31.1.10

लो क सं घ र्ष !: भाई ! गाँधी की हत्या कितनी बार करोगे ?

source:google

महान सेनानी मोहनदास करमचंद गाँधी की हत्या आजादी के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पिट्ठू हिंदुत्ववादी शक्तियों ने कर दी थी। अब उन्ही शक्तियों को गाँधी की सूरत गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी में दिख रही है। गाँधी जी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ हुए शांति पूर्ण युद्ध के अद्भुद महानायक थे। गाँधी से हम सहमत हों या न हों यह दूसरी बात है लेकिन गाँधी धर्म निरपेक्षता को बनाये रखने के भी महान सेनानी भी थे। भारतीय संघ को धार्मिक रूप से एक रखने की अदभुद क्षमता थी। अंग्रेजो ने हिन्दू-मुसलमान का जो बीज अपने फायदे के लिए बोया था। गाँधी जी जबतक जिन्दा थे उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगा कर उस बीज को पेड़ नहीं बनने दिया। गोडसे प्रतीक ने गाँधी का वध किया था। आज उनके अनुयायीओं को नरेंद्र मोदी में गाँधी की तस्वीर दिखती है। मोदी जी ने गुजरात के अन्दर मुस्लिम अल्पसंख्यकों का नरसंहार कराया था आज उसी व्यक्ति में अगर गाँधी की तस्वीर दिखती है तो भी वह गाँधी की दूसरी हत्या है।
गाँधी जी के तथाकथित उत्तराधिकारी अमेरिकन साम्राज्यवाद की सेवा में लगे हुए हैं। साम्राज्यवाद का मुख्य दुश्मन महात्मा गाँधी थे। अगर उनके तथाकथित उत्तराधिकारी साम्राज्यवाद की सेवा में लगे हुए हैं तो यह गाँधी के विचारों का वध नहीं है तो और क्या है ? गाँधी जी के विचार आज पूरी दुनिया में प्रासंगिक हैं अगर उनका सत्य और अहिंसा का प्रयोग उनके अनुयायी अगर अपने जीवन में उतारे होते तो निश्चित रूप से साम्राज्यवादी शक्तियों का शोषण भारतीय जनता को आत्महत्या करने को मजबूर नहीं करता।

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

सन्डे wichar

बहन मायावती को अपनी मूर्तियों की सुरक्षा की इतनी चिंता है की वे इसके लिए एक अलग पुलिस बल के गठन में लग गयी हैं। अपना विधायक है बिल तो विधानसभा में पास हो ही जायेगा । लेकिन इस पर आने वाले खर्च को यदि दलितों के कल्याण पर खर्च किया जाता तो बेचारे की कुछ बेचारगी दूर भी होती । ये पुलिस बल क्या करेंगे मूर्ति पर बैठने वाले पक्षियों को उराएंगें की कहीं ये उसपर बीत न कर दें यदि कर भी देंगे तो उसको ये पाने से साफ करेंगें। भला इससे बड़ा मजाक इस लोकतंत्र का और क्या हो सकता है की जब मन चाहे अपने तरह का विधेयक विधान सभा से पास करा लो ।
आजकल मराठा राजनीती उफान पर है । जबसे राज ठाकरे ने तेरह विधायक जित लिया तबसे कांग्रेस और शिवसेना में कुछ जयादा ही मराठा प्रेम उमर आया है । लगता है की मुंबई इनलोगों की पुस्तैनी जागीर है। अरे मौसमी राजनीती करने वालों दो चार दिन की जिन्दगी ही तो है। कहे अखंड भारत को तोरने में लगे हो। अभी भी तो अंग्रेजों वाले सोच से निकलो ।

मुंबई आखिर किसकी है?

नस्ली हिंसा, भेदभाव दूसरे देश में ही नहीं बल्कि परंपरा वाले हमारे देश में भी है. नफ़रत का भाव भी कुछ इस तरह की इंसानीयत भी सरमा जाये. धरम और जातिगत राजनीती करते आ रहे बाल ठाकरे ने साहरुख खान. मुकेश अम्बानी और सचिन को अपने निशाने पर लिया है. ये तीनो ही अपने पेशे के बादशाह है. खान को तो यह तक कहा की यदि उनके दिल मे पाकिस्तानी आवाम के लिये जियादा लगाव है तो वो कराची जाकर बस जाये. अम्बानी को भी नसीहत दी गई की वह मुंबई और मराठी पर तिरछी नज़र न रखे. ठाकरे की नज़र मे वह बोरा गए है. ठाकरे की सेना के कथित गुंडे लगातार तोड़फोड़ कर रहे है. बावजूद इसके सरकार भयानक ढंग से खामोस है. राज ठाकरे भी पिछले दिनों बहुत गुल खिला चुके है. मुंबई से बाहर वाले लोगों को जमकर पीटा गया था. ठाकरे को अब भला कोन समझाए की मुंबई किसी के पिताजी की जागीर नहीं बल्कि हर हिन्दुस्तानी की है. नफरत फेलाने वाला बयान देकर ठाकरे केवल मुंबई की ही राजनीती कर सकते है, देश के किसी और हिस्से मे नहीं. कडवी हकीकत तो ये है है कि बूढ़ा शेर हो या नेता दोनों ही कभी नहीं चाहते कि उनका राज खत्म हो. ठाकरे साहब को तो जंगल का राजा बहुत अच्छा लगता है. इसका सुबूत वह खुद ही देते है. कभी उनके बडे सिंघासन को देखो- उसके ऊपर और लेफ्ट- राईट शेर के सिर लगे है. हाथी भी है. बहरहाल मुंबई आखिर किसकी है? इसका तर्क सांगत जवाब भले ही किसी के पास न हो, लेकिन ये मुद्दा जल्द खत्म होने वाला नहीं है.

आज भी हनुमान से नाराज हैं लोग


सबसे बड़ी चीज होती है विश्वास। पर जब उस पर चोट पहुंचती है तो पीड़ा देनेवाले को बख्शा नहीं जाता है। फिर चाहे वह देवता या भगवान ही क्यों न हो। जी हाँ! दुर्गम पर्वतॊं पर बसा एक गांव ऐसा भी है जहां के लोग आज भी हनुमान जी से सख्त नाराज हैं। कारण कि हनुमान ने उन लोगों के आराध्य देव पर चोट पहुंचायी है और सरासर अहित किया है।
पढऩे के लिए क्लीक करें : आपकी खबर ब्लॉग

मुक्ति की गारंटी है जनोन्मुखी विज्ञान

अंधविश्वास से लड़ने के लिए विज्ञान के बुनियादी क्षेत्रों में अनुसंधान और विज्ञानसम्मत चेतना के निर्माण पर जोर दिया जाना चाहिए। कुछ विज्ञान संगठन हैं जो सचमुच में अंधविश्वास से लड़ना चाहते हैं किंतु इसके लिए ये लोग लोकप्रिय विज्ञान का सहारा लेते हैं। प्रसिध्द वैज्ञानिक जे.डी. बरनाल के शब्दों में 'लोकप्रिय विज्ञान वास्तविक विज्ञान से उतनी ही दूर की चीज है जितनी लोकप्रिय संगीत, शास्त्रीय संगीत से है।'

इस फर्क के बावजूद लोकप्रिय विज्ञान के जरिए टुकड़ों-टुकड़ों में विज्ञान के परिणामों को आम जनता तक पहुंचाने में मदद मिलती है। या जब इन्हें सनसनीखेज ढंग से पुनर्प्रस्तुत किया जाता है तो भी परिणाम आम लोग जान ही जाते हैं। लेकिन यह टुकड़ों-टुकड़ों में होता है और लोग विज्ञान की विधि और भावना से अपरिचित ही रह जाते हैं।

आज विज्ञान और लोकप्रिय विचारों के बीच आदान-प्रदान टूट चुका है। विज्ञान को लेकर वैसी सघन और प्रशिक्षित गुणग्राहकता कहीं नहीं मिलती जैसी क्रिकेट या फुटबाल मैचों को लेकर देखी जाती है। इसकी व्याख्या केवल वैज्ञानिक आनंद में वित्तीय हितों की कमी या इस विषय की अंतर्निहित कठिनाई के जरिए नहीं की जा सकती।

आम लोग महीनों क्रिकेट की बारीकियों को लेकर चर्चाएं करते रहते हैं यहां तक कि सट्टे में पैसा तक दांव पर लगाते हैं। यदि विज्ञान में लोगों की रुचि होती तो एक बड़ा दिलचस्प खेल दिखाई देता और वह यह कि आम लोग किसी समस्या पर प्रोफेसर '' के सिध्दांत पर प्रोफेसर '' के सिध्दांत की अपेक्षा दस और एक का दांव लगाते।

अंधविश्वास को हमारे जनमाध्यम सबसे पहले कवरेज देते हैं। खासकर हिंदी मीडिया की स्थिति तो बेहद खराब है। हिंदी में किसी भी दैनिक मीडिया में विज्ञान के स्थायी पेज या स्तंभ नहीं हैं। न विज्ञान संवाददाता हैं, न विज्ञान संपादक हैं, और न विज्ञान पर लिखने वाले वैज्ञानिक लेखक ही हैं। विज्ञान की यदा-कदा खबरें आती हैं तो लगता है चिप्पियां जोड़कर खबर बनाई गई है। अथवा सनसनीखेज ढंग से विज्ञान खबर प्रकाशित होती है। जनमाध्यमों का विज्ञान के प्रति इस तरह का उपेक्षा भाव जनमाध्यमों की सामाजिक भूमिका पर सवालिया निशान लगाता है।

आमतौर पर यह देखा जाता है वैज्ञानिक खबरों को हिंदी का कोई अखबार छापता ही नहीं या छापता है तो छपी हुई चीजें आती हैं। वे पूरी तरह टुकड़ों-टुकड़ों में होती हैं। लोकप्रिय अखबार किसी खोज के बारे में सिर्फ इसलिए छापते हैं क्योंकि वह चौंकाने वाली लगती है और हमारे स्वीकृत दृष्टिकोण में कुछ उलटफेर करती है। अधिक गंभीर अखबार भी यथार्थत: इससे बेहतर कुछ नहीं करते।

