31.1.09
क्या यही प्यार है????
मुझे प्रेम का यह अनोखा रूप लगा जिसे आपसे शेयर किया क्योंकि आजकल फिजाओं में फिजा की प्रेम कहानी केचर्चे हैं। चांद छुप गया है क्योंकि उसे अपनी गलती का अहसास होने लगा है अब वह अपनी पहली पत्नी केपास पहुंच गया है। तो वहीं दूसरी ओर अपने प्यार को इतिहास बनाने की कस्में खाने वाली अनुराधा को भी इस सच पर अब यकीन होने लगा है। यह आधुनिक समाज केप्यार की दूषित परिभाषाएं हैं जिसमें प्यार एक महीने भी नहीं चल पाता। ऐसे प्यार पर मुझे जो कहना था वह कह दिया अब आप क्या कहेंगे? उसका मुझे इंतजार है।
आरती "आस्था"
आरती "आस्था"
तुम कहते हो कि
हर किसी कि
प्रार्थना के दौरान
जलना पड़ता है तुम्हे
और हर बार ही
होता है तुम्हारा अवमूल्यन
क्योकि प्राथना कि
स्वीकृति के साथ ही
ख़त्म हो जाता है
तुम्हारा महत्व...................
तुम्हारा अस्तित्व..............
जबकि सच यह है कि
कभी नही होता खत्म
मेरा अस्तित्व
क्योकि औरो से इतर
अनवरत चलने वाली है
मेरी अपनी प्रार्थना
जिसमे शामिल है
हर किसी की
अनसुनी प्रार्थना
और जिसे कहते हो
बसन्त
मेरे आंगन में
सांझ ढले रात में
छिपकर किरणों से रवि की
तू एक बार आना।
ओ बदरिया
मेरी राह मेंसूरज की आड़ में
मोरों की झनकार लिए
तुम मिल जाना।
ऐ हवा
मेरे गांव की चौपाल पर
फागुन की रात में
महक लिये साथ में
तू चली आना।
अरे बसन्त
चांदनी रात में
बदरिया की छांव में
बगियन की खुशबू लिये
मेरा मन आंगन महका जाना।
अरे बसन्त, ऐ बसन्त तू ही आना
हां तू ही आना।।
पंकज कुलश्रेष्ठ
मन को कैसे चमकाएं?
रामकृष्ण परमहंस ने कहा था- जैसे लोटे को रोज मांजना पड़ता है, चमकाना पड़ता है, उसी तरह अपने मन को भी साफ- सुथरा करना पड़ता है, वरना उस पर गंदा पड़ता जाएगा और उसका आकर्षण खत्म हो जाएगा। उनके कहने का तात्पर्य यह था कि जैसे साफ कपड़े पहन कर हम बेहतर अनुभव करते हैं। अच्छा खाना खा कर हमारा मन आनंदित हो जाता है, ठीक वैसे ही मन की अच्छी सफाई हो तो मनुष्य भीतर से प्रफुल्लित हो जाता है। उसे गहरी शांति मिलती है। किसी ने उनसे पूछा कि मन की सफाई कैसे हो? तो उन्होंने कहा- थोड़ी देर एकांत में चुपचाप बैठिए और मान लीजिए की इस दुनिया- जहान और झंझटों से आपको कोई मतलब नहीं है। आप तो बस ईश्वर के बेटे हैं। आप ईश्वरीय आनंद में डूबे रहिए। पांच मिनट, दस मिनट या तीन मिनट भी अगर आप इसे करते हैं तो आपको भारी राहत मिलेगी। सबसे बड़ी चीज है ईश्वर से प्रेम। घृणा का जवाब घृणा से मिलता है और प्रेम का जवाब प्रेम से मिलता है। इसीलिए तो कबीर दास ने कहा है-प्रेम न खेतो नीपजेप्रेम न हाट बिकाय प्रेम न खेत में पैदा होता है और न बाजार में बिकता है। प्रेम तो आपके भीतर पैदा होता है। वह जबर्दस्ती तो पैदा ही नहीं किया जा सकता। वह अपने आप ही पैदा हो जाता है। तो ईश्वर के प्रति प्रेम कैसे हो? उसे तो आपने देखा नहीं है? इसका जवाब है- पैदा होने के पहले आप कहां थे? और मरने के बाद आप कहां जाएंगे? यह जो बीच