31.8.20

थोकार्पण, लोकार्पण और थूकार्पण

सुनील जैन राही

 
बढ़ती जनसंख्या, कम होती पाठकों की संख्या से लोकार्पण रसातल में जा रहा है। भ्रम अच्छा है, पाठक कम हो रहे हैं तो ज्यादा कब थे? मास्टर की संटी न हो तो क्लास में बुकार्पण भी न होता। पाठक कम होना चिन्ता की बात नहीं है। असली चिन्ता है, लेखकों का अधिक होना। शहर में एकाद हुआ करता था। इनाम-विनाम देकर संतोष कर लेते। निठल्ला/निकम्मा और बेरोजगार कोई तो है, जो प्रकृति की गोद में बैठकर समय और कागज बरबाद कर रहा है। कलम की पूजा होती थी, अब कलम करने वालों की पूजा होती है।

बौराए आदमी की तरह विचारों में खोया पड़ा रहे। प्रकृति और नारी सौंदर्य के अलावा कुछ ना सूझे? थिरकन रुक जाए, नाक में समा जाए। नाक से बाहर आए तो छींक से। कमर में लटक जाए या फिर ललाट पर वर्षों घूमता रहे। जुल्फों में जुएं की तरह चहलकदमी करता फिरे। कभी नारी में प्रकृति को ढूंढें तो, कभी प्रकृति में नारी को। ऐसे मरदूद को आदमी और आदमी का बच्चा नज़र नहीं आता। न भूखा आदमी न प्यासा जानवर। प्रकृति और नारी सौंदर्य में भूख प्यासा बैठा रहे। यही मरदूद लेखक है।  

अफसोस की बात नहीं है। लेखक बढ़े हैं तो सम्मान भी बढ़े हैं। सम्मान पाने वाले बढ़े हैं, सम्मान देने वाले बढ़े हैं। पहले पुस्तक का लोकार्पण चुपचाप हो जाता था। लेखक गुमनाम दस्तावेज था। किताब आई, छप गई, लोकार्पण हुआ तो हुआ, न हुआ तो न हुआ। कवि होली या गणोत्सव पर करवा चैथ के चांद की तरह दिखता। इसी दिन शहर के गुमनाम कवि सामने आते।

लड़कियां सोचती.... हाय दैया हमें क्या पता था, ये मुआ कवि भी है? प्रेम पत्र इससे ही लिखवा लिया होता। कम से कम रूपा की तो दाल तो न गलती। भ्रम यहां भी था। खुद केे प्रेम पत्र पर चरणपादुका सम्मान मिल चुका था, जनाब को।
पाठक कम हो जाएं, लेकिन श्रोता कम नही होने चाहिए। पाठक को श्रोता की तरह पकड़कर बिठा नहीं सकते। पाठक के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी है! अनपढ़ श्रोता नेता से कम नहीं? पाठक दिखाई नहीं देता, जो दिखाई दे वही काम का। पाठक कितने थे, कोई नहीं पूछता, श्रोता बहुत थे।

लोकार्पण में पाठकों की नहीं, श्रोताओं की संख्या भरपूर होनी चाहिए। श्रोता को हींग और फिटकरी से कोई लेना देना नहीं। वह किताब खरीदने से रहा। श्रोता, देखे की मोहब्बत करता है। चाय पी, बर्फी खाई और फुर्र। किताब से कोई सरोकार नहीं, लोकार्पण हो या थोकार्पण। घेर के लाया जाता है। जमाना लद गया जब एक लेखक के लिए सौ-सौ श्रोता हुआ करते थे। थोकार्पण का जमाना है। दस लेखकों के लिए 50 श्रोता, बस!

थोकार्पण और लोकार्पण की बीच की महत्वपूर्ण कड़ी होती है, थूकार्पण। थूकार्पण को सभ्य भाषा में आलोचना कहते हैं। (असभ्य भाषा में भड़ास) थूकार्पण दो प्रकार का होता है। पहला लेखक का नाम जानने के बाद, दूसरा पुस्तक पढ़ने के बाद। थूकार्पण कई प्रकार से होता है। थूकार्पण को लोकार्पण के दौरान और बाद में भी किया जा सकता है। लोकार्पण के दौरान बीच-बीच में थूकार्पण क्रिया चलती है। लोकार्पण में थूकार्पण की छूट होती है। पुस्तक समीक्षा (प्रशंसा) में थूर्कापण के छींटें आसपास खड़े/बैठे लेखकों को सम्मानित करते हैं। थूकार्पण की माला रुमाल साफ की जाती रहती है।

थूकार्पण समारोह में समूह के थूकक ही होते हैं। इस दौरान थूकक वर्ग, दूसरे थूकक वर्ग पर थू.....थू करता है। एक ही धर्म और विचारधारा के थूकक शामिल होते हैं। अंत में थूकन महाश्री थकान मिटाने के लिए अल्पाहार का आमंत्रण देते हैं। थूकक धारा 144 के अंतर्गत गु्रपों में थूकन क्रिया में फिर संलप्ति हो जाते हैं। थूककगण वटसएप और फेसबुक पर थूकन प्रतीज्ञा के साथ वाहनों में सवार हो जाते हैं।

थोकार्पण और लोकर्पण की क्रिया क्षणिक सुख की तरह होती हैं। सुख का स्थायी भाव थूकार्पण में होता है। थूकार्पण वर्षों तक अनवरत चलता रहता है। थूकार्पण के स्थायी भाव के साथ थोकार्पण लोकार्पित होते रहते हैं।

Sunil Jain Raahi
सुनील जैन राही
एम-9810960285
पालम गांव-110045

आर्थिक मन्दी अब चौतरफा असर डाल रही है

सरकार को इसे जल्द संभालना होगा

 विगत जुलाई महीने तक दो करोड़ नौकरी पेशा लोग ही कोरोना ने बेरोजगार बना दिये हैं। इसका मतलब यही है कि आर्थिक मन्दी अब चौतरफा असर डाल रही है जिसे देखते हुए अर्थ व्यवस्था को पटरी पर डालने के पुख्ता इस पर मुस्तैद दिखानी होगी।  देश के गरीब राज्यों की हालत बहुत खस्ता हो चुकी है क्योंकि कोरोना और लाकडाऊन ने इन राज्यों की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह गड़बड़ा दिया है और अब ये केन्द्र सरकार से गुहार लगा रही हैं कि उन्हें उनका जीएसटी का  जायज हिस्सा जल्दी से जल्दी दिया जाए। दूसरी तरफ केन्द्र सरकार की राजस्व उगाही भी लगातार कम हो रही है जिससे आर्थिक स्थिति जटिल होती जा रही है।

 केन्द्र को विभिन्न राज्यों का छह लाख करोड़ रुपए के लगभग हिस्सा अदा करना है जो मार्च के बाद से बनता है। यदि राज्यों को उनका हिस्सा नहीं मिलता है तो उनके पास अपने सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने तक के पैसे भी नहीं रहेंगे। अतः इसका हल जल्दी ही निकालना पड़ेगा। इसके साथ ही केन्द्र सरकार को उन राज्यों को मुआवजा धनराशि का भुगतान भी करना है जिन्हें जीएसटी पद्धति लागू होने के बाद राजस्व हानि हुई है। मगर सवाल यह है कि केन्द्र यह भुगतान कहां से करेगा जब स्वयं उसका खजाना खाली हो रहा है और वित्तीय घाटा बढ़ने के आसार बन चुके हैं। इसका एक रास्ता तो यह है कि केन्द्र रिजर्व बैंक से और मुद्रा छापने को कहे  और अपना घाटा पूरा करने के साथ सारी देनदारियां निपटाये।  बेशक इससे वित्तीय घाटा और बढे़गा मगर अर्थव्यवस्था में धन की आपूर्ति बढ़ने से बाजार में खरीदारी का माहौल बनेगा जिससे उत्पादनगत गतिविधियों में तेजी आयेगी जिससे शुल्क उगाही में भी तेजी आयेगी और सुस्त अर्थव्यवस्था में चुस्ती का दौर शुरू होगा।

दूसरा उपाय यह है कि सरकार बैंक से कर्ज उठाये।  राज्यों को लगता है पूरा जीएसटी ढांचा कोरोना के झटके से ही चरमराता नजर आ रहा है और राज्यों के पास सिवाय इसके कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता है कि वे केन्द्र के दरवाजे पर याचना करती फिरें। जबकि जीएसटी  से पहले राज्य सरकारें अपने वित्तीय साधन जुटाने के लिए खुद मुख्तार थीं और हर संकट काल का समाधान खोजने के लिए स्वतन्त्र थीं। जीएसटी ने उनके विकल्प बहुत सीमित कर दिये हैं। उनके पास केवल अल्कोहल व पेट्रोल ही दो ऐसे उत्पाद बचते हैं जिन पर वे अपने हिसाब से शुल्क लगा सकती हैं मगर इन उत्पादों पर भी गैर तार्किक ढंग से शुल्क लगाने का कोई औचित्य नहीं बनता है। विशेष रूप से पेट्रोल या डीजल पर मूल्य वृद्धि कर राज्य सरकारें लगाती हैं वह उच्चतम स्तर पर है और कोरोना काल में इस शुल्क में और वृद्धि की गई है। यह सीधे आम जनता को प्रभावित करता है और उसकी कमर तोड़ता है। केंद्र सरकार को कोरोना काल में गिरते आर्थिक पहलू पर प्राथमिकता के साथ जल्द से जल्द काम करना होगा | जल्द ही संसद का मानसून सत्र शुरू होगा और सरकार पर विरोधी को बोलने का पूरा मौका मिलेगा |

अशोक भाटिया
A /0 0 1  वेंचर अपार्टमेंट
वसंत नगरी, वसई पूर्व
(जिला पालघर-401208)
फोन/  wats app  9221232130

26.8.20

बीजेपी इतनी ढीली क्यों है कार्यसमिति की बैठक पर!

बीजेपी देश में मूल्यों, नीतियों प परंपराओं  की राजनीति की पक्षधर पार्टी होने का दावा करती है। लेकिन बीजेपी में आंतरिक लोकतंत्र की चर्चा के लिए राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक दो साल से बंद है। आखरी बार यह बैठक नई दिल्ली में सन 2018 के सितंबर महीने में में हुई थी। लेकिन अब बिराह व बंगाल के चुनावो की वजह से ढाई साल बाद ही होने की संभावना लगती है।

 -निरंजन परिहार

सन 2018 के सितंबर महीने की 8 तारीख को नई दिल्ली में तब के बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि संकल्प की शक्ति को कोई नहीं हरा सकता। इसलिए संकल्प कीजिए कि हम फिर पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में आएंगे। यह वह बैठक थी, जो राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक से तत्काल पहले राष्ट्रीय पदाधिकारियों की होती है। सभी ने संकल्प लिया, चुनाव लड़ा। इतिहास के सबसे प्रचंड और छप्परफाड़ बहुमत से उसे जीता और भूल गए कि अगली राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक तय समय पर करनी है। शायद इसीलिए दो साल होने को है, पार्टी अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का इंतजार कर रही है। हालात बताते हैं कि छह महीने का वक्त और लग सकता है। होने को तो बीजेपी में जेपी नड्डा राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। लेकिन अपनी ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक तय करने से पहले उनको जिनसे इजाजत होनी होती है, उनसे पूछे कौन, यह सबसे बड़ा सवाल है।

बीते तीन दिनों से कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जो कुछ हुआ, उस पर देश भर में जबरदस्त चर्चा चल रही है। लेकिन आंतरिक लोकतंत्र की अहमियत का दम भरनेवाली बीजेपी अपनी ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक दो साल से नहीं कर पाई है, और इस पर कहीं कोई चर्चा भी नहीं है। अंतिम बार सन 2018 के सितंबर महीने की 8 और 9 तारीख को दिल्ली में नए - नए बने अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर में यह बैठक आयोजित हुई थी। मुंबई के बांद्रा स्थित रिक्लेमेशन ग्राउंड में 6 अप्रेल 1980 को अपनी स्थापना के बाद बीजेपी को यह 41वां साल चल रहा है, लेकिन इतने लंबे कालखंड में यह पहली बार है, जब दो साल के इतने लंबे अंतराल तक कार्यसमिति की बैठक ही नहीं हुई है। यह शायद इसलिए हैं, क्योंकि बीजेपी के आलाकमान कहे जानेवाले दो सबसे बड़े नेताओं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का पूरा ध्यान केवल देश चलाने पर है। शायद वे यही मान रहे होंगे कि पार्टी तो चलती रहेगी।

कायदे से देखें, तो बीजेपी का संविधान कहता है कि साल में 3 बार राष्ट्रीय कार्यकारिणी और एक बार राष्ट्रीय परिषद् की बैठक होनी चाहिए। राष्ट्रीय परिषद में कार्यकारिणी के निर्णयों का अनुमोदन होता है। संविधान के मुताबिक जब तक राष्ट्रीय परिषद में अनुमोदन नहीं मिल जाता, पार्टी में किसी भी स्तर पर की गई कोई भी नियुक्ति अधिकृत नहीं मानी जा सकती। इसके हिसाब से तो जेपी नड्डा भी बीजेपी के संवैधानिक रूप से अध्यक्ष है या नहीं कौन जाने। और जब अध्यक्ष पद पर बैठे व्यक्ति की नियुक्ति ही तकनीकी रूप से संवैधानिक नही है, तो फिर उनके नियुक्त किए प्रदेशों के अध्यक्ष व अन्य पदाधिकारी कैसे संवैधानिक हो गए। हालांकि निश्चित तौर पर नड्डा सहित सारी नियुक्तियों को वैध साबित करने का बीजेपी ने कोई रास्ता जरूर निकाल लिया होगा। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व के निर्णय पर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में विचार-विमर्श होने की परंपरा का मामला दो साल से अटका हुआ है।

बीजेपी के केंद्रीय संगठन में बड़े पद पर बैठे एक पदाधिकारी का विश्वास है कि आनेवाले कुछ समय में राष्ट्रीय कार्यकारिणी हो सकती है। वे वर्तमान हालात में कोविड संकट का हवाला देते हुए इस बैठक के छह महीने टलने की संभावना से भी इंकार नहीं करते हैं। लेकिन उन्हें भी यह पता नहीं है कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक तत्काल हो जाएगी, या बिहार और बंगाल विधानसभाओं के चुनाव के बाद कुल ढाई साल बाद होगी। वैसे, संविधान में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक और राष्ट्रीय परिषद को विशेष हालात में आगे सरकाए जाने का प्रावधान भी है। ऐसे में फिलहाल तो कोविड का कारण वाजिब है। लेकिन कोरोना संक्रमण भारत में फरवरी के अंत और मार्च में शुरू हुआ, उससे पहले भी छह महीने तो ऊपर वैसे ही निकल ही चुके थे। फिर, अगर राज्यों में चुनावों की वजह से राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक टाली जाती रही, तो हमारे हिंदुस्तान में तो हर छह महीने बाद किसी न किसी प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव डमरू बजाते हुए मैदान मैं आ जाते हैं। ऐसे में देश को दो सर्वशक्तिमान नेता अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को कब तक बंधक बनाए रखेंगे, यह सबसे बड़ा सवाल है। फिर जो बीजेपी, सरकारों के हर काम को तत्काल करने और हर फैसले को त्वरित लागू करने का दम भरती हो, वही बीजेपी अपनी ही राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक को दो साल से भी ज्यादा वक्त तक लटकाए रखे, यह भी तो ठीक बात नहीं है। कहा जा सकता है कि चाल, चेहरा और चरित्र बदलने का दावा करनेवाली पार्टी का हम देख ही रहे हैं कि चरित्र बदल गया है, चेहरे भी बदल गए हैं, लेकिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के मामले में उसकी चाल कछुए जैसी हो गई है।  

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

25.8.20

यह कांग्रेस के अंत की पटकथा या कुछ और ?


