केन्द्र में मनमोहन सिंह की सरकार के आने के बाद यह उम्मीद बंधी थी कि केन्द्र संस्कृति उद्योग की सुध लेगा।किंतु अभी तक इस क्षेत्र की समस्याओं की तरफ केन्द्र सरकार का ध्यान ही नहीं गया।यहां तक कि यूपीए के साझा कार्यक्रम में भी इस क्षेत्र के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया। संस्कृति उद्योग ऐसा उद्योग है जिसकी क्षमताओं के बारे में कोई भी संदेह व्यक्त नहीं कर सकता।इसमें तकरीबन पच्चीस हजार करोड़ रूपयों का सालाना कारोबार होता है। लाखों लोग इसमें काम करते हैं।प्रतिदिन सैंकड़ों नए लोगों को इसमें काम मिल रहा है।किंतु इसके बारे में प्रामाणिक तथ्यों,सूचनाओं,विश्लेषण,नीतियों आदि का अभाव है।यह अभाव क्यों है इसकी ओर किसी भी केन्द्र सरकार ने ध्यान नहीं दिया।इसके उत्पादन, पुनर्रूत्पादन का हमारे पास प्रामाणिक लेखा-जोखा नहीं है।इसके सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभावों के बारे में केन्द्र और राज्य सरकारों ने कभी आधिकारिक रूप में प्रयास नहीं किया। यहां तक कि संस्कृति उद्योग के बारे में समग्रता में कभी कोई नीति नहीं बनायी गयी। उलटे इस क्षेत्र को चोर दरवाजे से इस क्षेत्र को हमने अमेरिकी बहुराष्ट्रीय माध्यम कंपनियों के हवाले कर दिया गया है।
भूमंडलीकरण के आने के बाद संस्कृति उद्योग की समस्याएं जटिल रूप अख्तियार कर चुकी हैं।बगैर नीति बनाए हमने अपना समूचा संस्कृति उद्योग बाहरी ताकतों के लिए खोल दिया है। बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनियों के लिए मौजूदा युग स्वर्णकाल है।आज स्थिति यह है कि संस्कृति के बारे में हमारी कोई अपील और दलील सुननेवाला नहीं है।हम अपने ही देश में बेगाने हैं। जो बेगाने थे,पराए थे, उन्होंने सांस्कृतिक परिदृश्य पर कब्जा जमा लिया है।उनसे हमारी जनता का एक हिस्सा प्यार करने लगा है।जनता के बीच संस्कृति उद्योग के जरिए पश्चिम की परायी संस्कृति की बाढ़ आई हुई है।आज समूचा संस्कृति जगत किर्ंकत्तव्य-विमूढ़ है।सत्ता के शिखर से लेकर न्यायालय के दरवाजों तक बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनियों ने घेराबंदी कर ली है। आज संस्कृति उद्योग के बारे में प्रत्येक फैसला बहुराष्ट्रीय माध्यम कपनियों के हितों को ध्यान रखकर किया जा रहा है।संस्कृतिकर्मियों के लिए यह शर्मिन्दगी और अपमान का दौर है। सांस्कृतिक आत्म-सम्मान कब हमारे समाज से चुपचाप उठकर चला गया हम नहीं जानते।हमारे जागरूक लोगों और राजनीतिक दलों को संस्कृति और संस्कृति उद्योग के प्रति इस उपेक्षाभाव की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।अभी भी समय नहीं गुजरा है हमें अपने देश के संस्कृति उद्योग और संस्कृति के बारे में नीति की बना लेनी चाहिए।
आज यह एक वास्तविकता है कि देश के अधिकांश संस्कृतिकर्मियों और बौध्दिकों का बहुमत भूमंडलीकरण के पक्ष में नहीं है।अधिकांश जनता भी इसके पक्ष में नहीं है।इसके बावजूद यदि सत्ता के गलियारों में संस्कृति उद्योग को लेकर उदासीनता है तो इसके कारण गंभीर हैं। इस उदासीनता की जड़ें हमारे बौध्दिकों की सांस्कृतिक गुलामी में हैं।स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विभिन्न राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्रों में भी इसका जिक्र नहीं मिलता।कहने का तात्पर्य यह है कि हमने संस्कृति और संस्कृति उद्योग को कभी गंभीरता से कभी नहीं लिया।हमने संस्कृति और संस्कृति उद्योग के साथ तदर्थ और उपयोगितावादी रिश्ता बनाया है।संस्कृति और संस्कृति उद्योग को हमने उपभोग से ज्यादा महत्व ही नहीं दिया।वस्तुत: उसे हमने अभिजन के हवाले कर दिया है। और अभिजन को सरकारों ने तरह-तरह के प्रलोभनों के जरिए बांध लिया है।वे संस्कृति के अभिजनवादी कारोबार में मशगूल हैं। मजेदार बात यह है कि अभिजन वर्ग को संस्कृति उद्योग नीति के अभाव पर कभी भी बोलते नहीं सुना गया।वे संसार के तमाम सवालों पर बोलते नजर आएंगे।किंतु संस्कृति और संस्कृति उद्योग नीति के सवाल पर कन्नी काट जाते हैं।
आज हमारे यहाँ संस्कृति उद्योग के बड़े उत्पादक केन्द्र हैं।जिनमें प्रेस,फिल्म,रेडियो, टेलीविजन,वीडियो,ऑडियो उद्योग शामिल हैं।इन क्षेत्रों के बारे में हमारे यहां कुछ कानून हैं।किंतु इसे संस्कृति उद्योग के नाम से सरकार ने कभी परिभाषित नहीं किया और न कोई इसे लेकर नीति ही है।उल्लेखनीय है कि भूमंडलीकरण और विश्व व्यापार संगठन के सदस्य होने के नाते हमारी अब तक की तमाम घोषणाओं ने संस्कृति उद्योग को विदेशी बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनियों के लिए पूरी तरह खोल दिया है। केन्द्र सरकार के पास सरकारी टेलीविजन - रेडियो के बारे में भी कोई साफ नीति नहीं है।लस्टमपस्टम तरीके से प्रसार भारती चल रहा है। प्रसार भारती से संबंधित सभी महत्वपूर्ण सिफारिशें ठंडे बस्ते में पड़ी हैं।सुसंगत नीति के अभाव का ही दुष्परिणाम है कि आज हमारी विभिन्न केन्द्र सरकारों द्वारा रेडियो तरंगों का निजी क्षेत्र के हित में दुरूपयोग हो रहा है।उल्लेखनीय है कि रेडियो तरंगे राष्ट्र के लिए आवंटित हैं।ये निजी क्षेत्र के लिए आवंटित नहीं हैं।यह अंतर्राष्ट्रीय नीति का पूंजीपतियों के हित में खुला उल्लंघन है।कोई भी दल रेडियो तरंगों के निजी क्षेत्र के हित में इस्तेमाल किए जाने के खिलाफ नहीं बोल रहा। हमारे पास संस्कृति उद्योग के प्रामाणिक आंकडे,कार्यरत लोगों की संख्या,वेतनमान,व्यापार एवं वितरण प्रणाली के नेटवर्क,नीतियों,प्रभाव आदि की प्रामाणिक सूवनाएं उपलब्ध नहीं है।सब कुछ छिपाकर और गुमनाम तरीके से हो रहा है।कायदे से केन्द्र सरकार को संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग-अलग टास्क फोर्स बनाने चाहिए। जिससे संस्कृति उद्योग के बारे में नीति बनायी जा सके।
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