6.12.11

मक़बूल कहलाने का गुनहगार हूँ मगर

मक़बूल कहलाने का गुनहगार हूँ मगर
गुमनाम जो रहे तो ग़ज़ब कौन सा किया।

टेबल पे कई जाम थे, अंदाज़ अलग थे
हम को तो ये भी याद नहीं, कौन सा पीया।

चुभ चुभ के उँगलियों पे मेरे सिर्फ लहू था
हम ने लिबासे- ज़िन्दगी, कुछ इस तरह सीया।

ज्यों रेल की खिड़की से, मुसाफ़िर तके दुनिया
हम ने तो ज़िन्दगी को, महज़ इस तरह जीया।

मक़बूल दे रहे थे अंगूठी, गले का हार
उस ने सभी को छोड़ दिया, सिर्फ दिल लिया
मक़बूल

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