्द किसी भी प्रकार की आवाज़ उठायी या आंदोलन भी किया तो किस प्रकार से इस "सो-कोल्ड" सरकारों ने उनका गला घोंटा है या कि अपनी सेना और अपने अधीन तंत्र के द्वारा किस प्रकार की हिंसा के द्वारा कुचला है और मज़ा तो यह भी है कि यह सब आज इस "सो-कोल्ड’' या कहूं कि इस तथाकथित लोकतांत्रिक कहे जाने वाले "सभ्य" युग में भी हो रहा है,अंतर सिर्फ़ इतना है कि ऐसा आचरण करने वाली लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारों का ढंग और कम्युनिस्ट सरकारों का ढंग एक-दूसरे थोडा अलग है.
इससे कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि लोकतांत्रिक देशों में लोक-तंत्र का अर्थ महज इतना ही होता है कि नागरिक अपनी मनमानी करें और अगर सरकार को यह नागवार गुजरे तो वह अपनी मनमानी करे...फर्क सिर्फ़ इतना है कि सरकार की मनमानियां एक भयानक अत्याचार से भी भीषण हो सकती हैं,बाद में भले वह हटा दी जाये और बाद वाली सरकार उससे भी कमीनी साबित हो.....
अब तक यही समझा जाता रहा है कि लोगों द्वारा चुनी गयी सरकारों में लोगों के हित ज्यादा सुरक्षित होते हैं,हालांकि ज्यादातर इतिहास इस बात की न सिर्फ़ तस्दीक नहीं करता बल्कि इसे नकारता भी है.सरकार के लोग,उपर से नीचे तक चाहे वो कोई भी हों,खुद के कर्म को उचित और आम नागरिक के कर्मों को ज्यादातर गलत बताते हैं....यह गलत होना गैर-कानूनी होने से लेकर देशद्रोह होना तक भी हो सकता है,यहां तक कि इसी तर्ज़ पर आज तक तमाम लोकतांत्रिक देशों के कानून उनके खुद के ही संविधान की धज्जियां उडाते दिखायी देते हैं.....और मज़ा यह है कि जिन कानूनों के बिना पर आम लोगों को कडी-से-कडी सज़ा तक दे दी जाती है....उन्हीं कानूनों की चिथडे उनके रखवाले हर वक्त करते हुए दिखायी देते हैं, मगर चुंकि हर आदमी अपनी ही समस्याओं से भरा उन्हें निपटाने में पगलाया रहता है.....उसे गरज़ ही नहीं होती इस सबको देखने की [जब तक कि वो खुद नहीं इस सब झमेले में फ़ंस जाये ]....और सिर्फ़ और सिर्फ़ इसीलिए यह सब चलता रहता है.....लोग आंख मूंद कर अपना-अपना जीवन व्यतीत करते रहते हैं....और सरकारी दुनिया में बिल्ली के भाग से छींका टूटता रहता है.....उस टूटे हुए छींके से ये सरकारी लोग [बिल्लियां]मलायी मार-मार कर खाते रहते हैं....यहां तक कि कोई आम नागरिक भी अगर इस मलायी को चाटना चाहे तो उसे निस्संदेह किसी ना किसी सरकारी हाथ की मदद का ही सहारा लेना होता है....मज़ा यह कि कल को अगर यह सब उजागर भी होता है तो इसका ठीकरा हर हालत में उस गैर-सरकारी व्यक्ति या समूह के माथे पर ही फ़ूटना होता है....अगर सरकारी हाथ कुछ ज्यादा ही काला हो गया हो तो तो सरकार खुद आगे बढ्कर उसे बचाया करती है...क्युंकि सरकार में भी तो ना जाने कितने ही पक्ष होते हैं,जिन्होने इस मलायी को चाटने में अपना भी मूंह मारा होता है......
इसका सीधा मतलब आप यह भी लगा सकते हो कि सरकार का दामन हमेशा साफ़ ही होता है...हम जैसे हरामी-कमीने-बेईमान और भ्रष्ट लोग ही सरकार का मूंह काला किये जाते हैं[सरकार के साथ मूंह काला नहीं करते....!!!]और इसीलिये सरकार का विरोध करने वाले.....सरकार अलग सोचने वाले...सरकार से बिल्कुल ही भिन्न नीति रखने वाले....और सरकार के गलत कार्यों का विरोध करने वाले ना सिर्फ़ उसकी [गोपनीय]संघीय व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले समझे जाते हैं,अपितु देशद्रोही तक भी साबित किये जा सकते हैं......प्रत्येक सरकारी व्यक्ति,चाहे वह कितना ही अदना-सा....किसी भी सामान्य समझदारी का गैर-जानकार...या कि बिल्कुल ही टुच्ची सी समझ रखने वाला भी क्यों ना हो.....उसके अधिकार.. उसकी ताकत....उसका अहंकार....उसका रुतबा...उसकी कडकता....उसका रूआब....और सबसे बढ्कर ना जाने किन अनजान जगहों से आने वाला अथाह धन उसे हमसे इतर साबित करते हैं....मगर वह देश-द्रोही कभी नहीं कहला सकता....अगर कभी कहला भी गया तो यह माना जाता है कि जरूर ही उसके खिलाफ़ कोई गहरी राजनीतिक साजिश रची गयी है...और इसके पीछे अवश्य ही विपक्षी राजनीतिक दल है....और इस प्रकार उस गद्दार व्यक्ति या समूह इस तरह के तमाम देश-द्रोही कार्यों के प्रति आंख मूंद ली जाती है....और ऐसा क्यों ना हो.....आखिर उस हमाम में सभी शरीक जो हैं.....
