बीजेपी देश में मूल्यों, नीतियों प परंपराओं की राजनीति की पक्षधर पार्टी होने का दावा करती है। लेकिन बीजेपी में आंतरिक लोकतंत्र की चर्चा के लिए राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक दो साल से बंद है। आखरी बार यह बैठक नई दिल्ली में सन 2018 के सितंबर महीने में में हुई थी। लेकिन अब बिराह व बंगाल के चुनावो की वजह से ढाई साल बाद ही होने की संभावना लगती है।
-निरंजन परिहार
सन 2018 के सितंबर महीने की 8 तारीख को नई दिल्ली में तब के बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि संकल्प की शक्ति को कोई नहीं हरा सकता। इसलिए संकल्प कीजिए कि हम फिर पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में आएंगे। यह वह बैठक थी, जो राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक से तत्काल पहले राष्ट्रीय पदाधिकारियों की होती है। सभी ने संकल्प लिया, चुनाव लड़ा। इतिहास के सबसे प्रचंड और छप्परफाड़ बहुमत से उसे जीता और भूल गए कि अगली राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक तय समय पर करनी है। शायद इसीलिए दो साल होने को है, पार्टी अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का इंतजार कर रही है। हालात बताते हैं कि छह महीने का वक्त और लग सकता है। होने को तो बीजेपी में जेपी नड्डा राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। लेकिन अपनी ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक तय करने से पहले उनको जिनसे इजाजत होनी होती है, उनसे पूछे कौन, यह सबसे बड़ा सवाल है।
बीते तीन दिनों से कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जो कुछ हुआ, उस पर देश भर में जबरदस्त चर्चा चल रही है। लेकिन आंतरिक लोकतंत्र की अहमियत का दम भरनेवाली बीजेपी अपनी ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक दो साल से नहीं कर पाई है, और इस पर कहीं कोई चर्चा भी नहीं है। अंतिम बार सन 2018 के सितंबर महीने की 8 और 9 तारीख को दिल्ली में नए - नए बने अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर में यह बैठक आयोजित हुई थी। मुंबई के बांद्रा स्थित रिक्लेमेशन ग्राउंड में 6 अप्रेल 1980 को अपनी स्थापना के बाद बीजेपी को यह 41वां साल चल रहा है, लेकिन इतने लंबे कालखंड में यह पहली बार है, जब दो साल के इतने लंबे अंतराल तक कार्यसमिति की बैठक ही नहीं हुई है। यह शायद इसलिए हैं, क्योंकि बीजेपी के आलाकमान कहे जानेवाले दो सबसे बड़े नेताओं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का पूरा ध्यान केवल देश चलाने पर है। शायद वे यही मान रहे होंगे कि पार्टी तो चलती रहेगी।
कायदे से देखें, तो बीजेपी का संविधान कहता है कि साल में 3 बार राष्ट्रीय कार्यकारिणी और एक बार राष्ट्रीय परिषद् की बैठक होनी चाहिए। राष्ट्रीय परिषद में कार्यकारिणी के निर्णयों का अनुमोदन होता है। संविधान के मुताबिक जब तक राष्ट्रीय परिषद में अनुमोदन नहीं मिल जाता, पार्टी में किसी भी स्तर पर की गई कोई भी नियुक्ति अधिकृत नहीं मानी जा सकती। इसके हिसाब से तो जेपी नड्डा भी बीजेपी के संवैधानिक रूप से अध्यक्ष है या नहीं कौन जाने। और जब अध्यक्ष पद पर बैठे व्यक्ति की नियुक्ति ही तकनीकी रूप से संवैधानिक नही है, तो फिर उनके नियुक्त किए प्रदेशों के अध्यक्ष व अन्य पदाधिकारी कैसे संवैधानिक हो गए। हालांकि निश्चित तौर पर नड्डा सहित सारी नियुक्तियों को वैध साबित करने का बीजेपी ने कोई रास्ता जरूर निकाल लिया होगा। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व के निर्णय पर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में विचार-विमर्श होने की परंपरा का मामला दो साल से अटका हुआ है।
बीजेपी के केंद्रीय संगठन में बड़े पद पर बैठे एक पदाधिकारी का विश्वास है कि आनेवाले कुछ समय में राष्ट्रीय कार्यकारिणी हो सकती है। वे वर्तमान हालात में कोविड संकट का हवाला देते हुए इस बैठक के छह महीने टलने की संभावना से भी इंकार नहीं करते हैं। लेकिन उन्हें भी यह पता नहीं है कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक तत्काल हो जाएगी, या बिहार और बंगाल विधानसभाओं के चुनाव के बाद कुल ढाई साल बाद होगी। वैसे, संविधान में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक और राष्ट्रीय परिषद को विशेष हालात में आगे सरकाए जाने का प्रावधान भी है। ऐसे में फिलहाल तो कोविड का कारण वाजिब है। लेकिन कोरोना संक्रमण भारत में फरवरी के अंत और मार्च में शुरू हुआ, उससे पहले भी छह महीने तो ऊपर वैसे ही निकल ही चुके थे। फिर, अगर राज्यों में चुनावों की वजह से राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक टाली जाती रही, तो हमारे हिंदुस्तान में तो हर छह महीने बाद किसी न किसी प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव डमरू बजाते हुए मैदान मैं आ जाते हैं। ऐसे में देश को दो सर्वशक्तिमान नेता अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को कब तक बंधक बनाए रखेंगे, यह सबसे बड़ा सवाल है। फिर जो बीजेपी, सरकारों के हर काम को तत्काल करने और हर फैसले को त्वरित लागू करने का दम भरती हो, वही बीजेपी अपनी ही राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक को दो साल से भी ज्यादा वक्त तक लटकाए रखे, यह भी तो ठीक बात नहीं है। कहा जा सकता है कि चाल, चेहरा और चरित्र बदलने का दावा करनेवाली पार्टी का हम देख ही रहे हैं कि चरित्र बदल गया है, चेहरे भी बदल गए हैं, लेकिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के मामले में उसकी चाल कछुए जैसी हो गई है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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