30.9.12

सफलता की राह

 सफलता की राह 

एक पतँगा (उड़ने वाला कीड़ा ) खुली हुयी खडकी से कमरे के अन्दर आ गया था।मेने खिड़की
के कांच को बंद कर दिया और उस कीट को कमरे से बाहर निकालने की कोशिश की मगर
पतँगा उड़ता हुआ काँच के पास आया और बंद कांच से बाहर निकलने का प्रयास करने लगा।
मैं इस घटना को देखने लग गया।वह पतँगा बार -बार उस कांच से टकरा रहा है और बाहर
निकलने की कोशिश कर रहा है। इस घटना को मैं लगातार 10-15 मिनिट तक देखता रहा।
वह कीट बार-बार पूरी शक्ति से उस कांच से टकराता है,मगर  कमरे  की दूसरी  खिड़की या
दरवाजे से बाहर निकलने का प्रयास नहीं कर रहा है।मेने सोचा थोड़ी देर इस कांच से टकरा कर
जब यह थक जाएगा तो दूसरी खडकी या दरवाजे से बाहर निकल जायेगा। उस पतंगे से ध्यान
हटा मैं कमरे से बाहर निकल गया और अपने काम में लग गया।
        
            रात को जब मैं अपने कमरे में सोने गया तो देखा वह पतँगा कांच से टकरा-टकरा कर
मर चुका है।

          आप सोचेंगे कि इस छोटी सी घटना का ब्लॉग पर लिखने का क्या आशय ?मेने इस
घटना पर विचार किया कि यह पतंगा आसानी से अपनी जान बचा कर दूसरी खिड़की से या
दरवाजे से स्वतंत्र हो सकता था मगर यह अपना नजरिया बदल नही सका तथा बाहर निकलने
के दुसरे विकल्पों पर ध्यान नही दे सका इसलिए स्वतंत्र होने के भरसक प्रयत्न करते हुए भी
मर गया। मरा हुआ पतंगा मेरे मन में बहुत  से विचार छोड़ गया -

         क्या इस पतंगे ने बाहर निकलने के लिए प्रयत्न नहीं किया ? ..तो फिर असफल क्यों हुआ ?

        क्या यह पतंगा स्वतंत्र होकर जीना नही चाहता था ?
    
        क्या इस पतंगे की मौत इसी तरीके से होनी निश्चित थी? या यह विधि का विधान था।

       क्या यह पतंगा बार-बार की असफलता से टूट कर मर गया? या सफल होना उसके
सामर्थ्य से बाहर था ?

         ......आखिर पतंगे की प्रयत्न करने पर भी असफल रहने का कारण क्या था?

      निश्चित रूप से पतंगे के असफल होने का कारण दुसरे विकल्पों पर ध्यान ना देना यानि
खुद के नजरिये में बदलाव नही  लाना था।

        क्या हम भी कभी-कभी पतंगे जैसी कोशिश तो नही कर लेते हैं ?

       हम लोग भी जब एक ही बिंदु पर बार-बार असफल होते हैं तो इसका मुख्य
कारण सभी विकल्पों पर ध्यान नही देना या नजरिये की दिशा को समग्र रूप से नही देखना है

सफल होने के लिए प्रयत्न जरूरी है लेकिन यदि असफल रहे तो दुसरे सम्भावित विकल्प
और उनकी दिशा का बदलाव भी सोच के रखे ताकि असफलता हमारी शक्ति बन जाये।       

अन्ना की अनशन से तौबा क्यों ?



अन्ना हजारे ने ऐलान कर दिया है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी लड़ाई जारी रहेगी लेकिन वे अब इस लड़ाई के दौरान अनशन नहीं करेंगे। अन्ना न कहा कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए वे आंदोलन का सहारा लेंगे...और ये आंदोलन मुद्दों पर ही आधारित होगा। अन्ना की भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के इतिहास पर नजर डालें तो सामने आता है कि अन्ना के अभी तक के सभी आंदोलन में अनशन ही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। अन्ना का पहला बड़ा आंदोलन महाराष्ट्र में ही शुरु हुआ था जब 1991 में  अन्ना हज़ारे ने महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की सरकार के कुछ भ्रष्ट' मंत्रियों को हटाए जाने की मांग को लेकर भूख हड़ताल की। ये मंत्री थे- शशिकांत सुतर, महादेव शिवांकर और बबन घोलाप। अन्ना ने उन पर आय से अधिक संपत्ति रखने का आरोप लगाया था। सरकार ने उन्हें मनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन आखिरकार सरकार को दागी मंत्रियों शशिकांत सुतर और महादेव शिवांकर को हटाना ही पड़ा। इसके बाद 1997 में अन्ना हज़ारे ने सूचना का अधिकार अधिनियम के समर्थन में मुंबई के आजाद मैदान से अपना अभियान शुरु किया। 9 अगस्त 2003 को मुंबई के आजाद मैदान में ही अन्ना हज़ारे आमरण अनशन पर बैठ गए। 12 दिन तक चले आमरण अनशन के दौरान अन्ना हज़ारे और सूचना का अधिकार आंदोलन को देशव्यापी समर्थन मिला। आख़िरकार 2003 में ही महाराष्ट्र सरकार को इस अधिनियम के एक मज़बूत और कड़े मसौदे को पारित करना पड़ा। बाद में इसी आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले लिया। इसके परिणामस्वरूप 12 अक्टूबर 2005 को भारतीय संसद ने भी सूचना का अधिकार अधिनियम पारित किया। अगस्त 2006, में सूचना का अधिकार अधिनियम में संशोधन प्रस्ताव के खिलाफ अन्ना ने 11 दिन तक आमरण अनशन किया, जिसे देशभर में समर्थन मिला। इसके परिणामस्वरूप, सरकार ने संशोधन का इरादा बदल दिया। 2003 में अन्ना ने कांग्रेस और एनसीपी सरकार के चार मंत्रियों... सुरेश दादा जैन, नवाब मलिक, विजय कुमार गावित और पद्मसिंह पाटिल को भ्रष्ट बताकर उनके ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ दी और भूख हड़ताल पर बैठ गए। तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने इसके बाद एक जांच आयोग का गठन किया। नवाब मलिक ने भी अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। आयोग ने जब सुरेश जैन के ख़िलाफ़ आरोप तय किए तो उन्हें भी त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद बीते साल जलनोकपाल के समर्थन में दिल्ली में दो बार और मुंबई में एक बार उनके अनशन ने सरकार को हिला कर रख दिया। और इस साल अगस्त में जंतर मंतर पर उनके अनशन ने फिर से सरकार की नींद उड़ा कर रख दी थी। लेकिन इसके बाद से ही अनके सहयोगियों के राजनीतिक दल गठन के फैसले के बाद अन्ना ने अपने सहयोगियों के किनारा कर अपना आंदोलन जारी रखने की बात कही...और अब ये साफ कर दिया है कि अब अन्ना अनशन नहीं करेंगे बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ और जनलोकपाल के समर्थन में अपनी लड़ाई तो जारी रखेंगे लेकिन अनशन नहीं करेंगे। बड़ा सवाल ये है कि आखिर क्यों अन्ना ने अपनी ताकत लंबे समय तक भूखे प्यासे रहकर अनशन करने से तौबा कर ली...क्या अन्ना को इस बात का आभास हो गया है कि उनकी ये लड़ाई लंबे वक्त तक चलेगी और लंबे समय तक अगर लड़ाई को जारी रखना है तो फिर बढ़ती उम्र में अपने स्वास्थ्य का ख्याल भी रखना होगा...ऐसे में अगर लंबे समय तक इस लड़ाई को जारी रखना है तो कहीं न कहीं अनशन से किनारा करना होगा...और आंदोलन के रूप में इस लड़ाई को जारी रखना होगा। इस साल अगस्त में अन्ना के अनशन पर नजर डालें तो पता चलता है कि सरकार ने आंदोलन को नजरअंजदाज करने की कोशिश की ताकि अन्ना और उनके पूर्व सहयोगी हताश होकर अपना अनशन समाप्त कर दें...और कुछ हद तक सरकार अपनी इस रणनीति में कामयाब भी रही थी...और अनशन अचानक से समाप्त हो गया...और इसके बाद टीम अन्ना में जो कुछ हुआ...इसकी कल्पना तक शायद किसी ने नहीं की थी। सरकार भी इस बात को समझ चुकी है कि अन्ना और उनके सहयोगियों में मतभेद के बाद का बिखराव अब आंदोलन में वो धार नहीं ला पाएगा...ऐसे में अब सरकार के लिए इसे नजरअंदाज करना औऱ आसान हो गया है। अन्ना भी इस बात को समझ गए हैं औऱ शायद इसलिए उन्होंने आंदोलन के रूप में इस लड़ाई को जारी रखने का ऐलान किया है। बहरहाल जो भी हो अन्ना की ये लड़ाई निश्चित तौक पर एक अच्छे मकसद के लिए दिखाई पड़ती है...ऐसे में हम तो बस यही कह सकते हैं...गुडलक अन्ना।