के समय में इस पृथ्वी पर रह रहे हैं, यहां भी आपकी सांसें निश्चित हैं। एक निश्चित संख्या में आपने सांस पूरी कर ली, बस आपका बुलावा किसी दूसरे लोक के लिए हो जाएगा। यह चमत्कार किसका है?? निश्चित रूप से ईश्वर का ही है। इसलिए ईश्वर हमसे प्रेम करता ही है। हमारे पैदा होने पर माता की देह में दूध पैदा कर देता है। हम वह पीकर बड़े होते हैं और बड़ा- बड़ा ग्यान बघारते हैं। फिर अंत में हमारी सांस खत्म हो जाती है और हमारा शरीर मुर्दा हो जाता है। तब हमारी सारी हेकड़ी कहां चली जाती है? ईश्वर हमें प्रेम करता है मां- बाप के रूप में, पत्नी के रूप में, प्रेमिका के रूप में, मित्र के रूप में, एक रोगी को सहानुभूति और दवा के रूप में। भूखे के पास वह भोजन के रूप में आता है। करने वाला वही है। हम नाहक घमंड कर बैठते हैं कि हमने यह किया, वह किया।
खोरवा पुरवा की पिंकी का लास एंजिल्स में जलवा
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर का एक छोटे से गांव का पुरवा खोरवा गांव, जहां के लोगों को खेत खलिहान और काम से मतलब है । अचानक स्माइल पिंकी से मिर्जापुर के पिछ़ड़े गांव का नाम दुनिया के सबसे चकाचौंध नगरी अमरीका के लास एंजिल्स में चमक उठा । गांव के गरीब परिवार की पिंकी का नाम अब मिर्जापुर से होते हुए यूपी की राजधानी लखनऊ, दिल्ली के रास्ते लास एंजिल्स में गूंज रहा है । यह केवल मिर्जापुर के छोटे गांव की खुशी नहीं है,बल्कि यूपी और समूचे हिंदोस्तान के लिए बड़े ही गर्व की बात है । मिर्जापुर जैसे जिले के अत्यंत पिछड़े गांव में जहां रसूखदारों और कर्मकांड धर्मअधीकारी की हुकूमत हो, वहां पिंकी जैसी बच्चियों की क्या बिसात । यूपी का एक न्यूज चैनल जिस तरह की पिंकी की झोपड़ पट्टी जैसे घर का लाइव कास्ट कर रहा था, पिंकी का छोटा भाई जिस तरह कपड़े में उछलकूद रहा था, आप सहज ही गरीबी का आकलन कर सकते हैं । स्लमडाग मिलियनेयर के बाद लघु वृत्त चित्र 'स्माइल पिंकी' की नायिका पिंकी को आस्कर समारोह में हिस्सा लेने के लिए निर्देशक मेगन मायलन ने उनके माता-पिता के साथ न्योता भेजा है । स्माइल पिंकी को आस्कर में सर्वश्रेठ लघु वृत्त चित्र में नामित किया गया है । पिंकी के पिता राजेंद्र सोनकर और मां शिमला देवी के साथ पूरा खोरवा गांव खुश है । यह वही पिंकी है जब ९ साल पहले पैदा हुई थी, तब इस बच्ची के होंठ कटे-फटे थे । बच्ची ठीक से बोल-हंस नहीं पा रही थी । सामाजिक कार्यकर्ता ने आपरेशन करवाया, और पिंकी को मुस्कान दी । इसी मुस्कान पर मेगन मायलन ने लघु वृत्त चित्र बनाई, जो आस्कर में सर्वश्रेष्ठ नामित हुई ।
ब्लोगेरिया से बचने की दवा की खोज,सब ब्लॉगर मे जश्न का माहोल
सारा देश ब्लोगेरिया की चपेट में है यह रोग मानसिक हलचल से शुरु होता हुआ मोहल्ला ,भड़ास ब्लॉग,फुरसतिया जी को अपनी चपेट में ले चुका है यही नही ,अब इसकी पकड़ में न केवल बढे ब्लॉगर है बल्कि हम जैसे छोटे ब्लागरों को भी ब्लोगेरिया अपनी चपेट में ले चुका है !