कांग्रेस अंदरूनी घमासान से आजाद नहीं हो पा रही है। पार्टी में सबसे ज्यादा संख्या उन लोगों की है,  जो हर हाल में सोनिया गांधी या राहुल का ही नेतृत्व बनाए रखना चाहते हैं। गांधी परिवार के संरक्षण में पार्टी चलाना शायद कांग्रेस की मजबूरी है। लेकिन ताजा घमासान कांग्रेस के संकट को और गहरा कर सकता है।


 निरंजन परिहार

न तो वे कोई इतने बड़े नेता है, न उनकी कोई राजनीतिक हैसियत है और न ही वे भविष्यवक्ता हैं। लेकिन फिर भी संजय झा ने जब यह कहा कि यह कांग्रेस के अंत की शुरुआत है, तो कई बड़े कांग्रेसी भी हत्तप्रभ होकर इसमें सच की संभावना तलाशने लगे। कायदे से कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी जब फिर कांग्रेस की अध्यक्ष बन गई थी, तो बवाल थम जाना चाहिए था। लेकिन घमासान रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। जिस चिट्ठी पर जमकर विवाद हुआ, उसे लिखने वाले नेताओं ने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक खत्म होने के बाद अपनी बैठक की। आगे क्या करना है, कैसे करना है, और किसको किस हद तक जाना है, इस बारे में आगे की रणनीति तय हुई। इस बैठक के बाद कपिल सिब्बल ने जो ट्वीट किया, उससे अटकलों, आशंकाओं और कयासों का जो दौर शुरू हुआ है, वह कांग्रेस के भविष्य की एक नई कहानी गढ़ रहा है।

कांग्रेस पार्टी के नेता अब खुलकर बोलने लगे हैं। कार्यसमिति की बैठक के दूसरे दिन कांग्रेस के दिग्गज नेता कपिल सिब्बल ने अपने ट्वीटर पर लिखा - यह किसी पद की बात नहीं है। यह मेरे देश की बात है, जो सबसे ज्यादा जरूरी है। तो, पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के छोटे बेटे और कांग्रेस नेता बड़े नेता अनिल शास्त्री ने कहा कि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में कुछ कमी है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि पार्टी के नेताओं के बीच बैठकें नहीं होती और वरिष्ठ नेताओं से प्रदेशों के नेताओं का मिलना आसान नहीं है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पीसी चाको ने भी कहा है कि मुझे लगता है कि नेतृत्व में कुछ चीजें दुरुस्त होनी चाहिए। उन्होंने असंतोष जताते हुए कहा कि दिल्ली में काफी चीजें कामचलाऊ तरीके से चल रही हैं। अपनी उपेक्षा से बेहद आहत वरिष्ठ नेता चाको ने लगभग नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि मैं सीडब्लूसी का स्थायी सदस्य हूं, लेकिन मुझे आमंत्रित भी नहीं किया गया । शायद, मैं बैठक में होता तो, कोई समाधान दे देता।  

कांग्रेस के नेतृत्व की कमजोरी को कुछ ऐसे समझिए। चिट्ठी लिखने के मामले कार्यसमिति की बैठक में राहुल गांधी की नाराजगी के बाद गुलाम नबी आजाद के घर पर कांग्रेस के नेताओं की जो बैठक हुई, इसमें क्या हुआ, यह दो दिन बाद भी किसी को कुछ नहीं पता। लेकिन कार्यसमिति की बैठक में जो चल रहा था, उसकी पल पल की खबर पूरे देश और दुनिया में पैल रही थी। यह कांग्रेस की अंदरूनी कमजोरी का सार्वजनिक सबूत नहीं तो और क्या है। सिब्बल कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य नहीं है। फिर भी अंदर क्या चल रहा था, उन्हें खबर थी। सो, सोमवार की कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक को दौरान ही उन्होंने राहुल गांधी के खिलाफ बागी तेवर दिखाते हुए बीजेपी से मिलीभगत की बात को खारिज करते हुए ट्वीट किया। उन्‍होंने तो अपने ट्विटर बायोडेटा से कांग्रेस भी हटा लिया।

जाने माने राजनीतिक विश्लेषक अभिमन्यु शितोले मानते हैं कि कांग्रेस नेतृत्व यानी आलाकमान अर्थात गांधी परिवार के तीनों सदस्यों का अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के प्रति अगर यही रुख रहा, तो आनेवाले समय में कांग्रेस की परेशानियां बढ़ती ही जाएगी। शितोले कहते हैं कि कांग्रेस में मजबूत और उर्जावान नेतृत्व की कमी हैं, यह सच है। खेमेबाजी और क्षमता की बजाय चाटुकारिता को मिल रहे प्रश्रय से जूझ रही कांग्रेस की हालत कुछ ऐसी हो गई है कि एक दीवार को संभालने की कोशिश होती है तो दूसरी भरभराने लगती है। शितोले मानते हैं कि कांग्रेस में तय नहीं हो पा रहा है कि परिवार बचाया जाए या पार्टी। या यूं कहा जाए कि अब तक कांग्रेस के नेता यही नहीं समझ पा रहे हैं कि परिवार और पार्टी दोनों अलग अलग हैं, और कांग्रेस के नेता व कार्यकर्ता पार्टी के लिए हैं, परिवार के लिए नहीं?

कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की अंदरूनी राजनीति की गहन जानकारी रखनेवाले राजनीतिक विश्लेषक संदीप सोनवलकर कहते हैं कि ताजा संकट को अगर, कांग्रेस ने शीघ्र नहीं सम्हाला, तो आनेवाले वक्त में कुछ ऐसा होगा कि आज तो सिर्फ नेता ही सवाल उठा रहे हैं, लेकिन मामला आगे बढ़ा तो कल विद्रोह की स्थिति भी पैदा हो सकती है।  सोनवलकर कहते हैं कि राज्यों के नेताओं का हाल तो और भी खराब है। कांग्रेस आलाकमान कहलानेवाले तीनों नेताओं से राज्यों के नेताओं का मिलना ही संभव नहीं हो पाता।  सोशल मीडिया में दिए गए सिब्बल के सार्वजनिक बयान पर कई तरह की अटकलबाजियों का दौर शुरू होने की बात कहते हुए सोनवलकर कहते हैं कि सिब्बल के इस ट्वीट में बगावत के तेवर साफ है। कांग्रेस नेतृत्व को इस बारे में गंभीरता से सोचना होगा।

बात जिन संजय झा से शुरू हुई थी उनके बारे में निश्चित रूप से आप नहीं जानते होंगे। तो, जान लीजिए कि वे कोई बहुत बड़ी तोप नहीं हैं। वे मुंबई के हैं, लेकिन मुंबई के कांग्रेसी भी उन्हें नहीं जानते। वे मीडिया में अपने व्यक्तिगत संपर्कों का उपयोग करके कांग्रेस नेतृत्व की नजरों में चढ़ने के लिए पार्टी की पूरी ताकत से पैरवी करते हुए टीवी पर बोलते थे। नजर में चढ़े तो बिना बहुत सोचे समझे नेतृत्व ने उन्हें सीधे प्रवक्ता बना दिया। फिर जब कांग्रेस के खिलाफ एक लेख लिखा, तो सोनिया गांधी ने पार्टी से निलंबित भी कर दिया। वहीं संजय झा कांग्रेस के अंत की शुरुआत होने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। निष्ठावानों को नकारने, अपनों की उपेक्षा करने और अनजानों को ओहदे देने का इतना नुकसान तो होता ही है।  कांग्रेस नेतृत्व को समय रहते अपने फैसलों पर भी चिंतन करना चाहिए। वरना, अंत की भविष्यवाणियां भी सच होते देर कहां लगती है !

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

24.8.20

शुक्र मनाइए कि आपकी नौकरी बची हुई है!

-निरंजन परिहार

शुक्र मनाइए कि आप उन दो करोड़ लोगों में नहीं है, जिनकी, लॉकडाउन में चलती नौकरियां चली गई हैं। और अगर आप उन 22 करोड़ लोगो में नहीं है, जो लॉकडाउन में काम धंधा बंद होने से बेरोजगार होकर घर बैठने को मजबूर हैं, तो भी शुक्र मनाइए। क्योंकि हमारे हिंदुस्तान में कोरोना ने कोहराम मचा रखा है। जिंदगियों के साथ वह रोजगार भी खाए जा रहा है। वायरस से फैल रही इस महामारी ने हमारे हिंदुस्तान में 29 लाख लोगों बीमार कर रखा है। इसलिए लोग डर रहे हैं। लगभग 55 हजार लोग मर गए हैं, सो सारा समाज भयभीत है। इन दिनों हमारा सारा ध्यान केवल कोरोना के बीमार, कोरोना की बीमारी और कोरोना के मामले में की जा रही सरकार की बातों पर है। लेकिन सच कहें, तो कोरोना की बीमारी का जितना हल्ला मचाया जा रहा है, उससे बहुत ज्यादा डरने की जरूरत नहीं लगती। बल्कि डरिए इस बात से कि कल आपका रोजगार बचेगा कि नहीं। डरिए इस तथ्य से कि आपकी नौकरी पर मंडराता खतरा आनेवाले दिनों में आपकी आय को खा रहा है।  और डरिए इस बात से कि आनेवाले किसी रोज आप अचानक सड़क पर आनेवाले हैं। कोरोना की महामारी ने भारत में बेकारी और बेरोजगारी की बाढ़ ला दी है।  लॉकडाउन ने करोड़ों जिंदगियों की खुशियों पर लॉक लगा दिया है और इतने ही परिवारों की जिंदगी को डाउनफॉल में धकेल दिया है। अप्रैल से अब तक 1 करोड़ 89 लाख लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा है, लेकिन कुल मिलाकर देश में लगभग 22 करोड़ लोगों का रोजगार छिन गया है।

रोजगार रेजगारी की तरह बिखर रहे हैं।  इस मामले में भारत की तस्वीर बहुत भयावह है, और सरकार है कि सिर्फ संक्रमण की बीमारी का हल्ला मचाए हुए है। भारत की कुल 135 करोड़ जनता में से कोरोना वायरस संक्रमण से बीमार तो केवल 28 लाख 71 हजार 35 लोग ही हुए हैं, लेकिन कोरोना ने बीते 5 महीनों में लगभग दो करोड़ लोगों को बेराजगार कर दिया है। एक करोड़ से ज्यादा लोगों की सैलरी आधी हो गई हैं और इतने ही परिवार आयविहीन हो गए हैं। ऐसे में आप और हम सारे लोग सरकार की बातों की तरफ ध्यान देकर सिर्फ कोरोना से बीमार लोगों के आंकड़ों को देख देख कर डर रहे हैं, रो रहे हैं और कोहराम मचा रहे हैं। हालांकि बीमार तो फिर भी ठीक हो जाएंगे, और बहुत बड़ी संख्या में हो भी रहे हैं। लेकिन छूटी हुई नौकरियां फिर से मिलने की संभावनाएं क्षीण हो रही हैं। आधी तनख्वाह में भी लोगों को काम नहीं मिल रहा है। यह तथ्य है कि 24 मार्च से लॉकडाउन शुरू होने के बाद अब तक कुल भारत में 2 करोड़ से ज्यादा लोग बेरोजगार हो गए हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़े गवाह है कि भारत में लॉकडाउन ने बेरोजगारों की बाढ़ ला दी है। सीएमआईई के आंकड़ों में यह बात सामने आई है कि अप्रेल की शुरूआत से अब तक  भारत में 1 करोड़ 89 लाख लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। इस रिपोर्ट का अध्ययन करने पर साफ पता चलता है कि अकेले जुलाई महीने में लगभग 50 लाख लोगों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी है। इस रिपोर्ट के पिछले आंकड़ों को देखें, तो अप्रैल महीने में 1 करोड़ 77 लाख लोगों की नौकरी गई थी। रिपोर्ट में बताया गया है कि जून महीने में लगभग 39 लाख नौकरियां मिली थीं, लेकिन उससे पहले मई महीने में लगभग 1 लाख लोगों की नौकरी गई।

एक साथ इतनी सारी नौकरियां खोने के इतने अधिक मामले भारत में पिछले हजारों सालों के इतिहास में सबसे बुरे स्तर पर माने जा रहे है। क्योंकि इससे पहले भारत में इतनी बड़ी संख्या में रोजगार कभी नहीं छिने गए। केवल पांच महीनों में लगभग 2 करोड़ लोगों को नौकरी से निकाला जाना अपने आप में बहुत चिंताजनक बात है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, नौकरी से निकाले जाने और बेरोजगारी में फर्क है। नौकरी से हटाया जाना चलते काम का समाप्त होना है और बेरोजगारी की परिभाषा यह है कि किसी व्यक्ति द्वारा सक्रियता से रोज़गार की तलाश किये जाने के बावजूद जब उसे काम नहीं मिल पाता तो यह अवस्था बेरोज़गारी कहलाती है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की स्थापना एक स्वतंत्र थिंक टैंक के रूप में 1976 में की गई थी। यह प्राथमिक डेटा संग्रहण, विश्लेषण और पूर्वानुमानों द्वारा सरकारों, शिक्षाविदों, वित्तीय बाजारों, व्यावसायिक उद्यमों, पेशेवरों और मीडिया सहित व्यापार सूचना उपभोक्ताओं के पूरे स्पेक्ट्रम को अपनी सेवाएँ प्रदान करता है। सीएमआईई के सीईओ महेश व्यास ने कहा कि आमतौर पर वेतनभोगियों की नौकरियां जल्दी नहीं जाती। लेकिन जब जाती है तो, दोबारा पाना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए ये हम सभी के लिए बहुत बड़ी चिंता का विषय है। रिपोर्ट के मुताबिक कोरोनावायरस महामारी के मद्देनजर विभिन्न सेक्टर की कंपनियों ने अपने कर्मचारियों के वेतन काटे या फिर उन्हें बिना भुगतान के छुट्टी दे दी। उद्योग निकायों और कई अर्थशास्त्रियों ने बड़े पैमाने पर कंपनियों पर महामारी के प्रभाव से बचने और नौकरी के नुकसान से बचने के लिए उद्योग को सरकारी समर्थन देने का अनुरोध किया है। क्योंकि देश में कोरोना के कारण लगभग 22 करोड़ लोगों का रोजगार छिन गया है। और हम हैं कि सिर्फ बीमारी से डर रहै हैं। जबकि डर दूसरा बहुत बड़ा है, जिसके जल्दी सुधरने के कोई आसार ही नहीं है। इसीलिए अपना डर है कि कल आपका रोजगार बचेगा कि नहीं। लेकिन इसके बावजूद आप अगर सरकार द्वारा मचाए जा रहे कोरोना से बीमार होने के हल्ले से डरे हुए हैं, तो डरिए। कोई आपका क्या कर सकता है।

यूपी में बढ़ते कोरोना प्रकोप के बीच स्वास्थ्य सेवाएं चरमराईं

अजय कुमार, लखनऊ

कोरोना महामारी  को लेकर योगी सरकार की प्रतिबद्धता किसी से छिपी नहीं है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कोरोना से निपटने के लिए हर समय ‘एक्टिव मोड’ में रहते हैं। इलाज के लिए पैसे की कमी को आड़े नहीं दिया जा रहा है। कोरोना जांच का दायरा लगातार बढ़ाया जा रहा है। अस्पतालों में बिस्तर की संख्या में भी वृद्धि की गई है,ताकि सबको समय पर इलाज मिल सके,लेकिन कोरोना है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है,बल्कि इसका प्रकोप बढ़ता ही जा रहा है। वहीं  इससे निपटने के लिए सरकारी अस्पतालों में दवाई, रैपिड एंटिजन किट,पीपी किट,आक्सीजन तक का टोटा बना हुआ। हालत यह है कि तीमारदारों से छोटी-छोटी चीजें और दवाएं मंगाई जाती हैं। सैनिटाइजर और माक्स खरीद के नाम पर लूट हो रही है। ‘तीन का माल 13 में’ खरीदा जा रहा है।

  हालात यह है कि कोरोना का इलाज जिन अस्पतालों में सबसे अच्छी तरीके से होता हैं। वहां आम आदमी पहुंच ही नहीं पाता है। कोरोना को लेकर योगी सरकार ने जो गाइड लाइन तय की है,उसके अनुसार मरीज की स्थिति देखकर यह तय किया जाता है कि उसे कहां किस अस्पताल में भर्ती किया जाना है। यूपी में अति गंभीर मरीजों के लिए लखनऊ के प्रतिष्ठित केजीएमयू, एसजीपीजीआई, और डा0 राम मनोहर लोहिया को मान्यता मिली हुई है,लेकिन यहां गंभीर नहीं पहुंच वाले मरीजों की ही भर्ती हो पाती है। भले ही पहुंच वाले मरीज में मामूली लक्षण हों,लेकिन उसे भर्ती कर लिया जाता है,जो कोरोना गाइडलाइन के बिल्कुल खिलाफ है।

     मेडिकल और पैरामेडिकल स्टाफ की मनमानी के चलते हालात  इसलिए और भी गंभीर होतीे जा रही हैं, क्योंकि इस समय कोरोना पीक पर चल रहा है। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े तमाम लोगों का कहना है कि यूपी में कोरोना गांवों में भी  पैर पसारने लगा है। कोरोना संक्रमित मरीज शहरी आबादी में ही नहीं हैं, बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी बड़ी तादाद में मिल रहे हैं। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि विभिन्न जिलों के प्रशासन  ग्रामीण इलाकों में भी कंटेनमेंट जोन बड़ी संख्या में बना रहे हैं। प्रदेश के पांच जिले अयोध्या, बाराबंकी, रायबरेली, सीतापुर और सुलतानपुर से यह जानकारी सामने आ रही है कि इन जिलों की शहरी तहसील में तो कंटेनमेंट ज्यादा हैं, लेकिन ग्रामीण तहसीलों में भी कंटेनमेंट जोन कम नहीं हैं।