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29.9.12

प्रेम का बदलता स्वरूप-ब्रज की दुनिया

मित्रों,एक जमाना था और क्या जमाना था!?तब मजनू लैला की एक झलक पानेभर के लिए कई-कई जन्म लेने को तैयार रहते थे। तब प्रेमी प्रेमिका को खुदा ही नहीं खुदा से भी बड़ा दर्जा देते थे। तब का प्रेम चाहे वो राम-सीता का हो या सावित्री-सत्यवान का या लैला-मजनू का हो या शीरी-फरहाद का या फिर हीर-रांझा का पूरी तरह से पवित्र और सात्विक था। उसमें वासना की दुर्गन्ध या सड़ांध का दूर-दूर तक नामोनिशान तक नहीं था। तब का प्रेम शरीरी नहीं होता था और पूरी तरह से अशरीरी होता था,दिव्य होता था और उच्चादर्शों पर आधारित होता था।
                  मित्रों,वक्त बदलता रहा और बदलता रहा प्रेम का स्वरूप भी और फिर आई 20वीं सदी और प्रेम फिल्मी हो गया। फिल्मों में जैसे ही हीरोईन यानि प्रेमिका की ईज्जत खतरे में पड़ती एक लिजलिजा,दुबला-पतला-सा युवक प्रकट होता और अकेले ही अपने से कई गुना ताकतवर गुण्डों की जमकर पिटाई कर देता। फिल्मों के प्रभाव के कारण इस काल के प्रेम में शरीर को भी महत्त्वपूर्ण स्थान मिला लेकिन वही सबकुछ नहीं था। इस कालखंड के प्रेम में भी त्याग की भावना निहित होती थी। प्रेमी प्रेमिका का प्यार पाने के लिए समाज और घर-परिवार का भी बेहिचक त्याग कर देता था। तब के प्रेम में व्यावहारिकता थी मगर पशुता नहीं थी।
                    मित्रों,फिर आया आज का उपभोक्तावादी युग। आज के प्रेमी और प्रेमिकाओं के लिए शारीरिक प्रेम ही सबकुछ हो गया है। आज के प्रेमियों और प्रेमिकाओं के लिए शारीरिक प्रेम ही सबकुछ हो गया है। मिले और मिलते ही बेड पर पहुँच गए। फिर दोनों ने अपने-अपने जिस्म की आग को ठंडा किया और अजनबियों की तरह अपने-अपने रास्ते पर चल दिए। इस तरह आज के प्रेम की शुरूआत मिलने से होती है और उसका अंत बेडरूम में होता है। कुछ प्रेमी-प्रेमिका तो एक ही कमरे में बिना विवाह किए सालों-साल रहते हैं और फिर आराम से,बिना किसी संकोच और दुःख के अलग भी हो जाते हैं। क्या यह प्रेम है तो फिर वासना क्या है?
                                            मित्रों, इन दिनों हमारे समाज में प्रेमियों की एक नई श्रेणी भी जन्म ले रही है या ले चुकी है। ये प्रेमी फोन करके अपनी सेक्स पार्टनर (प्रेमिका कहना उचित नहीं होगा क्योंकि इससे प्रेम की तौहिनी होगी) को अपने घर पर बुलाता है और फिर अपने दो-चार दोस्तों के साथ मिलकर उसका सामूहिक बलात्कार कर डालता है। इतना ही नहीं,प्यार के इन भावपूर्ण क्षणों की यादगारी के लिए वीडियो रिकॉर्डिंग भी करता है और इससे भी ज्यादा संजिदा प्रेमी हुआ तो इंटरनेट पर भी डाल देता है। शायद आज के प्रेमी प्रेमिका का उपभोग मिल-बाँटकर करने में जबर्दस्त यकीन रखने लगे हैं। लाजवाब है उनकी सामूहिकता और उनका साम्यवादी प्रेम। कुल मिलाकर आज के प्रेमी हों या प्रेमिका उनके लिए भावनाओं का कोई मोल नहीं रह गया है जिसका परिणाम यह हो रहा है कि आज का प्रेम भावना-शून्य और पशुवत हो गया है।
                        मित्रों,पहले जहाँ ऐसी घटनाएँ ईक्का-दुक्का हो रही थीं अब थोक के भाव में घट रही हैं। ऐसा क्यों हो रहा है क्या आपने कभी इस प्रश्न पर दो मिनट सोंचा? इस विकृति के लिए दोषी सिर्फ हमारे बच्चे नहीं हैं हम भी हैं। एक तरफ हम अपने बच्चों को इतना अधिक पैसा दे देते हैं कि हमारे बच्चों को लगता है कि उसके माता-पिता इतने धनवान हैं कि वे कुछ भी और किसी को भी खरीद सकते हैं। दूसरी तरफ कमी उनकी शिक्षा और संस्कार में है। स्कूली शिक्षा का मानव-जीवन में बेशक पर्याप्त महत्त्व है लेकिन उससे कहीं ज्यादा महत्त्व है संस्कारों का जो कि उन्हें परिवार से प्राप्त होता है। संस्कार नींव होता है और शिक्षा ईमारत। हम नींव को भूल गए हैं और फिर भी बुलन्द ईमारत की ईच्छा रखते हैं। फिर तो वही होगा जो हो रहा है और हमारे बच्चे वही करेंगे जो उन्हें नहीं करना चाहिए।

28.9.12

प्लीज मेरा दुपट्टा दे दीजिए,प्लीज मेरे साथ ऐसा मत कीजिए.

“प्लीज मेरा दुपट्टा दे दीजिए, मुझे छोड़ दीजिए, मुझे घर जाना है. प्लीज मेरे साथ ऐसा मत कीजिए. मैं तुम सबकी शिकायत तुम्हारे घर वालों और अपने परिवार से करूंगी.”
इतना कहना उन जालिमों को नागवार गुजरा और देखते ही देखते एक रात एसिड फेंककर उस युवती का चेहरा बिगाड़ दिया.

लेकिन शायद सोनाली इस घाव को भूल भी जाती लेकिन समाज और सरकार की बेरुखी ने उसे इस कदर तड़पा दिया कि उसने अपने लिए मौत मांगना ही सही समझा.

Acts Against Acid Attacks: तेजाबी हमलों को रोकने के लिए कानून
हालांकि अपने देश में तेजाब हमलों से पीडि़त महिलाओं के अधिकृत आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, पर अखबारों में ऐसी खबरें अकसर पढ़ने को मिलती हैं. ऐसी घटनाओं के बढ़ने के पीछे एक अहम वजह स्त्री विरोधी हिंसा के इस क्रूर अपराध के खिलाफ अलग से किसी कानून का नहीं होना भी है. 




क्या-क्या खरीदोगे यहाँ तो हर चीज बिकाऊ है-ब्रज की दुनिया


क्या-क्या खरीदोगे यहाँ तो हर चीज बिकाऊ है,
सिर्फ आदमी ही नहीं उसके जज्बात भी,
सिर्फ उसका जमीर ही नहीं उसके ख़यालात भी;
बिकते हैं मानव के तन और मन भी,
जमीं ही नहीं बिकता है गगन भी;
बिकता है न्याय और मतदाता भी,
इंसां तो इंसां बिकता है विधाता भी;
क्या-क्या देखोगे यहाँ तो हर चीज दिखाऊ है;
क्या-क्या खरीदोगे यहाँ तो हर चीज बिकाऊ है।

बरसों लग जाएंगे दफ्तर में काम होने में,
पेंशन बनने में घोषित परीक्षा परिणाम होने में;
खरीद लोगे जिस दिन तुम बाबुओं के ईमान को,
देखना पंख लग जाएंगे उसी दिन से तुम्हारे काम को;
जितनी ही मोटी रकम उनको तुम थमाओगे,
उतना ही निकट मंजिल से तुम अपने काम को पाओगे;
चल रहा है किसी तरह वतन सरकार भी काम चलाऊ है;
क्या-क्या खरीदोगे यहाँ तो हर चीज बिकाऊ है।

बिकती है हर चीज दुनिया के बाजार में,
हर बात जायज है जगत के व्यापार में;
परिस्थितियों के आगे मानव हो जाता है लाचार,
मगर कुछ वीर-विभुतियों ने नहीं मानी है हार;
इन विभुतियों के कारनामों का गवाह है इतिहास,
जिन्होंने अपने बूते किया है संकटों का नाश;
उनका ही नाम अमर है उनकी ही कृति टिकाऊ है;
क्या-क्या खरीदोगे यहाँ तो हर चीज बिकाऊ है।

ज़िंदगी से शिकवा । (गीत)



(GOOGLE)


ज़िंदगी से शिकवा । (गीत)



अय  ज़िंदगी, तुं  ही  बता, शिकवा  करें  भी  तो  क्या  करें..!

गले   लगाई   है   मर्ज़ी   से,   अब  करें  भी  तो  क्या  करें..!


(शिकवा= शिकायत)


अंतरा-१.


मज़ा, ख़ता, सज़ा, क़ज़ा, क्या-क्या  भर  लाई   है  दामन  में..!

ये   तो   बता,  इन   सबों  का  हम,  करें   भी   तो   क्या  करें..!

अय  ज़िंदगी,  तुं   ही   बता, शिकवा  करें  भी  तो  क्या  करें..!


(क़ज़ा=नसीब)


अंतरा-२.


ग़म,  गिला, दम   पीला, कब तक  चलेगा   ये  सिलसिला..!

तंग आ  चुके   इन  नख़रों  से, पर  करें  भी  तो  क्या   करें..!

अय  ज़िंदगी, तुं  ही  बता, शिकवा  करें  भी  तो  क्या  करें..!


अंतरा-३.


क्या  पाया, क्या खोया, समझा  जो  मेरा, वही   लुट  गया..!

