31.12.12

वो 2012 की बात थी...


लो 2013 भी आ गया...वक्त है नई शुरुआत की...नई ऊर्जा, नए जोश और नई उमंग से आगे बढ़ने का। बीते हुए कल से कुछ सीख कर आगे बढ़ने का। उन बातों को...झगड़ों को आपसी मनमुटाव को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने का जो जाने आनजाने बीते साल में कुछ कड़वाहट घोल गए। 2011 के बाद 2012 का सफर भी कुछ इसी अंदाज में करने की मैंने भी पूरी कोशिश की थी लेकिन कहते हैं न कि सब कुछ आपके मन मुताबिक हो ऐसा संभव नहीं है। 2011 में नोएडा में नौकरी करने के दौरान देहरादून में नौकरी का बेहतर अवसर मिला। बेहतर अवसर जान 17 जनवरी 2012 को मैंने देहरादून में नेटवर्क 10 समाचार चैनल के साथ एक नई शुरुआत की। 2008 से अपने गृह प्रदेश उत्तराखंड से दूर मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में उसके बाद ग्वालियर और ग्वालियर से दिल्ली तक का सफर तय किया। इस दौरान नए प्रदेश में नए शहर में नए लोगों के बीच काम करने का अनुभव बेमिसाल था। बहुत कुछ जानने- सीखने को मिला और कई नए दोस्त भी बने। 2012 में वापस उत्तराखंड में काम करने का अवसर मिला तो काफी जद्दोजहद के बाद देहरादून में नेटवर्क 10 समाचार चैनल के साथ जुड़ने का फैसला लिया। नए संस्थान में नए लोगों के बीच सामंजस्य बैठाने में समय लगता है लेकिन इसमें मुझे बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। नया चैनल था तो सभी साथियों में जोश था अपने संस्थान को नंबर वन बनाने की ललक थी। काफी हद तक उत्तराखंड में लोगों के दिलों में जगह बनाने में हम सफल भी हो गए। उत्तराखंड का 24 घंटे का एकमात्र समाचार चैनल होने के कारण भी हमको लोगों के बीच अपनी पहचान बनाने में ज्यादा वक्त नहीं लगा और कम समय में हमने एक मुकाम को हासिल किया। दर्शकों का हमें बेपनाह प्यार और साथ भी मिला जिसकी गवाह क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे विशेष कार्यक्रम में दर्शकों के कभी न बंद होने वाली फोन कॉल्स थी। बस जरूरत थी तो दर्शकों के इस प्यार और विश्वास को बरकरार रखने की जो किसी भी संस्थान के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होता। हम हर तरह की चुनौती का सामना की पूरी कोशिश कर रहे थे लेकिन संस्थान में इस दौरान कई बार हुई प्रबंधकीय उठापठक इस कोशिश को कमजोर कर देती थी। लेकिन हल्के से ठहराव के आगे भविष्य में बेहतरी की उम्मीद लिए सभी कर्मचारी एक बार फिर से अपनी कोशिश को साकार रूप देने में जी जान से जुट जाते थे। इस बीच संस्थान को कई बार खराब आर्थिक हालात का भी सामना करना पड़ा जिसका खामियाजा कर्मचारियों को भी कई बार भुगतना पड़ा लेकिन पहले दिन से संस्थान के साथ जुड़े सभी कर्मचारियों का संस्थान से भावनात्मक लगाव ही था कि इस सब के बाद भी कर्मचारियों का जोश ठंडा नहीं हुआ। स्थितियों में सुधार की उम्मीद के साथ कई लोग संस्थान के साथ जुड़े रहे तो कई लोगों ने इस बीच संस्थान को बॉय बॉय भी कर दिया। 2012 गुजर गया और 2013 का आगमन हो गया लेकिन बीते एक साल में संस्थान ने अपने बहुत ही कम समय में न सिर्फ अपने सर्वोच्च शिखर को छुआ बल्कि कई बार ऐसी स्थितियां आई की लगने लगा कि इसका जीवन सिर्फ 365 दिनों का ही है। बहरहाल 2013 के रूप में नया साल सामने है और नए साल में नई सोच, नई आशा, नई उम्मीद, नए सपने, नए जज्बे के साथ एक नई ऊर्जावान शुरूआत करने के लिए एक बार फिर से कमर कस ली है। इसी उम्मीद के साथ कि बीते साल की तरह मुश्किल दौर भी बीते दिनों की बात हो जाएगी और नया साल 2013 सफलता के नए आयाम गढ़ेगा आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

deepaktiwari555@gmail.com

राम सिंह राम नहीं रावण है-ब्रज की दुनिया

मित्रों,जबसे मैंने पढ़ा है कि 16 दिसंबर की जघन्य घटना के मुख्य आरोपी का नाम राम सिंह है तबसे मेरी रातों की नींद गायब हो गई है। कोई कैसे मेरे राम का नाम बदनाम कर सकता है? इस कलयुगी राम ने जिस तरह से सामूहिक बलात्कार किया वैसा तो पशु भी नहीं करते हैं। इस कलयुगी राम ने जिस तरह डीएनए संबंधी सबूत मिटाने के लिए दामिनी की अस्मत को लूटने के बाद जिस तरह से उसकी अंतड़ियों को पेट फाड़कर अपने हाथों से बाहर निकाल दिया वैसे तो कदाचित् कसाई भी बकरों की नहीं निकालता। फिर किसने रख दिया इस पापी का नाम मेरे राम के नाम पर? इतनी क्रूरता तो त्रेता के राक्षसराज रावण ने भी सीता के साथ नहीं की थी फिर कोई रामनामधारी मानव ऐसा कैसे कर सकता है? अभी कुछ साल पहले नोएडा के निठारी में एक कोली रहता था जो छोटे-छोटे बच्चों को मारकर उनको पकाकर खा जाता था। क्या उसे हमें मानव कहकर पुकारना चाहिए? क्यों मरती जा रही हैं हमारी संवेदनाएँ? और अब मुझे इस राम का दर्शन/श्रवण करना पड़ रहा है! क्यों हमारे भारत के औसत मानव में मानवता नहीं रह गई है और मौका मिलते ही वो हैवान बन जा रहा है? अब इस राम सिंह को ही लें जो आर्थिक रूप से नितांत गरीब की श्रेणी में आता है। क्या यह राम सिंह इन्सान कहलाने के लायक है,क्या प्राचीन काल में राक्षस अन्य इन्सानों से अलग होते थे? या फिर वे भी शक्लोसूरत से मानव ही थे लेकिन वह उनके बुरे कर्म थे जो उनको राक्षस बनाते थे।
             मित्रों,कहाँ मेरे राम मर्यादापुरूषोत्तम और कहाँ यह राम सिंह? यह मेरे राम का अपमान है,घोर अपमान और मैं इसे कदापि सहन नहीं कर सकता। इस नीच का जिसने भी नामकरण किया था उसने मेरे राम को अपमानित करने की धृष्टता का अक्ष्म्य अपराध किया है। क्या मेरे राम ने कभी किसी पर-स्त्री की तरफ बुरी नजरों से निमिष मात्र के लिए देखा था? बल्कि मेरे राम ने तो बलात्कार-पीड़िता अहिल्या को जो लोक-लाज के मारे पत्थर सी,निर्जीव-सी हो गई थी समाज में पुनर्प्रवेश दिलाया था और ऐसा करके भारतीय समाज को संदेश दिया था कि नफरत बलात्कारी से करो न कि उससे जिसने इस अमानुषिक अत्याचार को भोगा है। मेरे राम ने तो अपनी पत्नी को वापस पाने के लिए जान की बाजी लगा दी थी और सीता-मुक्ति के माध्यम से समाज में फिर से स्थापित किया था स्त्रियों की गरिमा और अस्मिता को। उन्होंने तो कभी दूसरा विवाह नहीं करने की भीष्म-प्रतिज्ञा की थी और फिर उसे मन,वचन और कर्म से निभाया भी था। और आज उसी राम के नाम को धारण करने लगे हैं राम सिंह जैसे नरपिशाच ड्रैकुला! नाम से राम और काम से रावण! नहीं मैं नहीं होने दूंगा ऐसा। मेरे राम का नाम तो पवित्र है दुनिया के सारे नामों से भी ज्यादा फिर कैसे कोई इसको बदनाम करने की मूढ़ता कर सकता है? नहीं हरगिज नहीं होने दूंगा मैं ऐसा! बेहतर हो कि आगे से कोई हिन्दू अपने बच्चे का नाम राम रखे ही नहीं और अगर रखे भी तो हर क्षण इस बात का खयाल रखे कहीं उसका रामनामधारी बच्चा कुमार्ग पर तो नहीं जा रहा है। अगर उसे कभी ऐसा खतरा महसूस हो तो उसको तत्क्षण उसका नाम बदल देना चाहिए। वह स्वतंत्र है इसके लिए कि अपने बच्चे का नाम कुछ भी रख ले बस सिर्फ राम या उनका पर्यायवाची न रखे क्योंकि इससे मेरे,आपके और सबके राम का नाम बदनाम होता है।

हम नहीं चाहते हैं कि बुराइयाँ रुके ........