सरकार के अनुदान से चलने वाला बहुतेरा मीडिया भी इस हमाम का ही वासी ही होता है....इस मलायी का चटोरा.....सो एक तरफ़ मीडिया का एक हिस्सा उस गलत व्यक्ति/समूह या सरकार के इन कारनामों को उजागर कर रहा होता है....वहीं....यह मीडिया-विशेष अपनी पूरी ताकत और जद्दोजहद के संग उन गलत कार्यों में बराबर का भागीदार बन कर सरकार का वकील बनकर उन तमाम गलत पक्षों के पक्ष में तमाम निराधार और घटिया दलीलें पेश करता है....जिन्हें हम बराबर हरामीपने के कुतर्क साबित कर सकते हैं....और समय-समय पर ऐसा करते भी हैं......मगर ऐसा कब तक चले.....और क्योंकर चले.....??सरकारों का कार्य क्या सिर्फ़ हरामीपना करना है....??सरकारें क्या किसी और लोक से उतरी हैं और किसी के भी प्रति उत्तर्दायी नहीं हैं.....??और आम आदमी का कोई और काम नहीं है क्या,जो वह सरकारों और उससे जुडे तमाम लोगों पर नज़र रखे....और अपना महत्वपूर्ण काम-धाम छोड देने की कीमत चुका कर "ऐसे लोगों” की पोल खोजता चले.....??सरकारें एयरकंडीशंड रूमों में बैठ कर तमाम उल्टे-सीधे निर्णय ले ले....फिर आम आदमी या संगठन सडक पर आंदोलन करता चले.....??जब सब राय आम आदमी को देनी है....और सरकार को उसके हर किये हुए कर्म का अच्छा-बूरा बतलाना है.....तो फिर ऐसे निकम्मे लोगों को सरकार बनाने का न्योता ही क्यों देना है...??
क्या सरकार होने का मतलब यही होता है.....कि आप मनमानी करते रहो.....मनमाने निर्णय लेकर अपने ही नागरिकों की जान सांसत में डालते रहो....उनका जीवन जीना हराम करते रहो.....??अपनी ऊंची अट्टालिकायें खडी करते रहो.....सब तरह का नाजायज काम उन्हीं नियमों के छेदों की आड में करते रहो...जिसकी बिना पर तुम किसी दूसरे को जेल में झोंक देते हो....???और मीडिया-कोर्ट और सभी तरह के संगठन सरकार के पीछे भोंपू और लाठी लेकर दौडते फ़िरें....???समझ नहीं आता कि आखिर सरकार है तो आखिर है क्या....??सरकारें हम बनाते हैं हममे से कुछ लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाकर हमारे बीच सब किस्म की व्यवस्था कायम करने के लिये....वो भी अपने खर्च से हुए चुनाव से और अपने ही खर्च पर दिये जाने वाले उन हज़ारों नेताओं और तमाम सरकारी लोगों को वेतन देकर.....और सब सरकार बनाते ही सिर्फ़ "अपनी व्यवस्था " कायम करने लग जायें....तो उन्हें वापस कैसे बुलाया जाये.....और उनके लिये किस तरह की सज़ा तय हो...अब सिर्फ़ इसी एक बात पर विचार करना है हमारे समाज रूपी तंत्र को....अगर सरकारें अप्रासंगिक हो गयीं हैं...या हरामी हो गयी हैं....तो उसी की वजह से न सिर्फ़ यह कु-व्यवस्था फ़ैलती है....बल्कि नस्लवाद-आतंकवाद नाम नासूर भी यहीं से पनपता है....पल्लवित होता है....और सरकार के हरामीपने की तरह सब जगह फ़ैल जाय करता है.....जिस तरह अपराधियों का इलाज लाठी-डंडे-कोडे तथा अन्य तरह की सज़ायें तय हैं.....उसी तरह यही सजायें क्या इन लोगों के लिये नहीं तय की जा सकती....अगर माननीय न्यायालय कानूनों में छेद की वजह से उचित फ़ैसला कर पाने में अक्षम है....तो फिर जनता को ही क्यों नहीं इसका ईलाज करना चाहिये....!! मुझे उम्मीद है कि यह अनपढ-गरीब और सतायी हुई जनता एकदम ठीक फैसला लेगी.....हो सकता है कि सभ्य लोगों को उसका फैसला "जंगल का कानून सरीखा लगे..."मगर अगर सब तरफ़ जंगली लोग ही हों...और आम जनता के अधिकारों का बर्बरतापूर्वक हनन कर रहे हों तो आप किस तरह उनका इलाज सो कोल्ड सभ्य कानूनों द्वारा कर सकते हैं....!!
पानी सर से अत्यधिक उपर जा चुका है....जनता को अब फैसला लेना ही होगा....कि उसे क्या चाहिये.....एक अमानवीय और किसी भी प्रकार की उचित सोच से रहित सरकार......और उसकी नाक तले ऊंघ रहा हरामजादा प्रशासन......कि इन सबसे मुक्ति.....अगर दूसरे रास्ते की मन में है....तब तो आगे बिल्कुल रद्दोबदल कर डालिये......अपने बीच से एकदम नये लोग निकालिये....और उन्हें चेतावनी देकर ही संसद और विधान सभाओं में भेजिये.....और अभी......अभी के लिये यही कहुंगा कि इस वर्तमान को अभी-की-अभी उखाड फेंकिये.....और यह आप सब....हम सब....यानि कि आम जनता ही कर सकती है.....क्योंकि हरामियों को सज़ा देने में हमारा कानून.....और हमारा संविधान भी पस्त हो चुका है.....!!!
Posted by राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) 0 comments
आकांक्षा को जन्मदिन की बधाई....
आज आकांक्षा यादव का जन्मदिन है। आकांक्षा उन चुनिंदा रचनाधर्मियों में शामिल हैं, जो एक साथ ही पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ ब्लागिंग में भी उतनी ही सक्रिय हैं. इनके चार ब्लॉग हैं- शब्द-शिखर, उत्सव के रंग, सप्तरंगी प्रेम और बाल-दुनिया। आकांक्षा यादव के जन्मदिन पर ढेरों बधाई।
तुम जियो हजारों साल !