 जब वे विज्ञान संबंधी खबर बनाते हैं तो किसी वैज्ञानिक से एक पैराग्राफ उधार मांग लेते हैं और वह विशेषज्ञ न सिर्फ यह मानकर चलता है कि बाकी लोग भी उसके जितने ही जानकार हैं बल्कि जानकार और गैर-जानकार सारे ही लोग इस नई पहेली का कोई मतलब नहीं निकाल पाते जो विज्ञान नाम की समूची पहेली में आ चिपकी है। ऐसी खबरों में कोई बौध्दिक रुचि लेने के बजाय उन्हें एक सरसरी उत्सुकता के साथ ही, पढ़ा जा सकता है। हमारे लिए इन टुकड़ों में से छांटना, छानना और जोड़ना तब तक और भी कठिन होता है जब तक हम यह न देख सकें कि विज्ञान की विकासमान सीमाओं में इस तरह की खबरें क्या जोड़ती हैं।

अधिकतर लोकप्रिय विज्ञान पत्रिकाएं बेहतर होती हैं किंतु इनमें से अधिकांश हिस्सा आश्चर्यजनक कथाओं और व्यावहारिक गुरों से भरा होता है। इनमें यदाकदा ही गंभीर और सटीक लेख प्रकाशित होते हैं। ऐसा एक भी प्रकाशन नहीं है जिसकी अकेली भूमिका समकालीन आर्थिक और राजनीतिक विकास के संदर्भ में विज्ञान की प्रगति को सहज ग्राह्य रूप में पेश करने की हो। लोकप्रिय विज्ञान पर लिखी पुस्तकों की अवस्था इससे भी खराब है। अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने के लिए हमें इस स्थिति को बदलना होगा।

हमें विज्ञान और लोकप्रिय विचारों के बीच आदान-प्रदान पर जोर देना होगा। आज विज्ञान और वैज्ञानिक अलगाव की स्थिति में हैं। अलगाव का आलम यह है कि वैज्ञानिक दूसरी दुनिया का हो गया है।

वैज्ञानिक का सामाजिक अलगाव वस्तुत: विज्ञान के सामाजिक अलगाव का द्योतक है। अपने विषय से इतर वह साधारण व्यक्ति लग सकता है, गोल्फ खेल सकता है, अच्छे किस्से सुना सकता है और एक समर्पित पति और पिता भी हो सकता है, लेकिन उसका विषय उसकी अपनी 'दुकान' है, जो उसे समझने वाले चंद लोगों को छोड़कर उसे पूरी तरह आत्मकेंद्रित बना देती है। साहित्यिक संस्कृति के लोगों में विज्ञान के बारे में कुछ भी न जानने का एक आकर्षण होता है, स्वयं वैज्ञानिक भी इस आकर्षण से बच नहीं पाते। उनके बारे में भी यह बात अन्य विज्ञानों पर लागू होती है।

वैज्ञानिक विषयों पर अच्छी सामान्य बातचीत दुर्लभतम अवसरों में से एक होती है और यदि किसी समूह में वैज्ञानिकों की बहुतायत हो तो भी यह बात लागू होती है।आज स्थिति यह है कि संस्कृति और विज्ञान का अलगाव बढ़ गया है। इस अलगाव की शुरुआत विज्ञान की शिक्षा शुरू होने के बाद हुई। यह एक भारी विरोधाभास है। इसके बाद से ही विज्ञान का शौकिया चरित्रा खत्म हुआ और व्यापक जनता की रुचि भी इसमें से जाती रही। अब खुद से विज्ञान के बारे में सोचने की जरूरत किसी को नहीं है, विज्ञान के क्षेत्रा में अब ऐसे ही लोग मिलते हैं जो बस अपने काम से काम रखते हैं।

अंधविश्वास सिर्फ जनता तक सीमित नहीं हैं बल्कि प्रशासन और राजनीति के क्षेत्रा में भी इसका गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। इसी तरह विज्ञान के प्रति अज्ञान सिर्फ जनता तक सीमित नहीं है बल्कि प्रशासन और राजनीति तक इसका क्षेत्रा फैला हुआ है। यह अचानक नहीं है कि लोकचेतना, राजनीति और प्रशासन में विज्ञान इतना तिरस्कृत है।

विज्ञान के प्रति हमारा मौजूदा रवैया हमारी मौजूदा सामाजिक व्यवस्था का अनिवार्य और मौलिक अंग है। समाज की मौजूदा जरूरतें अपनी संतुष्टि के लिए विज्ञान को जाग्रत रखना चाहती हैं, लिहाजा ये जरूरतें कुछ भी हों, कुछ विज्ञान इनके लिए जरूरी है। लेकिन इन जरूरतों की पूर्ति के लिए आया विज्ञान नई जरूरतें पैदा करता है और पुरानी जरूरतों की आलोचना करता है। ऐसा करते हुए समाज में सुधार करने में उससे भी कहीं ज्यादा और भिन्न भूमिका अदा करने लगता है। यही कारण है कि शासक वर्ग यह कोशिश करता है कि विज्ञान और वैज्ञानिक दोनों को सामाजिक अलगाव की अवस्था में रखा जाए और विज्ञान को एक उपयोगी नौकर की तरह इस्तेमाल किया जाए।

विज्ञान का यदि सामाजिक अलगाव खत्म हो जाएगा तो वह सामाजिक परिवर्तन का अस्त्र बन जाएगा, मालिक बन जाएगा। यही वजह है कि वैज्ञानिकों को अपने-अपने पेशों में मगन रहने दिया जाता है। समाज में जिन लोगों का वर्चस्व है वे नहीं चाहते कि विज्ञान आम लोगों तक पहुंचे और आम जनता विज्ञानसम्मत चेतना से संपन्न बने। विज्ञानसम्मत चेतना के माध्यम से ही आम लोगों में आलोचनात्मक ढंग से सोचने और देखने का नजरिया विकसित होता है। जो नजरिया सिर्फ आलोचनात्मक हो और विज्ञानसम्मत न हो तो उसमें अंधविश्वासों को अपदस्थ करने की क्षमता नहीं होती।

विज्ञान को जनप्रिय बनाने के काम में सबसे बड़ी बाधा है धन की। आज अंध-विश्वास के कार्यों के लिए जिस तरह बेशुमार धन उपलब्ध है उसकी तुलना में विज्ञान के अनुसंधान कार्यों के लिए धन उपलब्ध नहीं है। राज्य और निजी क्षेत्रा दोनों ही की तरफ से विज्ञान के बुनियादी अनुसंधान के लिए सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसदी हिस्सा भी खर्च नहीं होता। जो कुछ खर्च होता है उस पर बाजार की शक्तियों की नजर लगी हुई है।

इसके अलावा फासीवादी ताकतें विज्ञान का अपने हितों और राजनीतिक विस्तार के लिए इस्तेमाल करना चाहती हैं। वे इसका युध्द सामग्री के निर्माण के लिए इस्तेमाल करने के पक्ष में सक्रिय हैं। वहीं दूसरी ओर आम जनता में पौराणिक मिथों, कथाओं और रहस्यवादी अतार्किकता का जमकर प्रचार कर रही हैं। यहां तक कि गणेश दूध पी रहे हैं जैसे चमत्कारों का प्रचार करते रहे हैं। बहुत सारे संत-महंत अपने जादुई चमत्कारों के नाम पर जादूगरी के करतबों और विज्ञान के नुस्खों का प्रयोग कर रहे हैं और आम जनता में अंधविश्वास फैला रहे हैं।

फासीवादी ताकतें पोंगापंथी बातों का दृढ़ सत्यों के साथ घालमेल कर रही हैं। आज यह प्रचार किया जा रहा है कि हिंदू जन्मना श्रेष्ठ होते हैं, उनमें सिर्फ अनुशासन की कमी है यदि वे अनुशासित हो जाएं, कद काठी मजबूत कर लें और संघर्ष के लिए तैयार हो जाएं तो वे अपनी नियति बदल सकते हैं, भारत पर राज कर सकते हैं और सारी दुनिया फिर उनका लोहा मानने के लिए मजबूर होगी। इस तरह के विचारों का विज्ञानसम्मत ज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है। बल्कि इस तरह की बातें अंधविश्वास का हिस्सा हैं।
फासीवादी दृष्टिकोण भारतीय परंपरा में हिंदुओं के अलावा किसी अन्य समुदाय के योगदान को स्वीकार ही नहीं करता और बार-बार यह प्रचार किया जा रहा है कि भारतीय परंपरा में मुसलमानों की विध्वंसक भूमिका रही है। वे लुटेरे और हमलावर रहे हैं। इस तरह के तर्क भारतीय संगीत, दर्शन, स्थापत्य, विज्ञान, समाजविज्ञान, राजनीति, ललित कला आदि के क्षेत्रों में मुसलमानों के योगदान को एकसिरे से खारिज करते हैं और परंपरा के बारे में अंधविश्वास का फासीवादी प्रपंच निर्मित करते हैं।

ये लोग विज्ञान के फौजी इस्तेमाल के पक्ष में हैं किंतु सामाजिक जीवन में विज्ञानसम्मत चेतना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के सख्त खिलाफ हैं। सामाजिक जीवन में पोंगापंथ, दंतकथाएं, विज्ञान विरोधी बातें और अंधविश्वास इन्हें पसंद है। आज ये ही ताकतें अंधविश्वास का सबसे ज्यादा प्रचार कर रही हैं। इससे इन्हें अपना सामाजिक-राजनीतिक आधार बढ़ाने में मदद मिली है। इस सबको देखते हुए और भी जरूरी है कि अंधविश्वास के खिलाफ संघर्ष को ज्यादा व्यापक पैमाने पर चलाया जाए।








30.1.10

लो क सं घ र्ष !: संघ का हिंदुत्व

सर्वश्री जमुना प्रसाद त्रिपाठी, चन्दन मिश्र, मनीष मेहरोत्रा नगर पुरोहित भाल चन्द्र मिश्रा