अब,  तुझ  पर  हम  नाज़,  गर   करें   भी   तो   क्या   करें..!

अय  ज़िंदगी, तुं  ही  बता, शिकवा  करें  भी  तो  क्या  करें..!


(नाज़= गर्व)


अंतरा-४.


आना-जाना,   उठना - गिरना,   या  रब,  अब   और   नहीं..!

पर, बड़ी  ज़िद्दी  है  ये,   उसका   करें   भी   तो   क्या   करें..!

अय  ज़िंदगी, तुं  ही  बता, शिकवा  करें  भी  तो  क्या  करें..!


मार्कण्ड दवे । दिनांकः २८-०९-२०१२.

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MARKAND DAVE
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कांग्रेस का डर बना भाजपा की ताकत



कहते हैं समय खराब हो तो किसी से नहीं भिड़ना चाहिए...पिटाई आपकी ही होगी...कांग्रेस को भी शायद ये समझ में आ गया है लगता है...आरटीआई एक्टिविस्ट अंजलि दमानिया के भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी पर लगाए आरोप पर कांग्रेस की चुप्पी तो कम से कम यही जाहिर करती है। कांग्रेस शायद ये जानती है कि पहले से ही कोयला घोटाले पर चौतरफा हमला...फिर महंगाई और एफडीआई पर सरकार के फैसले से मचा बवाल सरकार की किरकिरी करा चुका है...साथ ही महाराष्ट्र में सिंचाई घोटाले में सहयोगी एनसीपी के डिप्टी सीएम अजित पवार का इस्तीफे ने उसकी मुश्किलों को बढ़ा रखा है। ऐसे में गडकरी पर अपने व्यापारिक हितों के लिए केन्द्रीय मंत्री और एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार के भतीजे और तत्कालीन सिंचाई मंत्री अजित पवार को बचाने के लिए घोटाले को दबाने के आरोप के बाद भी कांग्रेस ने चुप्पी साधी है। आखिर ऐसा क्या हुआ जो कांग्रेस ने गडकरी पर लगे आरोप पर भाजपा को घेरने की बजाए रक्षात्मक रूख अपना लिया है और पूरे मामले में चुप्पी साध रखी है। दरअसल ये सारा खेल कुर्सी का है...कांग्रेस को निश्चित तौर पर बढ़िया मौका मिला था...लेकिन बदकिस्मती से महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार और एनसीपी की बैसाखी पर खड़ी है...ऐसी ही कुछ स्थिति केन्द्र में भी है...जब ममता के समर्थन वापस लेने के बाद यूपीए सरकार के लिए छोटे से छोटा दल भी महत्वपूर्ण हो गया है...यानि कि केन्द्र में भी एनसीपी के समर्थन का उतना ही महत्व है जितना कि महाराष्ट्र में। अब कांग्रेस अगर इस मुद्दे को लेकर गडकरी को घेरती तो छींटे शरद पवार की दामन पर भी उछलते...क्योंकि गडकरी से शरद पवार के व्यापारिक संबंध की बात आने के साथ ही जिस नेता पर सिंचाई घोटाले में लिप्त होने का आरोप है वो शरद पवार का भतीजा है। जाहिर है कांग्रेस चाहकर भी आक्रमक नहीं हो सकती क्योंकि कांग्रेस का आक्रमक रवैया शरद पवार को नागवार गुजर सकता है और शरद पवार की नाराजगी कांग्रेस की महाराष्ट्र सरकार के साथ ही केन्द्र की यूपीए सरकार पर भी भारी पड़ सकती है...लिहाजा कांग्रेस ने चुप्पी साधना ही बेहतर समझा...ताकि मामला धीरे धीरे शांत हो जाए और फिर लोग उसे भूल जाएं...जैसे कि हमारे सुशील गृहमंत्री शिंदे साहब का सोचना भी है। खैर ये तो रही कांग्रेस की मुश्किल अब बात करें गडकरी पर लगे आरोप कि तो ये तो जग जाहिर है कि गडकरी पहले उद्योगपति हैं उसके बाद राजनेता...अब व्यापार करना है तो शरद पवार क्या किसी से भी हाथ मिला सकते हैं। और अगर अंजलि दमायनी के आरोप सही हैं तो भी ऐसा लगता नहीं कि अंजलि अपने इन आरोपों को साबित कर पाएंगी...क्योंकि अंजलि भले ही ये साबित कर दें कि वे गडकरी से मिलने गई थी...लेकिन गडकरी पर जो बातें कहने का आरोप उन्होंने लगाया है उसे साबित करना अंजलि के लिए आसान नहीं होगा या यूं कहें कि नामुमकिन दिखाई पड़ता है। हालांकि अंजलि के सहयोगी और हाल ही में राजनीतिक पार्टी के गठन का ऐलान करने वाले अरविंद केजरीवाल ने अंजलि के आरोपों के बाद अब खुद गडकरी के खिलाफ मोर्चा खोल लिया है...औऱ गडकरी पर सवालों की बौछार कर दी है...लेकिन केजरीवाल भी गडकरी को घेर पाएंगे इसकी उम्मीद कम ही है। वैसे अंजलि आरोप अगर सही हैं तो देश की जनता के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और कुछ नहीं हो सकता कि जिस पार्टी को मुख्य विपक्षी दल होने के नाते सरकार के गलत कामों और फैसलों पर नजर रखते हुए उसे घेरना चाहिए वे ही लोग अपने फायदे के लिए आपस में सांठ गांठ करने में लगे हुए हैं। बहरहाल गडकरी ने अंजलि पर झूठे औऱ बेबुनियाद आरोप लगाने की बात कहते हुए अंजलि दमानिया को कानूनी नोटिस जरूर भेज दिया हैऐसे में देखना ये होगा कि अंजलि अब गडकरी के नोटिस का जवाब किसी पुख्ता सबूत के साथ देती हैं या फिर इस मामले का यहीं पटाक्षेप हो जाएगा।
deepaktiwari555@gmail.com

27.9.12


राष्ट्रवाद पर हावी होते क्षेत्रीयतावाद के खतरे से बचने के उपाय तलाशना जरूरी
भारतीय राजनीति का इन दिनो संक्रमण काल चल रहा हैं। सन 1996 से प्रारंभ हुये गठबंधन की राजनीति का दौर जारी हैं। केन्द्र में सरकार  इन गठबंधनों की ही बन रही हैं। इन सोलह सालों में देश हित में हुआ तो बहुत कुछ है लेकिन गठबंधन की मजबूरियों के कारण बहुत कुछ ऐसा भी है जो नहीं हो पाया हैं।
देश में 7 राष्ट्रीय एवं 45 क्षेत्रीय मान्यता प्राप्त राजनैतिक दल हैं। राष्ट्रीय पार्टियों में कांग्रेस और भाजपा के अलावा बहुजन समाज पार्टी, सी.पी.आई.,सी.पी.एम.,राष्ट्रवादी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी शामिल हैं। 
कांग्रेस हमेशा से मास बेस पार्टी रही हैं लेकिन पिछले कुछ समय से क्षेत्रीय दलों द्वारा उसके वोट बैंक में सेध लगाने के कारण जनाधार कमजोर हुआ हैं। परंतु राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस आज भी सबसे बड़ा राजनैतिक दल हैं। भाजपा केडर बेस पार्टी हैं लेकिन उसका प्रभाव अभी भी दक्षिण भारत में नहीं जम पाया हैं। दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में भाजपा ने सरकार तो बनायी लेकिन जिस तरह से सरकार चल रही है उससे सबसे अलग दिखने का भाजपा का दावा कमजोर ही हुआ हैं। वाम दलों सहित राकपा,सपा और बसपा कहने को तो राष्ट्रीय दल हैं लेकिन वास्तविकता यह हैं कि इनका राजनैतिक अस्तित्व भी क्षेत्रीय दलो से कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार यह कहने में कोई संकोच नही हैं कि इन दिनों राष्ट्रीय राजनैतिक दलों के प्रभामंड़ल में जो कमी आयी हैं वही गठबंधन की राजनीति प्रारंभ होने का मूल कारण हैं। 
मान्यता प्राप्त 45 क्षेत्रीय दलों में डी.एम.के.,ए.आई.ए.डी.एम.के.,तृणमूल कांग्रेस,बीजू जनता दल,जनता दल यू.,आर.जे.डी.,तेलगू देशम पार्टी,शिव सेना और टी.आर.एस. जैसे कई राजनैतिक दल हैं जो कि गठबंधन की सरकारों के गठन और पतन में महत्वपूर्ण राजनैतिक भूमिका निभाते रहें हैं। इसका दंश देश ने देखा और भोगा है फिर चाहे वो भाजपा के नेतृत्व वाली एन.डी.ए. सरकार हो या कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. सरकार हो।
अंर्तराष्ट्रीय और अंर्तराज्यीय मुद्दों पर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों की सोच में फर्क रहता है। जहां एक ओर राष्ट्रीय पार्टियों की सोच राष्ट्रीय स्तर की होती हैं। वहीं क्षेत्रीय पार्टियों की प्राथमिकता उनके प्रभाव क्षेत्र तक सीमित होकर रह जातीं हैं। सोच का यही अंतर सरकार के कामकाज पर निर्णायक असर डालता हैं। गठबंधन की सरकारों के 16 सालों के काम काज को देखते हुये अब यह समय की मांग हैं कि इनसे बचने के लिये उपायों पर विचार किया जाये। 
मेरे विचार से संविधान में कुछ ऐसा प्रावधान किया जाना क्या न्याय संगत नहीं होगा कि चुनाव आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय राजनैतिक दलों को पंचायत से लेकर विधानसभा चुनाव लडने की पात्रता दी जाये और यदि किसी गठबंधन के साथ ऐसे क्षेत्रीय दल लोकसभा का चुनाव लड़ते हैं तो गठबंधन का नेतृत्व करने वाली राष्ट्रीय पार्टी के चुनाव चिन्ह पर ही उन्हें चुनाव लड़ने की पात्रता दी जाये? ऐसा करने से कम से कम दल बदल विरोधी कानून के प्रावधानों के तहत सरकार की स्थिरता पर तो कोई विपरीत असर नहीं पड़ेगा। मेरे इस विचार का हो सकता है कि इस आधार पर विरोध भी हो कि यह सुझाव प्रजातंत्र के मूल सिद्धान्तों के खिलाफ है। लेकिन बीते दिनों क्षेत्रीय दलों और उनके नेताओं की भूमिेका और सौदे बाजी ने आज यह सोचने को तो जरूर मजबूर कर दिया हैं कि ऐसे उपाय किये जाना जरूरी हैं जो कि बढ़ते हुये क्षेत्रीयतावाद  और कमजोर पड़ते राष्ट्रवाद के बीच समन्वय बना सके। अन्यथा देश की अखंड़ता और एकता पर बढ़ते हुये क्षेत्रीयतावाद के खतरे से इंकार नहीं किया जा सकता हैं।
समय समय पर देश में इस बात पर भी बहस होती रही हैं कि राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू होना चाहिये या नहीं ? क्या देश एक बार फिर ऐसे दौर से नहीं गुजर रहा हैं कि जिसमें राष्ट्रपति शासन प्रणाली देश हित में हैं या नही? इस पर विचार होना चाहिये। मेरे विचार से क्षेत्रीयतावाद के बढ़ते हुये प्रभाव को देखते हुये और उसे रोकने के लिये यह भी एक कारगर उपाय हो सकता हैं जिसमें देश का हर मतदाता सीधे राष्ट्रपति का चुनाव कर पांच साल के लिये एक स्थायी सरकार तो चुन सकता है। 
देश की एकता और अखंड़ता पर मंड़राते क्षेत्रीयतावाद के खतरे से बचने के और भी उपाय हो सकते हैं लेकिन यह कहने में कोई संकोच नहीं हैं कि अब यह समय की मांग है कि इनसे बचने के कारगर उपाय तलाश कराना देश हित में अत्यंत आवश्यक हैं।
आशुतोष वर्मा
अंबिका सदन,बारा पत्थर,  सिवनी (म.प्र.) 480661
मो. 91 9425174640  ं    