इस भयानक बीमारी से निपटने के लिए हिन्दुस्तान चिटठा सरकार ने एक टीम बनाई थी जिसने इस भयानक बीमारी से निपटने की लिए एक दवाई बनाई है !!
कितनी कारगार है यह दवाई देखने की लिए क्लीक करें !!!और बताइए की इस टीम का यह प्रयाश आपको कैसा लगा!!
ब्लोगेरिया से बचने की दवा की खोज,सब ब्लॉगर मे जश्न का माहोल
गांधी और हम उंचा सोचने वाले...........!!
बरसों से गांधी के बारे में बहुत सारे विचार पढता चला आ रहा हूँ.....!!अनेक लोगों के विचार तो गाँधी को एक घटिया और निकृष्ट प्राणी मानते हुए उनसे घृणा तक करते हैं....!!गांधीजी ने भातर के स्वाधीनता आन्दोलन के लिए कोई तैंतीस सालों तक संघर्ष किया....उनके अफ्रीका से भारत लौटने के पूर्व भारत की राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां क्या थीं,भारत एक देश के रूप में पिरोया हुआ था भी की नहीं,इक्का-दुक्का छुट-पुट आन्दोलन को छोड़कर (एकमात्र १८५७ का ग़दर बड़ा ग़दर हुआ था तब तक)कोई भी संघर्ष या उसकी भावना क्या भारत के नागरिक में थी,या की उस वक्त भारत का निवासी भारत शब्द को वृहत्तर सन्दर्भों में देखता भी था अथवा नहीं,या की उस वक्त भारत नाम के इस सामाजिक देश में राजनीतिक चेतना थी भी की नहीं,या कि इस देश में देश होने की भावना जन-जन में थी भी कि नहीं............!!इक बनी-बनाई चीज़ में तो आलोचना के तमाम पहलु खोजे जा सकते हैं.....चीज़ बनाना दुष्कर होता है....महान लोग यही दुष्कर कार्य करने का बीडा लेते हैं..........और बाकी के लोग उस कार्य की आलोचना...........!!
लेकिन सवाल ये नहीं है,सवाल तो ये है कि मैदान में खेल होते वक्त या तो आप खिलाड़ी हों,या अंपायर-रेफरी हों,या कम-से-कम दर्शक तो हों.....!!या किसी भी माध्यम से उस खेले जा रहे का हिस्सा तो हों.....!!अब बेशक पकी-पकाई रोटी में आप सौ दुर्गुण देख सकते हों...........मगर सच तो यह भी है,कि ये भी भरे पेट में ही सम्भव है,खाली पेट में तो यही आपके लिए अमृत-तुल्य होती है.......आशा है मेरी बात आपके द्वारा समझी जा रही होगी...........!!??क्यूंकि इधर मैं लगातार देखता आ रहा हूँ कि गांधी को गाली देने वाले लोगों कि संख्या बढती ही चली जा रही है.....क्यूँ भई आप कौन हो "उसे" गाली देने वाले.....एक मोहल्ले के रूप में भी ख़ुद को बाँध कर ना रख सकने वाले आप,सूटेड-बूटेड होकर रहने वाले आप,इंगरेजी या हिंग्रेजी बोलने वाले आप,अपने बाल-बच्चों में खोये रहने वाले आप,अपने हित के लिए देश का टैक्स खाने वाले आप,तरह-तरह की चोरियां-बेईमानियाँ करने वाले आप,अपने अंहकार के पोषण के लिए किसी भी हद तक गिर जाने वाले आप,बच्चों,गरीबों,मजलूमों का बेतरह शोषण करने वाले आप,स्त्रियों को दोयम दर्जे का समझने वाले आप........और भी न जाने क्या-क्या करने वाले आप आप कौन हैं भाई....आपकी गांधी के पासंग औकात भी क्या है......आप गांधी के साथ इक पल भी रहे हो क्या......आपने गांधी के काल की परिस्थितियों का सत्संग का इक पल भी जीया है क्या.......क्या आप घर तक को एक-जुट कर सकते हो.......उसे मोतियों की तरह पिरो सकते हो...........????????