हम नहीं चाहते हैं कि बुराइयाँ रुके ........

अँधेरे का विकराल अस्तित्व तब तक कायम है जब तक कोई लौ जलती नहीं है।हम कब तक
अँधेरा -अँधेरा पुकारते रहेंगे और एक दुसरे से कहते रहेंगे कि देखो,अँधेरा कितना भयावह हो
गया है।हमारे चीखने और चिल्लाने भर से अँधेरा खत्म हो जाता तो अब तक हुआ क्यों नहीं ?
हम गला फाड़ -फाड़ कर सालों से चिल्ला रहे हैं।हम दोष दर्शन कर रुक जाते हैं,हम दुसरे पर
दोष डालने के आदी हो गए हैं।हम चाहते हैं कि मैं कुछ भी कर सकता हूँ मगर दुनिया सदैव
मेरे साथ अच्छा सलूक करे।

        समस्या मूल रूप से यह है कि हम खुद को नैतिक,ईमानदार,सदाचारी और निर्भीक नहीं
बनाना चाहते हैं मगर हम चाहते हैं कि मुझ को छोड़कर सब नैतिक बन जाये!!

    भ्रष्टाचार की लड़ाई में लाखों लोग झुड़े मगर किसे ने भी सामूहिक रूप से सच्ची निष्ठा के
साथ यह कसम नहीं खायी कि मैं और मेरे बच्चे अब से भ्रष्ट आचरण नहीं करेंगे।नतीजा
ढाक के तीन पात .......

  बलात्कार जैसे जघन्य अपराध पर हमने खूब प्रदर्शन किया मगर किसी ने भी सामूहिक
रूप से सच्ची निष्ठां के साथ यह कसम नहीं खायी कि अब से हम या हमारे परिवार से किसी
को बलात्कारी नहीं बनने देंगे .....

  हमने सामजिक बुराइयों को हटाने के लिए कभी ठोस संकल्प नहीं लिया।हम चाहते हैं की
सामाजिक बुराई से कोई और व्यक्ति लड़े और मैं दूर से देखता रहूँ ,यह स्वप्न कैसे सच हो
सकता है ?

   हम या हमारा पुत्र जब रिश्वत का पैसा घर लाता है तो हम खुद को बुरा या पुत्र को बुरा नहीं
कहते हैं हम उसे समझदारी मान लेते हैं और दूसरा वैसा ही काम करता है तो हमारा नजरिया
बदल जाता है और वह भ्रष्ट आचरण लगने लगता है ,यह दोहरा नजरिया ही समस्या का मूल
है।

   जब हम गलत काम करते हैं और पकड़े जाते हैं तो खुद को निर्दोष साबित करने की पुरजोर
कोशिश करते हैं और दूसरा वैसा ही कर्म करता है तो उसे अपराधी मान लेते हैं।यह दोगलापन
कभी सभ्य और सुंदर समाज का निर्माण नहीं कर पायेगा।

 हम चाहते हैं कि पहले मैं या मेरा परिवार अकेला ही क्यों सुधरे,पहले वो सुधरे जिन्होंने बड़ा
अपराध किया है।हम खुद के अपराध को छोटा मानते हैं और दूसरों के अपराध को बड़ा।हम
इन्तजार करते हैं कि पहले जग सुधर जाए, खुद को बाद में सुधार ही लेंगे।

   यदि हम देश को सुधारने के फेर में पड़ेंगे तो बहुत समय गँवा देंगे मगर उससे ज्यादा नहीं
उपजा पायेंगे।यदि हम खुद को सुधार ले तो देश सुधरने में वक्त नहीं लगेगा।

  हम अनैतिकता का डटकर विरोध करे यह कदम अति आवश्यक है लेकिन साथ ही साथ
हम सामुहिक रूप से दृढ संकल्प करे कि हम खुद नैतिक और सदाचारी बनेगें।क्या हम
ऐसा करेंगे .... ? या यह प्रतीक्षा करेंगे कि पहले दुसरे लोग ऐसी प्रतिज्ञा करे और उसका पालन
करे ,यदि दुसरे लोग सुधर जायेंगे तो हम भी सुधर जायेंगे। 

  देश के निर्माण के लिए हम ना तो अपराध करे और ना ही अपराध सहें।अच्छे परिणाम के
लिए हमे अपने कर्म अच्छे बनाने पड़ेंगे,यही एक रास्ता है जिस पर देर सवेर चलना पड़ेगा।
                     

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hum mein gam hai

कुछ झूठी कसमें खायेंगे , चीखेंगे , चिल्लायेंगे ;
फिर धीरे -से भेड़ -भेडिये  आपस में मिल जायेंगे।

किन्तु अभी हालात अलग हैं, हम में गम है , गुस्सा है ,
जैसी है आलाप हवा में , वैसा गीत सुनायेंगे।

कोहरे में मिल गया धुंआ , आँखों में शबनम उतर गयी ,
मानवता के महामूल्य  कब तक आलाव जलाएंगे ?

चीरहरण पर कुरुक्षेत्र जिसके भू पर हो आया था ,
भारत का दिल है दिल्ली , अब कहने में शर्मायेंगे।

आनेवाले आ स्वागत है , किन्तु नहीं हम कह सकते ,
जानेवाले के जख्मों को कबतक हम सहलायेंगे।




माफ करना दामिनी! हम भी गुनाहगार हैं!


रूह कंपा देने वाली दरिंदगी का शिकार हुई दामिनी आखिर इस दुनिया से रूखसत हो गई। वह भी तक जब वह जीना चाहती थी। उसने लिखकर कहा था-‘माँ मैं जीना चाहती हूं।’ दुःख व गुस्से का गुबार हर भारतीय के दिल में है। पूरी घटना कोढ़ग्रस्त इंसानियत की ऐसी नंगी हकीकत है, जो हमेशा शर्मसार करती रहेगी। कड़वी हकीकत है कि लड़कियां महफूज नहीं हैं और लोग बेटियां पैदा करने से भी डरते हैं। आबादी के लिहाज से दुनिया में दूसरे नंबर वाले भारत में हालात ज्यादा शर्मनाक हैं। ऐसी घटनाओं पर अरब के सख्त कानून की जरूरत याद आती है। दुनिया में सबसे कम अपराध वहीं होते हैं। इस हकीकत का स्वीकार कर लेना चाहिए कि ऐसे लोगों को कानून का खौफ नहीं है?  कोई दोराय नहीं कि घटना ने युवा क्रांति की एक बड़ी अलख जगायी। पुलिस की दमनकारी प्रवृत्ति और सरकार की लीपापोती को सभी ने बहुत नजदीक से देखा। सवाल खड़े हैं क्या कानून बदलेगा? फिर किसी के साथ दरिंदगी नहीं होगी? लड़कियां सुरक्षित हो गईं? देखिए वक्त क्या जवाब देता है। दामिनी हमें माफ करना! बेहद दुःख के साथ सभी की तरफ से भावपूर्ण श्रृंद्वाजली!

29.12.12


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कहाँ आकर खड़े हो गये हम ?


कहाँ आकर खड़े हो गये हम  ?

पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करते-करते हम कहाँ आ गये ? हमने अपनी संस्कृति छोड़ी
अपनी सभ्यता छोड़ी अपने सदग्रंथ छोड़े अपना परिवेश छोड़ा।हम बिना विचार किये छोड़ते
गये अपने आचार-विचार को अपनी वेशभूषा और संस्कृति को और अंधे होकर खोटे - खरे,बुरे-
भले का विचार किये बिना ही नए विचारों के नाम पर पाश्चात्य सभ्यता को अपनाते गये ,
नतीजा हम दिशा विहीन हो गये हैं और आज राष्ट्र अनेक समस्याओं से ग्रसित हो गया है।

              हमने अपनी आश्रम जीवन प्रणाली को छोड़ा अपनी गुरुकुल प्रणाली को छोड़ा ,
उसकी जगह सह -शिक्षा को अपनाया ,मूल्यांकन कीजिये कि हमने क्या अर्जित किया।
हमारे युवा जो पहले वीर्यवान, उर्जावान, नैतिक, सुसंस्कृत, विद्वान,सदाचारी और सद्
व्यवहारी थे अब उनमे सभी सदगुणों की कमी झलकती है ,क्यों तथा इसके लिए
जिम्मेदार कौन ?

          ब्रह्मचर्य  आश्रम में 25 वर्ष की आयु तक रह कर विद्या अर्जन करना तथा सुयोग्य
नागरिक बनना होता था।इस काल में गुरु अपने शिष्यों को सुयोग्य नागरिक बनाता था,
विद्वान व्यक्ति बनाता था यानी गुरु अबोध बालक का सृजन करता था मगर वह व्यवस्था
लोप होने के बाद स्कुली शिक्षा पद्धति आई और उसके साथ ही सह शिक्षा।क्या यह शिक्षा
पद्धति हमारी संस्कृति का गौरव बढ़ा पायी है ?