Posted by Ram Shiv Murti Yadav 14 comments
Labels: बधाई, राम शिव मूर्ति यादव
अब उत्तराखंड में किसी भी लेखक की मूर्धन्य कृति नहीं रहेगी अप्रकाशित- डॉ.निशंक
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने मूर्धन्य साहित्यकार, लेखक, कवियों जो धनाभाव के कारण अपनी कृति प्रकाशित नहीं कर पाते हैं, को प्रकाशन के लिए आर्थिक सहायता दिये जाने की योजना स्वीकृति कर दी है। इस योजना के संचालन से अब धनाभाव के कारण कोई पुस्तक अप्रकाशित नही रहेगी और लोगों को मूर्धन्य साहित्यकारों व लेखकों के अनुभव का लाभ सीधे मिलेगा। इस योजना के तहत 2 लाख रुपये तक की स्वीकृति संस्कृति निदेशालय एवं इससे अधिक सहायता वाले प्रकरण में विद्वतजनों की समिति की संस्तुति पर प्रशासन द्वारा दी जायेगी। निदेशक संस्कृति की अध्यक्षता में गठित विषय विशेषज्ञों की इस समिति में गढ़वाल एवं कुमाऊं विश्वविद्यालय के ऐसे विषय विशेषज्ञ नामित होंगे, जो लोक संस्कृति, साहित्य की विधा के होंगे। ज्ञातव्य है कि मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ स्वयं एक साहित्यकार हैं। वे लेखक-कवियों और संस्कृति कर्मियों के श्रम को भली भांति जानते हैं। उन्होंने साहित्यकारों के जीवन परिवेश को करीब से देखा है और अनुभव किया है, कि इनकी लेखनी से सामाजिक चेतना को नई दिशा दी जा सकती है। फिर ये तो जहजाहिर है डा. निशंक राज्य की समृद्ध संस्कृति के सदैव प्रोत्साहन के पक्षधर रहे हैं। शायद यही वजह भी हैं कि उत्तराखंड में ऐसा पहली बार हुआ है कि,सरकार द्वारा संस्कृति के संरक्षण एवं संवद्र्धन हेतु अनेक योजनाएं संचालित की गई हैं। यह योजनाएं संस्कृति के संरक्षण एवं संवद्र्धन हेतु मील का पत्थर साबित भी हो रही। जिसके श्रेय निश्चित तौर पर डॉ.निशंक को जाता है। अब पुस्तक प्रकाशन की योजना को शुरू कर डॉ.निशंक ने यह साफ कर दिया है कि साहित्य के उन्नयन की दूरद्रष्टि से अब कोई भी जनोपयोगी कृति धनाभाव के कारण अप्रकाशित नहीं रहेगी। इस योजना के अन्तर्गत चयनित साहित्यकार को कृति की 10 प्रतियां संस्कृति निदेशालय का जमा करनी होगी। प्रकाशित कृति पर स्वत्वाधिकार संस्कृति विभाग का होगा। बाजार की मांग पर पुस्तक के मूल्य निर्धारित का अधिकार संस्कृति विभाग का होगा तथा ऐसी स्थिति में लेखक को रायल्टी भी दी जायेगी। इस योजना के अनुसार संस्कृति के प्रचार प्रसार एवं संबद्र्धन हेतु दूरदराज की संस्कृति पर आधारित कृतियों को प्रकाशन में प्राथमिकता दी जायेगी।
यकीकन अब वह दिन दूर नहीं जब उत्तराखंड के इतिहास में साहित्य-संस्कृति से लेकर लोक कलाओं तक को इस विशाल कालखंड के रूप में दुनिया देख पायेगी...दुनिया के सामने उत्तराखंड के लेखक अपने सांस्कृति परिवेश के श्रेष्ठतम् परारूप को लाकर,दुनिया को बता पायेगें कि हमें क्यों देवभूमि के परिभाष दी गयी है और इसके लिए श्रेष्यकर होगें...डॉ.रमेश पोखरिया 'निशंक'।
- जगमोहन 'आज़ाद'
Posted by jagmohan 2 comments
29.7.10
अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने की विवशता-ब्रज की दुनिया
वे शरणार्थी हैं वो भी अपने ही देश में.ऐसा नहीं है कि वे शौक से शरणार्थी बने हुए हैं लेकिन वे कुछ कर भी नहीं सकते;वे निरुपाय हैं.१९९० में उन्हें कश्मीर घाटी के मुसलमान पड़ोसी ग्रामीणों ने बन्दूक के बल पर खदेड़ दिया.रातों-रात उनकी दुनिया उजाड़ गई.आँखों में आंसू भरे गोद में अबोध बच्चे-बच्चियों को उठाये वे अपने घरों से कदम-दर-कदम दूर होते गए.फासला बढ़ता गया और इतना बढ़ गया कि आज दो दशक बीत जाने के बाद भी वे इस दूरी को पाट नहीं पाए हैं.अचानक उनके सदियों से पड़ोसी रहे मुसलमान उनकी जान के दुश्मन हो गए,क्यों???जब यह सब हो रहा था तब भी वक़्त के कतरों ने उन मनहूस लम्हों से यह प्रश्न पूछा था लेकिन इसका जवाब न तो उन लम्हों के पास था और न ही २० साल के युग समान लम्बे कालखंड के पास.सरकार ने उनके रहने की अस्थाई व्यवस्था करके अपने कर्त्तव्य पूरे कर लिए.उन्ही छोटे कमरों में १०-१० लोगों का परिवार सोता है पिछले २० साल से.उन्हें सरकार से इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं थी क्योंकि वे बहुसंख्यक हिन्दू वर्ग से आते थे और उनका कोई बड़ा वोटबैंक भी नहीं था जो सियासतदानों का तख्ता पलट सकता.वोट बैंक तो उनका था जो कथित रूप से अल्पसंख्यक थे.इसलिए सरकार पीडकों के पीछे खड़ी रही,पीड़ित चीखते-चिल्लाते गला बैठाते रहे.सन २००२ तक मैं इन कश्मीरी पंडितों की कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में पढता रहा.मैं जब आई.ए.एस. की तैयारी के लिए दिल्ली गया तब मेरे लॉज में बगल के कमरे में एक कश्मीरी पंडित युवक रहता था.बला का खूबसूरत.नाम था अश्विनी कॉल.बड़ा ही हंसमुख और मस्त.कश्मीर उसके खून में था.जब हम जाड़े में कांपते रहते वो घंटों ठन्डे पानी से नहाता.दिल्ली में रहकर भी वो कश्मीर में रहता.