17.7.19

देश की आर्थिक समृद्धि के विजन का अभाव ही इस 'इकनॉमिक एंड फाइनेंशियल पैरालिसिस' का कारण है

Shyam Singh Rawat   
मुहम्मद-बिन-तुग़लक़ (1325-1351 ई.) को 'उलूग ख़ाँ' भी कहा जाता था। अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूर-कृत्यों तथा प्रजाजनों के सुख-दुख के प्रति उपेक्षा का भाव रखने के कारण उसे 'पागल' व 'रक्त-पिपासु' कहा गया है। देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कारनामों से साबित किया है कि वे उसी 'उलूग खाँ' के आधुनिक संस्करण हैं जिन्होंने विरासत में मिली देश की अच्छी-भली अर्थ-व्यवस्था को रसातल में पहुंचा कर इसे 'इकनॉमिक एंड फाइनेंशियल पैरालिसिस' का शिकार बना दिया है। मोदी के बारे में कहा जाता है कि वह निर्णय पहले लेते हैं और सोचते बाद में हैं।

उस 'उलूग खाँ' के सम्बंध में जो एक बात बार-बार कही-सुनी जाती है, वह है 'दिल्ली से दौलताबाद और फिर दौलताबाद से दिल्ली।' मोदी भी उसी की तरह अनेक मामलों में U-Turn लेते हुए दिखाई दिये। यदि जीएसटी सम्बंधी कानून को ही लें तो 3 अगस्त, 2016 को राज्यसभा और 8 अगस्त, 2016 को लोकसभा द्वारा 122वां संविधान संशोधन विधेयक पारित होने के बाद उसमें 1 फरवरी, 2019 तक की केवल ढाई साल की संक्षिप्त अवधि में ही 46 संशोधन किये गये। क्योंकि इस कानून को पूरा होमवर्क किये बिना ही लागू कर दिया गया। जबकि संसद का अर्द्धरात्रि में विशेष समारोह आयोजित कर पूरे जोरशोर से इसको देश की 'दूसरी आजादी' बताया गया था। रिजर्व बैंक तथा आर्थिक सलाहकार परिषद की राय के खिलाफ की गई नोटबंदी भी मोदी का ऐसा ही 'उलूगी फरमान' साबित हुआ। श्रम तथा कृषि भूमि हस्तांतरण कानूनों को पूंजीपतियों के अनुकूल बनाकर श्रमिकों व किसानों की कमर तोड़ दी गई, वह भी मोदी का देश के बहुसंख्यक लोगों के खिलाफ लिया गया निर्णय रहा। 

केवल इन तीन निर्णयों ने ही देश की आर्थिक तथा वित्तीय गतिविधियों पर ऐसा कुठाराघात किया कि आजादी के बाद से देश ने जितनी उन्नति की थी, वह एक ही झटके में रसातल में पहुंचा दी गई। उद्योग-धंधे, छोटे व्यवसाय, रोजगार, कृषि, निर्यात, विदेशी पूंजी निवेश आदि सब चौपट है। रिजर्व बैंक की 1934 में हुई स्थापना के बाद से पहली बार इसका कैश रिजर्व केंद्र सरकार ने जबरन हथिया लिया, जिसके खिलाफ रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराज रामन ने इस्तीफा दे दिया।

भारतीय जीवन बीमा निगम, भारतीय स्टेट बैंक, सेंट्रल बैंक और यूटीआइ की हिस्सेदारी वाली 91,000 करोड़ की सरकारी क्षेत्र की डिफॉल्टर कंपनी IL&FS डूब गई जिससे शेयर मार्केट में चौतरफा मार पड़ी। 'द वायर' को सूचना का अधिकार के तहत भारतीय रिजर्व बैंक ने बताया कि 31 दिसंबर, 2018 तक टॉप 100 एनपीए कर्जदारों का कुल एनपीए 4,46,158 करोड़ रुपये था। 5 फरवरी, 2019 को तत्कालीन वित्त मंत्री द्वारा राज्यसभा में दिए गए एक जवाब के मुताबिक, अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (शेड्यूल्ड कॉमर्शियल बैंक) का कुल एनपीए 31 दिसंबर, 2018 तक 10,09,286 करोड़ रुपये था। इसमें से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कुल एनपीए 8,64,433 करोड़ रुपये था।

अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस कम्युनिकेशंस (RCom) अनिल के बड़े भाई मुकेश अंबानी की ऐन मौके पर मिली मदद से दिवालिया होते-होते बच गई। हालांकि आरकॉम के खिलाफ नैशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) ने इसके बोर्ड को भंग करके उस पर अपना अधिकार कर लिया था। यही हाल देश की सबसे बड़ी हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों में से एक, दीवान हाउसिंग फाइनेंस कॉर्प लिमिटेड (DHFL) का हो चुका है। उसने चेतावनी दी है कि उसकी वित्तीय स्थिति इतनी खराब हो गई है कि अब कंपनी का बचना मुश्किल है। जेट एअरवेज का डिब्बा गोल हो ही चुका है और जी ग्रुप के सर्वेसर्वा सुभाष चंद्रा पहले ही अपने निवेशकों को कंपनी की डूबती हुई आर्थिक स्थिति बता चुके हैं।

ऑटोमोबाइल सैक्टर में बिक्री लगातार 10 महीनों से घट रही है। ऑटो की ही तरह एफएमसीजी कंपनियों पर भी आर्थिक गतिविधियों में सुस्ती का असर पड़ा है। साबुन, शैंपू, डिटर्जेंट, सिर पर लगाने के तेल, सौन्दर्य प्रसाधन आदि की खपत प्रभावित होने से कंपनियों के वॉल्यूम पर चोट पहुंची है। विनिर्माण क्षेत्र की तो ऐसी कमर टूटी कि वह संभल ही नहीं पा रहा है। घर बिक नहीं रहे हैं तो ईंट-बालू से लेकर स्टील, सीमेंट, बाथरूम फिटिंग्स आदि सभी धंधों का भट्टा बैठना स्वाभाविक है। आइटी और फॉर्मा सैक्टर का भी बुरा हाल है। इंडियन फाउंडेशन ऑफ ट्रांसपोर्ट रिसर्च एंड ट्रेनिंग की रिपोर्ट में माल ढुलाई की डिमांड में मौजूदा कमी की तुलना 2008-09 की ग्लोबल मंदी से की गई है। अप्रैल से जून, 2019 के बीच फ्लीट यूटिलाइजेशन पिछले साल की पहली तिमाही के मुकाबले 25% से 30% घट गया है। इससे ट्रांसपोर्टर्स की आय भी लगभग 30% घटी है।

अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने का भारत पर बहुत बुरा असर पड़ने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता। इस प्रकार पिछले महीनों में औद्योगिक क्षेत्र में आई अभूतपूर्व गिरावट ने बेरोजगारी में भी भयंकर वृद्धि की है। यह अर्थव्यवस्था की तबाही से खपत घटने का सीधा संकेत है और देश में आने वाली आर्थिक मंदी की चेतावनी है।

ये तो मोदी द्वारा की गई देश की आर्थिक दुर्दशा के चंद उदाहरण हैं जो एक विशाल आइसबर्ग के छोटे-से हिस्से के रूप में दिखाई दे रहे हैं। आगे देश का परिदृश्य कैसा हो सकता है, यह सरकार के थिंक टैंक यानी नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) अमिताभ कांत के हाल ही में कही गई इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि हमें कठोर निर्णयों के लिए तैयार रहना चाहिये। क्यों रहना चाहिये? क्योंकि ऐसे कठोर फैसले तभी लिये जाते हैं, जब देश का नेतृत्व करने वालों के पास देश को आर्थिक समृद्धि देने के लिए विजन का अभाव होता है। जब उनकी नाकामियों से सरकारी खजाना खाली होने की ओर अग्रसर होता है।

अब जरा सोचिये कि 'उलूग खाँ' है तो यही मुमकिन है।


Shyam Singh Rawat
ssrawat.nt@gmail.com


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