            हम कहते हैं कि ये तो आदम के जमाने की सोच है?इस युग में यह संभव नहीं।आज
 विश्व कहाँ पहुँच गया है!विज्ञान कितना आगे निकल गया है!! ये सब तर्क हम दे सकते हैं
मगर मुद्दा यह है कि फिर सामाजिक समस्याएँ बढ़ी क्यों ? यदि हम आधुनिक हो गए हैं
तो हमारे समक्ष समस्यायें नहीं होनी चाहिए थी ?

            सह शिक्षा ने नारी का क्या भला किया ? सह शिक्षा ने इस देश की संस्कृति का क्या
भला किया ?हमे तुलनात्मक विचार करना ही पड़ेगा।

          हमने अपना परिवेश छोड़ा,क्या हमारे पूर्वज अपने परिवेश से असभ्य लगते थे ?
विवेकानंद और गांधी के चरित्र को जानने वाले,तिलक और पटेल को समझने वाले  इस पर
क्या तर्क देंगे ? जिस देश में युवा नारी शक्ति और लक्ष्मी के रूप में पूजीत है उस देश की नारी
पर आज जुल्म क्यों हो रहे हैं ? आज देश की नारी का स्वतंत्रता के नाम पर जितना शोषण
हो रहा है उतना इस देश की नारी का कभी नहीं हुआ था।वैदिक नारी का परिवेश और ज्ञान
आज से अच्छा था।वैदिक नारी की बोद्धिक योग्यता और व्यवहार ऊँचे दर्जे का था। भारतीय
परिवेश सोम्य था।पहनावा विकृतियों को कम कर देता है ,क्या यह सही नहीं है ?

        हर कोई कह रहा है कि समय बदल गया है,नैतिकता का ह्रास हो रहा है। बात सही है
परन्तु इसके लिए जबाबदार कौन ? इसके लिए हम सब कहीं ना कहीं जबाबदार हैं। विकृतियों
को रोकने के लिए कानून ही कठोर हो ,यह पूर्ण हल नहीं है।कानून कठोर हो और उसका पालन
भी पूर्ण रूप से शासन करवाए मगर हम भी नैतिक बने ,सद व्यवहारी बने,सौम्य परिधान
अपनाएँ, अपनी संस्कृति के अनुसार आचार विचार करे।सही और गलत परम्पराओं पर गहन
विचार करे आधुनिक बनने के लिये विचारों का स्तर ऊँचा होना चाहिए।

      हमारे चित्रपट,संचार साधन जो फूहड़ता दिखा रहे हैं उन्हें भी सोचना होगा क्योंकि वो जो
दिखाते हैं उसका असर अपरोक्ष रूप से करोड़ों लोगों पर पड़ता है।नारी देह को केन्द्रित कर
विज्ञापन दिखा कर व्यवसाय बढ़ाना या सिनेमा में फूहड़ दृश्य दिखाना क्या समस्याओं को
अनजाने में ही बढ़ावा देना नहीं है?

    सभ्य समाज के निर्माण के लिए कानून व्यवस्था, नागरिक,आध्यात्म,संस्कृति,विज्ञान
कला सभी क्षेत्र को एक मंच पर आकर सोचना होगा,तभी नए समाज का निर्माण होगा ।          

"अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ"


13 दिनों तक जीवन और मौत से संघर्ष करने के बाद आखिरकार वो चली गई...उसने तो अभी अपने जीवन की ठीक से शुरुआत भी नहीं की थी। उसके सपनों ने तो अभी ठीक तरह से आकार भी नहीं लिया था...लेकिन कुछ दरिंदों के नापाक ईरादों और शैतानी दिमाग ने उसकी जिंदगी को नर्क बना दिया। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी वो फिर भी जीना चाहती थी...उसके जज्बे और ईच्छाशक्ति को देखकर उसका ईलाज करने वाले डॉक्टर भी दंग थे। उसने जिंदगी की जंग जीतने कीमौत को मात देने की पुरजोर कोशिश भी की लेकिन दरिंदों के दिए जख्म आखिरकार जीत गए और वो हमेशा के लिए खामोश हो गई। एक बार फिर जिंदगी हार गई लेकिन जाते जाते कई ऐसे सवाल खड़े कर गई जिनका जवाब शायद भगवान के पास भी नहीं होगा।
कुछ लोगों के ईरादे नापाक थे लेकिन उसका क्या कसूर था ? क्या लड़की के रूप में जन्म लेना उसका कसूर था ? क्या अंधेरा घिरने से पहले घर न लौटना उसका कसूर था ? क्या उसकी ईज्जत को तार-तार करने वालों का विरोध करना उसका कसूर था ?
इस घटना के बाद राजपाथ पर लोगों का गुस्सा खूब उबाल खाया...एक पोस्टर पर लिखी पंक्तियां मुझे याद आता हैं...नजर तेरी बुरी और पर्दा मैं करूं। पहले सवाल का जवाब तो मुझे इन पंक्तियों में ही नजर आता है- वाकई में नजर कुछ दरिंदों की खराब है...नीयत कुछ लोगों की शैतानी है...इरादे कुछ लोगों के नापाक हैं...लेकिन पर्दा लड़कियां करें। क्यों न इन खराब नजर वालों को...शैतानी नीयत वालों को नापाक इरादों वालों को ही सजा मिले...लेकिन इसे देश का दुर्भाग्य कहें या ऐसे लोगों की अच्छी किस्मत...हमारे देश में कई बार हैवानियत का खेल खेलने वालों को सबूत होने के बाद भी कई बार सजा नहीं मिलती या मिलती भी है तो वो अपनी आधी जिंदगी खुली हवा में गुजार चुके होते हैं। कड़ी सजा मिलती भी है तो इससे बचने का ब्रह्मास्त्र(राष्ट्रपति के पास दया याचिका) उनके पास पहले से ही मौजूद है। हमारी पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में रेप के 4 आरोपियों की मौत की सजा माफ कर पहले ही उदाहरण पेश कर चुकी हैं कि ये ब्रह्मास्त्र खाली नहीं जाता।
जहां तक दूसरे सवाल की बात है कि क्या लड़की के रूप में जन्म लेना उसका कसूर था ?
इसका जवाब एक दूसरे पोस्टर में लिखी कुछ पंक्तियां में दिखाई देता है। पंक्तियां कुछ इस प्रकार है- अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ। ये पंक्तियां ऐसी लड़कियों का दर्द बयां करती हैं जो कहीं न कहीं...किसी न किसी रूप में ऐसी ही घटनाओं का शिकार हुई हैं या फिर उत्पीड़न का शिकार हैं। लड़की के रूप में पैदा होने के बाद ऐसी पंक्तियां लिखी तख्ती पकड़े कोई लड़की आवाज़ बुलंद करे तो उसका दर्द समझा जा सकता है।
अंधेरा घिरने से पहले लड़कियां घर नहीं पहुंचती तो परिजनों की बेचैनी बढ़ जाती है...मन में बुरे ख्याल आने लगते हैं...क्या ये बताने के लिए काफी नहीं कि लड़कियां हमारे देश में आज भी सुरक्षित नहीं हैं..?
कुछ दरिंदे किसी लड़की के साथ जबरदस्ती करते हैं और वो अपनी ईज्जत बचाने के लिए इसका विरोध करती है तो दरिंदे पूरी हैवानियत पर उतर आते हैं और न सिर्फ दिल्ली गैंगरेप केस की तरह उसकी बुरी तरह पिटाई कर उसे चलती बस से फेंक देते हैं बल्कि उसके साथ ऐसा कृत्य करते हैं कि सुनने वाले की तक रूह कांप उठे। क्या ये हैवानियत ये बताने के लिए काफी नहीं कि महिलाओं के प्रति उनके मन में क्या भाव हैं..? उनकी सोच कैसी है..? वो महिलाओं को सिर्फ मनोरंजन का साधन समझते हैं और विरोध करने पर हैवानियत पर उतर आते हैं। यानि कि गलत कार्य का विरोध करने पर भी इसे महिलाओं की जुर्रत समझा जाता है और उनकी पिटाई की जाती है। क्या ऐसे लोगों समाज में रहने के हकदार हैं..? क्या गारंटी है कि ऐसे लोग दोबारा किसी के घर की ईज्जत को तार-तार नहीं करेंगे..? क्या गारंटी है कि ऐसे लोग फिर दिल्ली गैंगरेप जैसे घटना तो नहीं दोहराएंगे..? जाहिर है जब तक हमारे समाज में ऐसे लोग जिंदा हैं...तब तक समाज में महिलाएं सुरक्षित कतई नहीं है। जब तक ऐसे लोगों को सरेआम फांसी देकर मौत की नींद नहीं सुलाया जाएगा तब तक ऐसी सोच के...ऐसी मानसिकता के इनके जैसे दूसरे लोग ऐसा अपराध करने से नहीं हिचकिचाएंगे। उम्मीद करते हैं हमारी सरकार ऐसे कड़े फैसले लेने के लिए दिल्ली गैंगरेप जैसे किसी दूसरी घटना का इंतजार नहीं करेगी।

deepaktiwari555@gmail.com

"अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ"