बाराबंकी
में सैकड़ों साल पुराना ठाकुरद्वारा का मंदिर शहर के बीच में स्थित है ठाकुरद्वारा ट्रस्ट के पदाधिकारी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आदि पुरुष गण हैं । संघ का परिचय उन्ही के नामो से शुरू होता है इन लोगो ने शहर में दंगा करने के लिए मंदिर के अग्र भाग को प्रोपर्टी ड़ीलर नौशाद आलम उर्फ़ चंदा को बेच दिया जिस पर जैसे ही मंदिर टूटना प्रारम्भ हुआ शहर में तमाम तरह की अफवाहें उड़ना शुरू हो गयीं वो तो कहिये की नगर पुरोहित भाल चन्द्र मिश्र, जमुना प्रसाद त्रिपाठी पूर्व अध्यक्ष राज्य कर्मचारी महासंघ, चन्दन मिश्र व समाज सेवी मनीष मल्होत्रा ने स्थित को संभाला और संघ के बाराबंकी के संस्थापको में से एक सूर्य नारायण टंडन को जेल जाना पड़ा।
मंदिर का आगे का बिका हुआ खंड

संघ के लोगो ने प्राचीन मंदिर को प्रोपर्टी ड़ीलर के हाथ कुल रकबा का 60% प्रोपर्टी ड़ीलर को बेच डाला है अब सवाल यह उठता है की राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का हिंदुत्व सिर्फ हिन्दू धर्म के प्रतीकों को नष्ट करना, धर्म के महान नायकों को राजनीति में उनका इस्तेमाल कर अपमानित करना है । उनका हिन्दू धर्म से कोई लेना देना नहीं है यह लोग हिटलर की नाजी विचारधारा से प्रेरणा लेते हैं। हिंदुत्व इनकी राजनीतिक विचारधारा है।

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

गोडसे की गोली से नहीं मरे गांधी जी

लोकेन्द्र  सिंह राजपूत
सर्वप्रथम गांधीजी को विनम्र श्रद्धांजलि....
भारत में कई महापुरुषों की मृत्यु विवादास्पद है। जैसे- नेताजी सुभाषचंद्र बोस, लालबहादुर शास्त्री, पं. दीनदयाल उपाध्याय, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और महात्मा गांधी.............
 प्रो. कुसुमलता केडिय़ाअगस्त के महीने में जबलपुर था। नई दुनिया में इंटर्नशिप कर रहा था। उसी दौरान सुबह फाइल पढ़ते समय मैंने एक प्रसिद्ध गांधीवादी कुसुमलता केडिय़ा का इंटरव्यू पढ़ा। गांधी विद्या संस्थान, वाराणसी की निदेशक हैं प्रो. कुसुमलता केडिय़ा। सुश्री केडिय़ा समाज विज्ञानी व अर्थशास्त्री भी हैं। हां तो उनका इंटरव्यू नई दुनिया के ११ अगस्त २००९ के अंक में छपा था। वे इंदौर प्रवास पर थीं तभी नई दुनिया ने उनका इंटरव्यू किया था। इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया कि राष्ट्रपति महात्मा गांधी के शरीर में लगी गोलियां गोडसे के रिवाल्वर की नहीं थी बल्कि बंदूक की थी। अदालत ने अपने फैसले में इस बात का उल्लेख किया है। अदालत के फै सले में इस बात का उल्लेख गांधी जी की हत्या पर कई सवाल खड़े करता है। उन्होंने कहा कि गोडसे की अदालत के समक्ष स्वीकारोक्ति भी कानूनीरूप से वैध नहीं है। साथ ही इस हत्याकांड में चश्मदीद गवाह के परीक्षण में मनु और आभा की गवाही भी नहीं हुई थी। कुछ इस तरह के तथ्यों का उल्लेख इंटरव्यू में करके उन्होंने कई प्रश्र खड़े किए हैं     जिनकी तह तक जाना जरूरी है। उन्होंने यह भी बताया कि वे चाहती हैं कि गांधी हत्या के सच को सामने लाया जाए, उस संदर्भ में जांच की जानी चाहिए। ऐसा हो क्यों नहीं रहा यह भी बड़ा सवाल है। उनका विस्तृत इंटरव्य आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं।

क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ?-ब्रज की दुनिया

बिहार के कई जिलों में इन दिनों आम जनता को एक दिन का दारोगा बनाने की बिहार पुलिस ने मुहिम चला रखी है.उद्देश्य है पुलिस को पीपुल फ्रेंडली बनाना.क्या वास्तव में बिहार पुलिस पीपुल फ्रेंडली बनाने की दिशा में अग्रसर है?कल मैं जब हाजीपुर शहर में था मैंने पुलिस का जो रूप देखा उससे तो ऐसा नहीं लगता.पहली घटना तब की है जब मैं गांधी चौक पर स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के ए.टी.एम. में पैसा निकालने के लिए पंक्ति में खड़ा था.चूंकि मशीन में बिहार बंद के चलते पैसा डालना संभव नहीं हो सका था इसलिए मशीन १०० रूपये का नोट दे रही थी और पैसा निकालने में काफी समय लग रहा था.सामने आधी सड़क निर्माणाधीन होने के चलते जाम लग रहा था.तभी एक पुलिस के जवान आया और जाम समाप्त करने की कोशिश करने लगा लेकिन अपने तरीके से.साईकिल और रिक्शावालों पर डंडा चलाकर और कार-मोटरसाइकिल वालों से अनुनय-विनय करते हुए.उसका व्यवहार इतना भद्दा था कि मैं खुद भी उसे डांटे बिना रह न सका.वह बूढ़े रिक्शावालों को भी धड़ल्ले से गालियाँ दे रहा था और पहिये से हवा निकाल दे रहा था.खैर मैंने पैसा निकाला और आगे बढ़ गया.करीब दो घन्टे बाद जब मैं गुदरी बाजार से एम. चौक की ओर जा रहा था.अब आप कहेंगे कि किसी चौक का नाम शॉर्ट फॉर्म में क्यों.तो आपको बता दूं कि मस्जिद के ठीक सामने हनुमानजी का मंदिर है.इसलिए मुसलमान इसे मस्जिद चौक और हिन्दू महावीर चौक कहते हैं और इस तरह एक अघोषित समझौते के तहत इसका नाम एम. चौक हो गया है.तो मैं जब एम. चौक के पास था तो वहां जलापूर्ति विभाग की कृपा से सड़क पर पानी लगा हुआ था.जब मैं जलजमाव क्षेत्र के मध्य में था तभी नगर थाने की एक गाड़ी विपरीत दिशा से आती दिखाई पड़ी.इससे पहले भी कई बोलेरो आदि निजी वाहन गुजर चुके थे लेकिन इस ख्याल से कि हम जैसे निरीह पैदलयात्रियों को कीचड़ के छीटे नहीं पड़े ड्राइवरों ने गति धीमी कर दी थी.लेकिन जब पुलिस की गाड़ी गुजरी तो गति घटने के बजाये तेज हो गई.परिणामस्वरूप मेरे कपड़े कीचड़ से सन गए.मैं चिल्लाया भी कि पागल हो गए हो क्या? लेकिन गति कम नहीं हुई.फलस्वरूप अन्य कई पैदलयात्रियों को भी बिन मौसम की होली को अपने कपड़ों पर झेलना पड़ा.भारत के हर पुलिस थाने और चौकी में लिखा रहता है कि क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ?क्या यह तरीका होता है सहायता करने का?बिहार में जनता दरबारों में जितने मामले पुलिस के खिलाफ आते हैं सिर्फ उन सब पर सख्ती से कार्रवाई कर दी जाए तो पुलिस काफी हद तक पीपुल फ्रेंडली हो जाएगी.इस तरह जनता को एक दिन का दरोगा बनाने से कुछ नहीं होनेवाला.भय बिनु होहिं न प्रीति.

संस्कृति उद्योग की धुरी हैं अंधविश्वास - 2-

नकल की प्रवृत्ति को पूंजीवाद का प्रधान गुण माना जाता है। इस अर्थ में पूंजीवाद अपने विकास के साथ-साथ सामंती और पूर्व सामंती कला रूपों और मूल्यबोध को बरकरार रखता है।

कलाओं में अंधानुकरण आधुनिक काल में नकल में रूपांतरित कर लेता है। इससे जहां कभी न खत्म होने वाले मनोरंजन की सृष्टि करने में मदद मिलती है वहीं दूसरी ओर अंधानुकरण के एटीटयूट्स, रवैए और संस्कार का विकास होता है। कलाओं से यथार्थ गायब हो जाता है। उसकी जगह काल्पनिक यथार्थ या आभासी यथार्थ ले लेता है।

इसी तरह अंधविश्वास या नकल की संस्कृति का परजीवीपन और पेटूपन की संस्कृति से गहरा संबंध है। इसका स्वतंत्राता के विचार से विरोध है, यह उन तमाम विचारों को अस्वीकार करती है जो नकल या अंधानुकरण के विरोधी हैं। 

पूंजीवाद अपनी सामान्य प्रकृति के अनुसार अंधविश्वासों को भी वस्तु के रूप में बदल देता है, उन्हें संस्थागत रूप दे देता है। अंधविश्वासों को कामुकता एवं रोमांस के साथ प्रस्तुत करता है और यह कार्य फिल्म, टी.वी. और वीडियो फिल्मों के संगठित औद्योगिक माल के उत्पादन के रूप में करता है। 

कामुकता, पोर्नोग्राफी, अतिलयात्मक गीत और संगीत तथा नकल के आधार पर निर्मित कलाएं जितनी ज्यादा बनेंगी उतना ही ज्यादा अंधविश्वास भी बढ़ेगा। उतनी ही ज्यादा सामाजिक असुरक्षा, भेदभाव और तनाव की सृष्टि होगी। इसका प्रधान कारण यह है कि आज अंधविश्वास को मासकल्चर ने अपना सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बना लिया है। 