    उक्त जिलों के ग्रामीण इलाकों से यह बात भी सामने निकल कर आ रही है कि पहले तो दूसरे राज्यों से गांव-गांव प्रवासी श्रमिकों की वजह संक्रमण फैला था। उसके बाद लॉकडाउन खत्म होने के बाद शहर में नौकरी करने या सामान लेने गए ग्रामीण जब गांव पहुंचे तो उन्होंने अपने साथ ही गांव के और लोगों को भी संक्रमित कर दिया। गांवों में संक्रमण फैलने की एक अन्य वजह यह भी सामने आ रही है कि अनलॉक होने से लक्षणविहीन संक्रमित व्यक्ति गांवों के अन्य घरों में आ जा रहे हैं। इसके चलते गांवों में बुजुर्ग पुरुष व महिलाएं संक्रमित हो रही हैं। चूंकि शहरों की अपेक्षा गांवों में टेस्टिंग और कांट्रैक्ट ट्रेसिंग बेहद कम हो रही है। इसलिए संक्रमण थम नहीं पा रहा है।

    सवाल यही है कि योगी सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी कोरोना नियंत्रित क्यों नहीं हो पा रहा है। आम जनता की बात छोड़िए, योगी सरकार के कई मंत्री भी कोरोना की चपेट में आ चुके हैं। दो मंत्रियों कमलारानी और चेतन चैहान को तो जान तक से हाथ छोना पड़ गई। एक तरफ सरकार और उसकी नौकरशाही शानदार तरीके से कोरोना से निपटने के लिए अपनी पीठ थपथपा रही है तो दूसरी तरफ कोरोना मरीज अस्पतालों में भर्ती नहीं मिल पाने के कारण अस्पताल के बाहर  दम तोड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि कोरोना की जंग लड़ते-लड़ते चिकित्सक,स्वास्थ्य कर्मी, कोरोना वाॅरियर्स सब के सब पूरी तरह से थक चुके हैं। इसी लिए खीझ और थकान के चलते यह लोग कोरोना पीड़ितों के साथ अमानवीय व्यवहार करने से भी बाज नहीं आ रहे है। बड़ी लड़ाई जितने के लिए तैयारी भी बड़े स्तर पर की जानी चाहिए,लेकिन लगता यही है कि बीच रास्ते में ही योगी के ‘कर्मयोगी’ हाफने लगे हैं। यह स्थिति उत्तर प्रदेश के दूरदराज के क्षेत्रों की नहीं लखनऊ की है।  


  अगर ऐसा न होता तो लखनऊ के जिलाधिकारी को यह सख्त आदेश नहीं देना पड़ता कि कोविड-19 की डयूटी कर रहे डाॅक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ अब सीएमओ की अनुमति के बिना न छुट्टी ले सकेंगे,न नौकरी छोड़ पाएंगे। जिलाधिकारी ने साफ कहा है कि यदि कोई इसके  खिलाफ आचरण करते हुए छुटटी लेता है या फिर नौकरी छोड़ता है तो उसके खिलाफ राष्ट्रीय आपदा मोचन अधिनियम के तहत कार्रवाई होगी। डीम ने यह भी कहा कि मेडिकल और पैरामेडिकल स्टाफ की लापरवाही के कई मामले सामने आ चुके हैं। इसी कारण सभी कर्मचारियों के लिए आदेश जारी करना पड़ा है।

   जिलाधिकारी की चिंता हकीकत के काफी करीब है। क्योंकि लगातार इस तरह की खबरें आती रहती हैं कि कोरोना मरीज को भर्ती करने में सरकारी अस्पताल का स्टाफ मनमाना रवैया अपनाता है। कोरोना मरीज के भर्ती के लिए बने प्रोटोकाॅल को तार-तार किया जा रहा है। कोरोना मरीज को भर्ती होने से लेकर इलाज की पूरी प्रक्रिया के दौरान बुरी तरह से लूटा जाता है। यह सिलसिला अस्पताल से लेकर शमशान तक जारी रहता है।

  इसकी बानगी गत दिवस तब देखने को मिली जब 28 वर्ष के एक युवा मयंक जायसवाल ने लखनऊ के प्रतिष्ठित विवेकानंद अस्पताल में इलाज नहीं मिलने के चलते दम तोड़ दिया। मयंक को कोरोना पाॅजिटिव था,गंभीर हालत में उसे जिला बलरामपुर से लखनऊ लाया गया था। लखनऊ आने से पूर्व मयंक का इलाज गोंडा में एक निजी क्लीनिक में चल रहा था। जहां हालात बिगड़ने पर वहां के डाक्टर ने उसे डा0 राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान,लखनऊ के लिए रेफर कर दिया था। 

नियमानुसार मयंक की हालात को देखते हुए उसे लोहिया में इलाज मिलना चाहिए था,लेकिन यहां के डाक्टरों ने बैड खाली नहीं होने की बात कहकर उसे रामकृष्ण मिशन दारा संचालित विवेकानंद अस्पताल,निराला नगर में मैमो बनाकर रेफर कर दिया गया। किस अस्पताल में कितने बैड खाली हैं, यह आकड़ा आॅन लाइन रहता है, इसलिए गलती की कोई गुंजाइश नहीं बनती हैं,लेकिन यहां भी मयंक के साथ मजाक किया गया। यहां के स्टाफ ने उसे भर्ती करने से मना कर दिया। इस पर मयंक के घर वालों ने सीएमओ से सम्पर्क साधा तो वहां से जबाव मिला कि आप विद्या अस्पताल चले जाएं। तभी विवेकानंद में भर्ती लाइन में खड़े कुछ लोगों ने बताया कि वह स्वयं विद्या अस्पताल सें वापस आ रहे हैं। वहां तो इलाज के नाम पर लूटखसोट चल रही रही है। उधर, मयंक का आक्सीन सिलेंडर खत्म हो गया था। मयंक के परिवार वालों के काफी हाथ-पैर जोड़ने पर किसी तरह विवेकानंद में उसे (मयंक को) भर्ती कर लिया गया। 

 भर्ती के साथ ही करीब 20 हजार रूपए भी जमा करा लिए,लेकिन मुश्किल से 15-20 मिनट में डाक्टरों ने मयंक को मृत घोषित कर दिया। डाक्टरों की लापरवाही से मयंक की जान चली गई,लेकिन अस्पताल स्टाफ का कलेजा फिर भी नही पसीजा। मयंक की बाॅडी देने से पहले पीपी किट और बाॅडी पैक करने के बैग के नाम पर अस्पताल ने 2450 रूपए और जमा करा लिए। इसके बाद भी करीब चार घंटे के बाद मयंक का शव घर वालों को सौंपा गया। यहां तक की बाॅडी ले जाने के लिए मयंक के परिवार को प्राइवेट एम्बुलेंस तक मंगानी पड़ी। मयंक की बाॅडी जब श्माशान घाट पहुंची तो वहां भी मानवता शर्मशार होती दिखी। मयंक के घर वालों से यहां भी दो पीपी किट मंगवाई गईं,लेकिन मयंक को इलेक्ट्रानिक चिता पर लिटाने तक का काम परिवार वालों से ही कराया गया।

   यह घटना तो एक बानगी भर है। इस तरह के तमाम और उदाहरण भी पेश किए जा सकते हैं। हर तरफ परेशानी ही परेशानी का मंजर है। अब आइवरमेक्टिन टैबलेट को ही ले लीजिए। सीएमओ द्वारा इस टैबलेट को कोरोना मरीज के इलाज के लिए कारगर बताए जाने के बाद इसकी कालाबाजारी शुरू हो गई है। लब्बोलुआब यह है कि जब तक आप का वास्ता किसी अस्पताल से नहीं पड़ता है,तब तक आप सरकारी दावों के आधार पर यह कह सकते हैं कि यूपी में कोरोना के इलाज की बेहतर सुविधाए मिल रही हैं,लेकिन अगर दुर्भाग्य से आप या आपका कोई करीबी कोरोना पाॅजिटिव हो जाता है तो वह मेडिकल और पैरामैडिकल स्टाॅफ के रवैये से तंग आकर मौत तक मांगने लगता हैं।

हवा निकल रही है हवाई कंपनियों की



-निरंजन परिहार


आकाश खाली है। विमान बहुत कम उड़ रहे हैं। दुनिया भर सहित देश का आकाश भी हवाई जहाजों से सूना है। हवाई कंपनियां बहुत कम उड़ानें संचालित रही हैं। नागरिक विमानन क्षेत्र कहीं से भी रफ्तार पकड़ता नहीं दिख रहा। कोरोना के कारण लॉकडाउन के हल्ले में सरकारों ने दुनिया भर के कई देशों में विमान सेवाएं बंद कर दी थीं। अब धीरे धीरे खोल तो दी, पर बहुत कम संख्या में उड़ानें होने के कारण विमान कंपनियों को बहुत घाटा उठाना पड़ रहा है। कोरोना ने विमान कंपनियों को भी बरबाद करने में कोई कमी नहीं रखी है। अनेक एयरलाइंस कंपनियां नौकरियां कम कर रही है, यात्रियों की सुविधाएं समाप्त कर रही हैं और खर्चे समेट रही हैं। क्योंकि कमाई तो है नहीं और घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। अर्थव्यवस्था के जानकार मानते हैं कि हालात सुधरने में कम से कम चार से पांच साल लग सकते हैं। एयकलाइंस कंपनियों के अंतर्राष्ट्रीय संगठन ‘इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन’ (आईएटीए) ने भी कहा है कि दुनियाभर की एयरलाइंस कंपनियों को कोरोना संकट से पहले के यानी मार्च 2020 के स्तर पर पहुंचने के लिए 2024 तक इंतजार करना पड़ सकता हैं।

मुंबई एयरपोर्ट अपनी क्षमता की केवल 10 फीसदी उड़ानें ही संचालित कर रहा है। देश की आर्थिक राजधानी में, जहां हर तीन मिनट में एक विमान या तो उड़ान भरता था या फिर उतरता था, उस सबसे व्यस्ततम मुंबई एयरपोर्ट पर अब आधे घंटे के अंतराल पर केवल दो विमान ही उड़ते - उतरते हैं। हालांकि मुंबई एयरपोर्ट पर उड़ानों की तादाद अब बढा दी गई है। यहां पर पहले एक दिन में 50 केवल फ्लाइट के ऑपरेशन की मंजूरी थी, उसे बढाकर 15 जून से 100 तक कर द‍िया गया है। इसमें से भी 50 फ्लाइट आएगी और 50  फ्लाइट जाएंगी। जबकि मुंबई एयरपोर्ट के पास एक दिन में 1000 उड़ानों का ऑपरेशन हैंडल करने की क्षमता है। ऐसे में धंधा नहीं होने से एयर लाइन कंपनियों की आर्थिक हालत लगातार बहुत खराब होती जा रही है।

अब जब पहले के मुकाबले बहुत कम संख्या में विमान सेवाएं चालू हैं, तो विमान कंपनियों के लिए अपने सारे विमानों को खड़ा रखना पड़ रहा है और अपने सामान्य खर्चे भी निकालना बहुत मुश्किल हो गया है। अकेले मुंबई एयरपोर्ट पर ही विभिन्न भारतीय एवं विदेशी एयरलाइंस से कमसे कम 400 के आसपास छोटे बड़े विमान यूं ही खड़े हैं। एयरलाइंस कंपनियों की वैश्विक संस्था आईएटीए ने भी चिंता व्यक्त की है कि अगर यही हाल रहा, तो एयरलाइंस को बड़ी संख्या में अपने स्टाफ में कमी करनी होगी। एयर इंडिया, इंडिगो, गो एयर, स्पाइसजेट जैसी कंपनियां वैसे भी अपने कर्मचारियों को इस बारे में आगाह कर चुकी है। वैसे, विमान खड़े रहे, तो भी खर्चे लगातार जारी पहते हैं। क्योंकि उनको हैंगर का किराया तो एयरपोर्ट को देना ही होता है, साथ ही लंबे समय तक विमान के खड़े रहने से उन पर मेंटेनेंस भी बहुत ज्यादा आता है।

नागरिक उड्डयन मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने भी पिछले दिनों कहा था कि एयर इंडिया का निजीकरण जरूरी हो गया है, और सरकार इस दिशा में काम कर रही है। उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि सभी एयरलाइंस कंपनियां अपने कर्मचारियों को विदाउट पे लीव पर भेज रही हैं। क्योंकि यह उनकी मजबूरी है। आर्तिक हालात भी हर तरफ बहुत खराब हैं, इस कारण सरकार भी इन कंपनियों की कोई बड़ी आर्तिक मदद करने में अक्षम है। गौरतलब है कि कोरोना वायरस महामारी के कारण भारत ने 23 मार्च से अंतरराष्ट्रीय यात्री उड़ानों पर प्रतिबंध लगा रखा है। केवल वंदे भारत योजना की उड़ानें ही विदेश से कभी कभार भारत आ रही है। इसके साथ ही घरेलू विमान सेवाओं को भी बंद कर दिया गया था। लेकिन बीते 25 मई से घरेलू उड़ानें शुरू कर दी गई थीं, जो बहुत ही कम संख्या में है। इन उड़ान सेवाओं के लिए कोरोना से जुड़ी गाइडलाइंस भी इतनी उलझी हुई है कि एयरलाइंस कंपनियों को उनका पालन करने पर बहुत बड़ा खर्च उठाना पड़ रहा है।

अमेरिका, ब्राजील और भारत जैसे देशों में कोरोना संक्रमण की सबसे तेज रफ्तार की वजह से हवाई कारोबार पर खतरा बरकरार है। दुनिया भर में हवाई यातायात बंद होने से एयरलाइंस उद्योग का भट्टा बैठ गया है। सबसे खराब बात यह है कि कोरोना की वजह से आर्थिक हालात सुधरने में किसी भी तरह की गुंजाइश अब बहुत ही मुश्किल लग रही है। दुनिया भर में तो सात महीने हो गए हैं, लेकिन भारत में कोरोना संक्रमण शुरू हुए पांच महीने पूरे हो गए हैं। लेकिन दुनिया भर में कोरोना संकट बढ़ रहा है। ऐसे में, वर्तमान हालात देखते हुए साफ लगता है कि एयरलाइंस उद्योग को अपनी पहले वाली स्थिति में साल 5 साल लगेंगे। वैसे भी, अर्थशास्त्री भी मान रहे हैं कि संसार के किसी भी धंधे के पहले की तरह फिर से धमकने और चमकने की स्थिति फिर लौटने की गुंजाइश बहुत ही कम है।

23.8.20

कासगंज में दिखी हिन्दू मुस्लिम एकता की मिसाल, देखें वीडियो


 
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा

प्रसिद्ध गीतकार शाहिर लुधियानवी का यह गीत आज उस समय यकायक याद आ रहा है जब हजरत अमीर खुसरो और गोस्वामी तुलसीदास की जन्म स्थली,पूरी दुनिया मे आपसी भाई चारे और साम्प्रदायिक शौहार्द की मशाल पेश करने वाली, भगवान वराह की जन्मभूमि कासगंज ने उस समय एक अनूठी मिशाल पेश की जब यहां मुस्लिम समुदाय के लोगों ने एक बुजुर्ग ब्राह्मण की मौत पर उसकी अर्थी बनाने, अर्थी को कंधा देने,शमशान घाट तक ले जाने और हिन्दू रीति रिवाजों से उसका अंतिम संस्कार करने का कार्य किया।

 हिन्दू मुस्लिम, मंदिर मस्जिद के नाम पर खून बहाने वालों के लिए कासगंज के मुसलमानों ने एक अनूठी मिशाल पेश कर उनके मुंह पर जबरदस्त तमाचा जड़ा है। भारतीय संस्कृति और धर्म के मर्म को समझने वाले लोगों ने आज हन्दुस्तान की गंगा जमुनी तहजीब को जीवित होते हुए देखा।


उत्तर प्रदेश के कासगंज जनपद में कोरोना वायरस के खौफ के चलते लगाए गए साप्ताहिक लॉकडाउन के बीच सहावर ब्लाक के सहावर थाना छेत्र के गांव गढ़का  में हिन्दू-मुस्लिम एकता की अनूठी मिसाल देखने को मिली है। बता दें कि यहां मुस्लिम आबादी के बीच रहने वाले हिन्दू समुदाय के एक बुजुर्ग बाबा हरिओम पंडित का देहान्त हो गया । इसी बीच गांव के मुस्लिमों ने अंतिम संस्कार का बीड़ा उठाते हुए, अंतिम संस्कार की सभी सामग्री को एकत्र किया,बल्कि अर्थी को कांधा देकर पूरे हिंदू रीति-रिवाज से मृतक को अंतिम विदाई भी दी। मुस्लिम समुदाय द्वारा की गई इस पहल की अब हर कोई चर्चा कर रहा है।


 दरअसल यह मामला सहावर ब्लाक के मुस्लिम बाहुल्य गांव गढ़का का है। गांव के ही हाजी राशिद अली ने बताया कि पन्द्रह वर्ष पूर्व गणका रेलवे स्टेशन पर 80 वर्षीय वृद्ध बाबा  हरीओम पंडित मिले  जो कि काफी बीमार थे । उनकी परेशानी देख राशिद अली उन्हें अपने घर ले आए और उन्हें रहने के लिए जगह दे दी और उनकी पूरी देखभाल की। तभी से वह वहां रह रहे थे। उनकी देखभाल व खाने पीने का इंतजाम आसपास के गांव के ही मुस्लिम लोग कर रहे थे। शनिवार सुबह अचानक उनका निधन हो गया तो उनके अंतिम संस्कार करने के लिए मुस्लिम समुदाय के लोगों ने पूरा इंतजाम किया। खुद ही अपने हाथों से नहलाया, अर्थी को बनाया, पिंड लगाकर सभी मुस्लिम समाज के लोगों ने वृद्ध को कंधा देकर श्मशान भूमि पर ले जाकर हिन्दू रीति रिवाज से अंतिम संस्कार किया। वृद्ध को मुखाग्नि हाजी राशिद अली ने दी। पूरे अंतिम संस्कार का इंतजाम गड़का के ग्राम प्रधान उमरु प्रधान की देख रेख में सम्पन्न हुआ।

 इलाके में मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा वृद्ध का अंतिम संस्कार चर्चा का विषय बना हुआ है। लोग खुलकर मुस्लिम समुदाय के उन लोगों की तारीफ कर रहे हैं, जिन्होंने पूरे रीति-रिवाज के साथ एक हिन्दू का अंतिम संस्कार किया है। यहाँ जाति, धर्म, साम्प्रदाय और ऊंच नीच की सभी बेड़ियां टूट गयी।
प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान और शायर अल्लामा इकबाल ने ठीक ही कहा है--

मजहब नही सिखाता आपस मे बैर रखना
हिंदी हैं हम वतन हैं,हिन्दोस्तां हमारा.....