१९९० में वह दस साल का था जब सपरिवार उसे घर छोड़कर स्याह अँधेरी रात में पुलिस संगीनों के साये में भागना पड़ा था.उनलोगों ने जम्मू में पड़ाव डाला जहाँ उसके पिता पहले से ही कॉलेज में काम करते थे.वह कभी उदास नहीं होता सिवाय तब के जब मैं उससे कश्मीर के उसके घर और गाँव के बारे में पूछ लेता.वह डबडबाई आँखों से उन हालातों को बयाँ करता जिन हालातों में उन्हें घर छोड़ना पड़ा था.उसे और उसके परिवार को घर छोड़ते समय उम्मीद थी कि साल-दो-साल में ही स्थितियां सुधार जाएंगी और वे लोग फ़िर से अपनी धरती-अपने गाँव में रहने लगेंगे.लेकिन ऐसा नहीं हुआ.नहीं हो सका या जानबूझकर नहीं होने दिया गया अश्विनी नहीं जानता था.लेकिन उन्हीं कश्मीरी पंडितों में से कुछ ऐसे परिवार भी थे जिनके पास अश्विनी की तरह कमाई का कोई जरिया नहीं था.दो कश्मीरी लड़कियां,दो छोटे-छोटे लड़कों को लेकर हर महीने मेरे घंटाघर वाले निवास पर दस्तक देतीं.तब तक अश्विनी दिल्ली छोड़ चुका था और मैं भी डेरा बदल चुका था.फूल जैसे चेहरे लेकिन मुरझाये हुए.कभी कहतीं दो दिनों से तो कभी कहतीं चार दिनों से घर में चूल्हा नहीं जला है.मैं तब विद्यार्थी था और अन्य विद्यार्थियों की तरह पूरी तरह से माता-पिता पर निर्भर था.फ़िर भी अपने खर्च में से १०० रूपये निकलकर दे देता.मन आक्रोशित हो उठाता और मन खुद से ही सवाल करने लगता क्या ये लोग अब कभी अपने घर नहीं लौट पाएंगे?क्या दोष है इनका??इन्होंने कौन-सी गलती की है जिसकी उन्हें सजा मिल रही है???क्या इनकी यही गलती नहीं है कि इन्होंने एक हिन्दूबहुल देश में हिन्दू धर्मं में जन्म लिया????
Posted by ब्रजकिशोर सिंह 0 comments
Labels: अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने की विवशता-ब्रज की दुनिया
क्योंकि मैं मुस्तफ़ा अब्बास हूं?
____________________
मैं मुस्तफ़ा अब्बास
पिछले पचास वर्षों से भी ज्याद समय से
रह रहा हूं
इस धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले
समाज के बीच
बचपन में...गुल्ली-डंडों और कन्चों के साथ
मैं भी खेला हूं,यहां के बचपने के साथ
मैंने भी चढ़ी हैं सीढ़िया
इस धर्मनिरपेक्ष समाज को चलने वाले
स्कूल और विश्वविद्यालयों की
मैंने भी पढ़ा है पाठ इन विश्वविद्यालयों में
धर्म और एकता को...बनाए रखने का
मैं भी रहा हूं...गवाह उस आज़ादी का
जिसमें बिखरे-टूटे थे...हमारे भी अपने
मैने भी बजायी थी तालियां
दुश्मन के मुक्की खाने पर
मैं भी रहा हमेशा शामिल
उन आवाज़ों के साथ...जो उठी थी
इस धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले समाज को
सम्मान दिलाने के लिए
मैं भी तो रहा हूं शामिल-
यहां के प्रजातंत्र की नींव रखने में
मैने भी चढ़ी हैं...यहां लोकतंत्र की सीढ़ियां
और मैंने भी रखता हूं,अधिकार...चुनने का उन्हें
जो दावा करते है...हमेशा साथ हमारे रहने का-
इस धर्मनिरपेक्ष समाज में,
मैं इस समाज की उस हर
खुशी और गम में भी रहता हूं मौजूद
जिसका वजूद इसके धर्मनिरपेक्षता से जुड़ा है-
और जो इसे धर्मनिरपेक्ष बनाता हैं,
मगर पता नहीं क्यों
जब-जब मेरे वजूद...मेरे सम्मान की बात आती है
तब-तब मुझे बार-बार-
खुद के होने का देना पड़ता है सुबूत
मुझे बताना पड़ा
मैं तुम्हारा अपना ही...हिस्सा हूं
मुझ में भी कूट-कूट कर भरी है-धर्मनिरपेक्षता
जिसका वास्तविक अर्थ सिर्फ और सिर्फ
तुम्ही नहीं जानते...जानता हूं मैं भी
फिर भी...बार-बार क्यों देनी होती है
मुझे खुद की पहचाना...अपने ही इस धर्मनिरपेक्ष समाज में?
कभी खुद के लिए आशियाने बनाने को...खोजने को
तो कभी खुद के भूखे पेट के लिए,
और तो और-
जब-जब धर्म के नाम पर,फैलाये जाते है-दंगे यहां...
जब-जब होते हैं हमले...आतंकी
या रची जाती है साज़िश,किसी हमले की-
हमारे अपनो के माध्यम से
अपनों को ही...तबाह करने को
तब-तब भी देनी होती है मुझे-
हर बार सफाई....
खुद के पाक साफ होने की...।
जब-जब हमारा ही अपना वजूद-
करता है....कत्ल किसी अपने का...
...शांत शहर में होती है हत्याएं...अपहरण
...या बनते हैं...रिश्ते...बिखरते है...रिश्ते
...टूटता है...उजड़ता है...हमारा ही अपना कोई
वहां भी मुझे ही देनी होती है...सफाई
इन सब में मेरे कहीं भी न होने की....।
मैं....मंदिर-मस्ज़िद-चर्च-गुरूद्वारों में-
टेकता हूं माथा...मांगता हूं...दुआ-
सबकी खुशी के लिए...ताकि कुछ तो शांति बनी रहे
आस-पास हमारे...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में,
अपने सारे दुःख-सुख भूल कर है-
जिनके बारे-
मैं कहना नहीं चाहता
लेकिन कहूंगा...आज,...मन की आंखों से भी कहूंगा,
कई-कई बार मैं भी रोया हूं...जी-भर कर
किसी अपने के छूट जाने के बाद
दूर कहीं...अंधेरे में...।
मैं भी करता हूं कोशिश,बार-बार...कई-कई बार
जुड़ने की...उस हर शख्स से
जो करता है...बातें...धर्मनिरपेक्षता की,ईमादारी की
एकता की...जीवन बनाये रखने की-
इसे बचाये रखने की....
