दूरदर्शी को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का पसंदीदा डायलाग याद है, ‘हारकर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं।’ सचमुच ‘टीपू’ दंगल जीत गए हैं। कल तक जो खुद को समाजवादी बताते थे, वे अब अखिलेशवादी हो गए हैं। दंगल में अखिलेश ने एक बात साबित कर दिया कि वे कमजोर नहीं हैं। ‘टीपू’ दबता नहीं। लड़ता भी है और लड़ाता भी है...। वह तलवार डराने के लिए नहीं, चलाने के लिए उठाता है। ‘दंगल’ का असर यह है कल तक यूपी में साढ़े चार मुख्यमंत्री थे और अब सिर्फ एक।
मुलायम पुराने अखाड़िया रहे हैं। पहलवानी करते थे और अब ‘दंगल’ कराते हैं। पहले जो उनके अखाड़े की शोभा बनाते थे, उन्हें भी अंटी मारकर चित कर देते थे। जगजाहिर है कि मुलायम सिंह जरुरत पड़ने पर किसी से भी समझौता करने के लिए मशहूर रहे और किसी को धोखा देने के लिए भी। चरण सिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, राजीव गांधी, नीतीश कुमार, लालू यादव, मायावती, ममता बनर्जी, कल्याण सिंह, अजीत सिंह और न जाने कितनों को राजनीतिक धोखा देने वाले मुलायम सिंह को अब समय धोखा दे रहा है। ‘टीपू’ भी वही कर रहे हैं जिसमें उनका राजनीतिक फायदा है।
मुलायम को उम्मीद थी कि उनका ‘टीपू’ कभी बागी नहीं बनेगा। मगर ‘टीपू’ ने ऐसा दांव खेला कि अपने पिता को... अपने चाचा को... और तमाम मुलायमवादियों को एक झटके में ही चित कर दिया। राजनीतिक अखाड़े में मुलायम सिंह को पहली बार तगड़ी शिकस्त मिली। हारे भी तो अपने सगे बेटे से। दीगर बात है कि दंगल अभी जारी है। बेटा अखाड़े से ठेलकर उन्हें किनारे लगा चुका है। फिर भी वह दांव पर दांव आजमाते जा रहे हैं। नेताजी भले हारते दिख रहे हों, लेकिन एक बाप तो जीत ही रहा है।
बनारस की आबोहवा में ‘दंगल’ की रंगत है। बनारसियों को ‘दंगल’ खूब भाता है। गाना और गाल-बजाना आता है। लड़ना और लड़ाना आता है। बहेलिया टोला में अब भी ललमुनिया की लड़ाई, कबूतर की लड़ाई, सुग्गा की लड़ाई और मुर्गे की लड़ाई होती है। नागपंचमी पर सांप और नेवले की लड़ाई तो सरोतर होती है। यहां पहले भेड़ और भैंसों की लड़ाई भी होती थी। गहरेबाजी और तलवारबाजी का दंगल होता था। बनारसी पहलवानों के बनारसी दंगल और बनारसी मुक्की का खेल तो बनारसियों के खून में है।
दूरदर्शी के पड़ोसी मंगरू चचा इस बात पर चहक रहे है कि इन दिनों बनारस के लोग दो-दो ‘दंगल’ देख रहे हैं। एक सत्ता के गलियारे में और दूसरा शहर के मल्टीप्लैक्स में। बनारस में समाजवादी ‘दंगल’ इसलिए पसंद किया जा रहा है कि ‘टीपू’ पहलवान नया है। आमिर खान की गीता-बबिता की तरह पहलवान पिता को धोबियापाट मारने का अंदाज नया है। अपना है-घर का है, पर समाजवादी ‘चरखा दांव’ नया है।