26.9.12

सीख लिया है उसने । (गीत)


(GOOGLE)



सीख  लिया  है  उसने । (गीत)


नफ़रत  निभाने  का  इल्म, सीख  लिया   है   उसने ।

हमारे   आँसूओं  का  साग़र,  चख  लिया  है   उसने ।


(इल्म=  विद्या; साग़र= पैमाना)


अंतरा-१.


इस  जिगर का  लहू  शायद, कम  पड़ा  होगा, तभी तो..!

इन्तक़ाम  की    आग   को   ही,   पी   लिया  है   उसने..!

नफ़रत    निभाने  का    इल्म,  सीख  लिया  है   उसने ।


अंतरा-२.


दूर तक  उसकी  ख़ुशबू, अब भी  फैलती  होगी, मगर..!

उसे  मरकज़ में  दम  तोड़ना,  सीखा  दिया   है  उसने..!

नफ़रत   निभाने    का   इल्म,  सीख  लिया  है   उसने ।

(मरकज़= बीचों-बीच)


अंतरा-३.


नफ़रति   मज़हब  से  उसे,  ऐसी   मुहब्बत  हुई   कि..!

मुहब्बत  में   रोज़ा -ए- नफ्स, रख   लिया  है   उसने ।

नफ़रत    निभाने   का  इल्म, सीख  लिया  है   उसने ।


(नफ़रति   मज़हब = नफ़रत का धरम; रोज़ा-ए-नफ्स= मन के तीन  व्रत= कम खाना, कम सोना और 
कम बोलना )


अंतरा-४.


रूखे  - रूखे   से    सरकार ? अच्छा   नहीं  लगता   हमें..!

मगर, चुपके से  प्यार  करना, सीख  लिया   है   हमने..!

नफ़रत   निभाने   का    इल्म,  सीख  लिया  है   उसने ।


मार्कण्ड दवे । दिनांकः २६-०९-२०१२.



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MARKAND DAVE
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जिज्ञासा(JIGYASA) : सिस्टर निवेदिता

जिज्ञासा(JIGYASA) : सिस्टर निवेदिता: पूरा नाम मार्ग्रेट एलिज़ाबेथ नोबल. 1895 में मार्ग्रेट स्वामी विवेकानन्द से उनकी इंग्लैण्ड यात्रा के दौरान मिलीं।विवेकानन्द ने उन्हें निवेदि...

रामदेव ने किया विश्वासघात !


योगगुरू बाबा रामदेव जो उनके लाखों भक्तों के लिए विश्वास का दूसरा नाम है। लेकिन अगर ये विश्वास टूट जाए तो...हालांकि आंख बंद कर उऩकी बात का समर्थन करने वाले उनके अनुयायी इस बात को नकार देंगे कि रामदेव उनके साथ कभी विश्वासघात कर सकते हैं...लेकिन ऐसा हो रहा है। बड़ी से बड़ी बीमारी को योग और आयुर्वेद से ठीक करने का दावा करने वाले बाबा रामदेव किराने का सामान भी बेचते हैं...बाबा के किराना सामान पर भी लोग उतना ही भरोसा करते हैं जितना कि उनके योग और आयुर्वेदिक दवाओं पर। लेकिन खाद्य विभाग के लिए गए रामदेव की फैक्ट्री उत्पादों के सैंपल फेल होने के बाद बड़ा सवाल ये उठने लगा है कि क्या बाबा रामदेव भी मिलावटखोर और कालाबाजारी करने वालों की तरह अपने सामान में मिलावट कर रहे थे। बाबा के 6 उत्पादों सरसों का तेल, शहद, काली मिर्च, जैम, बेसन और नमक के खाद्य विभाग की टीम ने सैंपल लिए थे...लेकिन ये सैंपल मानक पर खरे नहीं उतरे। इसके साथ ही एक और खुलासा हुआ है कि बाबा रामदेव के कई उत्पाद ऐसे हैं...जिन्हें बाबा की फैक्ट्री नहीं बनाती थी...यानि वे कहीं और बनते थे औप रामदेव अपना ब्रांड नेम लगाकर उनको बेचते थे। खाद्य विभाग को बाबा के उत्पादों पर जो आपत्ति है उसके अनुसार...जिस सरसों के तेल को पतंजलि फूड पार्क का लेबल लगाकर बेचा जा रहा है वह आर एंड जे ऑयल एंड फेट प्राइवेट लिमिटेड झोटवाड़ा जयपुर राजस्थान ने तैयार किया है और इसके ऊपर आरोग्य शब्द लिखा है जो गैरकानूनी है। वहीं काली मिर्च के पैकेट पर भी आरोग्य लिखा गया है साथ ही पैकेट पर न्यूट्रीशनल वैल्यू की जानकारी भी नहीं है। इसी तरह जिस नमक को पतंजलि कंपनी के नाम से बेचा जा रहा है, वो कच्छ गुजरात स्थित अंकुर कंपनी का उत्पाद है। बाबा का शुद्ध शहद लीची से निर्मित है और इसमें सिर्फ 5 प्रतिशत ही शहद है। अनानास जैम के पैकेट पर शुद्ध शब्द का इस्तेमाल किया गया है जबकि इसमें फ्लेवर का प्रोयोग किया गया है। वहीं आरोग्य बेसन पैकेट पर आरोग्य लिखा है लेकिन शुद्ध शाकाहारी का लेबल नहीं है। जबकि बाबा अपने योग शिविरों में भक्तों और अनुयायियों से रामदेव यही कहते फिरते थे कि उनके उत्पादों गुणवत्ता सर्वोत्तम है और सारे उत्पाद उनकी फैक्ट्री में ही बनते हैं। इसका मतलब क्या बाबा अपने भक्तों से अनुयायियों से झूठ बोल रहे थे...उनके साथ विश्वासघात कर रहे थे। हालांकि अभी भी बाबा इस सब को केन्द्र सरकार की साजिश बताते हुए खुद को पाक साफ साबित करने की कोशिश कर रहे हैं...लेकिन क्या वाकई में ये साजिश है या फिर बाबा के लाभ योग का एक हथकंडा ये तो वक्त ही बताएगा...लेकिन बाबा रामदेव के लिए ये अच्छी बात है कि जिस माहौल में, जिन परिस्थितियों में ये सब कुछ सामने आया है...ऐसे में उनके भक्त और अनुयायी ऐसी किसी बातों पर विश्वास नहीं करेंगे...क्योंकि उनको भी शायद यही महसूस होगा कि सरकार के खिलाफ हल्ला बोलने के बाद ही बदले की भावना से सरकार बाबा रामदेव को बदनाम करने की साजिश रच रही है। खैर देर सबेर तो सच सामने आ ही जाएगा...लेकिन अगर वाकई में ऐसा है तो बावा पर सवाल उठने लाजिमी है...क्योंकि बाबा एक तरफ स्वदेशी का नारा देते हैं मिलावटखोरों, कालाबाजारी करने वालों के साथ ही भ्रष्टाचारियों के खिलाफ जहर उगलते हैं...दूसरी तरफ उनके उत्पादों के नमूनों का मानक पर खरा न उतरना बाबा पर आंख बंद कर भरोसा करने वालों के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं है। वैसे बाबा की संपत्ति को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं...ऐसे में अगर मिलावटखोरी की ये बात साबित हो जाती है तो फिर से उनकी संपत्ति को लेकर भी सवाल उठने लगेंगे कि क्या बाबा ने ये संपत्ति भी इसी तरह घालमेल कर अर्जित की है। वैसे जितने कम समय में रामदेव ने अपने साम्राज्य को स्थापित किया है...वो तो कम से कम इसी ओर ईशारा करता है। 1995 में दिव्य योग ट्रस्ट की स्थापना कर सिर्फ योग सिखाना शुरू करना...उसके बाद 2006 में पतंजलि योगपीठ की स्थापना के साथ आयुर्वेदिक दवाएं बनाना औऱ बेचना शुरू करने का साथ ही आयुर्वेद पर रिसर्च और योग की ट्रेनिंग देना और फिर एफएमसीजी के क्षेत्र में कदम रखना...और इस दौरान करीब 1100 करोड़ की संपत्ति अर्जित कर लेना...ये आसान काम तो नहीं है। बहरहाल रामदेव कितने सही हैं और कितने गलत ये तो वक्त ही बताएगा...लेकिन फिलहाल तो रामदेव एक और मुश्किल में घिर ही गए हैं...अब ये उनके पीछे पड़ी सरकार का रचा मायाजाल है या फिर रामदेव का मकड़जाल . तो वक्त ही बताएगा।