राकेश प्रताप सिंह भदौरिया

वरिष्ठ पत्रकार,एटा/कासगंज

मो0 9456037346

क्षमा में शक्ति का वास, इसीलिए मिच्छामि दुक्कड़म

 - राष्य्रसंत आचार्य चंद्रानन सागर

 

मुंबई। राष्ट्रसंत आचार्य चंद्रानन सागर सूरीश्वर महाराज ने कहा है कि पर्युषण के समापन पर की गई क्षमापना व्यक्ति को महानता की तरफ अग्रसर करती है। असल में क्षमा में बहुत बड़ी ताकत होती है। वह सब बराबर कर देती है। हम जब क्षमा मांगते हैं, तो हमारे मन के भाव बदलने के साथ ही सामने वाले के भाव भी बदल जाते हैं। इसीलिए क्षमापना को परम सुख प्रदान करनेवाले पर्युषण महापर्व की सार्थकता के रूप मे देखा जाता है। नाकोड़ा दर्शन धाम में पर्यूषण महापर्व के दौरान क्षमापना के महत्व पर बोलते हुए आचार्य चंद्रानन सागर ने कहा कि जीवन में क्षमा से बढ़कर कोई दान नहीं है, क्योंकि क्षमादान जीवमात्र में अभय का भाव जगाता है।

मुंबई के पास नाकोड़ा दर्शन धाम में चातुर्मास पर बिराजमान आचार्य चंद्रानन सागर जैन धर्म के प्रतिष्ठित व दिग्गज आचार्यों में गिने जाते है। नाकोड़ा दर्शन धाम के ट्रस्टी प्रवीण शाह बताते हैं कि कोरोना का संकटकाल होने के कारण इस बार लोगों का आना जाना बहुत ही कम रहा। लेकिन फिर भी जो कोई पर्युषण महापर्व के दौरान गुरुदेव से मिला, उसे चंद्रानन सागरजी का अत्यंत अलग स्वरूप देखने को मिला है। प्रवीण शाह बताते हैं कि पूरे पर्यूषण पर्व में चंद्रानन सागरजी परमात्मा स्वरूप में पावन लगे। संवत्सरी पर वे सिद्ध संत स्वरूप में लगे। और क्षमापना के साक्षी बनकर हमारी भूलों को भूलने व भुलाने वाली भगवत्ता का भरोसा बने। परम दर्शन भक्त मोती सेमलानी ने बताया कि चंद्रानन सागरजी पूरे पर्यूषण महापर्व के दौरान हर पल ईश्वरीय आराधना में व्यस्त नजर आए। जाने माने राजनीतिक विश्लेषक निरंजडन परिहार कहते हैं कि चंद्रानन सागरजी ने हम संसारी लोगों के जीवन में पर्यूषण के गहन महत्व को समझाया। तो, उनके शब्द जैसे सदा के लिए मानस पटल पर अंकित हो गए। शताब्दी गौरव के संपादक सिद्धराज लोढ़ा कहते हैं कि हम गर्वित हैं कि हमारे गुरू ज्ञान के भंडार हैं, परमात्मा के पराक्रम से परिपूर्ण हैं और आराधना के मार्ग में भी वे अत्यंत सामर्थ्यवान हैं। लोढ़ा कहते है कि चंद्रानन सागर सूरीश्वर महाराज जैसे महान संतों के आशीर्वाद में बीता इस बार का पर्यूषण पर्व और उनसे मिले क्षमापना का दान हमारे जीवन को वास्तव में सक्षम बनाने के महापर्व समान है।

चंद्रानन सागर कहते है कि पर्यूषण महापर्व के दौरान हमारा सारा ध्यान जीवन में सुखों के संयम पर होता है। यह संयम जिसके जीवन में समा जाता है और जो धार्मिक आचरण को जीता हैउनका देवी-देवता भी अभिनंदन करते हैं। चंद्रानन सागर बताते हैं कि बरसात का पानी भूमि में समाकर उसे उपजाऊ व ऊर्जावान बनाता है। उसी तरह क्षमादान मनुष्य को पवित्रता एवं परम सुख प्रदान करता है। वे कहते हैं कि पर्यूषण महापर्व के दौरान धार्मिक कार्यों एवं धार्मिक आचरण का ज्यादा महत्व इसलिए भी हैक्योंकि यह मानव जीवन के कल्याण का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है। क्षमापना के महत्व की अवधारणा की व्याख्या करते हुए चंद्रानन सागर कहते है कि पर्यूषण महापर्व में धर्म की प्रतिष्ठा का प्राण अवस्थित है एवं उसी के मूल में क्षमापना। उन्होंने कहा कि पर्यूषण महापर्व आत्मा को शुद्ध करने का पर्व है। क्योंकिमन जब शुद्ध होता है तभी वह प्रसन्न होता है। प्रसन्न मन ही क्षमादान देने व पाने की क्षमता रखता है। चेन्नई के श्रावक एवं विख्यात समाजसेवी पारस जैन जावाल बताते हैं कि चातुर्मास के दौरान चेन्नई में कोई पंद्रह साल पहले चंद्रानन सागर महाराज ने क्षमापना पर हिंदी व अंग्रेजी में एक छोटी सी पुस्तक का लेखन किया था। जीवन में क्षमा के महत्व को रेखांकित करनेवाली आचार्य चंद्रानन सागर महाराज की इस पुस्तक में भावनाओं को प्रभावी ढंग से संप्रेषण की शक्ति का संचार था। उस पुस्तक के शब्द शब्द में प्रभाव था, हर वाक्य में तत्व था। इसीलिए उसे पढ़ने के बाद दक्षिण भारत के हजारों युवक युवतियों ने जीवन को धर्म के मार्ग पर अटल रखा, तो आज वे सफलता के शानदार मुकाम पर हैं। आचार्य चंद्रानन सागर ने कहा है कि  पर्यूषण सन्मार्ग पर चलकर अपने जीवन को सार्थक बनाने का पर्व है। 

गर्भवती महिलाओं की स्वास्थ्य रक्षा



डाक्टर संध्या
सीनियर रेजिडेंट, प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग
चिकित्सा विज्ञान संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय


नारी सशक्तिकरण में पुनर्जागरण के चिंतकों श्री राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, श्री ईश्वर चंद्र विद्यासागर एवं पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने काफी न महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की है। महिलाए समाज का अभिन्न अभिन्न अंग है अतः हम सबको उनकी चिंता हीनी चाहिए।।

गर्भावस्था महिला के जीवन का महत्वपूर्ण चरण है। गर्भवती महिलाएं में एनीमिया एक प्रमुख समस्या है।  यह ऐसी स्थिति है, जिसके अंतर्गत रक्त में हीमोग्लोबिन का स्तर सामान्य से कम हो जाता है।  डब्लू एच वो का अनुमान है कि हमारे देश में 42 प्रतिशत महिलाएं एवं 65 प्रतिशत गर्भवती महिलाए एनीमिक है। भारत में एनीमिया प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रक्तस्राव, हृदय विफलता, संक्रमण और प्रिकलम्सिया के कारण मातृ मृत्यु के 40 प्रतिशत लक्षण के लिए जिम्मेदार है।विश्व स्वास्थ्य संगठन  गर्भवती महिलाओं के लिए प्रतिदिन  60 मि.ग्रा. आयरन अनुपूरण की सलाह देता हैं तथा भारत सरकार गर्भवती महिलाओं के लिए प्रतिदिन100 मि.ग्रा  आयरन अनुपूरण की सलाह देता हैं / एनीमिया के उपचार में जागरूकता एवं पौष्टिक व संतुलित आहार की जानकारी जैसे की विटामिन सी, प्रोटीन और लौह से भरपूर आहार, खाने के साथ चाय और काफी के सेवन से दूर रहने की आवश्यकता है। लौह से भरपूर खाद्य पदार्थ जैसे दाल, गुड़, चुकंदर, हरि सब्जियां, मेवे, अंडा, मछली, अंजीर आदि के नियमित सेवन और गर्भावस्था के दूसरी तिमाही से नियमित रुप से आयरन के गोली के सेवन से एनीमिया से बचा जा सकता है।

इंटरनेशनल जनरल ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन एंड पब्लिक हैल्थ के रिपोर्ट के अनुसार विश्व में लगभग 5 लाख से अधिक की मौत गर्भावस्था के दौरान होती है जिसका एक प्रमुख कारण हाई रिस्क प्रेगनेन्सी है । भारत में हाई रिस्क प्रेगनेन्सी की दर 20 से 30 प्रतिशत है। जिसमें प्रमुख रूप से उच्च रक्त चाप, मधुमेह, हृदय या गुर्दे की समस्या, ऑटो इम्यून रोग, थायरायड रोग, महिला की आयु 17 साल से कम या 35 साल से अधिक है। इसके अतिरिक्त गर्भवती महिला को यदि पूर्व गर्भावस्था के दौरान प्रीइकलम्सिया या इकलम्सिया, बच्चा आनुवंशिक समस्या के साथ पैदा हुआ हो, एच आई वी या हेपेटाइटिस सी  के संक्रमण रहा हो तो वह हाई रिस्क प्रेगनेन्सी  का कारण बन सकता है। इससे बचने के लिए महिला को डाक्टर की देखरेख में नियमित रूप से परिछन करवाते रहना चाहिए। गर्भावस्था के दौरान हर महिला को भरपूर मात्रा में पानी पीने जरूरी होता है। जहां तक संभव हो जंक फूड से अपने आप को दूर रखें। गर्भवती महिला को हित या योग्य आहार विहार का सेवन करना चाहिए तथा मैथुन, क्रोध एवं शीत से बचना चाहिए।

वर्तमान में कोविड - 19 संक्रमण तेजी से फैल रहा है ऐसे में गर्भवती महिलाओं को सावधान रहने की अधिक आवश्यकता है। घर से बाहर निकलते समय मास्क का प्रयोग एवं सोशल दिस्टेंसिंग का पालन अवश्य करें। इस दौरान खान पान की आदतों को सुधारते हुए रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाकर भी संक्रमण से बचा जा सकता है।वैश्विक महामारी कोरोना से बचने के एक मात्र उपाय सरकार द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करना हैं। लॉकडाउन खत्म होने के बाद जारी अनलॉक की प्रक्रिया में यह सबसे अहम हो जाता है कि हम अपने और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए निर्धारित नियमों का पालन करें, क्योंकि अभी तक सिर्फ यहीं एक उपाय है, कोरोना से बचने का।"

9.8.20

कोरोना काल और पत्रकारिता का धर्म

कोरोना ने ज़िन्दगी को एक नया अनुभव दिया है, अच्छा भी और बुरा भी। जो जहां जिस कार्यक्षेत्र में है, उसे जीवन के कई सबक मिल रहे है। कोरोना काल से न केवल मानव जाति प्रभावित हुई है, बल्कि जीव जंतु पर्यावरण सब पर कोरोना काल का असर दिखाई देता है। ये सच है कि कुछ लोग इस कठिन घड़ी में निखर गए और कुछ लोग टूट कर बिखर गए। लेकिन इन सब में ज़िन्दगी ने एक सबक जरूर सीखा दिया परिस्थिति चाहे जैसी हो। फ़िर भी जीवन कभी थमता नहीं है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण अगर कुछ है तो वह मीडिया ही है। आज मीडिया ने ही यह साबित कर दिया कि परिस्थिति चाहे जैसी हो लेकिन मीडिया कभी रुकने वाला नहीं।

            कल्पना करें कि दुनिया नष्ट होने वाली ही क्यों न हो लेकिन खबर देने के लिए मीडिया उन परिस्थितियों में भी मौजूद रहेगा! अब प्रश्न यह उठता है कि कौन है ये मीडिया? जो हर सूचना हर खबर से हमें रूबरू करता है और सूचनाओं के महासागर से जन मानस तक खबरें पहुँचाने का कार्य करता है। क्या ये वही मीडिया है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी परवाह न करके हमें जागरूक करता है। यहां मीडिया का मतलब उन तमाम टेलीविजन चैनलों , समाचार पत्रों, रेडियों या वेब पोर्टल से नहीं बल्कि उस इंसान से है, जो हर कठिन घड़ी में हम तक सूचना, सन्देश पहुँचाता है।  किसी पत्रकार ने ठीक ही कहा है कि- "औरों के लिए लड़ता हूं, पर अपने लिए कहा बोल पाता हूं! हां मैं पत्रकार  कहलाता हूं।" कोरोना काल में जब सभी लोग अपने घरों में डरे सहमे थे तब मीडिया ही था, जो हम तक खबरे पहुँचा रहा था। इस संकट की घड़ी में भी हर चुनौती के लिए तैयार रहा। कोरोना काल में जब लोग घरों में कैद थे उस संकट की घड़ी में मीडिया के माध्यम से ही हम तक सूचनाएं पहुँचाई जा रही थी।

  देश में पत्रकारों के लिए कोई विशेष अधिकार नहीं दिए गए है। संविधान में भी प्रेस का कही कोई जिक्र नही किया गया है। अनुच्छेद-19; सभी व्यक्तियों को बोलने की, स्वतंत्र रूप से अपनी बात रखने की आजादी प्रदान करता है। यही अनुच्छेद पत्रकारों पर भी लागू होता है। वही हम अनुच्छेद-19(ख) की बात करे तो यहां कुछ बंदिशों का जिक्र जरूर किया गया है। जिनके दायरे में सभी पत्रकार आते है। यूं तो पत्रकारों के लिए हमेशा से ही विशेष अधिकारों और कानून की बात होती रही है, लेकिन अब तक इस पर कोई विशेष प्रावधान नही बन पाए है। इस आपदा काल में पत्रकारों ने जिस जिम्मेदारी से अपने कार्य का निर्वहन किया है, उसने पत्रकारों के प्रति नज़रिया बदल दिया है। यही वजह है कि इस कोरोना काल में देश के प्रधानमंत्री ने देश के नाम संबोधन में डॉक्टरों, पुलिसकर्मियों, अस्पताल कर्मचारियों की ही तरह पत्रकारों को भी जरूरी सेवाओं में शामिल किया। अब पत्रकारों की भी ये जिम्मेदारी बन गयी है, कि वे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन पूरी ईमानदारी से करे।

          आज जब देश वैश्विक महामारी से ही नही जूझ रहा है, अपितु देश में सांस्कृतिक, राजनैतिक, प्राकृतिक और भौगोलिक सभी मोर्चो पर अशांति व्याप्त है। देश मे कोरोना महामारी अपने विकराल और भयावह रूप में है , तो वही राष्ट्र की सीमा पर चीन, पाकिस्तान और नेपाल की तरफ से अशांति फैलाई गई है। ऐसे में पत्रकारों को न केवल इस वैश्विक महामारी का ही अपितु देश के बाहरी दुश्मनों से भी देश को अवगत कराना है।  साथ ही इस संकट में पत्रकारों को सभी मोर्चो के लिए तैयार रहना है। आज जिन हालातों से देश रूबरू हो रहा है वैसी परिस्थितियां शायद पहले कभी नहीं थी, आज लोग डरे हुए है सभी चाहते है कि उन तक सही जानकारी पहुँचे। पत्रकार और पत्रकारिता का भी यही धर्म है कि वह हर परिस्थिति में अपनी जिम्मेदारियों को समझे। आज पत्रकारों को अपने गौरवशाली इतिहास के मायनो को पुनः समझना होगा। देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी का नैतिकता से निर्वहन करना होगा।

