पिछले दो-तीन दिनों में जब देश में दो बडी खबरें थी-पहली पूर्व राष्ट्रपति भारतरत्न डा एपीजे अब्दुल कलाम के निधन और दूसरी मुम्बई सीरियल ब्लास्ट के अभियुक्त याकूब मैनन की फांसी। डा कलाम देश की शान और अपने विचारों से देश को रास्ता दिखाने वाले महापुरुष जो सदियों बाद आता है और जिसके लिए दुनिया जहान आंसू बहाता है। जिसका चला जाना अपूर्णनीय क्षति होती है। वे देश के एक वैज्ञानिक, राष्ट्रपति, शिक्षक और सबसे अधिक एक अच्छे इंसान थे जो खुली आंखों से सपना देखते थे और खुली आंखों से सपना देखने को प्रेरित करते रहे।
सीरियल ब्लास्ट का अभियुक्त याकूब जो 257 निरपराध-निरीह लोगों की मौत और 700 लोगों को घायल करने का जिम्मेदार था, लाख तिकडम के बावजूद फांसी की सजा से नही बच पाया यदि समसामयिक घटना नहीं होती तो साथ उल्लेख का कहीं से कहीं तक कोई मतलब भी नहीं था। चैनल हों, अखबार या सोशल मीडिया सब तरफ एक ही चर्चा और उनमें भी दूसरी को बढत। ये हमारा दुर्भाग्य है कि हम सकारात्मक खबरों के बजाय निरर्थक और विघ्वंश की खबरों में क्यों अधिक रुचि ले रहे हैं? यह भी सही है कि जो परोसा जा रहा है दर्शक-श्रोता उसे ही तो देखेगा-सुनेगा।
डा कलाम के निधन को दूसरी खबर बनाने वाला मीडिया उस आलोचना के योग्य भी नहीं रहा है जो उसके कृत्य पर की जानी चाहिए थी। क्योंकि टी आर पी- सर्कुलेशन के चक्कर में वह सारी नैतिकता को पहले ही दाव पर लगा चुका है। अपनी नाक चबा लेने के बाद उसके पास शर्म जैसी चीज तो होगी नहीं। देश में लम्बे समय से साम्प्रदायिक जुनून पैदा करने की कोशिश की जाती रही है और कई बार वह सफल या असफल होती रही है। याकूब की फांसी उसके अपराध के कारण थी और लोकतंत्र में अपना मत रखने की आजादी पहली शर्त है। निरपराध नागरिकों को बमब्लास्ट से उडा देना सोच-समझ कर किया गया अपराध होता है और देश के कानून के अनुसार उसकी सजा भी है। जो उन निरीहों के नागरिक अधिकारों की परवाह न करता हो उसके लिए कानून मृत्यु दण्ड देता है और बचाव का पूरा-पूरा अवसर भी। तब ऐसी हाय-तोबा की कोई आवश्यकता भी नही कि उसे फांसी क्यों हुई या ठीक हुई। कानून ने अपना काम किया है लेकिन देर से किया हैं यहीं सवाल न्याय और अन्याय का विभ्रम करा देता है। सन् 1993 का अभियुक्त 2015 में फांसी पर लटकाया जाय यह देर से मिले न्याय की इति है। मान लें वह या कोई दूसरा अभियुक्त दोष मुक्त हो जाता तो इतने सालों का क्या होता?
मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत लोग हमेशा ही सत्ता के आंख की किरकिरी रहे हैं। वे लोग एक बहस छेडने की प्रक्रिया में होते हैं और कई बार उनके प्रयासों से निरपराध छूटे भी हैं। जैसा एक घु्रवीकरण होने की संभावना थी हुई है। जिन 40 लोगों ने याकूब की फांसी माफ करने की गुहार राष्ट्रपति से की थी उनको खलनायक के रुप में पेश करना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। देश के किसी भी नागरिक की तरह देश, संविधान और कानून पर उनकी निष्ठा भी उतनी है जितनी किसी भी नागरिक की हो सकती है।
संसार के कई देशों की तरह भारत में मृत्यु दण्ड समाप्त करने की कई बार बहस हुई है लेकिन किसी आतंकी का संदर्भ बहस को भटकाता है उसे तार्किक परिणित तक ले जाने का तो सवाल ही नही। ऐसे अवसर में हमें दो-तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए था एक समसामयिक घटनाओं में हमारी प्राथमिकता क्या होनी चाहिए। टी आर पी -सर्कुलेशन या देश के हित, समाज की भावनाऐं और सर्दभित व्यक्ति का योगदान, जिसमें हम पिछड गये। दूसरा ऐसा जूनून पैदा करने से बचा जाय जो नफरत के बीज बोये और तार्किक शक्ति को कमजोर करे। और तीसरा जो सबसे महत्वपूर्ण है दूसरे से अपने को श्रेष्ठ समझने की फास्सिट सोच से बचें। यदि हम यह कर सकते हैं तो लोकतंत्र पर बडा उपकार होगा।
लेखक पुरुषोत्तम असनोड़ा उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
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