अंधविश्वास की रणनीति और धार्मिक संप्रेषण की शैलियों को अपनाकर विज्ञापन, फिल्म और टी.वी. उद्योग तेजी से अपना विकास कर रहा है। पहले अंधविश्वास के माध्यम से राज्य अपने लिए जहां एक ओर धन जुटाता था वहीं दूसरी ओर जनता के दिलो-दिमाग पर शासन करता था। आज भी इस स्थिति में बुनियादी फर्क नहीं आया है। सिर्फ तरीका बदला है और इस कार्य में परंपरागत 
अंधविश्वास प्रचारकों के अलावा जो नया तत्व आकर जुड़ा वह है पूंजीपति वर्ग, बाजार और संस्कृति उद्योग। 

अब अंधानुकरण की प्रवृत्ति का बाजार की शक्तियां खुलकर अपने मुनाफों के विस्तार के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। अंधानुकरण के लिए जरूरी है कि स्टीरियोटाइप प्रस्तुतियों पर जोर दिया जाए। इनमें खर्च कम और मुनाफा ज्यादा होता है और प्रस्तुतियां जल्दी ही समझ में आ जाती हैं। इस तरह की प्रस्तुतियां यथार्थ के निषेध और स्वतंत्रा सृजन या मौलिक सृजन के निषेध को व्यक्त करती हैं। वे ऐसे उन्माद, आनंद और मनोरंजन की सृष्टि करती हैं जो प्रभेदों का सृजन करता है। ध्यान रहे, प्रभेद वहीं पैदा होते हैं जहां भय हो, अंधविश्वास हो या जहां एक-दूसरे को धोखा देकर हराने का प्रयत्न किया जाता है। वहां परस्पर व्यवहार में सहज भाव नहीं होता।

अंधविश्वास मूलत: ऐसी स्वाधीनता की हिमायत करते हैं जो मनुष्य को पीड़ित करती है। यह संबंधहीन स्वाधीनता है। यह बुनियादी तौर पर नकारात्मक स्वाधीनता है। अंधविश्वास तरह-तरह के धार्मिक उपकरणों को जमा करने और धार्मिक उपकरणों के माध्यम से अंधविश्वासों से राहत पाने का रास्ता सुझाते हैं। 

रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में, 'मानव जीवन में जहां अभाव है वहीं उपकरण जमा होते हैं। ... इस अभाव और उपकरण के पक्ष मेंर् ईष्या है, द्वेष है, वहां दीवार है, पहरेदार है, वहां व्यक्ति अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है और दूसरों पर आघात करना चाहता है।'

अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्मफल के सिध्दांत से मुक्ति पाने के लिए जरूरी है कि तर्क और विमर्श के पुराने पैराडाइम को बदलें। पुराने पैराडाइम से जुड़े होने के कारण हम प्रभावी ढंग से अंधविश्वास का विरोध नहीं कर पा रहे हैं। तर्क के पैराडाइम को बदलते ही हम विकल्प की दिशा में बढ़ जाएंगे। पैराडाइम को बदलते ही विचारों में मूलगामी परिवर्तन आने लगेगा।

 आम तौर पर हमारे बहुत से बुध्दिजीवी पुराने पैराडाइम को बनाए रखकर तर्कों में परिवर्तन कर लेते हैं। ध्यान रहे, अंधविश्वास को तर्क और विवेक से अपदस्थ नहीं किया जा सकता। जब तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर नया पैराडाइम निर्मित नहीं किया जाता तब तक अंधविश्वास को अपदस्थ करना मुश्किल है। 

अंधविश्वास का जबाव तर्क नहीं विज्ञान है। जो लोक तर्क में विश्वास करते हैं वे पैराडाइम बदलते ही असली शक्ल में सामने आ जाते हैं। ध्यान रहे, जब पैराडाइम बदलते हैं तो उसके साथ ही, सारी दुनिया भी बदल जाती है। 

कहने का तात्पर्य यह है कि पैराडाइम बदलते ही हमारा विश्व दृष्टिकोण बदल जाता है, नए का जन्म होता है, वैज्ञानिक चेतना के विकास की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। यही वह बिंदु है जिस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। 

अंधविश्वास का जबाव तर्क से देंगे तो अंतत: पराजय हाथ लगेगी यदि पैराडाइम बदलकर विज्ञानसम्मत चेतना से इसका जबाव देंगे तो अंधविश्वास को अपदस्थ कर पाएंगे। हमारे रैनेसां के चिंतकों ने अंधविश्वास का प्रत्युत्तर तर्क से देने की चेष्टा की और इसका अंतत: परिणाम यह निकला कि हम आज अंधविश्वास से संघर्ष में बहुत पीछे चले गए हैं। तर्क को आज अंधविश्वास ने आत्मसात कर लिया है। अंधविश्वास का तर्क से बैर नहीं है उसकी लड़ाई तो विज्ञानसम्मत चेतना के साथ है।

अंधविश्वास के कारण बौध्दिक अधकचरापन पैदा होता है। इन दिनों विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना के बजाय मिथकीय चेतना पर जोर दिया जा रहा है। आज विज्ञान को सत्य की खोज के काम से हटाकर व्यावहारिक उपयोग, उद्योग और युध्द के साजो-सामान के निर्माण में लगा दिया गया है। यहां तक कि धर्म और विज्ञान में सहसंबंध स्थापित करने की कोशिशें चल रही हैं। अब विज्ञान को पूंजीवाद ने महज एक चिंतन का रूप या शुध्द विज्ञान बना दिया है या उपयोगी रूप तक सीमित कर दिया है।

 एक जमाना था विज्ञान पर विश्वास था। किंतु एक अर्से के बाद विज्ञान के प्रति संशय का भाव पैदा हुआ। शुरू में विज्ञान के प्रति प्रशंसाभाव था। बाद में मोहभंग हुआ और विज्ञान के प्रति संशय भाव पैदा हुआ। आज पूंजीवादी वैज्ञानिक निराश और हताश हैं कि क्या करें? वे पीछे मुड़ नहीं सकते। आगे किस तरह बढ़ना है? बढ़ गए तो कहां पहुचेंगे? आज विज्ञान के पूंजीवादी पक्षधर परेशान हैं कि विज्ञान के इतने विराट जुलूस को कहां ले जाएं? इसके कारण विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना के प्रति अविश्वास और गहरा हुआ है। आम लोगों से लेकर बुध्दिजीवियों तक संशयवाद बढ़ा है। इसके कारण पुन: एकसिरे से अंधविश्वास और आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गई है।

 कुछ लोग मानव स्वभाव की उन्नतिशीलता को लेकर कुछ भी होता न देखकर हताशा में डूबे जा रहे हैं और विज्ञान को तिलांजलि दे रहे हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो पहले से ही यह मानकर चल रहे हैं कि विज्ञान की सामाजिक परिणतियों पर कोई भी विचार-विमर्श हानिकर होने को बाध्य है। 

कुछ ऐसे लोग भी हैं जो विज्ञान के व्यावहारिक उपयोग के अलावा और किसी भूमिका पर सोचने के लिए तैयार नहीं हैं। कुछ लोगों के लिए विज्ञान का विनाश के अलावा और किसी काम में उपयोग संभव नहीं है। कुछ के लिए यह संपत्ति और मुनाफों के अंबार खड़ा कर देने का साधन मात्रा है। 

यह सही है कि पूंजीवाद समाजों में विज्ञान का सही उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा रहा। यह भी सच है कि वैज्ञानिक वेतनभोगी कर्मचारी होकर रह गए हैं। आज वैज्ञानिक या तो किसी विश्वविद्यालय में काम करता है या किसी उद्योग या संस्था में काम करता है। निजी साधनों से वैज्ञानिक अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक अब दुर्लभ हो गए हैं। जाहिरा तौर पर वैज्ञानिक जहां काम करता है वहां के हितों की उसे सबसे पहले पूर्ति करनी होगी। यही बिंदु है जहां पर हमें विज्ञान की सामाजिक भूमिका पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। 

यदि विज्ञान बंदी है और वैज्ञानिक खरीदा जा चुका है तब अंधविश्वास के खिलाफ विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना की भूमिका शून्य के बराबर होगी।


29.1.10

लो क सं घ र्ष !: कैसे मिले गरीब को भोजन ?


महंगाई अपनी चरम सीमा पर है। आम आदमी की आय में कोई वृद्धि नहीं हो रही है। सरकार द्वारा सार्वजानिक वितरण प्रणाली उत्तर प्रदेश में ध्वस्त हो गयी है आपूर्ति विभाग के जिला पूर्ती अधिकारी से लेकर विपणन विभाग के अधिकारीयों तक केंद्र सरकार द्वारा सस्ते दामो पर उपलब्ध कराये खाद्यान को सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानों से वितरित होता है किन्तु कई सालों से आपूर्ति विभाग के अफसर फर्जी लिखा पढ़ी करवाकर गेंहू को सीधे फ्लोर मीलों को बेच देते हैं। चावल को महंगे दामो पर खुले बाजार में बेचने का काम भी करते हैं अब जनता को सस्ते दामो पर दालें भी बेचने का काम आपूर्ति विभाग के जिम्मे किया गया है। भगवान् ही मालिक होगा आज जरूरत इस बात की है की इनके अधिकारियो और कर्मचारियों की संपत्तियों की जांच हो तो 99 प्रतिशत यह लोग आर्थिक अपराधी हैं और आर्थिक अपराधियों की जगह जेल होती है लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था में भ्रष्टाचारियों को ही व्यवस्था का प्रमुख बनाया जाता है । इस तरह से कैसे मिलेगी गरीब आदमियों की रोटी इस पर एक प्रश्नवाचक चिन्ह है ।

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

फोटो साभार: google

संस्कृति उद्योग की धुरी हैं अंधविश्वास - 1-


 अंधविश्वास सामाजिक कैंसर है। अंधविश्वास ने सत्ता और संपत्ति के हितों को सामाजिक स्वीकृति दिलाने में अग्रणी भूमिका अदा की है। आधुनिक विमर्श का माहौल बनाने के लिए अंधविश्वासों के खिलाफ जागरूकता बेहद जरूरी है। आमतौर पर साधारण जनता के जीवन में अंधविश्वास घुले-मिले होते हैं।