जिस प्रकार के युद्ध आज वास्तविक परिदृश्य में लड़े जा रहे है, उन हालातों को आज हर पत्रकार को समझने की जरूरत है। आज युद्ध हथियारों से कही अधिक सूचना और संचार क्रांति के दम पर लड़े जा रहे है। ऐसे में पत्रकारों का भी यह कर्तव्य बनता है कि वह किन सूचनाओं को उजागर करे। किस प्रकार से खबरे प्रसारित करे जिससे देश की सुरक्षा बनी रहे। प्रेस फ्रीडम इंडेक्स-2020 की बात करे तो हमारे देश में आज भी प्रेस की आज़ादी पर बंदिशें लगी है। रिपोटर्स विदाउट बाडर्स के वार्षिक विश्लेषण में वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों में भारत 142वें स्थान पर है। रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि 2019 में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कश्मीर के इतिहास का सबसे लंबा कर्फ्यू भी लगाया गया था। रिपोर्ट में कहा गया कि यह प्रेस की आजादी का उल्लंघन है। पत्रकारों को स्वयं यह समझना होगा कि राष्ट्र हित मे लगाई गई पाबंदी को किस तरह से देखना है। आज देश में राष्ट्रवाद का शोर भी बहुत जोरो से सुनाई दे रहा है। राष्ट्रप्रेम की भावना और सच्चे राष्ट्रवाद में ज़मीन आसमान का अंतर है। एक पत्रकार को यह तय करना होगा कि वह खबरों को किस तरह से प्रस्तुत करें। आज भले ही पत्रकारिता पर बाज़ारवाद हावी हो गया हो। लेकिन आज भी देश की आर्थिक राजनीतिक परिदृश्य में पत्रकारिता अपनी निर्णायक भूमिका निभा रही है। देश की दिशा और दशा को आज भी मीडिया के द्वारा ही परिवर्तित किया जा सकता है। अतः एक पत्रकार का यह दायित्व बनता है कि वह अपना व्यक्तिगत लाभ न देखकर देशहित में पत्रकारिता करे। जिससे लोगो का विश्वास पत्रकारिता और पत्रकार दोनों पर बना रहें।

सोनम लववंशी
लेखिका
7000854500

हमारा पिटना किसी त्योहार से कम नहीं

त्योहार का आना और हमारा पिटना किसी त्योहार से कम नहीं। त्योहार की गमक और पिटने की धमक से हमेशा सिटपिटाये रहते। पिटाई का जश्न हर त्योहार पर मनाया जाता। त्योहार के साथ मिठाई और पिटाई आती। बुआ आये या फूफा पिटाई दाल में नमक की तरह जरूरी है। कभी-कभी बिना त्योहार के पिटाई हो जाती। परीक्षा पहले के और परीक्षा बाद तो पिटाई बनती है। अचानक पिटाई का कारण समझ में तब आता जब मास्टर जी बैठक से बाहर निकल रहे होते।

खैर बेशरम का पौधा भी हमारे सामने शरम से नतमस्तक हो जाता। मास्टर जी  साहित्यकार की तरह भड़ास निकालते और चले जाते। मास्टर जी की साइकल में कल बबूल के कांटे घुसेड़कर इमली के पेड़ के नीचे जश्न मनाया था। बिचारा साइकल का पहिया धहसत में जमीन में समा गया। पंचर वाला पहचान गया। झम्मन का काम है। मास्टर जी शिकायत समारोह आयोजित करने घर आ धमके। पिटाई पर  निबंध लिखे जाने से पूर्व ही मां ने मोंगरी से भूमिका लिख दी। मास्टर जी के जाने के बाद पिताजी ने निबंध का उपसंहार कर दिया। मास्टर जी की कहानी को कल स्कूल में जाकर पढ़ना था। खैर, शिक्षा के गिरते स्तर की तरह शाम को तो पिटना ही था।

पिटना मेरे लिए राष्ट्रीय त्योहार था। यह त्योहार कभी भी मना लिया जाता। स्कूल में नेताजी या घर में चाचा जी आ जाएं। लाइन में नेताजी के सामने सब सीधे तो हम तिरछे खड़े हो जाते। तिरछा खड़ा आदमी और टेड़ा पेड़ नेताजी की पसंद है।

तिरछे पेड़ ही जंगल का राज जानते हैं। सीधे तो कटते जाते हैं। श्रेष्ठ भेदियें के रूप में पहचान कायम थी। यह मालूम था, जानकारी हमसे लेंगे। पहले आश्वासन ले लेते पिटाई का मंचन  नहीं होगा। लड़कियों के सामने मुर्गा नहीं बनाया जाएगा। सुकृत्य बखान के लिए पिताजी को स्कूल नहीं बुलाया जाएगा।

शिक्षा अधिकारी और नेताजी के बुलाने से पहले मास्टर जी को घुड़की दे आते। पहले हमें बुलायेंगे फिर तुम्हें बुलायेंगे। फिर ऐसी जगह फेंकेगे जहां बच्चों को पीटने तो क्या देखने को तरस जाओगे।

एक-दो माह तक पिटाई शो पर रोक लग जाती। नेताजी से मुलाकात को गरिमामय बताया जाता। तारीफ में पुल बनाये जाते।  ये पुल एक माह में गिर जाते। पुल गिरते ही पिटाई अभिनंदन शुरू हो जाता।

त्योहार कोई सा भी हो फर्क नहीं पड़ता। होली की पिटाई रक्षाबंधन तक याद रहती। जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी बीमा योजना की तरह। होली के पहले भी और होली के बाद भी, हमारी धुनाई तय थी।

होली से पहले पिताजी बरामदे में सबके सामने हिदायतों के पैकेज जारी करते। धमकियों की अग्रिम किस्त खाते में जमा कर दी जाती। डंडा पंचाग दिखाकर भविष्यवाणी की जाती। पिछले साल का काला चिटठा दिखाया जाता। हमारे स्वीस खाते में जमा रकम की जानकारी ली जाती। उसका उपयोग कहां किस उत्पात के लिए उपयोग करेंगे। नेताओं से स्वीस खातों की जानकारी कोई नहीं उगलवा पाया, पिताजी भी उसी तरह नाकाम रहते।

होली के पहले सभी जेबों पर बाउंसर बिठा देते। हमारी सेहत पर कौन असर पड़ना था। हम मिठाई एक किलो के स्थान पर नौ सौ ग्राम, चीनी 10 किलो की जगह 9 किलो और न जाने कहां-कहां से जेब में काला धन इकट्ठा हो जाता। त्योहारों के मौसम के बाद पिटाई का जश्न होली पर विशेष रूप से मनाया जाता। होली पर कोई पहचान नहीं पाता। दाड़ी वाला था या मूंछ वाला। पटेल का छोरा था या झम्मन।  

पिताजी को अटूट विश्वास था। घर में भले डाका डाल ले, लेकिन छोटी-मोटी चोरी कभी नहीं करेगा। पैकेट से एक-दो सिगरेट चुरा ले, लेकिन लेकिन दारू नहीं पियेगा। होली की पिटाई के बाद चार पांच महीने बाद पींठ फिर खुजाने लगती।

रक्षाबंधन से त्योहार शुरू हो चुके हैं। मिठाई और पिटाई दोनों का इंतजार जल्द समाप्त होने वाला था। मिठाई की खुशी में सिगरेट का पैकेट उड़ा दिया। त्योहार से पहले पश्चिमी विक्षोभ की तरह पिटाइ हो गयी। अब सिलसिला होली तक अनवरत चलेगा। होली के बाद मिठाई, पिटाई और स्कूल की छुट्टी हे जाती है।

सुनील जैन राही
एम-9810 960 285

कारपोरेट भगाओ-किसान बचाओ के नारे पर मनाया लोकतंत्र बचाओ दिवस


उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में आइपीएफ व सहमना संगठनों ने किए कार्यक्रम

रिहाई, काले कानूनों का खात्मा, कमाई, दवाई, पढ़ाई के सवालों को उठाया


लखनऊ 9 अगस्त 2020, भारत छोड़ों आंदोलन के ऐतिहासिक दिन “कारपोरेट भगाओ-किसान बचाओ” के नारे पर पूरे देश के सैकड़ों किसान और मजदूर संगठनों के आव्हान पर उत्तर प्रदेश, तमिलनाडू, झारखंड, उडीसा, कर्नाटक व महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में आल  इण्डिया पीपुल्स फ्रंट व सहमना संगठनों द्वारा “लोकतंत्र बचाओ दिवस” मनाया गया। कनार्टक में आइपीएफ नेता राधवेन्द्र कुस्तगी, झारखण्ड़ में हफीर्जुरहमान व मधु सोरेन, तमिलनाडु में कामरेड पांडियन के नेतृत्व में कार्यक्रम हुआ और जन जागरण अभियान व बात अधिकार की टीम ने सोशल मीडिया पर उडीसा के आइपीएफ नेता मधुसूदन शेट्टी, महाराष्ट्र की ज्योति काम्बले व दिल्ली की रियासत ने टवीट्र कैम्पेन चलाया।

यह जानकारी आल इंण्डिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता व पूर्व आईजी एस आर दारापुरी ने प्रेस को जारी अपने बयान में दी। उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश के सीतापुर में मजदूर किसान मंच के महायचिव डा0 बृज बिहारी व आइपीएफ नेता सुनीला रावत, लखीमपुर खीरी में पूर्व सीएमओ डा0 बी आर गौतम, वाराणसी में आइपीएफ जिला संयोजक योगीराज सिंह पटेल, सोनभद्र में आइपीएफ जिला संयोजक कांता कोल, मजदूर किसान मंच के जिला महासचिव चर्चित उभ्भा गांव निवासी राजेन्द्र सिंह गोंड़, ठेका मजदूर यूनियन के जिलाध्यक्ष कृपाशंकर पनिका व तेजधारी गुप्ता, आदिवासी नेता जितेन्द्र धांगर, मजदूर किसान मंच जिलाध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद गोंड़, रामदास गोंड़, मंगरू प्रसाद गोंड़, इंद्रदेव खरवार, श्याम खरवार, राजकुमार खरवार, कैलाश चैहान, चंदौली में मजदूर किसान मंच नेता अजय राय, संयोजक रामेश्वर प्रसाद, गंगा चेरो, युवा मंच नेता आलोक राजभर, इलाहाबाद में युवा मंच संयोजक राजेश सचान, आगरा में वर्कर्स फ्रंट उपाध्यक्ष ई0 दुर्गा प्रसाद, गोण्डा में मोहम्मद साबिर अजीजी व आरिफ, बस्ती में राजनारायण मिश्रा, लखनऊ में कर्मचारी संघ महिला समाख्या की प्रदेश अध्यक्ष प्रीती श्रीवास्तव व शगुफ्ता यासमीन, राधेश्याम, योगेश, चित्रकूट में संघ की महामंत्री सुनीता, श्रवास्ती में इंदु गौतम, 181 वूमेन हेल्पलाइन की नेता पूजा पांड़ेय, बदायूं की नीतू सिंह, गाजीपुर की दीपशीखा व नेहा राय,  महाराजगंज अनीता, बहराइच उमी सिंह, वंदना, कुशीनगर में विजय लक्ष्मी सिंह, मऊ में सारिका दूबे, सीतापुर रामलल्ली पटेल, रंजना मिश्रा संत कबीर नगर, सीमा श्रीवास्तव सुल्तानपुर, ज्ञाना यादव कौशाम्भी, वर्षा यादव झांसी, प्रियंका तिवारी मिर्जापुर, देवरिया की मालामनी त्रिपाठी, बिजनौर से खुशबू, बागपत की रीता, बलरामपुर से मंशा देवी ने कार्यक्रमों का नेतृत्व किया। कार्यक्रम में शामिल रहे लोगों ने दिनभर अपने वीडियों, फोटो ट्वीटर, फेसबुक और वाट्सअप ग्रुपों में डाले।

“लोकतंत्र बचाओ दिवस” के इस कार्यक्रम में मूलतः रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य के अधिकार की गारंटी, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं की रिहाई व उनके उत्पीड़न पर रोक लगाने, काले कानूनों का खात्मा, इनकम टैक्स न देने वाले हर परिवार को पांच हजार रूपए नगद, कोविड मरीजों का मुफ्त इलाज, 181 महिला वूमेन हेल्पलाइन व महिला समाख्या के बकाए वेतन का भुगतान व कार्यक्रमों  की बहाली, वनाधिकार के तहत पट्टा, कोल व धांगर को आदिवासी का दर्जा, पर्यावरण की रक्षा, निजीकरण और श्रमिक अधिकारों के खात्मे पर रोक, किसानों को डेढ गुना दाम व कर्जा मुक्ति के लिए कानून, सहकारी खेती की मजबूती, आंगनबाड़ी, आशा, ठेका मजदूरों समेत सभी मजदूरों को सम्मानजनक वेतन आदि सवालों को उठाया गया।

एस आर दारापुरी
राष्ट्रीय प्रवक्ता,
आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

पढ़ा लिखा डिजिटल बकरा

आज प्रात: भ्रमण के दौरान एक बकरे से मुलाकात हो गयी। बकरा कुछ ज्यादा ही अनमना एवं उदास दिख रहा था तो मैंने भी पूछ ही लिया —

''क्या हुआ भाई उदास क्यों दिख रहे हो? खाने को घास नहीं मिल रही है क्या?''

बकरा बोला ''अरे भाई अभी तो बरसात का मौसम है चारों तरफ हरी  — हरी घास ही घास, भला इस मौसम में घास की क्या कमी।''

मैं — ''फिर किस बात की चिन्ता है? अब तो ईद भी निकल चुकी है।''

बकरा — ''अरे वो बात नहीं है भाई, मेरी चिन्ता दूसरी है, सही पूछो तो चिन्ता मेरी नहीं बल्कि पूरे बकरा समाज की है''

मैं — ''ऐसी क्या चिन्ता है? और कौन है इस चिन्ता का कारण।''

बकरा — ''दरअसल हमारी चिन्ता है हमारे अधिकारों पर अतिक्रमण?''

मैं — ''अधिकारों पर अतिक्रमण? किसने किया है तुम्हारे अधिकारों पर अतिक्रमण?''

बकरा — ''तुम लोगों ने और किसने''

मैं — ''हम लोगों ने? दिमाग तो ठीक है तुम्हारा? पता है क्या कह रहे हो?''

बकरा — ''मेरा दिमाग बिल्कुल ठीक है, बल्कि ये कहो कि सृष्टि में बकरों की उत्पति के बाद पहली बार हमारा दिमाग सही हुआ है। सालों से तुम लोग बकरों की जगह विधानसभा में इन्सानों को चुनकर भेज रहे हो। क्या ये हमारे अधिकारों का हनन नहीं है?''

मैं — ''क्या बक रहे हो? तुम्हे किसने कह दिया कि विधानसभा में बकरों को भेजा जाता है।''

बकरा — ''तुम मुझे पुराना अशिक्षित बकरा मत समझो जो तुम्हारी हर बात मान जाता था। अब मैं वो मासूम जनता नहीं जो हर बार नेताओं के बहकावे में आ जाती है। तुम इन्सानों की संगत में रहकर तुम्हारे सारे छल प्रपंच अच्छी तरह पहचानने लगा हूं। मैं आज कल का पढ़ा लिखा डिजिटल बकरा हूं, अखबार पढ़ लेता हूं, टी.वी. पर समाचार देखता हूं, सोशल मीडिया का भी प्रयोग करता हूं, अब अपने अधिकारों को अच्छी तरह पहचानने लगा हूं''

मैं — ''अच्छा कैसे समझाओ भला?''