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25.9.12


नगर पंचायत लखनादौन चुनाव के मामले में भी  आला कमान ने यदि कार्यवाही नहीं की गर्त में चली जायेगी कांग्रेस
 बीते कई सालों से जिले में कांग्रेस को कांग्रेसियों से ही हरवाने का चलन चल रहा हैं। इसी कारण कभी 1977 की जनता लहर में भी जिलंे की पांचों विधानसभा सीटें जीतने वाली कांग्रेस अब सिमट कर एक सीट पर रह गयी हैं और यह जिला भाजपा का गढ़ माने जाने लगा हैं। समय समय पर आलाकमान को शिकायतें भी हुयी हैं लेकिन रह बार किसी ना किसी बढ़े नेता ने अपने खिदमतगार हरवंश सिंह को बचा ही लिया। इन सबका असर यह हुआ कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के दोनों प्रत्याशियों ने नगर पंचयात लखनादौन के अध्यक्ष पद के चुनाव  में आपने नामांकन पत्र ही उठा लिये और क्षेत्र में कांग्रेस चुनाव से बाहर हो गयी। कांग्रेसी हल्कों में यह चर्चा जोरों से है कि यदि हमेशा की तरह इस बार भी कुछ नहीं हुआ तो कांग्रेस के मिशन 2013 और 14 में विपरीत असर पड़ सकता हैं। नरेश और राजेश के विचार बिल्कुल नहीं मिलते लेकिन वे एकसाथ मिलकर विहार जरूर कर लेते हैं। ऐसा ही एक वाकया दलसागर में नौका विहार के दौरान देखने को मिला। वैसे तो जिला सहकारी बैक के शताब्दी समारोह की तैयारियां जोर शोर से चल रहीं हैं। अध्यक्ष अशोक टेकाम की अध्यक्षता में आयोजित एक बैठक में महाकौशल विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष नरेश  दिवाकर और विधायक नीता पटेरिया ने भी हिस्सा लिया था।यहां यह उल्लेखनीय है कि अब कुछ हीदिनों बाद बैंक के चुनाव होना हैं। इसलिये अभी से पैतरेबाजी भी प्रारंभ हो गयी हें। 
जिले में कांग्रेस को हराने वाले दंड़ित होने के बजाय पुरुस्कृत होते रहे-बीते कई सालों से जिले में कांग्रेस को कांग्रेसियों से ही हरवाने का चलन चल रहा हैं। इसी कारण कभी 1977 की जनता लहर में भी जिलंे की पांचों विधानसभा सीटें जीतने वाली कांग्रेस अब सिमट कर एक सीट पर रह गयी हैं और यह जिला भाजपा का गढ़ माने जाने लगा हैं। तारीफ की बात तो यह हैं कि कांग्रेस को हराने वाले कांग्रेसियों को सजा मिलने के बजाय पुरुस्कृत किया जाता रहा हैं। और तो और बागी होकर विस चुनाव लड़ने और कांग्रेस को हराने वाले कांग्रेसियों को उप चुनाव या अगले चुनाव में ही पार्टी की टिकिट तक मिली हें। और यह सब आज के जिले के इकलौते कांग्रेस विधायक और विस उपाध्यक्ष हरवंश सिंह की सरपरस्ती में हो रहा हैं। समय समय पर आलाकमान को शिकायतें भी हुयी हैं लेकिन रह बार किसी ना किसी बढ़े नेता ने अपने खिदमतगार हरवंश सिंह को बचा ही लिया। इन सबका असर यह हुआ कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के दोनों प्रत्याशियों ने नगर पंचयात लखनादौन के अध्यक्ष पद के चुनाव  में आपने नामांकनपत्र ही उठा लिये और क्षेत्र में कांग्रेस चुनाव से बाहर हो गयी जिस क्षेत्र से आजादी के बाद से 2003 तक कांग्रेस का कब्जा रहा हैं। और यह सब कुछ हुआ हरवंश सिंह और दिनेश राय मुनमुन की नूरा कुश्ती के चले हुये। इंका नेता आशुतोष वर्मा ने मेल के द्वारा चुनाव के दौरान ही इसकी शिकायत कांग्र्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, महासचिव राहुल गांधी और प्रभारी महासचिव बी.के.हरप्रिसाद से की थी।  यहां यह विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं कांग्रेस ने इस चुनाव में शानदा प्रर्दशन किया और उसके 15 में से ना सिर्फ आठ पार्षद जीते वरन सभी वार्डों में कांग्रेस ने 3226 वोट लिये जबकि भाजपा के अध्यक्ष पद के प्रत्याश्ी को कुल 1880 वोट मिले और निर्दलीय प्रत्याशी मुनमुन राय की माताजी सुधा राय को 6628 वोट मिले थे। यह भी तय है कि कांग्रेस के वोट भाजपा को तो गये नहीं होंगें इसीलिये यदि सुधा राय के वोटों में से कांग्रेस के वोट घटा दिये जायें तो उन्हें 3402 वोट ही मिलते। ऐसये हालात में कहा जा सकता हैं कि यदि कांग्रेस का अध्यक्ष पद का प्रत्याशी मैदान में होता तो ना केवल बराबरी की टक्कर होती वरन कांग्रेस चुनाव जीत भी सकती थी। इन्हीं सब कारणों के चलते बताया जा रहा है कि हाल ही में भोपाल में हुयी प्रदेश कांग्रेस की तीन दिन की बैठकों में भी यह मामला प्रभारी बी.के.हरप्रिसाद और दिग्विजय सिंह के सामने भी  जोरदारी से उठाया गया हैं। बताते हैं कि कांग्रेस आला कमान ने भी इसे काफी गंभीरता से लिया हैं। लेकिन कांग्रेसी हल्कों में यह चर्चा जोरों से है कि यदि हमेशा की तरह इस बार भी हरवंश सिंह को बरी कर दिया जाता हैं तो जिले में कांग्रेस के मिशन 2013 और 2014 पर विपरीत असर पड़ सकता हैं।
विचार मिले या ना मिलें साथ में विहार तो कर ही लेते हैं नरेश और राजेश -गुटबाजी के राज रोग से भाजपा भी अछूती नहीं हैं।जिले में भाजपा के कई गुट है जो कि आपस में गलाकाट प्रतियोगिता भी करते रहतें हैं। भाजपायी हलके में हमेशा से यह चर्चित रहा है के मविप्रा के अध्यक्ष नरेश दिवाकर और पालिका अध्यक्ष राजेश त्रिवेदी दो अलग अलग धु्रवो पर रहते हैं। इनके विचार बिल्कुल नहीं मिलते और आपस में एक दूसरे को फूटीं आंख भी नहीं सुहाते हैं। लेकिन एक अच्छी बात यह है कि विचार आपसमें मिले या ना मिले वे एकसाथ मिलकर विहार जरूर कर लेते हैं। ऐसा ही एक समाचार बीते दिनों अखबारों में फोटो के साथ सुर्खियों में रहा जिनमें ये दोनो युवा नेता दलसागर तालाब में एक साथ नौका विहार करते दिख रहे थे जिसेें लोगों ने चटखारे लेकर पढ़ा। भाजपाइयों में तो यहां तक चर्चा है कि इसी दलसागर तालाब में चेकर्स टाइल्स लगानें में की गयी गड़बड़ियों को लेकर कांग्रेस के उपाध्यक्ष राजिक अकील ने जो शिकायत की थी और उस पर जिला प्रशासन ने जो फुर्ती दिखायी थी उसके पीछे नरेश दिवाकर का ही हाथ था।  अब यह कहां तक सही हैं? यह तो नरेश जी ही जानते होंगें लेकिन फिर  भी दोनों भाजपा नेताओं का यह विहार चर्चित जरूर हो गया हैं। 
शताब्दी समारोह के संग चल रही है नरेश की कूटनीति? -वैसे तो जिला सहकारी बैक के शताब्दी समारोह की तैयारियां जोर शोर से चल रहीं हैं। इसके लिये बैक में अध्यक्ष अशोक टेकाम की अध्यक्षता में आयोजित एक बैठक में महाकौशल विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष नरेश  दिवाकर और विधायक नीता पटेरिया ने भी हिस्सा लिया था। वैसे तो इस बैंक ने इन सौ सालों में कई बार उतार चढ़ाव देखें हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस बैंक के संचालक मंड़ल के चुनावों में ज्यादातर कांग्रेस का ही कब्जा रहा हैं। या फिर जिला कलेक्टर इसके अध्यक्ष रहें हैं। लेकिन पहली बार भाजपा ने इन चुनावों में बाजी मार कर संचालक मंड़ल में अपना कब्जा किया और युवा आदिवासी नेता अशोक टेकाम इस बैं के अध्यक्ष बनें। वैसे तो चुनाव के दौरान तत्कालीन जिला भाजपा अध्यक्ष वेद सिंह ठाकुर को अध्यक्ष ना बनने देने की रणनीति के तहत तत्कालीन विधायक नरेश दिवाकर ने टेकाम से हाथ मिलाकर अपने समर्थक सुनील अग्रवाल को उपाध्यक्ष बनवा लिया था। उनकी योजना यह थी कि अग्रवाल के माध्यम से बैंक पर पूरा नियंत्रण रख्रेंगें। लेकिन तेज तर्रार अशोक टेकाम के चलते जब यह संभव नहीं हुआ तो फिर दोनों के बीच तकरार हो गयी। लेकिन बीते दिनों फोर लेन के मामले में कुरई के अनशन के दौरान बरघाट के विधायक कमल सर्मकोले से नरेश की तकरार हो जाने के बाद नरेश अशोक के बीच फिर एका होने की चर्चायें भाजपायी हल्कों में सुनायी देने लगीं हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि अब कुछ हीदिनों बाद बैंक के चुनाव होना हैं। इसलिये अभी से पैतरेबाजी भी प्रारंभ हो गयी हें। बैंक की राजनीति से नाता रखने वालों का दावा है कि इस बार बैंक पर अपना कब्जा करने के लिये नरेश दिवाकर ने अभी से ताना बाना बुनना शुरू करा दिया हैं। वे सोसायटियों के पुराने धुरंधरों से संपर्क में हैं और यह कोशिश कर रहें हैं कि संचालक मंड़ल में उनके अधिक सदस्य आ सकें तथ बैंक पर अशोक टेकाम के बजाय उनका कब्जा हो जाये। ऐसे हालात में उन्हें बरघाट से विधानसभा की टिकिट दिलाने का प्रलोभन भी दिया जा सकता हैं।इस खेल में कौन कितना सफल होगा? यह तो भविष्य में ही पता चल पायेगा। “मुसाफिर“   




