5.10.09

बीकानेर में उदास हैं रिक्शे, तांगे, ठेले वाले...


जन कवि हरीश भादाणी का 2 अक्‍टूबर, 2009 को निधन हो गया। मेरी ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।हरीश भादाणी जनकवि थे, यह तो सभी जानते हैं। क्या दूसरा भी कोई जनकवि है? शायद होगा, लेकिन मुझे नहीं पता। मैंने तो अपने जीवन में एक ही जनकवि देखा है-हरीश भादाणी। जो ठेलों पर खड़े होकर मजदूरों के लिए हाथों से ललकारते हुए गाते थे- बोल मजूरा, हल्ला बोल...।भादाणी जी से मेरे लगभग तीस-पैंतीस साल पुराने आत्मीय रिश्ते रहे हैं। उनकी यादों के इतने बक्से हैं कि उन्हें तरतीबवार खोल भी नहीं सकता। बात 1980 की है। वे अलवर आए, तब हम ‘पलाश’ नाम की एक साहित्यिक संस्था चलाते थे। हम उनका काव्य पाठ रखना चाहते थे, लेकिन अगले दिन दोपहर को उनको जाना था। हमारी अब तक धारणा यही रही है कि काव्य पाठ और गजलों के कार्यक्रम शाम को ही होते हैं। हमने इस धारणा को तोड़ा। सुबह नौ बजे सूचना केन्द्र में उनका काव्य पाठ रखा और कार्यक्रम को नाम दिया-‘कविता की सुबह।‘ आश्चर्य तब हुआ जब सुबह-सुबह लोग बड़ी संख्या में उन्हें सुनने आ गए। तब लगा, सचमुच भादाणी जी जनकवि हैं। सर्दियों की वह गुनगुनी सुबह कविताओं से महक उठी।एक अद्भुत घटना मैं जीवन में कभी नहीं भूलता। बात लगभग 25 साल पुरानी है। मैं अपनी बहन के शिक्षा विभाग संबंधी एक कार्य को लेकर पहली बार बीकानेर गया। ट्रेन से उतरते ही स्टेशन के बाहर जो होटल सबसे पहले नजर आई, उसमें ठहर गया। कमरे में सामान रख कर नीचे आया तो पास में चाय के एक ढाबे पर भादाणी जी कुछ मित्रों के साथ ठहाके लगा रहे थे। मुझे देखा तो पहचान गए। बोले-‘यहां क्यों ठहरे हो, सामान उठाओ और घर चलो।‘ मैं संकोचवश उन्हें मना करता रहा। उन्होंने ज्यादा जिद की तो मैंने कहा कि अभी मैंने होटल वाले को एडवांस पैसे दे दिए हैं, कल सुबह घर आ जाऊंगा। अपना पता समझा दें। वे बोले, ‘किसी भी रिक्शे, तांगे वाले को बोल देना, वह घर पहुंचा देगा।‘अगले दिन सुबह मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब सडक़ चलते एक तांगे वाले को रोक कर मैंने भादाणी जी के घर चलने को कहा तो वह उत्साह से भर उठा और होटल से मेरा सामान तक खुद उठा कर लाया। घर पहुंच कर मेरे जिद करने के बावजूद उसने किराये का एक पैसा भी नहीं लिया। तब मेरी पहली बार आंखें खुलीं, जनकवि इसे कहते हैं। ऐसा कवि ही लिख सकता है, ‘रोटी नाम सत है, खाए से मुगत है, थाली में परोस ले, हां थाली में परोस ले, दाताजी के हाथ मरोड़ कर परोस ले।‘मैं भादाणी जी के घर दो-तीन दिन रुका। उनका वह स्नेह और आत्मीय मेजबानी मैं जीवन में कभी नहीं भूल सकता। भादाणी जी ने एक बार एक दिलचस्प किस्सा सुनाया। उनका एक गीत है, ‘मैंने नहीं, कल ने बुलाया है... आदमी-आदमी में दीवार है, तुम्हें छेनियां लेकर बुलाया है, मैंने नहीं, कल ने बुलाया है।‘ भादाणी जी एक मित्र के घर गए तो इस गीत के बारे में उनकी बच्ची ने कहा, ‘दद्दू, आपकी एक कविता हमारी पाठ्यपुस्तक में है।‘ उन्होंने पूछा, ‘मास्टर जी ने कैसी पढ़ाई।‘ बच्ची बोली, ‘बहुत अच्छी पढ़ाई। उन्होंने पढ़ाया कि एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को मिलने के लिए बुला रहा है।‘ मुझे और मेरे जैसे कई मित्रों को लगता है कि भादाणी जी के गीत और कविताओं के साथ शिक्षकों ने ही अन्याय नहीं किया है, बड़े शिक्षकनुमा आलोचकों ने भी अन्याय किया है। बड़े आलोचक जिसे चाहें, उसे उठा कर आसमान पर बिठा देते हैं, लेकिन वे हरीश भादाणी के आसमान को छू तक नहीं पाए। भादाणी जी की रचनाओं का मॉडल कहीं दूसरा देखने को नहीं मिलता। उनकी अपनी विशिष्ट शैली थी। वे अपने किस्म के कवि थे। अपने ढंग से जिए और अपने ढंग से चले गए। मेडिकल कॉलेज को देह दान कर गए ताकि उनकी देह भी जनता के काम आए। वे ऐसे जन थे, ऐसे जनकवि थे। मैंने कोई दूसरा जनकवि नहीं देखा। बीकानेर में आज जरूर रिक्शे, तांगे और ठेले वाले भी उदास होंगे और अपने कवि के लिए आंसू बहा रहे होंगे।

3 comments:

  1. तलवार जी आपने बिलकुल सही लिखा है की आलोचक भादाणी का आसमान छू तक नही पाए और हाँ आप अगर उनका मशहूर गीत 'रेत में नहाया है मन' का उल्लेख करते तो आपके आलेख में चार चाँद लग जाते.

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  2. madhu jee
    bahut hi safal chitran kiya hai aapne--bhadani jee kaa.aise sarjak to amar ho jaate hain,shikshak ya shikshaknuma aalochak kuchh bhee karte rahain.


    haan,yah jaroor bataana chahoonga ki hamaare is desh main aise mahaan vyaktitva paidaa hote rahe hain--ek durlabh udaahran rakh raha hun, aacharya jyotindra prasad jha 'pankaj'kaa.pankaj jee mahaj kavi hi yaa jankavi hi nahi udbhat vidwan sangathankarta svatantrata senaani sant aur mahaamanav the.32 saal pahle jab maatra 58 varsh kee aayu me unkaa dehant hua tha to santaal-pargna kepure kdhetra me ghar-ghar me udaasi chhaa gayee thi.lagta hai,bhadaani jee aur pankaj jee ek hi tarah ke mulyon ke liye jeete the. vineet--amarnath jha,http://www.pankajgoshthi.org/

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  3. स्व. हरीश भादाणी जी ने मरुधरा पर केन्द्रित एक गीत लिखा था 'रेत में नहाया है मन, आंच ऊपर से, आग नीचे से.' मरुभूमि के सौंदर्य और उसके जीवन संघर्ष के सतरंगी रूप को उभारने वाली इस अद्भूत रचना को एक ९ साला बालिका सोनाली ने स्वर दिया था. यदि कोई मित्र यह गीत वेव फार्मेट में उपलब्ध करवा सके तो दिल से आभारी रहूँगा. इस गीत का विडियो बना कर मित्रों को भेंट करने का मन है.

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