13 दिनों तक जीवन और मौत से संघर्ष करने के बाद आखिरकार वो चली गई...उसने तो अभी अपने जीवन की ठीक से शुरुआत भी नहीं की थी। उसके सपनों ने तो अभी ठीक तरह से आकार भी नहीं लिया था...लेकिन कुछ दरिंदों के नापाक ईरादों और शैतानी दिमाग ने उसकी जिंदगी को नर्क बना दिया। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी वो फिर भी जीना चाहती थी...उसके जज्बे और ईच्छाशक्ति को देखकर उसका ईलाज करने वाले डॉक्टर भी दंग थे। उसने जिंदगी की जंग जीतने कीमौत को मात देने की पुरजोर कोशिश भी की लेकिन दरिंदों के दिए जख्म आखिरकार जीत गए और वो हमेशा के लिए खामोश हो गई। एक बार फिर जिंदगी हार गई लेकिन जाते जाते कई ऐसे सवाल खड़े कर गई जिनका जवाब शायद भगवान के पास भी नहीं होगा।
कुछ लोगों के ईरादे नापाक थे लेकिन उसका क्या कसूर था ? क्या लड़की के रूप में जन्म लेना उसका कसूर था ? क्या अंधेरा घिरने से पहले घर न लौटना उसका कसूर था ? क्या उसकी ईज्जत को तार-तार करने वालों का विरोध करना उसका कसूर था ?
इस घटना के बाद राजपाथ पर लोगों का गुस्सा खूब उबाल खाया...एक पोस्टर पर लिखी पंक्तियां मुझे याद आता हैं...नजर तेरी बुरी और पर्दा मैं करूं। पहले सवाल का जवाब तो मुझे इन पंक्तियों में ही नजर आता है- वाकई में नजर कुछ दरिंदों की खराब है...नीयत कुछ लोगों की शैतानी है...इरादे कुछ लोगों के नापाक हैं...लेकिन पर्दा लड़कियां करें। क्यों न इन खराब नजर वालों को...शैतानी नीयत वालों को नापाक इरादों वालों को ही सजा मिले...लेकिन इसे देश का दुर्भाग्य कहें या ऐसे लोगों की अच्छी किस्मत...हमारे देश में कई बार हैवानियत का खेल खेलने वालों को सबूत होने के बाद भी कई बार सजा नहीं मिलती या मिलती भी है तो वो अपनी आधी जिंदगी खुली हवा में गुजार चुके होते हैं। कड़ी सजा मिलती भी है तो इससे बचने का ब्रह्मास्त्र(राष्ट्रपति के पास दया याचिका) उनके पास पहले से ही मौजूद है। हमारी पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में रेप के 4 आरोपियों की मौत की सजा माफ कर पहले ही उदाहरण पेश कर चुकी हैं कि ये ब्रह्मास्त्र खाली नहीं जाता।
जहां तक दूसरे सवाल की बात है कि क्या लड़की के रूप में जन्म लेना उसका कसूर था ?
इसका जवाब एक दूसरे पोस्टर में लिखी कुछ पंक्तियां में दिखाई देता है। पंक्तियां कुछ इस प्रकार है- अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ। ये पंक्तियां ऐसी लड़कियों का दर्द बयां करती हैं जो कहीं न कहीं...किसी न किसी रूप में ऐसी ही घटनाओं का शिकार हुई हैं या फिर उत्पीड़न का शिकार हैं। लड़की के रूप में पैदा होने के बाद ऐसी पंक्तियां लिखी तख्ती पकड़े कोई लड़की आवाज़ बुलंद करे तो उसका दर्द समझा जा सकता है।
अंधेरा घिरने से पहले लड़कियां घर नहीं पहुंचती तो परिजनों की बेचैनी बढ़ जाती है...मन में बुरे ख्याल आने लगते हैं...क्या ये बताने के लिए काफी नहीं कि लड़कियां हमारे देश में आज भी सुरक्षित नहीं हैं..?
कुछ दरिंदे किसी लड़की के साथ जबरदस्ती करते हैं और वो अपनी ईज्जत बचाने के लिए इसका विरोध करती है तो दरिंदे पूरी हैवानियत पर उतर आते हैं और न सिर्फ दिल्ली गैंगरेप केस की तरह उसकी बुरी तरह पिटाई कर उसे चलती बस से फेंक देते हैं बल्कि उसके साथ ऐसा कृत्य करते हैं कि सुनने वाले की तक रूह कांप उठे। क्या ये हैवानियत ये बताने के लिए काफी नहीं कि महिलाओं के प्रति उनके मन में क्या भाव हैं..? उनकी सोच कैसी है..? वो महिलाओं को सिर्फ मनोरंजन का साधन समझते हैं और विरोध करने पर हैवानियत पर उतर आते हैं। यानि कि गलत कार्य का विरोध करने पर भी इसे महिलाओं की जुर्रत समझा जाता है और उनकी पिटाई की जाती है। क्या ऐसे लोगों समाज में रहने के हकदार हैं..? क्या गारंटी है कि ऐसे लोग दोबारा किसी के घर की ईज्जत को तार-तार नहीं करेंगे..? क्या गारंटी है कि ऐसे लोग फिर दिल्ली गैंगरेप जैसे घटना तो नहीं दोहराएंगे..? जाहिर है जब तक हमारे समाज में ऐसे लोग जिंदा हैं...तब तक समाज में महिलाएं सुरक्षित कतई नहीं है। जब तक ऐसे लोगों को सरेआम फांसी देकर मौत की नींद नहीं सुलाया जाएगा तब तक ऐसी सोच के...ऐसी मानसिकता के इनके जैसे दूसरे लोग ऐसा अपराध करने से नहीं हिचकिचाएंगे। उम्मीद करते हैं हमारी सरकार ऐसे कड़े फैसले लेने के लिए दिल्ली गैंगरेप जैसे किसी दूसरी घटना का इंतजार नहीं करेगी।