अंधविश्वासों को संस्कार और एटीटयूट्स का रूप देने में सत्ता और सत्ताधारी वर्गों को सैकड़ों वर्ष लगे हैं। अंधविश्वासों की शुरुआत कब से हुई इसका आरंभ वर्ष तय करना मुश्किल है। फिर भी ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि सामाजिक विकास के क्रम में जब राजसत्ता का निर्माण कार्य शुरू हुआ था उस समय साधारण लोग किसी से डरते नहीं थे। किसी भी किस्म का अनुशासन मानने के लिए तैयार नहीं थे, राजा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते थे। सत्ता के दंड का भय नहीं था। यही वह ऐतिहासिक संदर्भ है जब अंधविश्वासों की सृष्टि की गई। आरंभिक दौर में अंधविश्वासों को संस्कार और जीवन मूल्य से स्वतंत्रा रूप में रखकर देखा जाता था। कालांतर में अंधविश्वासों ने सामाजिक जीवन में अपनी जड़ें इस कदर मजबूत कर लीं कि अंधविश्वासों को हम सच मानने लगे।
अंधविश्वास का दायरा बहुत बड़ा है। इसके दायरे में सामाजिक मान्यताएं, सामाजिक आचार-व्यवहार से लेकर कला, ललित कला, साहित्य, राजनीति, व्यापार तक आता है। इसके कारण सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया बाधित हुई है।
  भारत में विगत दो हजार वर्षों में किसी भी किस्म की सामाजिक क्रांति नहीं हुई। हम लोगों ने कभी भी इस सवाल पर सोचा नहीं कि हमारे समाज में विगत दो हजार वर्षों में सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई? तमाम किस्म की कुर्बानियों के बावजूद आधुनिक भारत में कोई सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई? यदि गंभीरता से भारतीय समाज पर नजर डालें तो पाएंगे कि भारत में सामाजिक क्रांति न होने के जिन कारणों की ओर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ध्यान खींचा था उनकी तरह हमारे समाज ने पूरी तरह ध्यान नहीं दिया।
हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना था कि भारत में सामाजिक क्रांति न होने के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला, अंधविश्वास, दूसरा, पुनर्जन्म की धारणा और तीसरा कर्मफल का सिध्दांत। हमारी समूची चेतना इन तीन सिद्धांतों से परिचालित रही है। अंधविश्वास के कारण ही रूढ़ियों ने जन्म लिया। साहित्य एवं कलारूपों में रूढ़ियां और सामाजिक जीवन में रूढ़ियां अंधविश्वास की ही देन हैं।
आधुनिककाल आने के बाद साहित्य से रूढ़ियों का खात्मा हुआ बल्कि सामाजिक जीवन में रूढ़ियां बनी रहीं , अंधविश्वासों के खिलाफ सामाजिक संघर्ष लड़ा नहीं गया। वहीं दूसरी ओर, पूंजीवाद ने बड़े कौशल के साथ अंधविश्वास को अपनी मासकल्चर, विज्ञापन रणनीति और मार्केटिंग का अंग बनाकर नई शक्ल दे दी।
आज बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने बाजार के विकास के लिए जिन दो तत्वों का प्रचार रणनीति में सबसे ज्यादा इस्तेमाल कर रही हैं वह है धार्मिक संप्रेषण की पध्दति और दूसरा है अंधविश्वास। इन दो के जरिए जहां एक ओर उपभोक्तावाद का तेजी से विकास हो रहा है वहीं दूसरी ओर अंधविश्वासों के प्रति भी आस्था बढ़ रही है।
  
जो लोग सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं उन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की धार्मिक संप्रेषण की रणनीति और अंधविश्वास की जुगलबंदी को तोड़ना होगा। उन तमाम क्षेत्रों में हमले तेज करने होंगे जिनसे इन दो तत्वों को संजीवनी मिलती है। इसके अलावा पुनर्जन्म और कर्मफल के सिध्दांत के प्रति आम जनता में आलोचनात्मक रवैय्या पैदा करना होगा। आज अंधविश्वास संस्कृति उद्योग का अनिवार्य तत्व बन गया है। संभवत: कुछ लोगों को यह बात समझ में न आए और कुछ लोगों की भावनाएं भी आहत हों। किंतु इस डर से अंधविश्वासों के खिलाफ जागरूकता पैदा करने के काम को छोड़ा नहीं जा सकता।
प्रश्न उठता है अंधविश्वास क्या है? इसे किन तत्वों से मदद मिलती है? इसका सामाजिक आधार कौन सा है? इससे किस तरह का समाज निर्मित होता है? किस तरह के कला रूप जन्म लेते हैं? और इसका विकल्प क्या है? ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो पाएंगे कि अंधविश्वास की धारणा का बुनियादी सारतत्व एक जैसा रहा है। मिस्र, यूनान और भारत में अंधविश्वासों की शुरुआत तकरीबन एक ही तरह हुई।

अंधविश्वास की बुनियादी विशेषता है अंधानुकरण, वैज्ञानिक विवेक का त्याग और स्वतंत्र चिंतन का विरोध। सामाजिक जीवन में इसका लक्ष्य था आम लोगों को अपने श्रेष्ठजनों के किसी भी आदेश के पालन का अभ्यस्त बनाया जाए। दूसरा , वे उन्हीं पर भरोसा करना सीखें जो हर मामले में समान भाव से धार्मिक विधि-विधानों का पालन करते हों। कलाओं की दुनिया में इसने नयनाभिराम चित्रोंं और मधुर गीतों की सृष्टि की। नयनाभिराम चित्रों और मधुर गीत-संगीत को मंदिरों में मानदंड के रूप में स्थापित किया गया। कला के क्षेत्र में किसी को यह इजाजत नहीं थी कि उनमें परिवर्तन करे। इसके कारण कलाओं के रूप सैकड़ों वर्षों तक अपरिवर्तित रहे। किसी ने यह साहस नहीं दिखाया कि कलाओं और मधुर गीतों में परिवर्तन करे। ये कलारूप सैकड़ों वर्षों से एक जैसे हैं। मिस्र के कलारूप इस अंधानुकरण के आदर्श उदाहरण हैं। विगत दस हजार साल से उनकी शैली में किसी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ है। इस दौरान वे न तो बेहतर बन पाए और न बदतर ही बन पाए।
  इसी तरह अंधविश्वास को जनप्रिय बनाने में झूठ खासकर इष्टकर झूठ की बहुत बड़ी भूमिका रही है। एक ऐसा झूठ, उदात्त झूठ जिसके सहारे संपूर्ण समुदाय को, संभव हो सके तो शासकों को भी स्वीकार करने के लिए राजी किया जा सके।

इस तरह के झूठ के आदर्श उदाहरण हैं हमारे रीति-रिवाज और संस्कार जिनकी प्रशंसा करते हुए हमारे शास्त्र थकते नहीं हैं। रीति-रिवाज और संस्कारों की प्रशंसा के क्रम में सबसे ज्यादा हमला स्वतंत्र चिंतन पर किया गया, उन लोगों पर हमले किए गए जो स्वतंत्र चिंतन के हिमायती थे। जो प्रत्येक बात पर शंका करते थे। प्रश्न करते थे।
 आज हम रोम की महानता के गुण गाते हैं किंतु यह भूल जाते हैं कि रोम की महानता का आधार अंधविश्वास था। रोम की महानता के बारे में पोलिबियस ने लिखा कि मैं साहसपूर्वक यह बात कहूंगा कि संसार के शेष लोग जिस चीज का उपहास करते हैं, वह रोम की महानता का आधार है और उस चीज का नाम अंधविश्वास है। इस तत्व का उसके निजी और सार्वजनिक जीवन के सभी अंगों में समावेश कराया गया है और इसने ऐसी खूबी से उनकी कल्पनाशक्ति को आक्रांत कर लिया है कि उस खूबी को बेहतर नहीं बनाया जा सकता। संभवत: बहुत से लोग इसकी विशेषता समझ नहीं पाएंगे, लेकिन मेरा मत है कि ऐसा लोगों को प्रभावित करने के लिए किया गया है। यदि किसी ऐसे राज्य की संभावना होती, जिसके सभी नागरिक तत्वज्ञ होते तो इस तरह की चीज से हम बचे रह सकते थे। लेकिन सभी राज्यों में जनता अस्थिर है, निरंकुश भावनाओं, अकारण क्रोध और हिंसक आवेगों से ग्रस्त है। इसलिए केवल यही किया जा सकता है कि जनता को अदृश्य के भय से, और इसी किस्म के पाखंडों से काबू में रखा जाए। यह अकारण नहीं, बल्कि सुविचारित चाल थी कि पुराने जमाने के लोगों ने जनता के दिमाग में देवताओं और मृत्यु के बाद के जीवन की बातें बैठाईं। हमारी मूर्खता और विवेकहीनता यह है कि हम इस प्रकार की भ्रांतियों को दूर करना चाहते हैं।
इसके अलावा जिस विधा का निर्माण किया गया वह है चमत्कारवर्णन और दंतकथा। चमत्कारवर्णन और दंतकथाओं ने अंधविश्वासों को आम जनता के जीवन में उतारने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। किसी भी दर्शनवेत्ता और धर्मशास्त्री के उपदेशों के द्वारा पुरुषों और औरतों के समूहों को श्रध्दा, भक्ति और विश्वास की ओर नहीं मोड़ा जा सकता था। इनको प्रभावित करने के लिए अंधविश्वास का लाभ उठाना पड़ता था। यह कार्य चमत्कारवर्णन और दंतकथाओं के बिना संभव नहीं था। कालांतर में इसने नागरिक जीवन की प्राचीन व्यवस्था और साथ ही, वास्तविक सृष्टि संबंधी स्थापनाओं में मिथकशास्त्र के रूप में सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर लिया।
कौटिल्य का अंधविश्वास में विश्वास नहीं था किंतु उन्होंने राज्य के कौशल के तौर पर अर्थशास्त्र में अंधविश्वास की चर्चा की है। उनका न तो राजा के दैवी अधिकार और उसकी सर्वज्ञता की सच्चाई में विश्वास था और न वे यह चाहते थे कि स्वयं शासक इस तरह की वाहियात बात को सच मानें। वे सुझाव देते हैं कि राज्य को अपनी आंतरिक और बाह्य स्थितियों को सुदृढ़ करने के लिए सामान्य लोगों की अंधमान्यताओं का लाभ उठाना चाहिए।