बकरा — ''बताओ कौनसी योग्यता है जो हम नहीं रखते । जिस बाड़े बन्दी में तुम्हारे विधायकों को रखा जाता है उस बाड़े बन्दी में तो हम सृष्टि के आरम्भ से रहते आ रहे हैं। बाड़े में रहने के मामले में हम उनसे दो कदम आगे हैं बल्कि बाड़े में रहना तो हम बकरों का जन्मसिद्ध अधिकार है। तुम्हारे नेताओं जितने पढ़े लिखे तो हम भी हैं। हमारी भी बोली लगती है और विधायकों की भी तो भला कैसे मानें कि वो बकरे नहीं है। बल्कि हममें तो उनसे भी बढ़कर एक गुण है कि हम अपने मालिक के वफादार है। यदि तुम उनकी जगह हमें चुनकर भेजोगे तो हम तुम्हारी भी पुरजोर तरीके से उठाएंगे। चुनावों में बेतहाशा पैसे बहाने की भी जरूरत नहीं है क्योंकि हम घास खाते हैं नोट नहीं।''

मुझे बकरे के तर्कों के जवाब नहीं सूझ रहे थे

बकरा — ''अगर तुम लोगों को बकरे ही चुनने हैं तो अगले चुनावों में हम भी अपने उम्मीदवार खड़े करेंगे, और तुम लोगों से भी निवेदन है कि हर बार झूठे बकरों को चुनते हो, इस बार सच्चे बकरों को चुनकर देखना। शायद कुछ बदलाव आ जाये।''

इतना कहकर बकरा वहां से चला गया

मैं निरूत्तर सा बकरे को जाते हुए देखता रहा जब तक वो आंखों से ओझल न हो गया

लेखक : पवन प्रजापति
जिला — पाली
मो. : 8104755023
pawannimaj@gmail.com

7.8.20

कारसेवकों को मिली रुसवाई, भाजपा ने खाई मलाई

अजय कुमार, लखनऊ

अयोध्या में भगवान रामलला के मंदिर निर्माण से देश-दुनिया में फैले उनके असंख्य राम भक्त काफी प्रफुल्लित हैं। ऐसा होना स्वभाविक भी है। दुनिया के किसी कोने में किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के भक्त को अपने अराध्या का मंदिर(पूजा स्थल) बनवाने के लिए इतनी लम्बी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी होगी,जितनी रामभक्तों ने की। अयोध्या में रामलला का मंदिर बनने की सभी बाधाएं दूर होने के साथ ही भारतीय जनता पार्टी की भी अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर बनाए जाने की मुहिम अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच गई। भाजपा इस मुद्दे को उछालकर राजनैतिक रूप से जितना फायदा उठा सकती थी,वह उसका उतना फायदा उठा चुकी है। 2024 के लोकसभा चुनाव आते-आते यह मुद्दा और भी ठंडा पड़ जाएगा,इस बात की उम्मीद लगाई जा सकती है।

भारतीय जनता पार्टी के लिए राम मंदिर निर्माण की मुहिम कितनी सार्थक रही,इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1980 में भारतीय जनता पाटी का गठन हुआ था और इसके बाद 1984 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को दो सीटे मिली थीं और 36 वर्षो के बाद भाजपा राम के सहारे दो से  2019 के आम चुनाव में 303 तक पहुंच गई। ( 2014 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने राम लहर के सहारे 282 सीटें जीत कर केन्द्र में सरकार बनाई थी।) दो बार से केन्द्र में बीजेपी के बहुमत वाली मोदी सरकार काबिज है। वैसे मोदी बीजेपी के पहले राजनेता नहीं हैं जो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं। मोदी से पहले भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी दो बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो चुके थे। तब भाजपा के पास पूर्ण बहुमत नहीं था और उसने सामान विचारधारा वाले राजनैतिक दलों का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(राजग) बना कर सरकार बनाई थी। अटल जी पहली बार 16 मई से 1 जून 1996 तक फिर 19 मार्च 1998 से 22 मई 2004 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे थे। उस समय भी राम लहर के चलते ही बीजेपी सत्ता में आ पाई थी।

भाजपा ने 90 के दशक में राम लला के मंदिर निर्माण की मुहिम शुरूआत की थी। यह शुरूआत भाजपा के उभार के लिए टर्निंग प्वांइट रहा तो इसी के चलते कांगे्रस नेपथ्य में चली गई। भारतीय जनता पार्टी जब राम मंदिर निर्माण के आंदोलन में कूदी थी तो उसका ध्येय किसी से छिपा नहीं था। उसका यह निर्णय  शुद्ध रूप से राम मंदिर निर्माण की मुहिम को सियासी जामा पहनाने वाला था।  भाजपा से पहले तक गैर राजनैतिक संगठन विश्व हिन्दू परिषद(विहिप) राम मंदिर निर्माण की ‘लड़ाई’ लड़ते हुए कांगे्रस से दो-दो हाथ कर रही थी। भारतीय जनता पार्टी मंदिर निर्माण की मुहिम में कैसे और क्यों कूदी इसकी ‘बुनियाद’ तलाशी जाए तो काफी कुछ साफ हो जाता है। कांगे्रस के देशव्यापी वर्चस्व को तोड़ने के लिए ही भाजपा ने रामलला को अपने ‘सीने’ में बैठाया था। भगवान राम के सहारे भाजपा टुकड़ों और जातिवाद में बंटी देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी को पार्टी के ‘बैनर तले एकजुट करना चाहती थी,जबकि कांगे्रस हिन्दुओं में बिखराव करके सियासी रोटियां सेंकने में लगी हुई थी। कांगे्रस मुस्लिम तुष्टीकरण की सियासत करती थी और हिन्दुओं में अगड़े-पीछड़े की फूट डालकर कुछ जातियों को अपने साथ मिलाकर सत्ता की सीढ़िया चढ़ जाया करती थी। कांगे्रस के इसी खेल को भाजपा ने हिन्दुओं को एकजुट करके चुनौती दी,तो रामलला उसके सहारा बने। भाजपा पूरे देश में कांगे्रस के वर्चस्व को तोड़ने में लगी थी,तब ही ‘सोने पर सुहागा’ के रूप में उसे एक सुनहरा मौका तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने सरकारी नौकरियों में पिछड़ों को 52 फीसदी आरक्षण के लिए मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करके दे दिया।

90 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह द्वारा अपनी सरकार बचाने के लिए पिछड़ों को 52 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था। इससे भाजपा को हिन्दुओं को एकजुट करके सत्ता हासिल करने की अपनी सियासी जमीन खिसकती नजर आई तो उसने (भाजपा) मंडल के खिलाफ कमंडल (अयोध्या में राम लला के मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन का चलाया जाना) पकड़ लिया। भाजपा ने मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन शुरू किया तो कई क्षेत्रीय क्षत्रपों ने मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए राम मंदिर निर्माण के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया। भाजपा को इससे और भी मजबूती मिली।

हद तो तब हो गई जब 30 अक्टूबर 1990 को मुस्लिम तुष्टीकरण की सभी सीमाएं पार करते उस समय के उत्तर प्रदेश के समाजवादी नेता और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अयोध्या में भगवान राम मंदिर के निर्माण के लिए पहुंचे निहत्थे कारसेवकों पर गोलियां चलावा दी। मुलायम सिंह ने अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाकर विवादित ढांचा (कथित बाबरी मस्जिद) तो उस समय बचा ली, लेकिन इसके बाद बीजेपी मुलायम सिंह यादव की छवि हिंदू विरोधी बनाने में सफल रही,जिसके चलते उत्तर प्रदेश से लेकर देश की सियासत हमेशा के लिए बदल गई। बीजेपी नेता अपने भाषणों में कारसेवकों पर गोली चलवाने के चलते मुलायम को ‘मुल्ला मुलायम’ कह कर संबोधित करने लगे और यह तमगा मुलायम के साथ तब तक जुड़ा रहा,जब तक वह सियासत में सक्रिय रहे। हाॅ, मुलायम ने इसका फायदा भी खूब उठाया। वह खुलकर मुस्लिमों की सियासत करते थे।

बहरहाल, कारसेवकों पर गोली चलाए जाने के कुछ महीनों बाद 1991 में लोकसभा चुनाव हुआ तो बीजेपी 85 से बढ़कर 120 सीट पर पहुंच गई। इतना ही 1991 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हुआ तो मुलायम सिंह बुरी तरह हार गए और बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब रही। कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 1992 में कारसेवक एक बार फिर से अयोध्या में जुटने लगे। 6 दिसंबर 1992 को वही प्रशासन जिसने मुलायम के दौर में कारसेवकों के साथ सख्ती बरतने की सभी सीमाएं लांघ ली थीं,वह कल्याण सरकार में  मूकदर्शक बना रहा और  कारसेवकों ने उसी के सामने विवादित ढांचा   गिरा दिया।

खैर, बात 30 अक्टूबर 1990 को मुलायम सरकार द्वारा कारसेवकों पर गोली चलाने की कि जाए तो मुलायम ने इस घटना को छिपाया नहीं। उन्होंने बकायदा प्रेस के माध्यम से यह जानकारी सार्वजनिक भी की पुलिस फायरिंग में 16 कारसेवकों की मौत हो गई। इतना ही नहीं कारसेवकों पर फायरिंग की जांच के लिए बने  आयोग ने भी अपनी जांच में यही निष्कर्ष निकाला कि 16 कारसेवक पुलिस की गोली से मारे गए थे, इस जांच पर किसी को विश्वास नहीं था।  भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद और तमाम हिन्दूवादी संगठन भी चीख-चीख कर कह रहे थे कि 16 नहीं, सैकड़ों की संख्या में कारसेवक पुलिस फायरिंग में मरे थे,तो हजारों पुलिस की लाठियों और भगदड़ में घायल हुए थे। विश्व हिन्दू परिषद एवं भाजपा नेताओं ने आरोप लगाया था कि सरयू नदी का पानी कारसेवकों के खून से लाल हो गया था,लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि मुलायम सरकार के समय पुलिस फायरिंग में कितने कारसेवकों की मौत हुई थी, इसकी जांच कराना न तो मुलायम के बाद उत्तर प्रदेश में बनी बीजेपी की कल्याण सरकार ने उचित समझा, न ही राजनाथ सिंह से मुख्यमंत्री रहते कोई ऐसी जांच कराई जिससे यह पता चल पाता कि हकीकत में कितने कारसेवक पुलिस फायरिंग में मारे गए थे। दो बार  केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बन चुकी है। मोदी सरकार को भी छह वर्ष से अधिक हो चुके हैं,लेकिन   कारसेवकों की मौत का सही आकड़ा पता लगाने के लिए उसके द्वारा भी इस तरह की कोई पहल नहीं की गई,जिससे कारसेवकों की मौत का सही पता चल सके। जांच तो जांच मारे गए कारसेवकों के परिवार की केन्द्र और राज्यों की बीजेपी सरकार ने कभी सूध लेना भी उचित नहीं समझा।

यहां यह बताना जरूरी है कि भले ही आज तक पुलिस फायरिंग में  मारे गए कारसेवकों की मौत के आंकडे स्पष्ट ही नहीं हुए हों,लेकिन उस वक्त घटना स्थल पर मौजूद रामजन्मभूमि थाने के तत्कालीन एसएचओ वीर बहादुर सिंह ने बाद में जरूर बताया कि कारसेवकों की मौत का जो आंकड़ा मुलायम सरकार द्वारा बताया गया था, उससे कही अधिक संख्या में कारसेवक उस घटना में मारे गए थे। उन्होंने बताया, हमें तत्कालीन मुलायम सरकार को रिपोर्ट देनी थी तो हम तफ्तीश के लिए श्मशान घाट गए, वहां हमने पूछा कि कितनी लाशें हैं जो दफनाई गई हैं और कितनी लाशों का दाह संस्कार किया गया है, तो पता चला कि 15 से 20 लाशें दफनाई गई हैं। हमने उसी आधार पर सरकार को अपना बयान दिया था। जबकि हकीकत यह थी वे लाशें कारसेवकों की थीं। एसएसओ आज भी दावे से कहते हैं उस गोलीकांड में कई लोग मारे गए थे। आंकड़े तो नहीं पता,लेकिन काफी संख्या में लोग मारे गए थे।

अच्छा होता यदि बीजेपी की केन्द्र और तमाम राज्य सरकारें मारे गए कारसेवकों की याद में किसी पुरस्कार की घोषणा कर देते। मारे गए कारसेवकों के परिवार के भरण-पोषण की व्यवस्था कर देते। ऐसा होना संभव भी है। क्योंकि तमाम सरकारें अपने वोट बैंक को खुश करने के लिए मदद के नाम पर इस तरह के कदम उठाती रही हैं। कौन भूल सकता है जब 2013 में मुजफ्फरनगर में हिंसा के बाद अखिलेश यादव ने वोट बैंक की सियासत के चलते मुसलमानों के लिए सरकारी पैसा पानी की तरह बहा दिया था। हमारे एक प्रधानमंत्री तो खुलकर कहते थे कि देश की प्राकृतिक सम्पदा पर मुसलमानों का पहला हक है,लेकिन कारसेवकों को रूसवाई के अलावा कुछ नहीं मिला, जबकि इन्हीं कारसेवकों की ‘पीठ’ पर सवाल होकर भाजपा सत्ता की ‘मलाई’ खा रही है।

30 अक्टूबर 1990 को पुलिस फायरिंग में मारे गए कारेसवकों का दर्द तो उनके परिवार वाले ही बात सकते हैं। फिरभी 05 अगस्त को राम मंदिर भूमि पूजन उन 17 कार सेवकों के परिवारों के लिए खुशी का मौका लेकर आया है, जो अक्तूबर और नवम्बर 1990 में उत्तर प्रदेश पुलिस की फायरिंग में मारे गए थे। राम मंदिर न्यास ने, जो राम मंदिर निर्माण की निगरानी कर रहा है, ने 17 मृत कारसेवकों के परिवार वालों को रामजन्मभूमि पूजन समारोह में आमंत्रित किया तो यह परिवार लम्बे समय के बाद एक बार फिर सुर्खियों में आकर खुश तो हो गया, लेकिन ये चाहते हैं कि इनके प्रिय जनों के ‘बलिदान’ के एवज में सरकार इनकी आर्थिक सहायता करे।

30 अक्टूबर 1990 को  अयोध्या में मरने वाले कारसेवकों में एक राजेंद्र प्रसाद धारकर भी था, जो उस समय सिर्फ 17 साल का था। राजेन्द्र के भाई रवींद्र प्रसाद धारकर, जिन्हें भूमि पूजन में भाग लेने के लिए आमंत्रण पत्र मिला था, को इस बात का बेहद मलाल है कि उसका भाई राजेंद्र प्रसाद धारकर 30 अक्तूबर को फायरिंग में मारा गया था. वो कार सेवा में हिस्सा लेने गया था और वहां बहुत भीड़ जमा हो गई। पहले आंसू गैस छोड़ी गई और फिर फायरिंग हुई. वो केवल 17 साल का था, लोकिन अपने भर का कुछ करना चाहता था। कारसेवा के दौरा मारे गए राजेन्द्र के भाई ने कहा,‘ हम चाहते हैं कि कोई हमारे और हमारी स्थिति के ऊपर भी ध्यान दे। हम आज भी वैसे ही हैं जैसे पहले थे। किसी ने हमारी परेशानियों को नहीं सुना है, चाहे विधायक हो, सांसद हो या पार्षद हो. किसी ने ये देखने की जहमत नहीं उठाई कि एक शहीद का परिवार किन हालात में जी रहा है।उन्होंने कहा कि वो खुश हो जाएंगे, अगर उन्हें मंदिर परिसर के भीतर, एक दुकान लगाने की जगह मिल जाए।

इसी प्रकार सीमा गुप्ता के पिता वासुदेव गुप्ता की अयोध्या में मिठाई की दुकान थी,वह भगवा झंडा फहराने के बाद, घर लौटते हुए मारे गए थे। सीमा ने अपने दर्द को छिपाते हुए कहा, ‘हमारी सारी समस्याएं इस वास्तविकता के सामने मामूली लगती हैं, कि ये मंदिर आखरिकार बन रहा है. मेरे पिता ने मंदिर के लिए अपनी जान दे दी, और पीएम मोदी की बदौलत आज हम ये दिन देख रहे हैं।ं सीमा गुप्ता जो एक ग्रेजुएट हैं, अब एक गार्मेंट की दुकान चलाती हैं, और चाहती हैं कि सरकार उन्हें कोई नौकरी दिलाए. उन्होंने आगे कहा, ‘सड़क-चैड़ीकरण परियोजना के तहत इस दुकान को हटा दिया जाएगा. मेरे लिए जीविका का यही एक साधन है. मेरा आग्रह है कि या तो दुकान के लिए मुझे मंदिर के भीतर कुछ जगह दी जाए, या फिर कोई नौकर।.’