deepaktiwari555@gmail.com

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28.12.12

गांधीजी की लाठी और दिल्ली पुलिस-ब्रज की दुनिया

मित्रों,कहते हैं कि जब हमारे कथित राष्ट्रपिता महात्मा गांधी मरे तो उनके पास से सिर्फ तीन चीजें बरामद हुईं-सत्य,अहिंसा और लाठी। सत्य जो दुनिया के सत्यानुरागियों को दिलासा देता था कि अंत में जीत तुम्हारी ही होगी भले ही तुझे रोज मर-मर कर जीना पड़े। अहिंसा दूसरों पर अत्याचार न करने की शिक्षा देती थी और लाठी इन दोनों के लड़खड़ाते हुए पावों को सहारा देती थी। सत्य और अहिंसा चूँकि उनके राजनैतिक उत्तराधिकारियों के किसी काम के नहीं थे इसलिए उन्हें उन्होंने तत्काल कूड़ा समझकर दूसरे देशों के आंगन में फेंक दिया जिसे उनमें से कई देशों के कई लोगों ने गले से लगा लिया और इस तरह दुनिया में कई मार्टिन लूथर किंग,नेल्सन मंडेला और सू की का जन्म हुआ। बच गई लाठी सो उसके तीन टुकड़े किए गए। पहले टुकड़े को लूट लिया नेताओं ने,दूसरे टुकड़े पर कब्जा जमाया प्रशासन ने और तीसरा टुकड़ा हाथ आया आम जनता के।
           मित्रों,तभी से महान भारतवर्ष की महान जनता ने धर्म-अधर्म संबंधी पूर्वजों के विचारों पर विचार करना छोड़ दिया और देश में जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत ने व्यावहारिक रूप से जन्म लिया। इसी लाठी की सहायता से हमारे नेता पिछले 65 सालों से जनता को भड़का और हड़का रहे हैं कुल मिलाकर हाँक रहे हैं और जनता भी आज्ञाकारी भेंड़ की तरह उनकी बातों में आती रही है। इस लाठी के गुणों से हमारे मध्यकालीन पूर्वज भी भलीभाँति परिचित थे तभी तो गिरिधर कवि ने इस महान अस्त्र-शस्त्र के सम्मान में कुछ यूँ कसीदे गढ़े थे-
लाठी में बहुत गुण है सदा राखिये संग,
सदा राखिये संग झपटी कुत्ते को मारे;
दुश्मन दावागीर मिले तिनहुँ को झारे,
कहे गिरिधर कविराय सुनो हे धुर के बाटी,
सब हथियारन को छोड़ के हाथ में लीजै लाठी।
आजकल सोनपुर मेले में भी सबसे ज्यादा बिक रही है यही लाठी। इससे यही सत्य भलीभाँति स्थापित हो रहा है कि बिहार के लोग बातों के या पैसों के धनी भले ही नहीं हों लाठी के धनी जरूर हैं। यह हमारे लिए गौरव की बात है कि हमारे यहाँ लालूजी जैसे पूजनीय महापुरूष हुए हैं जिन्होंने लाठी को 15 सालों तक खूब तेल पिलाया है भले ही जनता को उनके शासन-काल में पेट की आग बुझाने के लिए दूसरे राज्यों का रूख करना पड़ा हो। जनता की कड़ाही और सिर में भले ही तेल की एक बूंद भी न हो लालूजी की टूट चुकी लाठी में आज भी खूब तेल मालिश हो रही है।
              मित्रों,परन्तु लाठी का सर्वाधिक मोहक स्वरूप तो तब उभरकर दुनिया के सामने आया जब वह भारतीय पुलिस के हाथों की शोभी बनी। आजकल लोग बेवजह दिल्ली पुलिस को भला-बुरा कह रहे हैं क्योंकि वे यह भूल गए हें कि इस पूरे घटनाक्रम में पुलिस पूरी तरह से निर्दोष है दोषी है तो गांधीजी की प्यारी लाठी। अन्य राज्यों की पुलिस की तरह दिल्ली पुलिस भी पूरी तरह से निरपेक्ष भाव से काम करती है। उसको क्या पता कौन पीड़क है और कौन पीड़ित। वह बेचारी तो निष्काम भाव से बल-प्रयोग करती है यह देखना तो इस निगोड़ी लाठी का काम है न कि वह सिर्फ दोषियों पर ही प्रहार करे। यह लाठी ही है जिसने पोस्टमार्टम करनेवाले डॉक्टर से विवादास्पद रिपोर्ट तैयार करवाया। वो कहते हैं न कि लाठी के डर से तो भूत भी काँपता है फिर डॉक्टर तो बहुत मामूली शह है। उसको अपने ऊपर आईपीसी की सारी धाराएँ एकसाथ थोड़े ही ठोकवानी थी सो बेचारे ने जैसा भी पुलिसिया लाठी ने कहा लिख दिया। न तो एक हर्फ कम और न तो एक हर्फ ज्यादा। बुरा किया या भला किया जिन्दा और सही-सलामत रहेंगे तभी न कभी फुरसत में सोंच सकेंगे। हमारी पुलिस अगर सलीम अल्वी जैसे पूर्वप्रमाणित विवादास्पद झूठे गवाहों को पालती है तो इसमें भी उसका क्या दोष? गांधी के सत्य को क्या पुलिस ने दूसरे के आंगन में इस तरह से भँजाकर फेंका था कि वह फिर से वापस भारत में आ ही न सके? अब तो उसने सुभाषचंद्र तोमर को अस्पताल पहुँचानेवाले योगेन्द्र तथा पाउलिन की राजनैतिक पृष्टभूमि की झूठी जाँच भी शुरू कर दी है। हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर दोनों का संबंध बहुत जल्दी माननीय शिंदे साहब के संदेहानुसार नक्सलियों से स्थापित कर दिया जाए और वे दोनों कैमरे के सामने खुद ही अपने टूटे-फूटे मुँह से इसे कबूल भी कर लें। यहीं पर तो लाठी की नंगई वाला असली गुण आप अपनी नंगी आँखों से देख सकते हैं। यह लाठी ही तो है जो सच को सफेद झूठ और झूठ को सफेद सच में बदल देती है। निर्दोषों को सजा दिलवा देती है और दोषियों को लाल बत्ती।
             मित्रों,मेरे पास इस समय आपके लिए भी मुफ्त की एक नायाब सलाह उपलब्ध है-हो सके तो आपलोग कुछ महीनों के लिए दिल्ली की यात्रा न करें। अगर आप दिल्ली में ही रहते हैं तो नए साल का स्वागत घर में ही कर लें हरगिज इंडिया गेट की ओर न जाएँ क्योंकि ऐसा करने पर संभव है कि आपको सरे राह चलते दिल्ली पुलिस मिल जाए और आपपर सीधे देशद्रोह का मुकदमा चला दिया जाए। हो सकता है आपको इस दुस्साहस के लिए बालपन के बाद पहली बार ब्रह्मसोंटा उर्फ दुःखहरण बाबू का अलौकिक स्वाद भी चखना पड़े। दोस्त जब एक जिंदा लाश प्रधानमंत्री,एक पागल गृहमंत्री और एक महामूर्ख पुलिस चीफ हो तो आपके साथ कभी भी,दिल्ली में कहीं भी,कुछ भी हो सकता है। एक बार दिल्ली पुलिस के चंगुल में फँसे तो मानवाधिकार तो क्या आप शर्तिया यह भी भूल जाएंगे कि आपका नाम क्या है और आपको सिर्फ वही याद रह जाएगा जो आपको लाठी याद करवाएगी,गांधीजी की अहिंसक लाठी।

अलसी - डायबिटीज टर्मीनेटर



Flaxseed - Diabetes Terminator

मधुमेही मित्रों, 
आपके लिए आज यूट्यूब पर हिन्दी में अलसी और मधुमेह पर एक शानदार दमदार  और मजेदार वीडियो डाला है, जरूर देखिये। इसमें गीत है, बल्ले बल्ले डांस है, शूटिंग है, फाइटिंग है, मेकडॉनल्ड सौंग भी है।  

युवा नेताओं की क्या बिसात..!


दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ बीते दिनों राजपथ पर देश का आक्रोश आजादी के बाद का शायद अपने आप में सबसे बड़ा उग्र प्रदर्शन था...लेकिन सही नेतृत्व न होने के चलते ये आंदोलन कहीं न कहीं दिशाहीन होता दिखाई दिया और एक बड़े आंदलन की गर्भावस्था में ही हत्या हो गई। असल मुद्दा कहीं खो गया और इसकी जगह बरसाती मेंढ़कों की तरह उपजे ऐसे मुद्दों ने ले ली जिन पर बहस से कोई सार्थक हल निकलने की कोई उम्मीद नहीं है। जिस वक्त रायसीना को घेरे हजारों युवाओं की टोली पीड़ित के लिए इंसाफ और महिलाओं की सुरक्ष के लिए आवाज बुलंद कर रही थी उस वक्त खुद को युवाओं की पार्टी कहने वाली...युवाओं को नेतृत्व देने की बातें करने वाली कांग्रेस के युवा नेताओं को राजधानी के दिल राजपथ में युवाओं का ये आक्रोश नजर नहीं आया। ऐसे वक्त में देश के राष्ट्रपति ने तक रायसीना हिल्स से बाहर निकलने का साहस नहीं दिखाया तो कांग्रेस के युवा नेताओं की क्या बिसात..! देश के गृहमंत्री को जब ये युवाओं की टोली माओवादी नजर आने लगे तो फिर कांग्रेस के युवा नेताओं की क्या बिसात..! देश के प्रधानमंत्री जब ठीक है बोलने लगे तो फिर कांग्रेस के युवा नेताओं की क्या बिसात..! इन युवा नेताओं के नेता कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब राजपथ पहुंचने का साहस नहीं जुटा सके तो कांग्रेस के इन युवा नेताओं की क्या बिसात..! राजपथ देश की युवा शक्ति के गुस्से से दमक रहा था लेकिन कांग्रेस के किसी युवा नेता को इसका सामना करने की शायद हिम्मत नहीं हुई। एक बेहद दुखद घटना से ही उपजा सही लेकिन ये एक मौका था राजपथ पर आक्रोश से भरी युवा शक्ति को एक मजबूत नेतृत्व प्रदान करने का...पार्टी लाइन से ऊपर उठकर इंसाफ की लड़ाई को उसके मुकाम तक ले जाने का लेकिन शायद कांग्रेस के युवा नेताओं में भी दूसरे कांग्रेसी नेताओं की तरह 10 जनपथ की अवमानना करने का साहस नहीं था। राजपथ पर उमड़ा युवाओं का जनसैलाब इनका इंतजार कर रहा था लेकिन ये शायद दिल्ली की सर्दी में गर्म कमरों का मोह नहीं छोड़ पाए या यूं कहें कि 10 जनपथ के खिलाफ आवाज उठाने की इनमें हिम्मत नहीं थी। लाल बत्ती और सरकारी बंगला पा चुके कुछ युवा नेताओं में शायद लाल बत्ती लगी सरकारी गाड़ी और सरकारी बंगला छोड़ने का साहस नहीं था तो भविष्य में लाल बत्ती की लालसा पाले बैठे कुछ युवा नेताओं की लालसा शायद कुछ ज्यादा ही जोर मार रही थी। ये खुद को युवाओं के नेता कहते हैं और युवा शक्ति के दम पर देश की सूरत बदलने की बात करते हैं लेकिन उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होने का साहस शायद इनमें नहीं हैं। ये सच्चाई है इन युवा नेताओं की जो राजनीति की सीढ़ी तो युवाओं के कंधे पर पैर रखकर चढ़ते हैं या फिर अधिकतर को ये विरासत में मिलती है लेकिन राजनीति के गलियारों में प्रवेश करने के बाद इनका खून भी शायद दूसरे नेताओं की तरह पानी हो जाता है। बात सिर्फ केन्द्र की सत्ता में बैठी कांग्रेस के युवा नेताओं की नहीं है बल्कि इस मुद्दे पर विपक्ष में बैठी देश की दूसरी बड़ी पार्टी भाजपा के युवा नेताओं की चुप्पी भी दोनों ही दलों को एक जमात में खड़ा करती है।  
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हाथों में बैनर, तख़्ती और चार्ट पेपर लिए आक्रोश के साथ बढ़ता जा रहा विकराल कारवाँ। सबके दिलों में धधकती ज्वाला और लबों पर तिलमिलाते अल्फ़ाज़ और इन अल्फ़ाज़ों में निहित प्रश्नों की एक लंबी श्रृंख्ला। आज़ाद भारत के बाद शायद यह दृश्य पहली बार देखने को मिला। मानो सम्पूर्ण देश फिर किसी जंग के लिए एकजुट हो उठ खड़ा हुआ हो। मानो किसी ने देश के ज़मीर पर चोट की हो। मानो निरंकुश सन्नाटे में किसी की चीख हृदय को चीर गई हो। यह एक ऐसा मंजर है जिसे न किसी नेतृत्व की आवश्यकता है और न किसी आह्नान की फिर भी इनके उद्देश्य निश्चित हैं और मंजिल स्पष्ट। यह जंग थी और है औरत के अधिकारों की, परन्तु इस बार इन अधिकारों की श्रेणी में आरक्षण अथवा संपत्ति का अधिकार सम्मिलित नहीं है वरन् यह माँग है सम्मान व सुरक्षा के अधिकार की। 16 दिसंबर को दिल्ली में घटित गैंगरेप की शर्मनाक घटना ने संपूर्ण देश की आत्मा को झकझोर दिया। दरिंदगी की समस्त सीमाओं के परे इस गैंगरेप ने महिलाओं की सुरक्षा एवं उनके सम्मान के प्रति सरकार, न्याय व्यवस्था एवं पुरूष समाज के विचारों पर कई प्रश्न चिह्न आरोपित कर दिये। राजधानी दिल्ली में अगर महिलाओं की सुरक्षा के दावे ठोकने वाली व्यवस्था पर अपराधी इस कदर तमाचा मार रहे तो अन्य राज्यों से क्या अपेक्षा की जाए! ए. सी. ऑफिस में विराजमान आलाकमान कितने गंभीर हैं सड़क की वास्तविकता के प्रति? क्या व्यवस्था परिवर्तन बलिदान के बिना अपेक्षित नहीं है? क्या इसके लिए किसी न किसी की बलि दी जानी इतनी आवश्यक है? और इस बलि के पश्चात् संवेदनशीलता के प्रमाण एवं न्याय प्राप्ति की क्या गारंटी है? शायद कुछ भी नहीं। निष्ठुर व्यवस्था से किसी भी संवेदना अथवा दया की आशा करना मूर्खता है। यह शिकायत मात्र व्यवस्था से ही नही है। हमारा समाज भी अभी तक इसी संकीर्ण मानसिकता के अधीन जीवन यापन कर रहा है। जहाँ एक ओर भ्रूण हत्या, दहेज-हत्या, ऑनर किलिंग जैसे अपराध मानव जाति को शर्मसार कर रहे है वहीं दूसरी ओर बलात्कार जैसे निर्मम कुकृत्य पशु जाति को गौरवान्वित कर रहे हैं कि वे मानव नहीं है। इस घटना के प्रति उद्वेलित जनाक्रोश प्रथम दृष्टया सिद्ध करता है कि इंसानियत जीवित है। समाज संवेदनहीनता का समर्थक नही है और हम एक जीवित समाज में विचरण कर रहे है। परन्तु यह भ्रम टूटते अधिक समय नहीं लगा। जब सारा देश इस द्रवित कर देने वाली घटना से उबल रहा है उस समय भी कुछ या कहे बहुत से ऐसे निर्लज उदाहरण समाज में व्याप्त हैं जो इस प्रकार की शर्मनाक घटनाओं के लिए महिलाओं को ही दोषी ठहरा स्वयं को दोषियों के पक्षधर सिद्ध कर रहे हैं। फेसबुक पर एक ऐसे ही प्रोफाइल की सोच ने यह विचारने पर बाधित कर दिया कि इस देशव्यापी प्रदर्शन के मूल मेें कितनी ईमानदारी, सच्चाई, मानवीय मूल्य या संवेदनशीलता निहित हैं? कहीं यह सब भेड चाल तो नहीं? या मात्र एक दिखावा? या कहे कि ऐसे प्रदर्शनों में टीवी चैनलों व समाचार-पत्रों में अपनी तस्वीर देखने का माध्यम? फेसबुक के उस प्रोफाइल ने एक बात तो पूर्णतः स्पष्ट कर दी कि घटना भले ही कितनी भी जघन्य हो जाए परन्तु वह राक्षस प्रवृत्ति को परिवर्तित या शर्मसार नहीं कर सकती। जहाँ बलात्कार पीड़िता की दर्दनाक सच्चाई आँसू लाने के लिए पर्याप्त हैं, वहीं कुछ लोगों की सोच यह भी है कि अगर शेर (पुरूष) की गुफा में बकरियाँ (महिलाएँ) जाकर नाचेंगी तो यही होगा। कितना घिनौना एवं घटिया वक्तव्य है यह! प्रश्न यह है कि ऐसे कृत्यों को अंजाम देने वालों को क्या कहा जाए- शेर या कुत्ता? और क्या महिलाएँ बकरियाँ अर्थात् जानवर हैं? क्या यह विचारधारा शिक्षित समाज के अशिक्षित मस्तिष्क की नहीं है? इस वक्तव्य से एक बात तो सिद्ध हो जाती है कि पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं से सम्मान की अपेक्षा तो दूर की बात है इंसानियत की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। जब उनके लिए महिला का वजूद जानवर तुल्य है तो भला एक जानवर सम्मान का हकदार कैसे हो सकता है? वह तो दुत्कार के भाग्य का स्वामी है। परन्तु दयनीय स्थिति यह है कि जानवर को भी दिन में एक बार प्रेमपूर्वक पुचकार दिया जाता है और बलात्कार जैसे जघन्य कृत्यों से भी वह सुरक्षित है परन्तु दुर्भाग्यशाली महिला जाति इस स्तर पर भी हार जाती है। यह किसी एक व्यक्ति के विचार नहीं है। इस प्रकार के न जाने कितने विचार हमारे आसपास हमें मानव होने पर शर्मसार कर रहे हैं। शर्मिंदा करने वाले शब्दों का अकाल सा पड़ जाता है जब दिल्ली में हुई इस दर्दनाक बलात्कार की घटना के दो दिन बाद के एक समाचार-पत्र के एक पृष्ठ पर एक राज्य के एक ही क्षेत्र में बलात्कार की नौ घटनाएँ पढ़ने के लिए मिलती हैं। राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि एक बेटी के लिए तो न्याय की गुहार अभी न्यायव्यवस्था को जगा भी न सकी थी कि कई और बेटियाँ अपनी सिसकियों में ही दम तोड़ गई। ज़रा सोचिए देशव्यापी आंदोलन की चीखें तो इस राक्षस प्रवृत्ति को व्यत्थित कर न सकी और जब देश शान्त भाव से अपने-अपने घरों में सपने बुन रहा होता है तब इन प्रवृत्ति की तिलमिलाहट किस सीमा तक क्रूर होती होगी? इसके प्रमाण दिल्ली की उस पीड़िता के देह पर प्रदर्शित हो रहे हैं? तो क्या यह आंदोलन क्षणभंगुर है या तत्कालिक परिस्थितियों का दिखावा? यह जनसैलाब शायद न्याय व्यवस्था के कुछ पृष्ठ तो परिवर्तित कर दे परन्तु समाज में व्याप्त उस सोच को कैसे परिवर्तित किया जाए जो इन अशोभनीय घटनाओं की जननी है? क्या कोई अंत है इन सबका? कैसे लगेगा अंकुश इन सब पर? कैसे सुरक्षित अनुभव करें माँ-बेटी-बहन स्वयं को? क्या कभी ऐसा देश भारत देश हो सकेगा जब महिलाएँ अपने श्वास की ध्वनि से इसलिए न घबराए कि अगर किसी पुरूष ने उस ध्वनि को स्पर्श किया तो वह अपना वजूद खो देंगी? क्या कभी माता-पिता बेटी के जन्म पर निर्भय हो खुशियाँ मना सकेंगे? क्या कभी इस देश के महिलाएँ गर्व से कह सकेंगी कि हम उस देश की बेटियाँ हैं जहाँ हमें न केवल देवी के रूप में पूजा जाता है वरन् वास्तव में उस पूजा की सार्थकता प्रासंगिक है? क्या यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि ऐसी घटनाओं से फिर कभी यह देश लज्जित नहीं होगा? ऐसी घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए किसी भी देश की कानून व्यवस्था का सख्त होना अति आवश्यक है। बलात्कार और ऐसी ही क्रूरता से लिप्त एसिड केस, ऐसी घटनाएँ हत्या से भी कहीं अधिक संगीन अपराध है। हत्या व्यक्ति को एक बार मारती है परन्तु ये घटनाएँ न केवल भुक्तभोगी को वरन् उससे सम्बन्धित प्रत्येक रिश्ते को हर पल मारती हैं और जीवन भर मारती हैं। प्रत्येक क्षण होती इस जीवित-मृत्यु की सजा मात्र सात वर्ष पर्याप्त नहीं है। देखा जाए तो मृत्युदंड भी इस अपराध के सम्मुख तुच्छ प्रतीत होता है। कई ऐसे देश हैं जहाँ इस प्रकार की घटनाओं की सजा स्वरूप अपराधी को नपुंसक बना दिया जाता है। शायद यह सजा उसे उसके अपराध का अहसास तो दिला सके परन्तु अगर भुक्तभोगी की सिसकियों से पूछा जाए तो वह कभी इस सजा को उस खौफ के लिए पर्याप्त नहीं मानेगी जो उसके मन में घर कर जाता है। उस अविश्वास को इस सजा से कभी नहीं पुनः प्राप्त कर सकेगी जो समाज के प्रति उसके मस्तिष्क में समा जाता है। उस दर्द की भरपाई यह सजा कभी नहीं कर पाएगी जो उसके कोमल अंगों को मिला है। और इस सजा की तसल्ली उसके आत्मविश्वास के लिए कभी पर्याप्त नहीं हो पाएगी। इस प्रकार के अपराध पर अंकुश लगाने के लिए सिर्फ तालिबानी तरीके ही कारगार साबित हो सकते हैं। ऐसे अपराधियों को ज़मीन में आधा दबाकर पत्थरों से मारा जाना चाहिए जिससे प्रत्येक पत्थर इस प्रकार की मंशा रखने वालों तक की रूह को कँपा सके। जिससे कोई भी दुष्ट विचार उत्पन्न होने से पहले ही अपने अंजाम को सोचने पर मजबूर हो सके। सच पूछिए तो महिलाओं को संविधान में लिखित अधिकारों में संपत्ति के अधिकार देने से पूर्व सम्मान का अधिकार दिया जाना चाहिए। उन्हें सुरक्षा के अधिकार की आवश्यकता है। खुली हवा में स्वतंत्रतापूर्वक निर्भिक हो मुस्कराने के अधिकार की आवश्यकता है। अगर ये अधिकार उन्हें प्राप्त हो जाए तो असमानता स्वतः समाप्त हो जाएगी। लैंगिक असमानता का प्रश्न अस्तित्वहीन हो जाएगा। इसके लिए आवश्यकता है मानसिक स्तर की परिधि को विस्तृत करने की। संकीर्णता को समाप्त कर स्वतंत्र सोच के विकास की। अकेली महिला को देखकर जो आकर्षण पुरूष महसूस करते हैं उसके पल्लवित होने से पूर्व उस महिला के स्थान पर अपने घर की महिला को रखकर विचार करें। क्या आप अपने परिजनों के साथ किसी प्रकार का अशुभ होने की कल्पना करना चाहेंगे? यदि नहीं, तो त्याग दीजिए प्रत्येक उस विचार को जो दूसरों के घर की बेटियों के प्रति उमड़ता है। वैचारिक शुद्धता एवं पवित्रता ही इस समस्या का समाधान हो सकती है। ऐसे में परिवार की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों में अच्छे संस्कार और अच्छी संस्कृति का विकास करे। उन्हें प्रत्येक जाति (स्त्री व पुरूष) का सम्मान करने की शिक्षा दें। नैतिक मूल्यों का हृास किसी भी समाज के अंत का संकेत है और वर्तमान परिस्थितियाँ भारत के संदर्भ में वास्तव में चिन्तनीय हैं।