कौटिल्य अर्थशास्त्र में अनेक ऐसे सुझाव देते हैं जो अंधविश्वासों पर आधारित हैं। संयोग से जिन उपायों को सुझाया गया है वे थोड़े फेरबदल के साथ अब भी लागू किए जाते हैं। कौटिल्य ने कुछ ऐसे साधनों को अपनाने की सलाह दी जो बहुत ही भद्दे थे और जिनका दोहरा उद्देश्य था। वे न केवल जनता के बीच अंधविश्वासमूलक भय उत्पन्न करते थे, बल्कि अंधविश्वास के विरोध में यथार्थ और ठोस कदम उठाने वाले प्रचारकों का शारीरिक रूप से सफाया करने की ओर भी लक्षित थे।

अंधविश्वास के साथ-साथ पुनर्जन्म और कर्मफल की प्राप्ति की धारणा का भी व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। इसका साहित्य पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार साहित्य में काव्य-रूढ़ियों का चलन शुरू हुआ।

यह मान लिया गया कि जो कुछ हो रहा है उसका उचित कारण है ज़िस कार्य में असामंजस्य है, वह अवश्य भविष्य में करने वाले को दंड देने का साधन बनेगा। इस विचार ने भारतीय साहित्य में सामंजस्यवादी दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा की है। समाज की विषमताओं और अनमेल परिस्थितियों को कभी विद्रोही दृष्टि से नहीं देखा गया।

यह मान लिया गया नाटक दुखांत नहीं होना चाहिए। असंतोष और विद्रोह के अभाव में कवि की बुध्दि अधिकाधिक सूक्तियों और चमत्कारों में उलझती गई। साहित्य में सिर्फ रस और रस में भी सिर्फ श्रृंगार रस की रचनाओं का बाहुल्य इस मार्ग के अनुसरण का स्वाभाविक परिणाम था।
   उल्लेखनीय है रस की अवधारणा की उत्पत्ति का समय तकरीबन वही है जब अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्मफल की प्राप्ति के सिध्दांत का जन्म हुआ। रसों में हमारे प्राचीन लेखकों ने सिर्फ श्रृंगार रस पर ही मुख्यत: जोर दिया और अन्य रसों की उपेक्षा की।

तात्पर्य यह है कि अंधविश्वास के साथ आनंदमूलक मनोरंजन, कामुकता, स्त्री के सौंदर्यमूलक हाव-भावों का गहरा संबंध है। यह संबंध मध्यकाल से विकसित हुआ और आधुनिक काल तक चला आया है। अंधविश्वास के समूचे कार्य-व्यापार को यदि इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाएंगे कि समाज में कलाओं में नकल की प्रवृत्ति वस्तुत: अंधविश्वास के प्रति सहिष्णु भाव पैदा करती है।


निदेशक बनने पर के.के. यादव की साहित्यकारों द्वारा ससम्मान विदाई

कानपुर मण्डल के प्रवर डाक अधीक्षक, चीफ पोस्टमास्टर एवं प्रवर रेलवे डाक अधीक्षक पदों का दायित्व निरवाहन कर चुके कृष्ण कुमार यादव को डर्बी रेस्टोरेंट, दि माल में आयोजित एक भव्य समारोह में भावभीनी विदाई दी गई। गौरतलब है कि श्री यादव का प्रमोशन निदेशक पद के लिए हो गया है और वे अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह के निदेशक डाक सेवाएं रुप में अपना नया पद ज्वाइन करने जा रहे हैं। एक प्रशासक के साथ-साथ साहित्यकार के रूप में चर्चित श्री यादव की इस विदाई की गवाह नगर के तमाम प्रमुख साहित्यकार, बुद्विजीवी, शिक्षाविद, पत्रकार, अधिकारीगण एवं डाक विभाग के तमाम कर्मचारी बने।

डर्बी रेस्टोरेंट में आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री गिरिराज किशोर ने कहा कि प्रशासन के साथ-साथ साहित्यिक दायित्वों का निर्वहन बेहद जटिल कार्य है पर श्री कृष्ण कुमार यादव ने इसका भलीभांति निर्वहन कर रचनात्मकता को बढ़ावा दिया। गिरिराज किशोर ने इस बात पर जोर दिया कि आज समाज व राष्ट्र को ऐसे ही अधिकारी की जरूरत है जो पदीय दायित्वों के कुशल निर्वहन के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं से भी अपने को जोड़ सके। जीवन में लोग इन पदों पर आते-जाते हैं, पर मनुष्य का व्यक्तित्व ही उसकी विराटता का परिचायक होता है। मानस संगम के संयोजक डॉ0 बद्री नारायण तिवारी ने कहा कि बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, रचनाशीलता के पर्याय एवं सरस्वती साधक श्री यादव जिस बखूबी से अपने अधीनस्थ अधिकारियों-कर्मचारियों से कार्य लेते हैं, सराहनीय है। अपने निष्पक्ष, स्पष्टवादी, साहसी व निर्भीक स्वभाव के कारण प्रसिध्द श्री यादव जहाँ कर्तव्यनिष्ठ एवं ईमानदार अधिकारी की भूमिका अदा कर रहे हैं, वहीं एक साहित्य साधक एवं सशक्त रचनाधर्मी के रूप में भी अपने दायित्वों का बखूबी निर्वहन कर रहे हैं। विशिष्ट अतिथि के रुप में उपस्थित टी0आर0 यादव, संयुक्त निदेशक कोषागार, कानपुर मण्डल ने एक कहावत के माध्यम से श्री यादव को इंगित करते हुए कहा कि कोई भी पद महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि उसे धारण करने वाला व्यक्ति अपने गुणों से महत्वपूर्ण बनाता है। एक ही पद को विभिन्न समयावधियों में कई लोग धारण करते हैं पर उनमें से कुछ पद व पद से परे कार्य करते हुए समाज में अपनी अमिट छाप छोड़ देते हैं, के0के0 यादव इसी के प्रतीक हैं। समाजसेवी एवं व्यवसायी सुशील कनोडिया ने कहा कि यह कानपुर का गौरव है कि श्री यादव जैसे अधिकारियों ने न सिर्फ यहां से बहुत कुछ सीखा बल्कि यहां लोगों के प्रेरणास्त्रोत भी बने।

वरिष्ठ बाल साहित्यकार डॉ0 राष्टबन्धु ने अपने अनुभवों को बांटते हुए कहा कि वे स्वयं डाक विभाग से जुड़े रहे हैं, ऐसे में के0के0 यादव जैसे गरिमामयी व्यक्तित्व को देखकर हर्ष की अनुभूति होती है। सामर्थ्य की संयोजिका गीता सिंह ने कहा कि बहुआयामी प्रतिभा सम्पन्न श्री यादव अपने कार्यों और रचनाओं में प्रगतिवादी हैं तथा जमीन से जुडे हुए व्यक्ति हैं। उत्कर्ष अकादमी के निदेशक डॉ0 प्रदीप दीक्षित ने कहा कि श्री के0के0 यादव इस बात के प्रतीक हैं कि साहित्य हमारे जाने-पहचाने संसार के समानांतर एक दूसरे संसार की रचना करता है और हमारे समय में हस्तक्षेप भी करता है। जे0के0 किड्स स्कूल के प्रबन्धक इन्द्रपाल सिंह सेंगर ने श्री यादव को युवाओं का प्रेरणास्त्रोत बताया।

के0के0 यादव पर संपादित पुस्तक ''बढ़ते चरण शिखर की ओर'' के संपादक दुर्गाचरण मिश्र ने कहा कि उनकी नजर में श्री यादव डाक विभाग के पहले ऐसे अधिकारी हैं, जिन्होंने नगर में रहकर नये कीर्तिमान स्थापित किये। इसी कारण उन पर पुस्तक भी संपादित की गई। चार साल के कार्यकाल में श्री यादव ने न सिर्फ तमाम नई योजनाएं क्रियान्वित की बल्कि डाकघरों के प्रति लोगों का रूझान भी बढ़ाया। प्रेस इन्फारमेशन ब्यूरो इंचार्ज एम0एस0 यादव ने आशा व्यक्त की कि श्री यादव जैसे कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों के चलते लोगों का साहित्य प्रेम बना रहेगा। नगर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष डॉ0 एस0पी0 शुक्ल ने श्री यादव को भावभीनी विदाई देते हुए कहा कि कम समय में ज्यादा उपलब्धियों को समेटे श्री यादव न सिर्फ एक चर्चित अधिकारी हैं बल्कि साहित्य-कला को समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए कटिबध्द भी दिखते हैं। चर्चित कवयित्री गीता सिंह चौहान ने श्री यादव की संवेदनात्मक अनुभूति की प्रशंसा की।

सहायक निदेशक बचत राजेश वत्स ने श्री यादव के सम्मान में कहा कि आप डाक विभाग जैसे बड़े उपक्रम में जो अपने कठोर अनुशासन, कर्तव्यनिष्ठा व ईमानदारी के लिए प्रसिध्द है, में एक महत्वपूर्ण तथा जिम्मेदार-सजग अधिकारी के रूप में अपनी योग्यता, कुशाग्र बुध्दि और दक्षता के चलते प्रशासकीय क्षमता के दायित्वों का कुशलता से निर्वहन कर रहे हैं। जिला बचत अधिकारी विमल गौतम ने श्री यादव के कार्यकाल के दौरान महत्वपूर्ण उपलब्धियों को इंगित किया तो सेवानिवृत्त अपर जिलाधिकारी श्यामलाल यादव ने श्री यादव को एक लोकप्रिय अधिकारी बताते हुए कहा कि प्रशासन में अभिनव प्रयोग करने में सिध्दस्त श्री यादव बाधाओं को भी चुनौतियों के रूप में स्वीकारते हैं और अपना आत्म्विश्वास नहीं खोते।