सच तो यह है कि इस लेखक की भी गांधी नाम के सज्जन से बहुत-बहुत-बहुत सी "खार"है........कि गांधी नाम का ये महापुरुष ((मीडिया में आए विमर्शों के अनुसार विक्षिप्त था.....औरतों के साथ सोता था.....पत्नी को पीटता था....पुत्र के साथ भी उचित व्यवहार नहीं करता था....ऐसी बहुत सारी अन्य बातें,जिनका स्त्रोत मीडिया ही है,के माध्यम से मैं भी खार खाने लगा हूँ......!!)) ..........लेकिन मैं नहीं जानता कि और मुझे कोई यह बता भी नहीं सकता कि यह सब कितना कुछ सच है.....और इस सबके भीतर असल में क्या है....जो भी हो................मगर इतना अवश्य जानता हूँ कि "गांधी"नाम के इस शख्स के सम्मुख मैं क्या हूँ.....!!.............आराम की जिन्दगी जीते हुए हम सब आजाद और "आजादखयाल" लोग किसी भी चीज़ को बिल्कुल भी गंभीरता से ना समझने वाले हमलोग.....और अतिशय गंभीरता का दंभ भरने वाले हमलोग.....परिस्थितियों का आकलन मन-मर्जी या मनमाने ढंग करने वाले हमलोग.......किसी अन्य की बात या तथ्य की छानबीन ना कर उसी के आधार पर अन्वेषण कर परिणाम स्थापित करने वाले हम लोग..........मैं अक्सर सोचता हूँ कि बिन औकात के हम लोग किसी के भी बारे में ऐसा कैसे कह सकते हैं......खासकर उस व्यक्ति के बारे में जिसके सर के इक बाल के बराबर भी हम नहीं..........एक चोर भी अगर जिसने अपने समाज में कोई अमूल्य योगदान दिया है......और हमने अगर सिवाय अपने पेट भरने के जिन्दगी में और कुछ भी नहीं किया...........तो बागवान की खातिर हमें उस चोर की बाबत चुप ही बैठना चाहिए.....और अगरचे वो गांधी नाम का व्यक्ति हो तो सौ जनम भी हम उसके बारे में कुछ भी बोलने के हकदार नहीं.....भाई जी गाधी अगर दोगला भी हो...........लम्पट भी हो.........तो भी मैं आपको बता दूँ कि गाँधी सिर्फ़ इक व्यक्ति का नाम नहीं.........एक देशीय चेतना का नाम है.........इक ब्रहमांडइय चेतना का नाम है.....एक सूरज हैं वो जो बिन लाग-लपेट के सबको रौशनी देता है.........उनके बहुत सारे विचारों का विरोध करते हुए मैं पाता हूँ.......कि मैं उनके सामने मैं इक तुच्छ कीडा हूँ........मैं चाहे जो कुछ भी उनके बारे में कह लूँ..........मगर सच तो यही है कि मैंने और ऐसा कहने वाले तमाम लोगों ने कभी कुछ रचा ही नहीं.....देश की आजादी तो दूर, आज़ाद देश में अपने मोहल्ले की गंदगी को साफ़ कराने का कभी बीडा नहीं उठाया........गली-चौक-चौराहों-पत्र-पत्रिकाओं-मीडिया-टी.वी. आदि में बक-बक करना और बात है....और सही मायनों में अपने समाज के लिए कुछ भी योगदान करना और बात..........और मेरी बोलती यहीं आकर बंद हो जाती है..........दोस्तों किसी पर चीखने-चिल्लाने से पहले हम यह भी सोच लें कि हम क्या हैं.....और किसके बारे में किसकी बात पर चीख रहे हैं.........!!गांधी को गरियाने की औकात रखने वाले हम यह भी तो नहीं जानते कि अगर गांधी हमारे सामने होते तो हमें भी माफ़ करते.........राम को लतियाने वाले लोग पहले किसी स्वच्छ तालाब में अपना मुंह धोकर आयें......और अपनी आत्मा की गहराई से ये महसूस करें कि राम क्या है.........किसी की भी आलोचना करने से पूर्व,और अगर वो व्यक्ति देश के लिए अपना जीवन आत्मोसर्ग कर के गया हो.............!!