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27.12.12

बेटा बोला लेकिन राष्ट्रपति “पिता” खामोश !

दिल्ली गैंगरेप मामले के खिलाफ देशभर में गुस्से की आग भड़की और ये गुस्सा रायसीना हिल्स तक भी पहुंचा। दो दिनों तक रायसीना हिल्स पर गैंगरेप के आरोपियों को फांसी की मांग को लेकर प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली सरकार के साथ ही पुलिस की नींद उड़ा दी लेकिन रायसीना हिल्स से राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी बाहर नहीं निकले और न ही उन्होंने इस घटना पर दुख जताना जरूरी समझा। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी न बोले न सही लेकिन पश्चिम बंगाल की जंगीपुर सीट से उनके सांसद बेटे अभिजीत मुखर्जी ने पिता की इस कमी को पूरी करने में देर नहीं की। कांग्रेस सांसद अभिजीत कहते हैं कि महिलाएं सज-धज कर प्रदर्शन करने आती हैं और कैंडिल मार्च निकालने के बाद डिस्को में जाती है। मुखर्जी साहब यहीं नहीं रूक वे कहते हैं कि कैंडिल मार्च निकालना फैशन हो गया है। बयान पर बवाल मचने के बाद भले ही मुखर्जी ने अपने शब्द वापस ले लिए हों लेकिन फिर भी वे ये कहने से नहीं चूके कि उन्होंने कुछ गलत कहा था। पिता की सीट पर बमुश्किल 2500 वोटों से उपचुनाव जीतकर संसद में पहुंचने वाले अभिजीत मुखर्जी को लगता है सुर्खियों में आने की कुछ ज्यादा ही जल्दी है। शायद यही वजह है कि एक ऐसे मुद्दे पर वे अपना मुंह खोलते हैं जिसको लेकर पहले ही जमकर बवाल मच चुका है। एक संवेदनशील मुद्दे पर राष्ट्रपति मुंह नहीं खोलते लेकिन राष्ट्रपति का सांसद बेटा अगर ऐसा बोलता है तो वाकई में इससे बड़ा दुर्भाग्य इस देश का और क्या हो सकता है। होना तो ये चाहिए था कि राष्ट्रपति को खुद रायसीना हिल्स में बाहर निकलकर लोगों से शांति की अपील करते हुए मामले में दखल देना चाहिए था और सरकार को इस संवेदनशील मुद्दे पर जल्द से जल्द आवश्यक कदम उठाने के निर्देश देने चाहिए थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ और रही सही कसर राष्ट्रपति के सांसद बेटे ने पूरी कर दी। आभिजीत मुखर्जी ने तो प्रदर्शनकारियों पर ही सवाल खड़ा कर दिया कि ये प्रदर्शन तो सिर्फ एक दिखावा था। मुखर्जी साहब कभी एसी कमरों से बाहर निकल कर दिल्ली की सर्दी में एक रात छोड़िए एक घंटा बिताकर दिखा दीजिए आंदोलन और फैशन का फर्क आपको शायद समझ में आ जाएगा..! मुखर्जी साहब जिसे आप फैशन बोल रहे हैं ये न सिर्फ एक पीड़ित को इंसाफ दिलाने की लड़ाई है बल्कि महिलाओं के लिए सुरक्षित वातावरण तैयार करने की ओर महिलाओं की तरफ से बढ़ाया हुआ कदम था लेकिन अफसोस है कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए शुरू हुई इस लड़ाई को न तो आपके पिताश्री समझ पाए जबकि वे तो इन प्रदर्शनकारियों से चंद कदम दूर थे और न ही आप। अरे साहब किसी पीड़ित का दर्द नहीं समझ सकते न सही कम से कम उनके जख्मों पर नमक तो मत छिड़किए। आप पीड़ित का दर्द कम नहीं कर सकते तो उसके जख्मों को कुरदने का भी आपको कोई अधिकार नहीं है। कटाक्ष करने के बाद आपने भले ही माफी मांग ली हो लेकिन जुबान से निकला हुई तीर वापस तो नहीं होता न...बोलने से पहले सोच तो लिया करो महाराज कि क्या बोलने जा रहे हैं...अपना न सही अपने पिताजी के पद और गरिमा का तो कम से कम ख्याल रखिए। आपके पिताजी ने तो चुप रहना ही बेहतर समझा लेकिन आपने तो पिताजी की सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।

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दिल्ली के बाद....महिलाओं के वस्त्रों पर चर्चा