मैंने भी उठाया है...गिरतों को कई बार
दिखायी है राह,कई बार भटकों को,
मगर फिर भी पता नहीं क्यों नहीं मिलता मुझे
आशियाना एक...सर ढकने को-
थोड़ा सा प्रेम...किसी अपने धर्मनिरपेक्ष साथी का
नहीं मिलती ज़मीन...एक पग मुझे यहां-
जहां खड़े होकर...मैं चिल्ला-चिल्ला कर कह सकूं
...हां...हां....मैं तुम्हारा ही अपना हूं-
मुझे समेट लो...अंजुरी में अपनी...
कुछ देर के लिए...ही सही,लगा तो लो गले से मुझे-
न छोड़े न धकेलें मुझे अंधेरे में
मैं भी रहना चाहता हूं...उजाले में,
जीना चाहता हूं,साथ-साथ तुम्हारे
समझना चाहता हूं मैं भी-
प्रेम-एकता की माला में गूंधने का अर्थ
तुम सब के साथ रहते हुए...।
मगर...फिर...भी नहीं देखती मुझे
कुछ आंखें ऐसी...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में
कई-कई मन्नतों के बाद भी
जो कम से कम भिगो तो दें मुझे
आंसुओं से अपने,
जो कम से कम देखें तो सही
एक बार मुड़कर मेरे चेहरे को गौर से...।
मगर मेरी आंखों के सामने
होता है फिर भी...सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा..
...और...थक हार कर आ में बैठ जाता हूं मैं-
अकेले में...इस धर्मनिरपेक्ष देश-समाज के ही-
एक छोटे से कोने में...
कोसता हूं...खुद को ही कि-
इस धर्मनिरपेक्ष देश-समाज में मेरा वजूद
आखि़र है भी तो....क्या
मुझे तो हमेशा खुद के वजूद
खुद की ईमादारी...और...
इस देश-समाज के प्रति...खुद की प्रमाणिकता का
देना होता है बार-बार प्रमाण...
उन्हें जो मेरे अपने है...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में...।
कई बार सोचता हूं...कुसूर तो मेरा भी है
मैं तो यूं ही कोसता रहता हूं....धर्मनिरपेक्षता...को-
इसे चलाने वाले ठेकेदारों को,
जो सदियों से नहीं बचा पा रहे है...इसे-
आतंकवाद-भष्ट्राचार की दीमक से,
वह मुझे क्यों बचाएंगे-किस लिए बचाएंगे
मेरे वजूद के बारे में मेरी कौम के बारे में
आखिर क्यों सोचेंगे
मेरे होने न होने से...मेरी कुर्बानी...मेरी ईमानदारी से
इन्हें या इनकी धर्मनिरपेक्षता को
फर्क ही क्या पड़ता है
क्योंकि मैं तो यहां भी मुज़ाहिद हूं...वहां भी
और...पता नहीं मेरी कितनी पीढियां...इस दश्त में
जाएंगी...गुज़र यूं ही....
क्योंकि मैं मुस्तफ़ा अब्बास हूं...?
- जगमोहन 'आज़ाद'
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Thursday 29 July 2010सारांश में पहला गिरमिटिया पढ़ाने की कोशीश
पहला गिरमिटिया : गाँधीभाई का महाकाव्यात्मक कथ्य
डॉ. त्रिभुवन राय
'पहला गिरमिटिया' न जीवनी है, न आत्मकथा। वह कोई शोधग्रंथ भी नहीं है और न ही इतिहास की कोई पुस्तक, यद्यपि इन सभी के तत्त्व उसमें घुले-मिले विद्यमान दीख पड़ते हैं। यह कृति अपने संपूर्ण अर्थों में वस्तुत: एक साधक सर्जक द्वारा रचित उपन्यास है, जिसमें उसकी अपनी संरचना की शर्तों पर इतर विधाओं की सामग्री का स्वच्छन्द, किन्तु प्रभावी रूप में प्रयोग किया गया है। इसके केन्द्र में सत्य और अहिंसा के महान योद्धा, बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के महानायक गाँधी द्वारा अपने दक्षिण अ़फ्रीकी प्रवास के दौरान किया गया अभूतपूर्व एवं अविश्वसनीय संघर्ष है, जिसकी बृहत्तर परिधि जहाँ एक ओर वह स्वयं और उनका परिवार है तो दूसरी ओर दिन-रात अमानवीय शोषण एवं यातना की चक्की में पिसनेवाले हजारों गिरमिटिये और दूसरे भारतीय प्रवासी हैं, जिनके तन-मन के घाव गाँधी भाई को बरबस अपने लाखों देशवासियों के लहूलुहान घायल चेहरों के बरक्स ला खड़ा करते हैं। साथ ही इसके भीतर जहाँ अपनी पहचान की लौ को बुझी राख के मानिन्द दबे-कुचले आत्मसम्मान के भीतर से कुरेदने और जगाने की कोशिश दिखायी देती है, वहीं आत्मविश्वास, एकजुटता, समरसता और जागृति की चेतना के उस प्रकाश को अँखुवाने का वह उपक्रम है, जो दक्षिण अ़फ्रीका के भारतीय प्रवासियों के क्षितिज के अँधेरे के साथ विशाल भारत के आकाश में परिव्याप्त तमस को भेदने की चुनौती झेलने के क्रम में सतत आगे बढ़ता दीख पड़ता है।
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नजर रखिए अवसर पर
मुझे लगता है हममें से ज्यादातर लोग अपनी कमजोरी को इस तरह पेश करते हैं कि लोग हम पर दया करें और हमें लाभ मिल जाए। कहा भी तो है मुसीबत, मेहमान और मौत अचानक ही आते हैं। यह पता होने के बाद भी हम असफलता के ज्यादातर मामलों में लगभग ऐसे ही कारणों का सहारा लेते हैं। जिसे हम अपनी बात समझाने का प्रयास करते हैं न सिर्फ उसे वरन खुद हमें भी पता होता है कि इस तरह की बहानेबाजी मेें कोई दम नहीं है। फिर भी हम अपनी असफलता को छुपाने का प्रयास तो करते ही हैं।