सप्ताह मुसाफिर आपसे मुखातिब नहीं हो पाया था। इसलिये इस हफ्ते पुराने और नये राजनैतिक घटनाक्रमों पर हम चर्चा करेंगें। बीते दिनो सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक घटनाक्रम छिंदवाड़ा जिले में हुआ। जहां केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ के संसदीय क्षेत्र में रेल मंत्री मुकुल राय ने परासिया माडल रेल्वे स्टेशन की आधारशिला रखी,अब प्रतिदिन चलने वाली छिंदवाड़ा दिल्ली ट्रेन को हरी झंड़ी दिखाया और अभी पूरी ना होने वाली छिंदवाड़ा नागपुर बा्रडगेज के विद्युतीकरण की भी आधार शिला रखी जो कि आमला नागपुर के नाम से स्वीकृत हुयी हैं। इसी कार्यक्रम के दौरान एक पत्रकार वार्ता के दौरान कमलनाथ ने  छिंदवाड़ा के विकास की चर्चा करते हुये यह कह दिया कि इतना विकास तो पड़ोसी जिले छिंदवाड़ा और सिवनी का भी नहीं हुआ हैं और चाहो तो ये हरवंश सिंह बैठे हैं इनसे पूछ लो।इस पर हरवंश सिंह ने जवाब दे दिया कि मैं भी तो छिंदवाड़ा का हूं। जिले के विकास पुरुष कहे जाने वाले हरवंश सिंह का यह जवाब स्थानीय समाचार पत्रों में सुर्खियां भी बना। वैसे भी कांग्रेसियों में नाथों के नाथ कमलनाथ कहलाते हैंऔर वे गोद लेने के भी आदी रहें हैं। चुनाव प्रचार के दौरान वे जिले की अधिकांश विधानसभा सीटों को भी गोद ले चुके हैं। अब तो कांग्रेसियों के बीच चटखारे लेकर ख्ह चर्चा भी होने लगी हैं कि अच्छा हो कि कमलनाथ हरवंश सिंह का ही गोद लेकर अपने जिले से ही, जो कि हरवंश सिंह की मातृ भूमि भी है, से चुनाव लड़वा दें तो कम से कम जिला नाथ रहते हुये भी ऐसा अनाथ तो नहीं रहेगा जैसा कि पिछले दिनों देखा गया हैं और जिले को भी एक मौका मिल जायेगा कि वो अपना नया नाथ तलाश कर सके। वैसे हरवंश सिंह के इस कथन से उन पर पहले लगे ये आरोप सही लगने लगे है कि उन्होंने छिदवाड़ा के हितों के लिये सिवनी के हितों को कुर्बान किया है। यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि परिसीमन में सिवनी लोकसभा के विलोपन,फोर लेन में आये अड़ंगें,संभाग मुख्यालय सिवनी ना बनने,बड़ी रेल के ना बनने आदि में हरवंश सिंह पर आरोप लगते रहें हैं कि उन्होंने अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिये सिवनी के हितों पर कुठाराघात किया हैं। मातृ भूमि के लिये प्यार होना चाहिये यह तो ठीक है लेकिन उस कर्म भूमि के कर्जे को भी नहीं भूलना चाहिये जिसने उन्हें मातृ भूमि में मंच पर बैठाल कर सम्मान दिलाया। यह तो कम से कम नहीं ही भूलना चाहिये कि किस बुरे स्थिति और अपमानजनक हालात में मातृ भूमि को छोड़ना पड़ा था। वैसे हरवंश समर्थकों का कहना हैं कि इससे साहब को कोई नुकसान नहीं होगा ब्लकि ऐसा कहकर कमलनाथ ने अपने आप को महाकौशल के बजाय सिर्फ छिंदवाड़ा जिले का नेता ही मान लिया हैं।
चिट्ठी लिखने से परहेज करने वाले हरवंश ने मंत्री से की चर्चा-जंगल मे मोर नाचा किसने देखा की कहावत बहुत पुरानी हैं। लेकिन इन दिनों यह कहावत एक बार फिर चर्चा में आ गयी हैं। छिंदवाड़ा में रेल मंत्री मुकुल राय के कार्यक्रम के दो दिन के बाद जिले के इकलौते इंका विधायक हरवंश की तरफ से बाकायदा एक प्रेस नोट जारी कर यह बताया गयी कि रेल्वे के सैलून में केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ की उपस्थिति में उन्होंने छिंदवाड़ा से नैनपुर रेल लाइन के गेज परिवर्तन और रामटेक से गोटेगांव नयी रेल लाइन के बारे में चर्चा की और डिब्बे में मौजूद रेल्वे बोर्ड के सदस्य मिश्रा ने उन्हें जानकारी दी है कि नैनपुर बड़ी रेल लाइन के मिट्टी के काम का टेंड़र लगने वाला हैं और दो साल में छिंदवाड़ा से सिवनी तक बड़ी रेल लाइन का काम पूरा हो जायेगा। यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि छिंदवाड़ा से नागपुर के 125 कि.मी. गेज कनर्वशन का काम कमलनाथ के रहते हुये भी पांच साल में पूरा नहीं हो पाया हैं  तो भला सिवनी से छिंदवाड़ा का 70 कि.मी. का गेज कनर्वशन का काम दो साल में हरवंश कैसे पूरा करा लेंगें?यह एक विचारणीय प्रश्न हैं। रहा सवाल रामटेंक सिवनी गोटेगांव नयी रेल लाइन का तो इसके लिये इंका नेता आशुतोष वर्मा सन 2007 से अभियान चलाये हुये हैं। इसमें दो बार पत्र लिखो अभियान चलाया गया जिसमें जिले के सैकड़ों जन प्रतिनिधियों सहित हजारों नागरिकों ने भाग लिया लेकिन हरवंश सिंह ने चिट्ठी लिखना भी पसंद नहीं किया। अब यह एक सोचने वाली बात है कि चिट्ठी लिखने से परहेज करने वाले हरवंश सैलून में मंत्री से चर्चा भला क्या और कैसी की होगी?सैलून में हरवंश की चर्चा को लेकर स्थानीय अखबारों में भी सुर्खियां बनी हैं और इस चर्चा को उनकी कार्यप्रणाली के विपरीत निरूपित किया हैं। लेकिन इस सबसे और कुछ हुआ हो या नहीं हुआ हो लेकिन जिले में लोग चटखारे लेकर यह कहते हुये जरूर देखे जा रहें हैं कि सैलून में सिंह नाचा किसने देखा?
प्रधानमंत्री का पुतला तो जल जाता है पर मुख्यमंत्री का नहीं-वैसे तो यह आम बात है कि प्रदेश सरकार के विरोध में कांग्रेस और केन्द्र सरकार के विरोध भाजपा आंदोलन,प्रदर्शन कर पुतले जलाती रहती हैं। हालांकि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सत्तारूढ़ दल हैं और जनता के लिये जो भी समस्यायें होती हैं उनके लिये कमोबेश दोनों ही जवाबदार होती हैं लेकिन अपने को बचाते हुये दूसरे पर राजनैतिक हमलें करने की संस्कृति इन दिनों खूब फल फूल रही हैं। राजनैतिक विश्लेषकों ने एक बात और विशेषकर नोट की हैं कि जब प्रदेश में सत्ता की बागडोर संभाहने वाली भाजपा कोई आंदोनल करती है और प्रधानमंत्री का पुतला जलाने की घोषणा करती हैं तो वो पुतला जल लेती हैं लेकिन जब कांग्रेस प्रदेश सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर मुख्यमंत्री का पुतला जलाने की घोषणा करती है तो पुलिस येन केन प्रकारेण पुतला नहीं जलने देती चाहे इसके लिये आंदोलनकारियों से ही सांठगांठ क्यों ना करनी पड़े। ऐसा क्यों होता हैं? यह समझ से परे हैं। वैसे तो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दोनों ही पद संवैधानिक पद है और दोनों ही जनता द्वारा निर्वाचित सरकारों के मुखिया होते हैं। बीते दिनों भाजपायुमो ने जिला अध्यक्ष नवनीत सिंह ठाकुर के नेतृत्व में डीजल और रसोई गैस की कीमतों की गयी वृद्धि के खिलाफ प्रर्दशन किया और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का बाकायदा पुतला भी जलाया। यह बात सही है कि इससे आम जनता को कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा लेकिन इसके लिये प्रदेश सरकार द्वारा डीजल और रसोई गैस पर लिया जाने वाला वेट टेक्स भी कम जवाबदार नहीं हैं। उसमें कुछ कमी करके राज्य सरकार भी जनता को राहत पहुंचा सकती थी जैसी कि केन्द्र सरकार ने पेट्रोल पर प्रति लिटर पांच रुपये से अधिक एक्साइज डयूटी कम करके उसकी कीमत को बढ़ने से रोक कर किया है। कुछ राज्यों ने भी अपने टेक्स में कमी करके जनता को राहत पहुंचायी हैं। लेकिन राजनीति के लिये राजनीति करना आजकल नेताओं का शगल बन गया हैं। “मुसाफिर”    