दिल्ली में छात्रा से गेंग रेप की घटना के बाद दो स्तरों पर बहस चल रही है। पहला, बलात्कारियों को फांसी या और भी कोई कड़ी सजा दी जानी चाहिए और दूसरे महिलाओं के वस्त्रों को लेकर..., मेरा मानना है-'महिलायें क्या पहनें और क्या नहीं' की बहस में पड़ने से पहले जरा पीछे मुड़ें, सिर्फ लड़कियों को न समझाने लगें कि वह क्या पहनें और क्या नहीं.....।
हमारे यहाँ 'पहनने' को लेकर दो बातें कही गयी हैं, पहला 'जैसा देश-वैसा भेष', और दूसरा 'खाना अपनी और पहनना दूसरों की पसंद का होना चाहिए'। यानी हम चाहे महिला हों या पुरुष, उस क्षेत्र विशेष में प्रचलित पोशाक पहनें, और वह पहनें जो दूसरों को ठीक लगे...। 
यानी यदि हम गोवा या किसी पश्चिमी देश में, या बाथरूम में हों तो वहां 'नग्न' या केवल अंत वस्त्रों में रहेंगे तो भी कोई कुछ नहीं कहेगा, वैसे भी 'हमाम' में तो सभी नंगे होते ही हैं। लेकिन जब भारत में हों, या दुनियां में कहीं भी मंदिर-मस्जिद, गुरूद्वारे या चर्च जाएँ तो पूरे शरीर के साथ ही शिर भी ढक कर ही आने की इजाजत मिलती है...। हम मनुष्यों की दुनियां में खाने-पहनने के सामान्य नियम सभी देशों-धर्मों में कमोबेश एक जैसे होते हैं। हाँ, उस क्षेत्र के भूगोल के हिसाब से जरूर बदलाव आता है। गर्म देशों में कम और सर्द देशों में अधिक कपडे पहने जाते हैं। इसी तरह भोजन में भी फर्क आ जाता है।
और जहाँ तक महिलाओं के वस्त्रों की बात है, शालीनता उनका गहना कही जाती है। उन्हें किसी और से प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं कि वह किन वस्त्रों में शालीन लगती हैं, और किन में भड़काऊ। और उन्हें यह भी खूब पता होता है कि वह कोई वस्त्र स्वयं को क्या प्रदर्शित करने (शालीन या भड़काऊ) के लिए पहन रही हैं, और वह इतनी नादान भी नहीं होतीं और दूसरों, खासकर पुरुषों की अपनी ओर उठ रही नज़रों को पहली नजर में ही न भांप पायें, जिसकी वह ईश्वरीय शक्ति रखती हैं। बस शायद यह गड़बड़ हो जाती है कि जब वह 'किसी खास' को 'भड़काने' निकलती हैं तो उस ख़ास की जगह दूसरों के भड़कने का खतरा अधिक रहता है।
नैनीताल में घूमते सैलानी 
एक और तथा सबसे बड़ी गड़बड़ इस वैश्वीकरण (Globalization) और खास तौर पर पश्चिमीकरण ने कर डाली है, देश-दुनिया के खासकर शहरी लोगों में मन के रास्ते घुसकर वैश्वीकरण ने हमारे तन को भी गुलाम बना डाला है। इसकी पहली पहचान होती हैं-लोगों द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र। दुनिया भर के लोगों को एक जैसे वस्त्र पहनाकर आज निश्चित ही वैश्वीकरण इतर रहा होगा। और हम, खासकर लड़कियां इसका सर्वाधिक दंस झेल रही हैं. नैनीताल जैसे पर्वतीय नगर में कड़ाके की सर्दी में युवतियों को कम वस्त्रों में ठिठुरते और इस वैश्वीकरण का दंस झेलते हुए आराम से देखा जा सकता है। ऐसे कम वस्त्रों में वह कुछ 'मानसिक और आत्मिक तौर पर कमजोर पुरुषों' को भड़का ही दें तो इसमें उनका कितना दोष ?
नैनीताल में घूमते सैलानी 
इधर कुछ समय से कहा जा रहा है की महिलाओं पर बचपन से ही स्वयं को पुरुषों के समक्ष आकर्षक बनाये रखने का तनाव बढ़ रहा है। मैं इस बारे में पूरे विश्वास से कुछ नहीं कह सकता, अलबत्ता यह भी वैश्वीकरण का एक और दुष्परिणाम हो सकता है...।
लिहाजा मेरा मानना है कि किसी समस्या की एकतरफा समीक्षा करने की जगह तस्वीर के दूसरे (हो सके तो सभी) पहलुओं को देख लेना चाहिए। दिल्ली जैसी घटनाएं रोकनी हैं, तो बसों से काली फ़िल्में हटाकर, बलात्कारियों को फांसी या उन्हें नपुंसक बना देने, पुलिस को कितना भी चुस्त-दुरुस्त बना देने से कोई हल निकने वाला नहीं है.. यदि समस्या का उपचार करना है तो इलाज सड़ रहे पेड़ के तने या पत्तियों से नहीं जड़ से करना होगा..देश की भावी पीढ़ियों-लडके-लड़कियों दोनों को बचपन से, घर से, स्कूल से संस्कारों की घुट्टी पिलानी होगी, जरूरी मानी जाये तो एक उम्र में आकर यौन शिक्षा और अपना भला-बुरा समझने की शिक्षा भी देनी होगी..।

26.12.12


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हंगामा है क्यूँ बरपा ?

दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ पूरे देश में कैंडल मार्च और विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरे देश में न भी हो रहे हों पर दिल्ली में तो हो रहे हैं न ? अभी हाल ही में काला-धन और जन-लोकपाल के लिए भी हुआ था. केजरीवाल जी के खुलासे पर खुलासे आ रहे थे, इधर कुछ कम हुआ है. सोशल साईट्स पर तो चौबीस घंटे आन्दोलन जारी हैं, सब देशभक्त और आन्दोलन के सिपाही हैं. बेशक हैं. नहीं हैं क्या ? पर इस आन्दोलन का नेता कौन है ? इसके उद्देश्य क्या हैं ? इसका परिणाम क्या होगा ? सब कुछ हवा में है. कुछ भी तो तय नहीं. तो क्या जनता अराजक हो गई है ? वो सत्ता को खुलेआम चुनौती दे रही है. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के घरों को घेर ले रही है. सम्पूर्ण जन-जीवन ठप हो जा रहा है. मीडिया इसका भरपूर सपोर्ट कर रही है, व्यवस्था में उच्चासीन लोगों को छोड़ दें तो सम्पूर्ण जनमानस का प्रत्यक्ष नहीं तो कम से कम परोक्ष समर्थन इन आन्दोलनकारियों को मिल रहा है. ये आंदोलनकारी हैं कौन ? ये हैं पढ़े-लिखे और समझदार युवा, जिनके हाथ अब कलम से अधिक कंप्यूटर पर चलते हैं और जो देश के नामी-गिरामी संस्थानों में पढ़े हैं/पढ़ रहे हैं. ध्यातव्य है कि पहले इनकी सहभागिता बहुत कम होती थी और ये आन्दोलन में रूचि न लेकर अपने अध्ययन कक्ष में ही समय बिताना सहज महसूस करते थे. इस आन्दोलन का माध्यम बन रहा है फेसबुक, VOIP, SMS. सब कुछ हाईटेक है, फेसबुक पर इवेंट क्रिएट कर लाखों को आमंत्रण भेज रहे हैं और जंतर-मंतर पर लोगों का हुजूम इकट्ठा. क्या सब कुछ अनायास हो रहा है ? कुछ तो कारण होगा. कारण है. लोगों के मन में व्यवस्था के प्रति गुस्सा है. कहीं न कहीं हर आम आदमी व्यवस्था से पीड़ित/दुखी है. छोटे-छोटे गुस्सों का इजहार है यह. अब इसे रोकना या दबाना संभव नहीं. एकमात्र इलाज व्यवस्था को पारदर्शी, संवेदनशील और जिम्मेवार बनाना ही है. और यह अब केवल आम लोगों की समस्या नहीं, ख़ास किसी न किसी दिन भयंकर मुसीबत में फंसनेवाले हैं. बेहतर है, जल्द इलाज ढूंढ लें और अपने आप को भी समयानुसार ढाल लें. यह जनसैलाब अब रुकनेवाला नहीं. कोई नेता नहीं है ना, कि आप गुप्त समझौते कर लोगे और आन्दोलन की धार कुंद कर दोगे. फेसबुक का ज़माना है भाई, लाखों-करोड़ों देशभक्त लाइन में खड़े हैं. कितने से लड़ोगे ? अब लोग सरकार प्रायोजित अखबारों के समाचार पर आश्रित नहीं हैं, वे अब फेसबुक और गूगल सर्च खंगालते हैं जिसमें देश क्या गाँव-घर की स्थिति भी जानी जा सकती है. लोग अब अफवाहों और ख़बरों का विश्लेषण करना जान चुके हैं और सबसे खुशी की बात है कि युवा-पीढी निश्चित रूप से हमारे नेताओं की तुलना में अधिक ईमानदार, संवेदनशील और जवाबदेह है. व्यवस्था में बैठे महानुभाव, आप व्यवस्था का पूरा ऑपरेशन कर उसे दुरुस्त करें नहीं तो यह असंतोष की ज्वाला आपका ऑपरेशन कर आपको दुरुस्त कर देगी.