अपने भावभीनी विदाई समारोह से अभिभूत के0के0 यादव ने इस अवसर पर कहा कि अब तक कानपुर में उनका सबसे लम्बा कार्यकाल रहा है और इस दौरान उन्हें यहाँ से बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। यहाँ के परिवेश में न सिर्फ मेरी सृजनात्मकता में वृध्दि की बल्कि उन्नति की राह भी दिखाई। श्री यादव ने कहा कि वे विभागीय रूप में भले ही यहाँ से जा रहे हैं पर कानपुर से उनका भावनात्मक संबंध हमेशा बना रहेगा।

श्री के0के0 यादव की प्रोन्नति के अवसर पर नगर की तमाम साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं द्वारा अभिनन्दन एवं सम्मान किया गया। इसमें मानस संगम, उ0प्र0 हिन्दी साहित्य सम्मेलन युवा प्रकोष्ठ, विधि प्रकोष्ठ, सामर्थ्य, उत्कर्ष अकादमी, मानस मण्डल जैसी तमाम चर्चित संस्थाएं शामिल थीं। कार्यक्रम की शुरूआत अनवरी बहनों द्वारा स्वागत गान से हुई। स्वागत-भाषण शैलेन्द्र दीक्षित, संचालन सियाराम पाण्डेय एवं संयोजन सुनील शर्मा द्वारा किया गया।

(अनुराग)
सचिव- ''मेधाश्रम'' संस्था
13/152 डी (5) परमट, कानपुर (उ0प्र0)

28.1.10

लो क सं घ र्ष !: पुलिस व अपराधियों का गठजोड़

उत्तर प्रदेश पुलिस के आरमोरर श्री राजेश कुमार सिंह को उनके साथियों के साथ गिरफ्तार किया गया उनके पास से सौ कारतूस 9 एमएम, .के 47 के 49 कारतूस एस.अल.आर खाली कारतूसों के 498 खोखे भी बरामद किये गएपुलिस और अपराधियों का गठजोड़ काफी दिनों से कार्य कर रहा है अपराधियों को शस्त्रों कारतूसों की सप्लाई पुलिस विभाग से ही होती है प्रतिबंधित बोर के आर्म्स के कारतूस बाजार में नहीं मिल सकते हैं उनकी सप्लाई पूरे देश में नियोजित तरीके से अपराधियों को होती है
अपराधियों, पुलिस राजनेताओं का गठजोड़ संगठित अपराधों को बढ़ावा देता हैचाहे दिल्ली हो चाहे मुंबई हो शस्त्रों की सप्लाई अपराधी समूहों को संरक्षण इस गठजोड़ से मिलता है, जबतक इस गठजोड़ को ईमानदारी से नष्ट नहीं किया जायेगा तब तक संगठित अपराध होते रहेंगेअपराधियों ने अपने गठजोड़ में कार्यपालिका के भी अधिकारियो को शामिल कर रखा हैराजनीतिक दल तो उनके लिए कार्य करते ही रहते हैं। गणतंत्र दिवस के दिन पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना के गोसाबा के छोटामोल्लाखाली थाना में बंद एक कैदी को छुड़ाने के लिए तृणमूल कांग्रेस के लोग थाने पर हमला कर पुलिस वालों की पिटाई कर कैदी को छुड़ा ले गएआज आवश्यकता इस बात की है की राजनीतिक दलों को अपराधिक पृष्टभूमि वाले लोगों को अपने दल से निष्काषित करना होगा

सुमन
loksangharsha.blogspot.com
मीडिया की स्थिति कार्यक्रम के चयन के मामले में दिनोदिन उसके सोच के दिवालियेपन का धोतक होती जा रही है. पहले राखी सावंत का स्वयाम्बर अब राहुल महाजन का . राखी का स्वयाम्बर तो समझ में आता भी है पर राहुल महाजन . राहुल किस दृष्टि से एक योग्य वर नज़र आते है यह तो किसी भी साधारण समझ वाले आदमी की समझ में न आये . पर टीआरपी के इस दौर में सही -गलत की पहचान लगता है मीडिया में क्षीद होती जा रही है. पहले स्वयाम्बर उस व्यक्ति या स्त्री का होता था जिसके गुडो की चर्चा दूर -दूर तक होती थी. राहुल महाजन के गुडो (?) की भी चर्चा मीडिया में पिछले कुछ वर्षो से खूब रही है . चाहे वो ड्रग लेने से लेकर जेल जाने सम्बंधित हो या शादी के बाद पत्नी की मार-पिटाई फिर तलाक़ से सम्बंधित हो. राहुल के गुडो का बखान यही नहीं रुकता है ,बिग बॉस में महिला कलाकारों से उनकी नजदीकियो को लेकर रोज अख़बार रंगे रहते थे. इतनी जानकारियो के बाद भी अगर कोई परिवार अपनी लड़की की शादी राहुल से करना चाहेगा तो कहना पड़ेगा कि आज के बाज़ार में सब कुछ संभव है.बाज़ार इस लिए कि आज पूरा समाज एक बाज़ार में तब्दील हो गया है जो बिक रहा है वो टिक रहा है. चाहे गलत या सही. क्या जीवन मूल्यों के ये माप- दंड हमे सही रास्ते पर ले जाये गे दूर तक. अर्थशास्त्र में दो तरह के फायदे होते है- छोटे समय के लिए और दूसरा लम्बे समय के लिए . अर्थशास्त्र कहता है कि लम्बे समय के फायदे के लिए छोटे समय के फायदे को दरकिनार कर देना चाहिए . पर आज समाज और मीडिया का हर कदम यह बतलाता है कि छोटे समय का फायदा अपनाओ , आगे किसने देखा है तो लम्बे समय के फायदे भी किसने देखे है .क्या ये सोच हमे आगे तक ले जायेगी . एक और सोच हो सकती है कि मीडिया किसी गरीब -काबिल , हुनरमंद ,जूझारू लड़के को इस कार्यक्रम के माध्यम से समाज के सामने लाये .इस कवायत से समाज,चैनल और उस लड़के का भी भला हो सकता है और समाज यह सोचने पर मजबूर हो सकता है कि इस ज़माने में संघर्ष ,मेहनत से भी आकाश की बुलंदिया छुई जा सकती है बजाय कि केवल किसी नामी पिता के नाम के सहारे अपने हिलते डुलते वजूद को समाज में खडा करना . पर समाज -मीडिया क्या यह करने के लिए तैयार है ? अगर नहीं तो आनेवाले दिनों में मीडिया समाज का प्रहरी होना का हक भी खो देगा. वह दिन दूर नहीं कि जब लोग मीडिया , नेता , नौकरशाह सभी को एक साथ खडा कर के कोसना शुरू कर देगे. अभी तक तो जनता मीडिया के माध्यम से नेता , नौकरशाह और समाज की बुरईयो का मुकबला करती आयी है. जिस दिन वो इस अंतर में फर्क करना बंद कर देगी उस दिन मीडिया समाज में खुद को कहा खडा पायेगा.