मुख्यमंत्री आए रहे-ब्रज की दुनिया

दोस्त लोग,अपने शहर हाजीपुर में मुख्यमंत्री आए रहे। उड़नखटोला से नहीं रथ से। बड़ा भारी भाषण दिए रहे। प्रशासन के साथ खूब उठक-बैठक की। योजनाओं की समीक्षा की। वैशाली जिला के लिए 25 मेगावाट बिजली की व्यवस्था करने का आदेश भी दिया। हम तो जब यहै समाचार अखबार में पढ़े रहे तो बहुते खुश हुए। अब तो बिजली आवेगी तो जाने का नाम ही नहीं लेगी। चौबीसों घंटे भकाभक अंजोर। लेकिन ई का उधर मुख्यमंत्री ने पीठ फेरी और इधर बिजली भी गदहे की सींग की तरह गायब। दिन में तो आती ही नहीं और रात में भी सोए में ही आती है और हमें सोया हुआ छोड़कर ही चली भी जाती है। शायद उ बहुते लज्जालु हो गई है। हमरी आँखों के आगे पड़ना ही नहीं चाहती। भैया, ई तो श्यामनंदन बाबू की चायवाला हाल हो गया। अब आप कहिएगा कि ई श्यामनंदन बाबू कौन महापुरुष हैं?
                                       दोस्तलोग, ई श्यामनंदन बाबू यानि श्यामनंद सहाय महापुरुष हैं नहीं थे। बड़का जींमदार; बाघी स्टेट कहलाते थे। विधानसभा चुनाव भी लड़े रहे आजादी से पहले ही दीपनारायण बाबू के खिलाफ और दारू-पैसा बाँटै खातिर बदनाम भी भए रहे। अब तो ब्रेक लगावे के पड़ी काहे कि हमारी गाड़ी गलत ट्रैक पर जा रही है। तो हम कहत रहे कि जब कोई श्यामनंदन बाबू के ईहाँ जाए तो उ अपना नौकर के कहत रहे कि चाय लेई आओ। लेकिन साथ में हाथ भी हिलाबत रहे माने कि नहीं लाना। लोग सब जब बईठल-बईठल परेशान होई जात रहे तब अपने उठके चल देत रहे।
                        दोस्तलोग, मुख्यमंत्री जब प्रशासन के साथ समीक्षा बैठक किए रहे तब हम तो ऊहाँ थे नहीं। फिर हमको क्या पता कि 25 मेगावाट बिजली देबे का ऑर्डर देत समय ऊ सिर या हाथ नहीं-नहीं की मुद्रा में हिलाये रहे कि न। बाकिर एतना को निश्चित है कि मुख्यमंत्री अगर अधिकार-यात्रा पर हाजीपुर नहीं आते तबे हाजीपुर के लिए अच्छा रहता। जितनी भी बिजली 14-15 घंटा रहती थी उ तो रहती,साफे गायब त नहीं हो जाती। अब ऊ बाँकी योजना सबका क्या हाल होबेवाला है जेक्कर मुख्यमंत्री समीक्षा किये रहे इहो हम समझ गए हैं और आप तो समझिए गए होंगे। अब बताईये कि ई नेता-कथा से आपने क्या शिक्षा ग्रहण की? इहे न कि नेता के बात आ घोड़ी के पाद। माने कि जब नेता कुछ आश्वासन दे तो समझिए कि किसी घोड़ी ने वायु-विसर्जन किया है और भूल जाईये। काहे कि जब नेताजी ही भूल जानेवाले हैं तो आप यादे रखके क्या करिएगा?

हमारे वोट, पेड़ पर उगते हैं क्या ? (व्यंग गीत)


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हमारे  वोट,  पेड़  पर   उगते   हैं   क्या ? (व्यंग गीत)



यूँ  लगा मानो  कि ग़लती  से  हमने, गधे  की  दुम  दबा  दी..!

हुआ    ऐसा, एक  नेताजी  को   पीछे से    आवाज़  लगा  दी..!

1.

चुनाव  सर  पर  था  और  प्र-खर  समाज  प्रचुर  जोश में  था..!

अतः वो दौड़े  चले आए  और  फिर  लं..बी  खर-तान  लगा  दी..!

यूँ  लगा मानो  कि ग़लती  से  हमने, गधे  की  दुम  दबा  दी..!

2.

"ज़रा   धीरे   नेताजी, आप  की   तरह, जनता   बहरी   है  क्या ?"

बोले, "चाहे   सो  कहो, दिलवा  दोगे  ना   फिर  वही  राजगद्दी ?"

यूँ  लगा मानो  कि ग़लती  से  हमने, गधे  की  दुम  दबा  दी..!

3.

हमने   कहा, " क्यों जी   हमारे   वोट,  पेड़  पर  उगते   हैं   क्या ?

अब  इतना समझ लो, हमने आपकी  किस्मत  उल्टी  धुमा  दी..!" 

यूँ  लगा  मानो  कि  ग़लती  से  हमने, गधे  की  दुम  दबा  दी..!

4.

बोले, "  हर  आँगन  में  हम, रुपयों  का  एक  पेड़  लगवा  देंगे..!"

हम  पर करें  वह  दूसरा  खर-प्रहार , हमने  पीठ  ही  धुमा  ली..!

यूँ  लगा  मानो  कि  ग़लती  से  हमने, गधे  की  दुम  दबा  दी..!


मार्कण्ड दवे । दिनांकः२४-०९-२०१२. 