एक बड़े ग्रुप के एमडी अपने साथियों से चर्चा में अकसर कहा करते हैं कि शांत समुद्र में तो अनाड़ी नाविक भी आराम से नाव चला सकता है। कुशल नाविक तो वह होता है जो आंधी-तूफान में लहरों के उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए बिना घबराए किनारे तक नाव लेकर आता है। जयपुर या चंडीगढ़ की सड़कों पर फर्राटे से गाड़ी दौड़ाने वाले कई ड्राइवर बद्रीनाथ-केदारनाथ के मार्गों पर उतनी निर्भीकता से शायद ही गाड़ी चला पाएं क्योंकि उन सर्पीले और संकरे रास्तों पर उन्हें गाड़ी चलाने का पूर्व अनुभव नहीं होता, इसीलिए ज्यादातर श्रद्धालु हरिद्वार या ऋषिकेश इन्हीं उन क्षेत्रों के अनुभवी ड्राइवरों की सेवा लेना पसंद करते हैं।
हम अपनी कमजोरियों को समझते तो हैं लेकिन उन्हेेंं दूर करने के बारे में नहीं सोचते और न ही उस कमजोरी को अपनी ताकत बना पाते हैं। एक दृष्टिबाधित ट्रेन में पेपर सोप बेचकर अपनी कमजोरी को अपनी ताकत बना सकता है लेकिन हम अपने आसपास देखें तो ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे जो पढ़े लिखे तो हैं लेकिन बेरोजगार हैं। शिमला में माल रोड की दुकानें हों या लक्कड़ बाजार, लोअर बाजार शिमला की दुकानें यहां ड्राइवर चाहिए, सेल्समेन चाहिए, होटल में काम करने के लिए नौकर चाहिए की सूचना दुकानों के बाहर महीनों तक लगी देखी जा सकती है। इससे यह तो माना ही जा सकता है कि या तो बेरोजगारों में इन कार्यों जितनी योग्यता भी नहीं है या ऐसा कोई काम करने की अपेक्षा उन्हें बेकार रहना ज्यादा अच्छा लगता है। जिंदगी में अवसर हमेशा मिलते नहीं और जब अवसर नजर आएं तो झपटने में हर्ज भी नहीं। जो अवसर झपटना जानते हैं उनके लिए रास्ते खुद-ब-खुद बनते जाते हैं लेकिन जो कोई निर्णय नहीं ले पाते वो फिर हमेशा पश्चाताप ही करते रहते हैं कि क ाश उस वक्त थोड़ा साहस दिखाया होता। तब हमें लगता है कि कमजोरी वाले बहाने ही हमारी प्रगति में कई बार बाधा भी बन गए।
हम प्रयास करें नहीं और यह भी चाहें कि सफलता मिल जाए तो यह ना सतयुग में आसान था न अब। तब मनोकामना पूर्ण हो जाए इसलिए संतों से लेकर सम्राट तक तपस्या या युद्ध का रास्ता अपनाते थे और अब स्पर्धा के युग में टेलेंट में टक्कर होती है। सिफारिश से पद तो प्राप्त किया जा सकता है लेकिन उस पद के योग्य भी हैं या नहीं यह किए जाने वाले काम से ही सिद्ध हो सकता है। भूख लगने पर थाली में पकवान सजा कर तो कोई भी रख देगा लेकिन खाने के लिए तो हाथ हमें ही बढ़ाना होगा। बहानों की चादर ओढ़ कर आलसी बने रहेंगे तो दरवाजे तक आए अवसर हमारे जागने तक इंतजार नहीं करेंगे।हमें जब यह पता हो कि योग्यता हमसे कोसौ दूर है तो फिर निठल्ले बैठे रहने से यह ज्यादा बेहतर है कि जो अवसर नजर आए बिना किसी झिझक के काम में जुट जाएं, कम से कम ईश्वर ने हमें दुनिया देखने के लिए नजर तो दी है इन्हीं नजरों से हम यह भी देख सकते हैं कि कमाऊ सदस्यों और समाज की नजरों में कितनी उपेक्षा का भाव होता है । तभी कहा भी जाता है काम के ना काज के, ढाई सेर आनाज के।
Posted by कीर्ति राणा 2 comments
जालियांवाला बाग और डायर की हत्या
--सुरेंद्र किशोर
पंजाब के पूर्व लेफ्टनेंट गवर्नर ओ डायर की 13 मार्च 1940 को हत्या करने के बाद उधम सिंह ने कहा था कि मैंने अंग्रेजी राज में अपने देशवासियों को भूख से मरते देखा है. उनकी खातिर यह हिंसात्मक कार्रवाई करते हुए मुङो कोई दुख नहीं हुआ.ङ्ग. उधम सिंह उर्फ़ राम मोहम्मद सिंह आजाद को इस अपराध में फ़ांसी की सजा हुई. 12 जून 1940 को उधम सिंह इंगलैंड के पेंटनविला जेल में फ़ांसी के फ़ंदे पर झूल गया. फ़ांसी के समय भी वह देशभक्त हंस रहा था. उधम सिंह की फ़ांसी ने आजादी की अहिंसक लड़ाई को भी काफ़ी मनोवैज्ञानिक ताकत पहुंचाई थी. पर ऐसे ऐसे अनेक बलिदानों से मिली आजादी के बाद इस देश को आज अपने ही देश के कुछ लुटेरे नेता, अफ़सर, व्यापारी तथा दूसरे तत्व किस तरह बेशर्मी से लूट रहे हैं, यह सब देख सुन कर उधम सिंह अधिक याद आते हैं. जाहिर है कि उधम सिंह जैसे शहीदों ने कल के ऐसे भारत के लिए अपना आज कुर्बान नहीं किया था.