दूरदर्शी को लगता है कि बनारसियों की नजर में आमिर खान का नहीं, बाप-बेटे का ‘दंगल’ ज्यादा क्रेजी है। बनारस की महिलाएं तो तब से अखाड़े में उतर रही हैं, जब औरतें दुनिया में कहीं भी कुश्ती लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं। बनारस में गौनिहारिन महिलाएं धोती लपेटे, कच्छ बांधे और तंग चोली कसे अखाड़ों में दनादन दंड लगाती नजर आती थीं। सिर पर चारखाने का अंगोछा बांधकर दंगल लड़ती थीं। बड़े-बड़े पहलवानों के छक्के छुड़ाती थीं। दंगल जीतने पर गर्व से अपने भुजदंडों पर मुग्ध दृष्टि फिराती थीं। प्याज के टुकड़े और हरी मिर्च के साथ कटोरी में भिगोए चने खाती थीं। बनारसी महिलाओं की, उनके कुश्ती की, उनके दमखम की, उनके मुसुक और उनके मोढ़ा की आज भी चर्चा होती है। रही बात दंगल की तो लखनऊ में सन् 1937 में नामी अंग्रेज पहलवान बनारस के शकूर पहलवान की एक उंगली भी टेढ़ी नहीं कर पाया था।
समाजवादी ‘दंगल’ इसलिए दिलचस्प है कि इसमें मुलायमवादी निष्ठाएं बेचैन हैं। वे न दाएं हिल पा रही हैं, न बाएं। उन्हें यह नहीं सूझ रहा कि नाव में बैठें तो किस ओर। एक तरफ तूफानी हवाओं का जोर है तो दूसरी ओर बुजुर्ग लहरों की पलटवार। बाप-बेटा, चाचा-भतीजा, अंदरवाले-बाहरवाले सब दांव पर दांव आजमा रहे हैं। ‘दंगल’ सिर्फ चाचा-भतीजे में नहीं, बाप-बेटे में भी हो रहा है। नूराकुश्ती मुलायमवादियों और अखिलेशवादियों में हो रही है। अखिलेश के साथ जोशीले कार्यकर्ता हैं, तो मुलायम के साथ शिवपाल-अमर समर में हैं।
दूरदर्शी को मुलायमवादियों की हालत इन दिनों उस बूढ़े गरीब बाप की तरह लगती है जो किसी जमाने मे अमीर हुआ करता था। आज गरीबी आने पर अपने बच्चों द्वारा दुत्कारा और छोड़ा जा रहा है। राजनीतिक तौर पर मुलायम सम्मानजक ढंग से विदाई के हकदार थे, जो ‘दंगल’ के चलते संभव नहीं हो पाया। जनता की मुश्किल यह है कि घात-प्रतिघात और आघात के दांव-पेंच में वह किस ‘दंगल’ को हिट करे?
मंगरू चचा भी मान रहे हैं कि ‘टीपू’ अब टीपू नहीं। वाकई सुल्तान बन गए हैं। वह भी मान रहे हैं कि ‘दंगल’ वाले पात्र भले ही घर के हों, पर लड़ाने वाले बाहरी हैं। इसलिए रिश्ता खतरे में है। समाजवादी कुनबा खतरे में है। भरोसा खतरे में है। सारे वादे खतरे में हैं। सरकार खतरे में है। पार्टी खतरे में है। कुर्सी खतरे में है। राहत की बात यह है कि फिलहाल जनता खतरे में नहीं है। वह सिर्फ दंगल देख रही है...। वह भी टैक्स फ्री।
और अंत में....
वो भी क्या जिद थी, जो तेरे-मेरे बीच एक हद थी।
मुलाकात मुकम्मल ना सही, मुहब्बत तो बेहद थी।।
बनारस के अखबार जनसंदेश टाइम्स अखबार में पत्रकार विजय विनीत द्वारा 'दूरदर्शी' नाम से लिखे गए एक स्तंभ से साभार.
दंगल के बहाने बनारसी दंगलों की याद दिला गया दूरदर्शी -- बेहतरीन लेखन ।
ReplyDeleteदंगल के बहाने बनारसी दंगलों की याद दिला गया दूरदर्शी -- बेहतरीन लेखन ।
ReplyDelete