इसी प्रकार गायत्री देवी जो कार सेवक रमेश पाण्डे की विधवा हैं, के पति भी 30 अक्टूबर 1990 को 35 वर्ष की आयु में मारे गए थे. उन्होंने भी गुप्ता और धनकर जैसी ही इच्छा जाहिर की। उन्होंने कहा, ‘मेरे पास ज्यादा पैसा नहीं था (जब मेरे पति की मौत हुई) और फिर भी मैंने अपने बच्चों की परवरिश की. मेरे बेटे कुछ प्राइवेट काम करते हैं, जो उनके लिए काफी नहीं पड़ता। आज भी, मेरे पास आय का कोई दूसरा साधन नहीं है। जिस घर में मैं रहती हूं, किराए का है, इसलिए मैं उम्मीद करती हूं कि सरकार हमारी मदद करेगी।’

लब्बोलुआब यह है कि मारे गए कारसेवकों के परिवार के सदस्यों  इस बात का बेहद मलाल है कि वह तो रूसवाई में जी रहे हैं,जबकि भाजपा उनकी पीठ पर चढ़कर मलाई मार रही है।   

लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

5.8.20

राम मंदिर पर प्रियंका गांधी के बयान ने बदले कांग्रेस के सुर

गहलोत, सुरजेवाला, तिवारी, कमलनाथ, डांगी के बयानों में दिखा संतुलन

विशेष संवाददाता

नई दिल्ली। राम मंदिर पर कांग्रेस में एक तरह का रणनीतिक बदलाव साफ नजर आ रहा है। सामान्य तौर पर कांग्रेस राम मंदिर के मामले में हमेशा से सेक्युलर लाइन पर चलती आई है। इस मुद्दे पर कांग्रेस ने खुलकर हिन्दुत्व के एजेंडे को कभी नहीं स्वीकारा। लेकिन मंगलवार को कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने राम जन्म भूमि मंदिर के भूमिपूजन के लिए शुभकामनाएं दीं और यह भी कहा कि राम सबमें हैं। लंबे समय के बाद ऐसा हुआ है जब गांधी परिवार के सदस्य ने राम मंदिर पर खुलकर बयान दिया हो। उधर, प्रियंका गांधी के बयान के अलावा भी अशोक गहलोत, रणदीप सुरजेवाला, मनीष तिवारी, नीरज डांगी, कमलनाथ जैसे कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं के राम मंदिर भूमि पूजन के मौके पर बयान आए हैं, जिसमें काफी संतुलन देखा जा रहा है। हालांकि दिग्विजय सिंह का बयान थोड़ा लीक से हटकर है, लेकिन माना जा रहा है कि कांग्रेस के इस सॉफ्ट हिन्दुत्व के संदेश से पार्टी के भीतर आनेवाले दिनों में एक नई धारा प्रवाहित हो सकती है। 

देखा जा रहा था कि अयोध्या में 5 अगस्त को हो रहे राम जन्म भूमि मंदिर के भूमिपूजन को लेकर बीते कुछ दिनों से कांग्रेस में अलग-अलग तरह के बयान आ रहे थे। जिनमें मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कापी मुखर होकर विरोध के स्वर में बोल रहे थे। लेकिन राम मंदिर पर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के ताजा बयान के बाद कांग्रेस की ओर से अब एक ही रुख में बयान दिख रहे हैं। प्रियंका गांधी ने अपने ट्वीट में लिखा  कि राम सबमें हैं, सबके साथ राम हैं।  सरलता, साहस, संयम, त्याग, वचनवद्धता, दीनबंधु राम नाम का सार है। भगवान राम और माता सीता के संदेश और उनकी कृपा के साथ रामलला के मंदिर के भूमिपूजन का कार्यक्रम राष्ट्रीय एकता, बंधुत्व और सांस्कृतिक समागम का अवसर बने। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ट्वीट करके कहा कि प्रधानमंत्री के लिये राम मंदिर शिलान्यास साहस दिखाने व लोगों को यह संकल्प लेने के लिये कहने का एक अवसर है कि मानवता पर लगे छुआछूत के कलंक को मिटायें तथा दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के साथ समानता का व्यवहार करें। कांग्रेस के युवा राज्यसभा सांसद नीरज डांगी ने भी प्रियंका गाधी के तत्काल बाद ट्वीट करके कहा कि भगवान राम राष्ट्रीय एकता, बंधुत्व एवं सांस्कृतिक समागम के प्रतीक पुरुष थे। राम जन्म भूमि मंदिर के भूमिपूजन का यह आयोजन भगवान रामजी के इस संदेश की स्थापना का कार्यक्रम बने, इसी में इस आयोजन की सफलता है। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि रीम जन्मभूमि के मंदिर भूमिपूजन के मौके पर वे कोई राजनीतिक टिप्पणी नहीं करेंगे, लेकिन उन्होंने इतना जरूर कहा कि राजनीति का धर्म होना चाहिए, लेकिन  धर्म की राजनीति नहीं होनी चाहिए। कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता और सांसद मनीष तिवारी ने ट्विटर पर रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम, सब को सन्मति दे भगवान लिखने के साथ ही यह भी कहा कि राम मंदिर के भूमि पूजन पर सभी देशवासियों को और सभी श्रद्धालुओं को कोटी कोटी बधाई।

कांग्रेस ने कभी खुलकर न तो राम मंदिर का समर्थन किया और न विरोध किया। लेकिन अब लग रहा है कि कांग्रेस राम मंदिर निर्माण में पार्टी के योगदान को रेखांकित करने में जुट गई है। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने इसीलिए कहा कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी मंदिर का निर्माण करना चाहते थे। राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार मानते हैं कि कांग्रेस ने बीते कुछ वक्त से धार्मिक मामलों में अपना रुख बदलने की कोशिश की है। प्रियंका गांधी का राम मंदिर के बहाने धर्म के मामले पर खुलकर तो अब बोली है, लेकिन राहुल गांधी की छवि भी शिवभक्त के तौर पर देश के सामने पहले से ही है। परिहार मानते हैं कि इसे कांग्रेस का सॉफ्ट हिन्दुत्व का संदेश देना माना जा सकता है, जो आनेवाले दिनों में कांग्रेस में एक नई चर्चा छेड़ सकता है। हालांकि प्रियंका गांधी के बयान से पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने 5 अगस्त को अशुभ दिन बताते हुए राम जन्मभूमि में मंदिर का भूमि पूजन को टालने की बात कही थी। लेकिन साथ में यह भी कहा था कि राम मंदिर आस्था का विषय होना चाहिए, राजनीति का नहीं।

कविता का काम जितना वर्णन करना होता है उतना सवाल उठाना भी होता है - प्रो. चित्तरंजन मिश्र


अलवर, राजस्थान। नोबल्स स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रामगढ़, अलवर (राज ऋषि भर्तृहरि मत्स्य विश्वविद्यालय, अलवर से संबद्ध) एवं भर्तृहरि टाइम्स पाक्षिक समाचार पत्र, अलवर के संयुक्त तत्त्वावधान में एक दिवसीय राष्ट्रीय स्वरचित काव्यपाठ/ मूल्यांकन ई-संगोष्ठी- 5 का आयोजन किया गया; जिसका विषय ‘स्वेच्छानुसार' था। इस ई-संगोष्ठी में 23 राज्यों एवं 5 केंद्र शासित प्रदेशों से संभागी जुड़े, जिनमें 21 कवि-कवयित्रियों ने अपना काव्य-पाठ प्रस्तुत किया।

इस ई-संगोष्ठी में मूल्यांकनकर्ता वरिष्ठ आलोचक एवं साहित्य-मर्मज्ञ प्रो. चित्तरंजन मिश्र थे। कार्यक्रम की शुरुआत में डॉ. सर्वेश जैन, प्राचार्य, नोबल्स स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रामगढ़ (अलवर) ने टिप्पणीकार का स्वागत करते हुए बताया कि प्रो. मिश्र की हिंदी साहित्य में अब तक 7 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्तमान में प्रो. मिश्र साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली के हिंदी परामर्श मंडल के संयोजक हैं। डॉ. जैन ने सभी कवि-कवयित्रियों और श्रोताओं/ संभागियों का भी स्वागत किया।

काव्य-पाठ के उपरांत प्रो. चित्तरंजन मिश्र ने सभी कवि-कवयित्रियों की कविताओं का मूल्यांकन करते हुए प्रत्येक कविता पर अलग-अलग टिप्पणी की। अपने विद्वत्तापूर्ण वक्तव्य में आगे उन्होंने कहा कि कविता कम शब्दों का व्यापार है। कविता जितना शब्दों और पंक्तियों से कहती है, उतना ही वह शब्दों और पंक्तियों के अंतराल से भी कहती है। यह बात मैं सभी कवियों से कह रहा हूं। हर बात कविता में कही नहीं जाती, कुछ संकेत छोड़े जाते हैं और उन संकेतों के आधार पर पाठक और श्रोता खुद ही उस कविता में आशय को खोजता है। कई बार पंक्तियों में अंतराल रहता है, शब्दों में जो गैप होता है, बिटवीन-द-लाइंस, उसमें पाठक उस आशय को खोज लेता है। किसी एक बड़े आलोचक ने कहा है कि कविता का काम जितना कहना होता है, उतना ही न कहना भी होता है। छिपाने और दिखाने का द्वंद कविता में आना चाहिए। आगे उन्होंने कहा कि कविता हमारे भीतर के सूखते हुए भावों को हरा करती है। हमारे भीतर के भाव, हमारे भीतर की जो संवेदनशीलता कम हो रही होती है, कविता उस संवेदनशीलता को बढ़ाती है। कविता आदमी के मन को थोड़ा भारी करती है। खुशियों में उसे चुप करती है और दुखों में उसे उत्साह देती है।

अपने वकतव्य में आगे उन्होंने कहा कि कविता का काम जितना वर्णन करना होता है उतना सवाल उठाना भी होता है। सवाल उठाने वाली कविता अच्छी मानी जाती है। वर्णन करने वाली कविता सवाल उठाकर और अच्छी हो जाती है।

लगभग 3 घंटे तक चली इस ई-संगोष्ठी में काव्य-पाठ करने वालों में सर्वश्री अमोद कुमार (दरभंगा, बिहार) ने अपनी ‘औद्योगिक मिथिला निर्माण’, आकांक्षा कुरील (वर्धा, महाराष्ट्र) ने ‘किसान’, अनीता वर्मा (भुज, गुजरात) ने ‘कड़वा सच’, मोहन दास (तेजपुर, असम) ने ‘तिरंगा की आवृत्ति’, के. कविता (पुडुचेरी) ने ‘रिश्तों की कविता’, केदार रविंद्र केंद्रेकर (परभणी, महाराष्ट्र) ने ‘लोकमान्य तिलक स्मृति शताब्दी वर्ष’, डॉ. निशा शर्मा (बरेली, उत्तर प्रदेश) ने ‘करुण पुकार’, लव कुमार गुप्ता (जौनपुर, उत्तर प्रदेश) ने ‘भारत ये जिंदाबाद रहे’, वंदना राणा (कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश) ने ‘उजले आसमान का तारा हूं मैं’, देवेंद्र नाथ त्रिपाठी (डुमरी, झारखंड) ने ‘मजदूर’, जोनाली बरुवा (धेमजी, असम) ने ‘आर्तनाद’, उमा रानी (नोएडा, उत्तर प्रदेश) ने ‘ऐसे होते हैं पापा’, संजय कुमार (आजमगढ़, उत्तर प्रदेश) ने ‘कोरोना का कहर’, अंचल कुमार राय (गुवाहाटी, असम) ने ‘मैं दुखियारी सड़क किनारे’, प्रदीप कुमार माथुर ने (अलवर, राजस्थान) ने ‘महंगाई’ एवं ‘नारियों के प्रश्न’, के. इन्द्राणी (नमक्कल, तमिलनाडु) ने ‘आत्मनिर्भरता’, कमलेश भट्टाचार्य (करीमगंज, असम) ने ‘जमाई शोष्ठी’, अंजनी शर्मा (गुरुग्राम, हरियाणा) ने ‘जिंदगी’ तथा प्रीति शर्मा (बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश) ने ‘मां के साथ पहला कदम’ शीर्षक कविता पढ़ी।

ई-संगोष्ठी का संयोजन एवं संचालन युवा पत्रकार कादम्बरी ने किया। धन्यवाद ज्ञापन डॉ. मंजू, सह-आचार्य, नोबल्स स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रामगढ़, अलवर ने किया।

 

रिपोर्टिंग

कादम्बरी

संपादक, भर्तृहरि टाइम्स, पाक्षिक समाचार-पत्र, अलवर

दिल, दिमाग और सफलता

पी. के. खुराना

महान वैज्ञानिक सर आइज़ैक न्यूटन ने बहुत पहले ही विश्व को बता दिया था कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हमारे जीवन में तो यह हर रोज़ ही घटित होता है। हम से संबंधित हर काम, हर बात और हर घटना हमें प्रभावित करती है और हम उस पर प्रतिक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रिया, हालांकि भिन्न स्थितियों अथवा भिन्न व्यक्तियों के मामले में अलग हो सकती है। इसका साधारण-सा उदाहरण यह है कि यदि हमारा जीवनसाथी हमें आलसी कहे तो हम बुरा मान जाते हैं लेकिन यही बात अगर हमारा बॉस कहे तो हम न केवल उनकी बात चुपचाप सुनकर सहन कर लेते हैं, बल्कि बहुत बार आत्म-विश्लेषण करके स्वयं को सुधारने का भी प्रयास करते हैं। यह प्रतिक्रिया ही महत्वपूर्ण है और यहीं हमें न्यूटन से भी आगे निकलना है, यानी, प्रतिक्रिया पर अपना नियंत्रण जमाना है, तभी हम जीवन में सफल हो सकेंगे या सफलता को स्थाई बनाए रख सकेंगे।

हमारा मस्तिष्क तीन हिस्सों में बंटा हुआ है। हमें कम समझ में आने वाला और सर्वाधिक शक्तिशाली हिस्सा है हमारा अवचेतन मस्तिष्क जो हमारे मस्तिष्क का लगभग 90 प्रतिशत है। दूसरा हिस्सा है चेतन मस्तिष्क जो हमारे मस्तिष्क का केवल 10 प्रतिशत भाग है। चेतन मस्तिष्क आगे दांये और बांये, दो और भागों में बंटा हुआ है। चेतन मस्तिष्क का बांया भाग तर्कशील है, जो आंकड़ों को सहेजता, समझता और उनका विश्लेषण करता है। चेतन मस्तिष्क का दांया भाग कल्पनाशील और स्वप्नदर्शी है। चेतन मस्तिष्क हमारे साथ ही जागता और सोता है, लेकिन अवचेतन मस्तिष्क हमेशा जागता रहता है और जब हम सोये होते हैं तो भी दिन भर की घटनाओं को सहेज रहा होता है।

हमारा अवचेतन मस्तिष्क खिलंदड़ा है, मनोरंजन प्रिय है और धनात्मक आदेशों को ही स्वीकार करता है। चेतन और अवचेतन मस्तिष्क बहुत बार अलग तरह से सोचते हैं और उनमें रस्साकशी चलती रहती है। उदाहरण के लिए आप बाज़ार में घूम रहे हों और अचानक आपको किसी दुकान में कोई चीज़ बहुत पसंद आई तो आप उसे खरीदने को लालायित हो उठते हैं, लेकिन आपका तर्कशील मस्तिष्क आपको समझाता है कि आपको उस वस्तु की कोई ज़रूरत नहीं है। आपका तर्कशील मस्तिष्क आपको चेतावनी देता है कि आपका बजट सीमित है और आपने अपना धन किसी और आवश्यक कार्य के लिए बचा कर रखा है जबकि अवचेतन मस्तिष्क आपको वह वस्तु खरीदने के लिए उकसा रहा होता है। दरअसल, जिसे हम “मन” कहते हैं वह हमारा अवचेतन मस्तिष्क ही है। दिल और दिमाग की लड़ाई का यही कारण है। दिल, यानी अवचेतन मस्तिष्क, कुछ और कहता है और चेतन मस्तिष्क कुछ और कहता है।

अक्सर हम दिमाग के बजाए दिल से काम लेते हैं। कभी आपने सोचा है कि ऐसा क्यों होता है? दरअसल, हमारा तर्कशील मस्तिष्क, या हमारे मस्तिष्क का वह हिस्सा जिसे हम आम भाषा में “दिमाग” कहते हैं, हमारे मस्तिष्क का सिर्फ 5 प्रतिशत भाग है जबकि अवचेतन मस्तिष्क, जिसे हम आम भाषा में “दिल” या “मन” कहते हैं, हमारे मस्तिष्क का 90 प्रतिशत भाग होने के कारण चेतन मस्तिष्क से बहुत-बहुत बड़ा और उसी अनुपात में शक्तिशाली भी है। यही कारण है कि अक्सर दिमाग पर दिल हावी हो जाता है और हम कई ऐसे काम कर बैठते हैं जो या तो हमारी छवि के अनुरूप नहीं हैं या हमारे लिए हानिकारक हैं। किसी घटना पर दिल की प्रतिक्रिया हमसे वह करवा देती है जो शायद अनावश्यक है, या अनुचित है।

न्यूटन का यह नियम सर्वविदित है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, पर हमें यह याद रखना है कि जीवन में सफल होने के लिए हमें अपनी प्रतिक्रियाओं पर नियंत्रण करने की आवश्यकता है, वरना यह हो सकता है कि हम लोगों को सफल दिखें जबकि हमारा जीवन दुख-दर्द भरा हो। तर्कशील मस्तिष्क हमें बौद्धिक क्षमता प्रदान करता है और यह प्रारंभिक सफलता में सहायक होता है लेकिन जीवन में ज्यादा आगे जाने के लिए नेतृत्व की क्षमता के साथ भावनात्मक संतुलन सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।