13 अप्रैल 1919 को जालियांवाला बाग नरसंहार को जनरल डायर ने अंजाम दिया था. पर असल योजना लेफ्टिनेंट गवर्नर ओ डायर की थी. यहां से इंगलैंड लौटने के बाद भी ओ डायर वहां के अखबारों में लेख लिख कर यह तर्क देता रहता था कि हिंदुस्तान जैसे बड़े देश को अपने वश में रखने के लिए जालियांवाला बाग जैसे हत्याकांड जरूरी हो जाते हैं. ओ डायर को इस बात का दुख था कि जालियांवाला बाग नरसंहार के दोषी अफ़सरों को अंग्रेजी सरकार ने दंड क्यों दिया. इस संबध्ां में ओ डायर ने पुस्तक भी लिखी थी. उधम सिंह बहुत दिनों से माइकल ओ डायर को मारने की योजना बना रहा था. पर उसे मौका मिला 13 मार्च 1940 को जब लंदन के टयूडर हॉल में एक सभा थी.
ओ डायर उस सभा की अध्यक्षता करनेवाला था. सभा भवन में उस दिन सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी क्योंकि वहां किसी गड़बड़ी की कोई आशंका ही नहीं थी. उधम सिंह उस दिन जब सभा भवन में पहुंचा तो उसकी जेब में एक अमेरिकी रिवाल्वर और एक चाकू था. वह पहले तो सभा भवन में पीछे बैठा था, पर सभा समाप्त होने से ठीक पहले वह ओ डायर के सामने जाकर खड़ा हो गया. जब सभा बर्खास्त होने की घोषणा होने लगी तो उधम सिंह ने ओ डायर के और नजदीक जाकर चार-पांच गोलियां उसके सीने में दाग दी. ओ डायर जमीन पर गिर पड़ा और फ़ौरन उसका अंत हो गया. घर से निकलते समय उसने अपनी नौकरानी से कहा था कि पांच बजे जब वह वापस आयेगा तभी चाय पियेगा. पर वह चाय पीने के लिए घर नहीं लौट सका. हत्या के बाद तेजी दिखाते हुए दो अंग्रेजों ने उधम सिंह को पकड़ लिया. उसे जमीन पर पटक दिया गया और कई अंग्रेज उसके शरीर पर चढ़ बैठे. बाद में पुलिस उसे पकड़ कर ले गयी. मुकदमा चला और उसे फ़ांसी की सजा दे दी गयी. इससे पहले गिरफ्तारी के बाद से ही उधम सिंह लगातार मुस्कराता रहता था. उसे खुशी थी कि उसे ओ डायर को मार कर बदल लेने का मौका मिला.
उधम सिंह ने ओ डायर हत्याकांड मुकदमे के सिलसिले में अदालत में दिये गये अपने बयान में कहा था कि मैंने ओ डायर की हत्या इसलिए की कि मुङो उससे द्रोह था. मुङो अपने किये का कोई पछतावा नहीं है और न मैं मरने से डरता हूं. मौत का इंतजार करते हुए बूढ़ा हो जाना मुङो अच्छा नहीं लगता. जवानी ही में मर जाना ठीक है. मैं भी जवानी में मर रहा हूं. और इससे भी अच्छी बात यह है कि मैं देश के लिए मर रहा हूं.
याद रहे कि अमृतसर के जालियावाला बाग में सैकड़ों निहत्थों को अंग्रेजों ने गोलियों से भून दिया था. सरकारी सूत्रों के अनुसार 379 हत्याएं हुई थीं, पर गैर सरकारी सूत्र यह संख्या काफ़ी अधिक बताते हैं. सौ से अधिक लाशें तो बाग के उस कुएं से बरामद हुई थीं जिसमे अंधाधुंध गोलियों की बौछार के बीच अपनी जान बचाने के लिए लोग कूद पड़े थे. करीब 15 सौ से भी अधिक राउंड फ़ायरिंग की गयी थी. पंजाब का गौरव उधम सिंह कैसे इंगलैंड पहुंचा, यह ब्रिटिश पुलिस को भी पता नहीं चल सका. पर उसे यह मालूम जरूर हो गया कि वह अपने देशवासियों को अंग्रेजों के खिलाफ़ भड़काने के आरोप में भारत में पहले भी जेल की सजा काट चुका था. उधम सिंह समाजवादी विचारधारा को मानता था. खुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं. इसी तमन्ना के साथ उधम सिंह चला गया. क्या हमारे देश के अधिकतर मौजूदा हुक्मरान हमारे वतन को खुश रखने के उपाय कर रहे हैं या सिर्फ़ अपने आप को और अपने लगुओं -भगुओं को धनधान्य बना रहे हैं? यह सोचने का समय आ गया है.
साभार प्रभात ख़बर
Posted by niranjan dubey 1 comments
कभी नाव पे गाड़ी कभी गाड़ी पे नाव-ब्रज की दुनिया
हमारे बिहार में एक कहावत खूब प्रचलित है कभी नाव पे गाड़ी कभी गाड़ी पे नाव.दुनिया में सारे रिश्ते समय से बंधे हुए हैं और समय कब किस ओर करवट ले उसके सिवा कोई नहीं जानता.अभी ६३ साल ही तो बीते हैं जब भारत इंग्लैंड का गुलाम था.हमारे लाखों जवानों ने शहादत दी तब जाकर अंग्रेज भारत छोड़कर भागे.तब भारत अंग्रेजों के लिए असभ्यों का देश था और इसे सभ्य बनाने को वे व्हाइट मेंस बर्डेन मानते थे.जब अँगरेज़ भारत को छोड़कर गए तो हमारे यहाँ उद्योग के नाम पर चंद सूती कपडा,जूट और चीनी बनाने की फैक्ट्रियों के सिवा कुछ भी नहीं था.सूई से लेकर हवाई जहाज तक इंग्लैंड से आता था.हमने कठिन परिश्रम किया और आज हम दुनिया की दूसरी सबसे तेज गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था हैं.इंग्लैंड सहित सारे पूंजीवादी देश आज आर्थिक दिवालियेपन के कगार पर खड़े है और उनके लिए उम्मीद की बस दो ही किरणें दुनिया में बची हैं जो उन्हें इस अभूतपूर्व संकट से उबार सकती है और उनमें से एक तो चीन है और दूसरा है अपना प्यारा देश भारत.अभी भारत पर दो सौ सालों तक शासन करने वाले इंग्लैंड के कंजर्वेटिव प्रधानमंत्री डेविड कैमरून भारत की यात्रा पर हैं.