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MARKAND DAVE
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23.9.12

राजनीति,वेश्या और धोखा-ब्रज की दुनिया

मित्रों,वेश्याओं के बारे में कहा जाता है कि उनका कोई चरित्र नहीं होता। वे कभी किसी की गोद में जा बैठती हैं तो कभी किसी और की गोद में। परन्तु हम अपने उन नेताओं के लिए सही विशेषण कहाँ से लाएँ जो इन वेश्याओं से भी गए बीते हैं? शायद संसार की किसी भी भाषा में इनके लिए उपयुक्त शब्द नहीं है। कभी भक्तप्रवर गोस्वामी तुलसीदास जी ने बालक राम के चेहरे की तुलना के लिए भाषा और साहित्य की सारी उपमाओं को कमतर मानते हुए उनके चेहरे की तुलना उनके चेहरे से ही की थी। हमारे समक्ष भी फिर से वही स्थिति है लेकिन इस बार उसका स्वरूप दुर्भाग्यपूर्ण है। दरअसल हमारे कई नेताओं के चरित्र की तुलना दुनिया में सिर्फ हमारे नेताओं के चरित्र से ही की जा सकती है। वेश्या का चरित्र एक विकल्प हो सकता था परन्तु यहाँ तो वह भी अपर्याप्त है। हमारे नेताओं के बोल बच्चन की कोई गारंटी नहीं है। अब अपने नेताजी सुभाष बाबू की नहीं भैया मैं मुलायम सिंह यादव की बात कर रहा हूँ,को ही लीजिए। अब जिसकी तुलना वेश्या से हो सकती है उसकी तुलना सुभाष चन्द्र बोस से थोड़े ही हो सकती है। तो मैं कह रहा था कि श्रीमान् एक दिन तो केंद्र सरकार के खिलाफ रहते हैं तो दूसरे दिन ही उसके साथ खड़े नजर आते हैं। वे ईधर भी हैं और उधर भी। जो जनता भारत बंद में उनके आह्वान पर एक दिन पहले रेल-सड़क जाम करती है अगले ही दिन खुद को ठगाया हुआ पाती है जब नेताजी अपने उसी मुख से कहते हैं कि वे तो केंद्र सरकार के साथ ही हैं मगर वे अब भी पेट्रो उत्पादों की मूल्य-वृद्धि और खुदरा-व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश का विरोध करते रहेंगे। ऐसा कैसे संभव हो सकता है? क्या कोई एकसाथ गाल फुला सकता है और हँस सकता है परन्तु अपने नेताजी न केवल ऐसा कर सकते हैं बल्कि कर भी रहे हैं। वे एक साथ केंद्र सरकार से खुश भी हैं और नाराज भी। एक क्षण में कुछ और कहते हैं तो दूसरे ही पल में पहले से एकदम विपरीत कुछ और। पता ही नहीं चलता कि उनके कई-कई मुँह हैं या कई-कई जुबानें। उनके बार-बार और रोज-रोज पाला बदलने के पीछे का रहस्य तो वही जानें मगर उनके बार-बार इस तरह गुलाटी खाने और गोद बदलने को जनता के बीच कोई अच्छा संदेश नहीं जा रहा है और इससे जनता के मन में राजनीतिज्ञों के प्रति संदेह और घृणा के भाव में बढ़ोतरी ही हो रही है। इस तरह किसी से एक साथ खुश और नाराज तो शायद अतिअभिनयकुशल वेश्या भी नहीं हो सकती। धन्य हैं हमारे हमारे उत्तर प्रदेश के उत्तम नेताजी!
                                                 मित्रों,मुलायम सिंह यादव जी वाली चरित्र-स्खलन वाली बीमारी बिल्कुल भी असंक्रामक नहीं है बल्कि इसने कई अन्य नेता बंधुओं को भी ऑलरेडी अपनी चपेट में ले लिया है तो कुछ को अपने लपेटे में लेने की ताक में है। लालू-रामविलास-करुणानिधि-शरद पवार आदि (इस आदि में आदि से अंत तक लगभग सारे नेता समाहित हैं) पहले से ही वारांगनाओं की तरह निष्ठा-परिवर्तन में माहिर हैं तो अब इन सबकी अपेक्षा स्थिरमति माने जानेवाले नीतीश कुमार का मन भी चंचल होने लगा है। जनाब कभी कांग्रेसी पाले में जाने की बात करते हैं तो कभी कहते हैं कि अभी तो मैं जवान हूँ और जो मेरे मन की मानेगा मैं तो उसी का साथ दूंगा। जनाब यह भूल गए हैं कि बिहार में उनकी भाजपा के साथ बहुप्रशंसित साझा सरकार है और भाजपा ने भूतकाल में उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए क्या-क्या पाप किए हैं। यह भाजपा ही थी जिसकी केंद्र सरकार ने उन्हें वर्ष 2000 ई. में 3 मार्च से 10 मार्च तक 7 दिनों के लिए जबर्दस्ती मुख्यमंत्री बनवा दिया था जबकि वाजपेया सरकार को यह अच्छी तरह से पता था कि नीतीश कुमार के पास बहुमत नहीं है। उस समय तत्कालीन केंद्र सरकार की इसके लिए कितनी किरकिरी हुई थी इसके गवाह आज भी उस समय की पत्र-पत्रिकाएँ हैं जिनका अवलोकन किसी भी पुस्तकालय में आकर आसानी से किया जा सकता है। नीतीश कुमार यह भी भूल गए हैं कि पिछले विधानसभी चुनावों में भाजपा उम्मीदवारों की सफलता का प्रतिशत उनकी पार्टी के उम्मीदवारों से कहीं ज्यादा था। पिछले 7 सालों में बिहार का जो भी थोड़ा-बहुत विकास हुआ है वह अकेले नीतीश कुमार या जदयू की उपलब्धि नहीं है बल्कि भाजपा के कोटे के मंत्री अपेक्षाकृत ज्यादा कुशल,साहसी और ईमानदार हैं। फिर नीतीश कुमार इस तथ्य को भूलकर कैसे भूल से भी ऐसी भूल कर सकते हैं? यह आरोप तो हम आम जनता पर लगता रहा है कि हम बहुत जल्दी सबकुछ भूल जाते हैं और भ्रष्टों को दोबारा जिता देते हैं परन्तु यहाँ तो नेताजी ही सबकुछ भूल रहे हैं।
                   मित्रों,अभी कुछ दिनों पहले ही बिहार के एक अन्य दिग्गज नेता जिनका जिक्र हम इस आलेख में पहले भी अलग संदर्भ में कर चुके हैं,.रामविलास पासवान जी ने अपनी जि़न्दगी के पुराने काले पन्नों को पलटते हुए कहा है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तब बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने के लिए तैयार थे परन्तु तब इन्हीं नीतीश कुमार ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया था क्योंकि उनको लगता था कि अगर ऐसा हुआ तो इसका सारा फायदा और श्रेय लालू प्रसाद यादव ले उड़ेंगे। नीतीश जी ने अभी तक भी इसका खंडन नहीं किया है जिससे ऐसा लगता है कि रामविलास जी इस बार सच में सच बोल रहे हैं। क्या नाटक है कि जब विशेष राज्य का दर्जा स्वतः मिल रहा था तब तो उन्होंने इसे लिया ही नहीं और अब जब यह सिर फोड़ लेने पर भी नहीं मिलनेवाला है तो इसके लिए वे अधिकार-यात्रा पर निकले हुए हैं और इसे प्राप्त करने के लिए किसी भी पार्टी या गठबंधन की गोद में बैठने को तैयार होने की बात करते हैं। और हद तो यह है कि जब कांग्रेस की ओर से फिर भी कोई आश्वासन नहीं मिलता है तो मन मसोसकर कहते हैं कि उन्होंने तो यह बात 2014 के चुनाव के संदर्भ में कही थी। तो क्या उन्हें अभी विशेष राज्य का दर्जा नहीं चाहिए फिर इतना ड्रामा क्यों? अगर सचमुच में वर्तमान केंद्र सरकार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे देती है तो क्या नीतीश सचमुच एनडीए को छोड़कर यूपीए में शामिल हो जाएंगे और तब उनके नेतृत्ववाली बिहार सरकार का क्या होगा? कांग्रेस तो बिहार में है ही नहीं फिर क्या नीतीश या उनके दल में इतनी ताकत है कि वह अकेले अपने बलबूते पर चुनाव जीत सके?
                मित्रों,नेताजी के ध्यान में अगर 2014 का चुनाव ही था तो फिर उनको तब तक मन-बेमन से गठबंधन-धर्म का पालन करते हुए इंतजार करना चाहिए था खुद अपने मुखचंद्र पर अपने ही करकमलों से कृतघ्नता की कालिख पोतने की जरूरत ही क्या थी?  हो सकता है कि चुनावों के बाद उनके गठबंधन की ही केंद्र में सरकार बन जाए और वे याचक से दाता बन जाएँ। जाहिर है कि नीतीश जी सफेद झूठ बोल रहे हैं। दरअसल उनका मन भाजपा से भर गया है और अब वे उससे पीछा छुड़ाना चाहते हैं लेकिन उनको इसका कोई उपाय नजर नहीं आ रहा। शायद वे मुलायम की तरह ही अपनी छवि कथित विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष नेता की बनानी चाहते हैं भले ही इसके लिए उनको खुद को शून्य से शिखर तर पहुँचानेवाली सहयोगी पार्टी को धोखा ही क्यों न देना पड़े या फिर वे भाजपा से नाराज होने का झूठा नाटक करके खुद को भी धोखा दे रहे हैं।
                   मित्रों,वैसे अपने प्रेमियों को धोखा तो वेश्याएँ भी खूब देती हैं लेकिन उनकी संख्या तो फिर भी सीमित होती है हमारे नेता तो एकसाथ करोड़ों दिलों से खेलते और तोड़ते हैं और इस तरह इस मामले में भी उनका चरित्र अद्वितीय है। कुल मिलाकर इस पूरे ब्रह्माण्ड में अभी तक ऐसी कोई दूसरी वस्तु या ऐसा कोई दूसरा मानव-दानव-देव-गन्धर्व जीवित नहीं नहीं है जिसके चरित्र की तुलना हमारे भारत के नेताओं के चरित्र से की जा सके। आईए नेता-चरित्र अतिघिनौनी चर्चा के बाद अंत में प्रभु के पतित-पावन चरित्र का स्मरण करते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि-तुलसीदास अति अनंद देखी के मुखारविंद,रघुबर छबि के समान रघुबर छबि बनिया; ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया, ठुमक चलत रामचंद्र.............।