मुसलमान,राष्ट्रवाद और युध्द की भाषा

        टेलीविजन के इतिहास में ग्यारह सितंबर मील का पत्थर दिन था।विमान अपहरण और उसके बाद अमरीका के प्रतीक चिहनों पर आत्मघाती हमलों का सीधा प्रसारण अनेक नए मसलों,अर्थों और संभावनाओं को सामने लेकर आया है।इस घटना के बाद टेलीविजन के पर्दे पर कई तब्दीलियां देखी गयी हैं।खासकर उपग्रह चैनलों में इस्लाम के प्रति रवैयये में बदलाव आया है।
    ग्यारह सितंबर के पहले टेलीविजन पर इस्लाम की नकारात्मक छवि पेश की जाती थी।किन्तु ग्यारह सितंबर के बाद इस्लाम के बारे में सकारात्मक इमेज के कुछ टुकड़े सामने आए हैं।जबकि मुसलमान के बारे में टेलीविजन का रवैयया अभी भी बदला नहीं है।मुसलमान की नकारात्मक छवि का प्रसारण अभी भी जारी है।मुसलमान की नकारात्मक छवि के जरिए यह प्रचार किया जा रहा है कि मुसलमान हिंसक होते हैं।इस्लाम हिंसा को वैधता प्रदान करता है।मुसलमान अपनी औरतों का शोषण और दमन करते हैं।मुस्लिम औरतें यदि बुर्का के अलावा कुछ और पहनें तो उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है। खासकर मिनी स्कर्ट पहने तो जिंदगी खतरे में पड़ सकती है।
   टेलीविजन में मुसलमान हमेशा पश्चिम के किसी भी सकारात्मक तत्व को घृणा और अस्वीकार करते दिखाया जाता है।मसलन्,मुसलमान लोकतंत्र विरोधी है,बहुलतावाद विरोधी है,स्वतंत्रता विरोधी है,नागरिक अधिकारों का विरोधी है।इस तरह के स्टीरियोटाईप प्रचार अभियान की खूबी यह है कि इसमें इजराइली जीवन शैली और पश्चिमी जीवन शैली को मुस्लिम जीवन शैली की तुलना में श्रेष्ठ करार दिया जाता है।इस तरह के प्रचार अभियान के मुस्लिम युवा खासतौर पर निशाना हैं।उन्हें पश्चिमी मूल्यों जैसे डेटिंग,ड्रिंकिग ,डांसिंग और पार्टीबाजी से अलग दिखाया जाता है।टेलीविजन का जोर इस तथ्य पर रहता है कि मुस्लिम युवक पश्चिम संस्कारों को नहीं मानते।
स्टीरियोटाईप प्रस्तुतियों के मूल्य-निर्णय के लिए किसी सामाजिक ग्रुप से जुड़ा होना जरूरी है। स्टीरियोटाईप वस्तुत:वगैर किसी बौध्दिक श्रम के स्वचालित अनुकरण भाव पैदा करता है। जबकि स्टीरियोटाईप के लिए निजी ग्रुप का होना जरूरी है।खासकर बाहरी या बहिष्कृत ग्रुप के खिलाफ।ऐसे स्थिति में वगैर सोचे अपने ग्रुप के भावों के आधार पर व्यवहार करते हैं,सोचते हैं,बोलते हैं,लिखते हैं।
    टेलीविजन में जब भी कोई खबर मुसलमानों के बारे में पेश की जाती है तो उन्हें'अन्य' की कोटि में रखा जाता है।'अन्य' की कोटि में रखने के कारण उसके निर्माण में परिश्रम नहीं करना पड़ता।हमारे सोच में पुराने प्रतीक सक्रिय हो जाते हैं,पुराने फ्रेम या संदर्भ सक्रिय हो जाते हैं।इन्हें हम बिना परखे अपना लेते हैं।स्टीरियोटाईप से माध्यम प्रक्रिया का सरलीकरण हो जाता है।कालान्तर में यही सरलीकरण समस्या बन जाता है।इसके परिणामस्वरूप नकारात्मक इमेज जन्म लेती है।
      ग्यारह सितंबर की घटना और इराक युध्द के अमरीकी चैनलों में भावुकता की बाढ़ थी। वहां रिपोर्टर 'इस्लाम के खिलाफ संदेह और अविश्वास को सबसे बड़ी सेवा मान रहे थे।'अमरीकी चैनलों में 'मुस्लिम मिलिटेंट' या इस्लामिक टेररिस्ट'पदबंध का सबसे ज्यादा प्रयोग किया गया।इस तरह की प्रस्तुतियां 'मुसलमान' और 'आतंकवादी' के बीच घालमेल कर रही थीं।सवाल किया जाना चाहिए कि यदि 'मुस्लिम टेररिस्ट' पदबंध का प्रयोग सही है तो 'क्रिश्चियन टेररिस्ट' पदबंध का प्रयोग भी सही होगा।क्योंकि कुछ आतंकवादी ईसाईयत की हिमायत में गर्भपात कराने वाले डाक्टर की हत्या को न्यायपूर्ण ठहराते हैं।क्या ऐसे हत्यारों को 'क्रिश्चियन टेररिस्ट' कहा जाए?
    ज्यादातर उपग्रह चैनलों ने तयशुदा व्याख्या के ढ़ांचे में खबरों की प्रस्तुति की।'अच्छे' और 'बुरे' के बीच में संघर्ष के तौर पर वर्गीकरण किया।इसे अमरीका ने 'आतंकवाद के खिलाफ युध्द'कहा।सीमोन फ्रेशर विश्वविद्यालय में कम्युनिकेशन के प्रोफेसर रॉबर्ट हैकेट ने अमरीकी टेलीविजन की प्रस्तुतियों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि'मुझे चिंता है कि बहुत कुछ संकुचित दृष्टिकोण से बताया गया।इसे युध्द की बजाय'मानवता के प्रति अपराध' या'आतंकी कार्रवाई' कहना सही होगा।हमने खास तरह की खबरों को दबाया और खास तरह की खबरों को बताया।इसके कारण हम दर्शकों को कम सूचनाएं दे पाए।इसके कारण दर्शकों की प्रतिक्रियाएं भी हल्की रहीं।हैकेट का मानना है कि इस तरह अमरीकी विदेशनीति को बचाने के लिए बड़े पैमाने पर वैचारिक श्रम किया गया।कायदे से हमें किसी फ्रेम विशेष पर जोर दिए बिना जनता को सभी तार्किक परिप्रेक्ष्यों के तहत सूचनाएं देनी चाहिए थी।संयुक्त राष्ट्र संघ और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के तहत आतंकवादियों के खिलाफ क्या कार्रवाई हो सकती थी इस पर बहस होनी चाहिए थी।साथ ही अमरीकी विदेशनीति के दोहरे चरित्र पर भी बहस होनी चाहिए थी।बताया जाना चाहिए था कि किस तरह विदेशनीति अमरीका के हितों को नुकसान पहुँचा रही है।
इराक युध्द हो या राष्ट्रवादी उन्माद का समय हो ऐसे में माध्यम किसके साथ हों यह सबसे महत्वपूर्ण है।अमरीकी माध्यमों के रूख से सारी दुनिया के माध्यम प्रभावित हो रहे थे।अत: अमरीकी माध्यमों पर पत्रकारिता और राष्ट्रवाद के बीच संतुलन बनाने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी थी।ध्यान रहे संकट की अवस्था में माध्यमों को राज्य के साथ नहीं जनता के साथ होना चाहिए।जनता के साथ होने का मतलब है ठोस खबरें,खोजी खबरें,विश्लेषण,विचारों और परिप्रेक्ष्य की बहुलता की रक्षा और प्रस्तुति।ऐसी स्थिति में हमें सवाल करना चाहिए कि हमारी सरकार क्या कर रही है ?हमें कहां और किस दिशा में ले जाना चाहती ?साथ ही हमें इस क्रम में पैदा होने वाले अंतर्विरोधों और दुविधाओं को उजागर करना चाहिए।हमें जनता की बहस में मदद करनी चाहिए।जिससे वह सही निर्णय ले सके।हमें सभी स्रोतों के प्रति आग्रह से बचना चाहिए।तथ्यों की परीक्षा करनी चाहिए।झूठ और तथ्य में फर्क करना चाहिए।अफवाहों को खारिज करना चाहिए।कोई भी पत्रकार अपने देश की सबसे अच्छी सेवा तब ही कर सकता है जब वह आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखे और स्वतंत्र हो।चाहे मसला कितना ही सही क्यों न हो।पत्रकारों का राष्ट्रवादी उन्माद आम जनता को खून की नदी में डुबो देता है। राष्ट्रवाद की अपील पत्रकार के दिमाग को कुंद कर सकती है।किसी भी पत्रकार को राष्ट्रविरोधी कहकर लांछित नहीं किया जाना चाहिए।क्योंकि राष्ट्रवाद पदबंध भावनात्मकता को भड़काने वाला है।संकट के समय संवेदनशील सूचनाओं को जारी नहीं किया जाना चाहिए।ऐसी सूचनाएं भी नहीं छापनी चाहिए जिनसे आतंकवादियों को मदद मिले।ध्यान रहे पत्रकार की भावनाओं का कोई अन्य दुरूपयोग न करे।हमें राष्ट्रवाद से ज्यादा जनता के हितों से जुड़े मसलों पर ध्यान देना चाहिए।ध्यान रहे जब युध्द के बादल छाए हों तो सबसे पहले 'सत्य' की हत्या होती है।पत्रकार का काम सत्य की रक्षा करना और राष्ट्रवाद यह कार्य करने नहीं देता।
युध्द की भाषा हथियार तय करते हैं।हथियार की भाषा मीडिया तय करता है।यही वजह है कि मीडिया को हथियार का खुदा कहा गया है।युध्द और भाषा का रिश्ता विलोम का रिश्ता है।युध्द के दौरान मीडिया जिस भाषा का इस्तेमाल करता है वह अमूमन ठंडी, भ्रम,भय और सामंजस्य पैदा करने वाली होती है। भ्रम और भय की भाषा का आम तौर पर वे लोग इस्तेमाल करते हैं जो कमजोर या अपराधी होते हैं।इराक पर अमेरिकी गठबंधन के हमले के लिए मीडिया में काफी अर्सा पहले से तैयारियां चल रही थीं।इसकी बानगी के तौर पर टेलीविजन चैनलों में मुख्य शीर्षक और कुछ पदबंधों के नामों पर गौर करना समीचीन होगा।मसलन्, 'प्रिएमटिव वार','वेपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन','टेरर','रिजीम चेंज' आदि।इसी तरह मुख्य शीर्षक में सीएनएन ने युध्द के पहले कहा 'शो डाउन इराक',युध्द शुरू होने के बाद कहा 'इराक वार' बीबीसी ने कहा 'शो डाउन सद्दाम',एमएसएनबीसी ने कहा 'इराक वाच','काउण्ट डाउन इराक',डीडी ने कहा 'खाड़ी युध्द 2' आदि।ये सारे भाषायी प्रयोग इराक पर अमेरिकी गठबंधन सेना के हमलावर चरित्र को छिपाते थे।
     मजेदार बात यह है कि बीबीसी और सीएनएन के पर्दे पर कभी यह नहीं कहा गया कि अमेरिकी या ब्रिटिश सेना ने इराक पर हमला किया। अमेरिका-ब्रिटेन को कभी हमलावर नहीं कहा गया।साथ ही इराक पर अमेरिका-ब्रिटेन के कब्जे को कभी इराक पर आधिपत्य या कब्जा नहीं कहा गया। इराक से बीबीसी संवाददाता जब भी रिपोर्ट भेजता।यही कहता कि हमारे संवाददाता को इराकी सेना की सेंसरशिप या निगरानी या स्वीकृति के बाद ही रिपोर्ट भेजने का मौका मिला है। जबकि अमेरिकी गठबंधन सेना के साथ चल रहे संवाददाताओं ने यह कभी नहीं कहा कि उन्हें गठबंधन सेना की सेंसरशिप या स्वीकृति के बाद ही रिपोर्ट भेजने का अवसर मिला है।कहने का तात्पर्य यह कि इराकी सेंसरशिप को उभारा गया और गठबंधन सेना की सेंसरशिप को छिपाया गया।जबकि गठबंधन सेना ने घोषित तौर पर सेंसरशिप जारी की थी। 'वेनकूवर सन' के अंतर्राष्ट्रीय मामलों के संवाददाता और बीस वर्षों से युध्द संवाददाता का काम करने वाले जोनाथन माथ्रोप ने लिखा कि इराक कवरेज के दौरान जो सामग्री पेश की गई उससे यह अर्थ संप्रेषित हुआ है कि इस युध्द का जमीन और खून से कोई लेना-देना नहीं है।इराक कवरेज की भाषा के बारे में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक डा.अलबर्ट बांदुरा का मानना है कि नैतिक रूप से अवांछित सरोकारों से बचने का आसन तरीका यह है कि ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जाए जो युध्द को वैध बनाए।यदि पत्रकार 'जार्गन' या 'रेहटोरिक' की भाषा से अलग करने में असमर्थ होता है तो मीडिया में युध्द के नैतिक विरोधों को खत्म कर देता है।