उनकी यात्रा का मुख्य उद्देश्य है भारत के साठ हॉक प्रशिक्षण विमान खरीद सहित ऐसे व्यापारिक समझौते करना जिससे इंग्लैंड की दम तोड़ती अर्थव्यवस्था को ताकत मिले.शायद इसलिए इस बार उनकी भाषा बदली हुई है.उन्होंने पाकिस्तान को स्पष्ट शब्दों में आतंकवाद के मोर्चे पर दोहरी नीति रखने से बाज़ आने को कहा है.बड़े ही आश्चर्य की बात है कि इंग्लैंड का प्रधानमंत्री वो भी कंजर्वेटिव भारत के पक्ष में बातें करें.वो भी इतने स्पष्ट रूप से जितनी स्पष्टता से शायद लेबर प्रधानमंत्री भी नहीं करता.गांधी जी अंग्रेजों की मानसिकता को तभी समझ गए थे.तभी तो उन्होंने कहा था कि इंग्लैंड बनियों का देश है कमोबेश आज भी उसका वही हाल है.अभी भारत से फायदा लेना है तो भारत के पक्ष में बोल रहा है.कल किसी और के पक्ष में बोलेगा.लोकतंत्र का प्रसार वगैरह सिर्फ किताबी बातें हैं असली चीज तो है आर्थिक लाभ.इसलिए भारत को इन पश्चिमी देशों को लेकर किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए.वैसे भी चाहे वो घरेलू राजनीति हो या वैश्विक राजनीति,राजनीति में न तो कोई किसी का स्थाई मित्र होता है और न ही स्थाई शत्रु.अतः भारत को अपनी मजबूत स्थिति का लाभ उठाने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए और दुनिया के किसी भी देश के साथ किसी भी तरह का समझौता अपनी शर्तों पर करना चाहिए.दुनिया में जिस तरह के हालात हैं उससे अब इस मामले में कोई संदेह नहीं रह गया है कि दुनिया की अगली महाशक्ति चीन बनाने वाला है और चीन पहले से ही हमसे शत्रुता पाले हुए है इसलिए भी हमें प्रत्येक कदम सोंच-समझकर उठाना चाहिए.
Posted by ब्रजकिशोर सिंह 0 comments
मंत्री सीपी जोशी
केंद्र सरकार के मंत्री हैं श्री सीपी जोशी। इनके पास ग्रामीण विकास और पंचायत राज विभाग है। केंद्र के मंत्री के नाते इन पर पूरे देश की जिम्मेदारी है। लेकिन हाय रे मन! इनका अधिक समय राजस्थान में बीतता है। २००८ में इनको राजस्थान में मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जाता था। केवल एक वोट से चुनाव हार गए। उसके बाद इनको भीलवाड़ा से लोकसभा का चुनाव लड़वाया गया। जीतने के बाद केंद्र में मंत्री बन गए। ऐसा लगता है कि जितना समय इन्होने मंत्री के रूप में अपने ऑफिस में नहीं बिताया होगा उतना राजस्थान में बिता दिया। राजस्थान के अख़बार देख लो आप को पता लग जायेगा कि जोशी राजस्थान के किस हिस्से में हैं। अख़बार में ना हो तो ई टीवी राजस्थान देख लेना, आपको उनकी पल पल की खबर मिल जाएगी। शायद ही कोई दिन ऐसा होगा जब ये मंत्री राजस्थान में ना होते हों। इनके पास राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष की जिम्मेदारी भी है। जोशी जी को चाहिए तो ये कि वे देश के ग्रामीण इलाकों का भ्रमण कर वहां के हालत देखें, किन्तु मन का क्या करे। वह तो राजस्थान में पड़ा हुआ है, मुख्यमंत्री बनने के सपने देख रहा है। सपने देखना तो अच्छी बात है, देखो, मगर उनके सपने तो पूरे करो जिनका मंत्रालय आपके पास है जनाब। आज जोशी जी का जन्मदिन है। उनको इस ये संकल्प लेना चाहिए कि वे आज से राजस्थान के साथ साथ देश भर के ख्याल करेंगे, उन गांवों की संभाल करेंगे, जिनके बारे में ये कहा जाता है वहां असली हिन्दूस्तान रहता है। ये ऐसा नहीं करते तो फिर सोनिया मैडम को कुछ करना चाहिए।
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर 0 comments
28.7.10
क्या तेरा जिस्म ख़त्म हो गया है ?
Posted by राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) 0 comments
माँ तुझे सलाम !
एक शहीद की माँ का पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री के नाम .. .. .. - कुछ औरों की , कुछ अपनी ...
यह पत्र शहीद कॉमरेड चंद्रशेखर की माँ द्वारा लिखा गया था , शहीद की मृत्यु पर सरकार द्वारा दिए गए एक लाख के बैंक-ड्राफ्ट को लौटाते हुए | कॉ. चंद्रशेखर नवें दशक की भारतीय छात्र-राजनीति के जुझारू नायक के तौर पर जाने जाते हैं | इनकी हत्या सीवान , बिहार के तत्कालीन सांसद शहाबुद्दीन द्वारा की गयी | हत्यारे को आज भी सजा नहीं दी गयी है | यह भारतीय लोकतंत्र पर एक धब्बा है | जे.एन.यू. छात्र-संघ के अध्यक्ष...
की माँ द्वारा लिखा गया था , शहीद की मृत्यु पर सरकार द्वारा दिए गए एक लाख के बैंक-ड्राफ्ट को लौटाते हुए | कॉ. चंद्रशेखर नवें दशक की भारतीय छात्र-राजनीति के जुझारू नायक के तौर पर जाने जाते हैं | इनकी हत्या सीवान , बिहार के तत्कालीन सांसद शहाबुद्दीन द्वारा की गयी | हत्यारे को आज भी सजा नहीं दी गयी है | यह भारतीय लोकतंत्र पर एक धब्बा है | जे.एन.यू. छात्र-संघ के अध्यक्ष रह चुके कॉ. चंद्रशेखर जे.एन.यू. की छात्र-राजनीति के एक युग के तौर पर जाने जाते हैं | शहीद चंद्रशेखर पर हम गर्व करते हैं ! अब प्रस्तुत है शहीद की माँ का पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री के नाम ---
Posted by Pawan Mall 0 comments