अड़ियलपन, कड़ियलपन आपकी काबलियत को दबा देता है और जीवन में ऐसे लोग ज्य़ादा सफल होते हैं जो रिश्ते बनाने और बनाए रखने में माहिर होते हैं। आज के ज़माने में नेटवर्किंग बहुत महत्वपूर्ण है और लोगों के साथ मिलकर चलने तथा लोगों को साथ लेकर चलने की क्षमता आपको सफलता की सीढ़ियां चढ़ने में मदद देती है, लेकिन भावनात्मक संतुलन का काम यहीं पर खत्म नहीं होता। आज की प्रोफेशनल दुनिया में अच्छा काम करना और खुद को सदैव बेहतर साबित करना आवश्यक हो गया है। इससे कामकाज की चुनौतियां बढ़ी हैं और पेशेवर जीवन की जटिलताएं डिप्रेशन, चिड़चिड़ेपन या अनिद्रा जैसी समस्याओं का कारण बनने लगी हैं। यदि कोई व्यक्ति जटिल स्थितियों में अपनी प्रतिक्रिया को नियंत्रित न कर पाये तो परिणाम हानिकारक भी हो सकता है, इसलिए सिर्फ मेहनती, बुद्धिमान या प्रतिभाशाली होना ही काफी नहीं है, इसके लिए भावनात्मक परिपक्वता आवश्यक है और प्रशिक्षण से इसे सीखा जा सकता है। सफलता के शिखर छूने के लिए प्रतिभा से भी ज्यादा भावनात्मक परिपक्वता बड़ा कारक है।

अपने आसपास नज़र दौड़ाएंगे तो हम पाते हैं कि कई लोग कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद कठिन परिस्थितियों में टूटने के बजाए और मजबूत हो जाते हैं जबकि कई उच्च शिक्षित और साधन संपन्न लोग भी विपत्तियों में विचलित हो जाते हैं। भावनात्मक परिपक्वता के कारण हम सफल और अमीर हो सकते हैं लेकिन अमीरी के कारण हम भावनात्मक रूप से भी परिपक्व हों, ऐसा आवश्यक नहीं है। हर्ष और विषाद के क्षणों में स्वयं पर काबू रखना, बहुत खुशी के समय किसी पर लट्टू न हो जाना और क्रोधित होने की अवस्था में किसी को अनावश्यक बड़ा दंड न देना या किसी को कोई चोट पहुंचाने वाली बात न कह देना ही हमारी परिपक्वता की निशानी है। हर क्रिया पर प्रतिक्रिया तो होती है, लेकिन प्रतिक्रिया क्या हो, कैसी हो, इसे हम नियंत्रित करना सीख सकते हैं।

हम समाज और माहौल को नहीं बदल सकते, लेकिन खुद को माहौल के मुताबिक ढालना संभव है। खुशी, दुख, गुस्सा, ईर्ष्या और ग्लानि आदि भावनाओं के प्रभाव में लिए गए निर्णय अहितकारी हो सकते हैं। यदि हम यह समझ सकें कि हम किस बात पर खुश होते हैं, किस पर नाराज़ होते हैं और क्या चीजें हमारा मूड बना या बिगाड़ देती हैं तो आत्मविश्लेषण आसान हो जाता है। अपने व्यवहार की कमियों को सुधार कर हम जीवन में शीघ्र सफल हो सकते हैं और अपनी सफलता को स्थाई बना सकते हैं। इससे न केवल हम खुश रहते हैं बल्कि अपनी खुशमिज़ाजी से अपने आसपास के लोगों को भी खुशी प्रदान करते हैं। चेतन और अवचेतन मस्तिष्क पर नियंत्रण, यानी, दिल और दिमाग का संतुलन हमारी सफलता को प्रभावित करता है। तो आइये, न्यूटन के इस नियम की महत्ता को समझें कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है और न्यूटन के नियम से आगे बढ़कर खुद को सिखाएं कि प्रतिक्रिया को नियंत्रित किया जा सकता है। दिल की सुनें, लेकिन दिमाग को निर्णय लेने दें, इसी में हमारा भला है।

लेखक एक हैपीनेस गुरू और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।

4.8.20

‘रामलला हम आएंगे’ कहा था, लेकिन घर बैठने को मजबूर!


रामजन्म भूमि मंदिर के शिलान्यास के आयोजन को ऐतिहासिक बनाने की तैयारियां पूरी हो गई हैं।  कोरोना संक्रमण के डर से मंदिर के भूमिपूजन पंडाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित सिर्फ 150 लोगों को ही प्रवेश दिए जाने की तैयारी है। लालकृष्ण आडवाणी और  मुरली मनोहर जोशी  भी अपनी हसरतों के राममंदिर का शिलान्यास घर बैठे टीवी स्क्रीन पर ही देखेंगे। अयोध्या के आसपास 84 कोस में आनेवाली सभी तपस्थलियों व 151 मंदिरों व पवित्र जगहों पर अनुष्ठान शुरू हो रहे हैं। देश भर से लाए गए 3600 पवित्र स्थानों, ऐतिहासिक स्थलों, श्रद्धाकेंद्रों, जलकुंडों व नदियों की पवित्र मिट्टी व जल से भूमिपूजन होगा। पूरा अयोध्या राममय हो गया है। अयोध्या के रेलवे स्टेशन को राम मंदिर की प्रतिकृति जैसा रूप दिया जा रहा है।

 
-निरंजन परिहार

अयोध्या पुलकित है। अयोध्यावासी खुश हैं और अयोध्या की आभा आनंदित है। अयोध्या नगरी में वैसे भी कण कण में राम है, लेकिन फिर भी एक बार फिर सब कुछ नए सिरे से राममय होने जा रहा है। श्रीराम जन्मभूमि पर भगवान राम के भव्य मंदिर का निर्माण हो रहा है। भूमिपूजन के लिए देश के 2000 स्थानों के पवित्र कुंडों का जल, 1500 पवित्रतम व ऐतिहासिक स्थानों की मिट्टी एवं 100 पवित्र नदियों का प्रवाहमान जल मंगवाया गया है। भूमि पूजन बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों हो रहा है। आयोजन को ऐतिहासिक बनाने की सारी तैयारियां पूरी हो गई हैं। इस ऐतिहासिक क्षण का हर कोई गवाह बनना चाहता है। लेकिन आमंत्रण केवल 150 अतिथियों को ही हैं। आपको, हमको और देश व दुनिया के करोड़ों लोगों को मंदिर के निर्माण के शुरू होने का नजारा घर बैठे ही देखना होगा। यह नजारा वे हजारों लोग भी घर बैठे ही देखेंगे, जिन्होंने 6 दिसंबर 1992 को ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा गुंजायमान करते हुए अयोध्या पहुंचकर ‘एक धक्का और दो...’ के उद्घोष के साथ आजाद भारत के सबसे बड़े जनआंदोलन को मूर्तरूप दिया था।  

माहौल अगर माकूल होता, और हालात सामान्य होते, तो अयोध्या में इन दिनों पांव रखने को जगह नहीं मिलती। लेकिन काल कोरोना के संक्रमण का है और बचाव के लिए सोशल डिस्टेंसिग सबसे पहली अनिवार्यता। इसीलिए अयोध्या में बहुत कम लोग नजर आएंगे। भूमिपूजन के पंडाल में सुरक्षा अधिकारियों सहित कुल मिलाकर सिर्फ 150 लोगों को ही प्रवेश की अनुमति है। आयोजन समिति की ओर से भी 50 पदाधिकारियों को ही अंदर जाने की अनुमति का प्रावदान किया गया है। कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए जरूरी कदम के तहत विश्व हिंदू परिषद ने अपने कार्यकर्ताओं को भी इन 2 दिनों के लिए अयोध्या से दूर रहने के लिए कहा है। यही कारण है कि राम जन्मभूमि आंदोलेन में 6 दिसंबर 1992 को जिन हजारों लोगों ने कहा था कि  ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’ वे भी वहां नहीं जा पा रहे हैं, और मंदिर के बनने की शुरूआत को वहां बिना गए ही देखने को मजबूर है। यहां तक कि राम जन्मभूमि आंदोलन के संवाहक के रूप में अग्रणी रहे पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी को भी अपनी हसरतों के रामंमंदिर का शिलान्यास घर बैठे टीवी स्क्रीन पर ही देखना होगा।

राम मंदिर के भूमिपूजन के लिए विभिन्न अनुष्ठानों की शुरूआत हो गयी है। न्यास श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के 84 कोस इलाके में आनेवाली सभी तपस्थलियों व 151 तीर्थ स्थलों पर दो दिनों तक जप, तप, यज्ञ, हवन व अनुष्ठान के साथ राम चरित मानस, दुर्गा सप्तशती व विष्णु सहस्रनाम के पाठ होंगे। अयोध्या सहित आसपास के चार जिलों में फैले इस तीर्थक्षेत्र के विभिन्न स्थलों बारे में स्कंद पुराण, वाल्मीकि रामायण, हरिबंश पुराण, रुद्रयामल जैसे ग्रंथों में वर्णन है। 5 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अयोध्या पहुंचने के साथ ही इन सभी 151 स्थलों पर पंडितों, पुरोहितों व स्थानीय लोगों द्वारा वैदिक मंत्रोच्चार गुंजायमान ने होंगें। संत गोस्वामी तुलसी दास की जन्मस्थली राजापुर के साथ ही 84 कोस में स्थित तपस्थलियों व तीर्थक्षेत्र के लोग अनु्ष्ठान की पूर्णहुति में शामिल होंगे।

राज जन्मस्थली में भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं परंपरा की विरासत को समाहित करने के लिए 3600 स्थानों की पवित्रतम मिट्टी व जल मंगवाया गया है। देश के 1500 पवित्रस्थलों और ऐतिहासिक स्थानों की मिट्टी, 2000 स्थानों के कुंडों का पवित्र जल एवं 100 नदियों का प्रवाहमान जल अयोध्या पहुंचा है। राजस्थान में मेवाड़ के हल्दी घाटी व चितौड़गढ़ सहित वैष्णो देवी मंदिर, स्वर्ण मंदिर व विख्यात जैन तीर्थ सम्मेत शिखरजी की पवित्र माटी सहित पेशवा किला, रायगढ़ किला, सभी ज्योतिर्लिंगों की मिट्टी मंगाई गई है। इसके अलावा गंगा, यमुना, नर्मदा, सतलज, गोदावरी, कृष्णा, रावी, व्यास, झेलम, ब्रह्मपुत्र समेत 100 नदियों के अलावा करीब 2000 पवित्र कुंडों का भी जल मंगवाया गया है। इस जल व मिट्टी का विभिन्न आयोजनों व निर्माण में उपयोग किया जा रहा है।

अयोध्या नगरी में सब कुछ राममय होने की दिशा में जो प्रयास हो रहे हैं। वैसे, तो फिलहाल पूरी अयोध्या नगरी को भव्य तरीके से संवारा व सजाया गया है। लेकिन राममयी महिमा को स्मृतियों से स्थायी रूप से जोड़े रखने के लिए अयोध्या के रेलवे स्टेशन को भी मंदिर की प्रतिकृति के रूप में ही विकसित किए जाने की योजना बन रही है। लगभग 105 करोड़ रुपयों की लागत से बननेवाले अयोध्या रेलवे स्टेशन के नए भवन के बाहरी लुक एवं भीतरी निर्माण को बिल्कुल राम मंदिर के स्वरूप में ढाला जा रहा है। अयोध्या स्टेशन पर यात्री सुविधाओं, सफाई, सुंदरता तथा विभिन्न आवश्यक सुविधाओं को हाई क्वालिटी स्टेंडर्ड पर ले जाने का प्लान फाइनल कर दिया गया है। 

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सुरेशचंद्र रोहरा
gandhishwar.rohra@gmail.com

यह हौलनाक दृश्य देखकर हृदय कांप उठा है। 21वीं शताब्दी में जब दुनिया विकास तरक्की प्रगति और चांद तारे तोड़ लाने की बात कर रही है ऐसे में हमारे छत्तीसगढ़ के एक गांव का सच यह भी है जो आज हमारे सामने आ गया है।एक वीडियो आज हमने देखा जिसमें एक पालकी बल्कि यह कहना सही नहीं है एक खाट... खटिया को उल्टा करके उस पर एक वृद्ध को बीमार को सुला करके 4-6 लोग धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे है।

 यह दृश्य देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी कलात्मक फिल्म का दृश्य हो।मगर नहीं, यह सच्चाई है! इस दृश्य  में हम देखते हैं वह लोग धीरे धीरे आगे बढ़ रहे हैं उनके हाथों में मसाले हैं रात का समय है रात के सन्नाटे में झींगुर बोल रहे हैं मगर वह लोग बीमार शख्स को खाट पर उठा धीरे-धीरे पैदल आगे बढ़ रहे हैं। यह लोग  कई किलोमीटर पैदल चलकर बीमार शख्स को हॉस्पिटल एंबुलेंस तलक लिए जा रहे हैं।

यह सच्चाई है। यह दृश्य हमारे छत्तीसगढ़ का है।ऐसा छत्तीसगढ़ जिसके निर्माण को 20 वर्ष हो चले हैं और जब छत्तीसगढ़ राज्य बना था तो यह स्वप्न में देखा गया था यहां का आम आदमी छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद आनंद और सुख की जिंदगी जिएगा उसे खुशियां मिलेंगी। उसका अधिकार मिलेगा उसे स्वास्थ्य मिलेगा। उसे मकान, पानी, सड़क और बिजली मिलेगी। मगर यह दृश्य देखकर हृदय कांप उठता है हाहाकार करने लगता है की हाय कहां है हमारा छत्तीसगढ़ और कहां हम। गरीबी, बदइंतजामी का दंश  हम झेल रहे है।

यह दृश्य संपूर्ण व्यवस्था को नंगा करके रख देता है। बताता है कि हमारा लोकतंत्र ढांचा किस तरह खोखला हो चुका है और यह मरणासन्न  है धीरे-धीरे मौत की और बढ़ रहा है। संपूर्ण व्यवस्था का आनंद लोकतंत्र की खुशियां कुछ चंद घरों में कैद हो गई है उनके लिए सारी व्यवस्था है पंच सितारा हॉस्पिटल है दिल्ली और अमेरिका की स्वास्थ्य सेवाएं हैं मगर हमारे आम गरीब दुखी आदमी के लिए एक पदक एंबुलेंस भी नहीं है और हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं हम सफेद खादी पहनकर महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देते हैं और देश के शहीदों को याद करते हुए कहते हैं कि आपका बड़ा शुक्रगुजार है और माला पहनाने के बाद खुद ही माला पहन लेते हैं। हमें घिन आती है गरीब लाचार लोगों को देखकर जब हम कुर्सी पर बैठ जाते हैं तो स्वयं को इंद्र से कम नहीं समझते और दोनों हाथों से पूरी सत्ता का लाभ उठाने से कभी नहीं चुकते। मगर यह नहीं सोचते की लोकतंत्र का निर्माण इसलिए किया गया था की गरीब लोगों की सेवा हो सके। पंचवर्षीय शासन पद्धति इसलिए निर्मित की गई थी कि जो लोग सत्ता की बागडोर संभालें वे स्वयं को जनता का सेवक समझे मगर यह भावना कहीं नहीं दिखाई देती और उसी का सच है कि आज हम देखते हैं कि छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में आज भी बदहाली है।

 स्वास्थ्य सेवा काश! आज हम आज इस वीडियो में देख रहे हैं जो हमें बता रहा है कि अरबों रुपए के खर्च के बावजूद स्वास्थ्य की सुविधा लोगों तक नहीं पहुंच पाई है हम कह सकते हैं कि यही हालात सारी व्यवस्था की है सारी व्यवस्था को पतीला लगा हुआ है। एक छोटे से छोटे सरकार के दफ्तर में भी लोगों को न्याय नहीं मिल रहा है वही आदमी सर उठा कर सरकारी दफ्तर में जा सकता है जिसकी जेब में  पैसा रिश्वत देने के लिए हो अन्यथा उसे दुत्कार दिया जाता है।

आदिवासी अंचल मैं आज भी स्वास्थ्य सुविधा नहीं पहुंची हैं वहां आज भी गरीब आदमी अपने भाग्य से जीता है वहां के हॉस्पिटल, आंगनबाड़ी वहां के स्कूल देखकर सर शर्म से झुक जाता है इतने इतने वर्षों बाद भी गांव खासकर आदिवासी अंचल के गांव भीषण विषमता के पर्याय बने हुए हैं यही सच है कि यह वीडियो आज नई तकनीक होने के कारण हमें वह सच दिखा रहा है जिसे हम कभी महसूस नहीं कर सकते हैं इस वीडियो में जो दृश्य दिखाई दे रहा है उसे देख कर के क्या हमारी व्यवस्था का सर नीचा नहीं हो जाता। क्या हमें वह हमारे सत्ताधीश राजनेताओं को यह चिंतन करने का एक मौका नहीं देता कि हम सोचे की इस सारी व्यवस्था का दोषी कौन है।आज जब यह हालात अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुके हैं हमें यह विचार करना होगा की जितना जल्द हो सके इसमें सुधार किया जाए आज शिक्षा धीरे-धीरे ही सही अपनी रोशनी फैला रही है आज सोशल मीडिया लोगों को सब कुछ बता रहा है दिखा रहा है। यही नहीं उन्हें जागरूक कर रहा है यह सब लंबे समय तक नहीं चल सकता इसका विरोध कब भयावह रूप ले लेगा कौन जानता है?

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