आज गांधी की पुण्यतिथि है.............इस पुण्यतिथि पर हम अवश्य ये सोच कर देखें कि आज जिसकी पुन्य तिथि हम मना रहे हैं.............उसे याद कर रहे हैं....और आने वाले तमाम वर्षों याद करेंगे............बनिस्पत इसके हमारी पून्य-तिथि पर हमें याद करने वाले लोग कितने होंगे.....या कि क्या हमारे बच्चे भी होंगे हम-जैसे असामाजिक जीवन जीकर जाने वाले लोगों का............!!?????
छोटी बात बड़ा लफड़ा
विधायक को
पाँच लाख की
रिश्वत लेते पकड़ा,
छोटी सी
बात और
इतना बड़ा लफड़ा।
----गोविन्द गोयल, श्रीगंगानगर
एनकाउंटर बोले तो....
“हर मुसलमान दहशतगर्द न सही, पर तमाम दहशतगर्द मुसलमान ही क्यों होते हैं…?”
ये एक ऐसा प्रश्न है, जिसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं । एक ऐसा प्रश्न,जिसने मुझे मेरे होश संभालने के बाद से ही परेशान किया है। पर 2008 में मेरी यह परेशानी कुछ कम ज़रुर हुई। पहली बार यह एहसास हुआ कि किसी आतंकी हमले में मुसलमानों के अलावा भी कोई हो सकता है।
लेकिन सन 2008 के बाद से एक और प्रश्न ने मेरे दिमाग को परेशान कर रखा है। वह सवाल है —“पुलिस द्वारा किया गया हर एनकाउंटर फ़र्ज़ी क्यों होता है। और अगर फ़र्ज़ी नहीं होता तो लोग उसे फ़र्ज़ी क्यों मानते हैं। हर एनकाउंटर के बाद पुलिस अपने ही बयानों में क्यों फंस जाती है।”
बहरहाल, अभी बटला हाऊस की गुत्थी सुलझी भी नहीं थी कि मीडिया ने गणतंत्र दिवस के ठीक एक दिन पहले नोएडा में हुए एनकाउंटर को बड़ी आसानी से फ़र्ज़ी घोषित कर दिया। और ये काम शायद पहली बार हिंदी व अंग्रेज़ी मीडिया ने किया है। 27 जनवरी को जैसे ही ‘हिन्दुस्तान’ हाथ में लिया, मेरी नज़र प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित एक्सक्लूसिव ख़बर पर पड़ी, तो सबसे पहले मन में यह विचार आया कि इस ख़बर को तो उर्दु अख़बार वालों ने खुब पीटा होगा। पर अफसोस मैं गलत था। यहां कोई भी खबर इस घटना से संबंधित नहीं था। दूसरे दिन भी हिन्दुस्तान ने इसे पहली खबर बनाया, जबकि उर्दु अखबारों में इतनी प्रमुखता से जगह नहीं दी गई। अगले दिन भी हिन्दुस्तान में यह खबर नज़र आई।
खैर,पुलिस जिसे अपने कार्य के लिए अत्यंत दयानतदार व इमानदार माना जाता है लेकिन आज कानून व्यवस्था को कायम रखने वाली इस पुलिस के किरदार पर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। इसमें अनेकों विकृतियाँ आ गई हैं। पहले इसका राजनीतिकरण हुआ और अब इसका अपराधीकरण हो रहा है। कानून व्यवस्था को अपने हाथ में लेना और अपने मुताबिक चलाना हमारे देश की पुलिस के लिए कोई नई बात नहीं है, जिस पर आश्चर्य किया जाये। लग-भग हर दिन, हर समय देश के किसी न किसी कोने में पुलिस द्वारा कानून को हाथ में लेने के मामले सामने आते रहते हैं। शातिर बदमाशों तथा आतंकवादियों के साथ पुलिस की मुठभेड़ आम बात है, पर इनमें कितनी जायज और कितनी फर्जी होती है, इसका पता नहीं चल पाता। न जाने अब तक कितने हीं मासूम लोगों को फर्जी मुठभेड़ में मार डाला गया होगा।
श्रीनगर के दैनिक समाचार पत्र कश्मीर टाईम्स के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख "इफ्तिखार गिलानी"ने सिहरा देने वाली आपबीती "जेलं में कटे वो दिन" लिखकर देश की पुलिस की हक़ीकत सामने ला चुके हैं। 1968-75 में आई.ए.एस. रह चुकी मैगसेसे अवार्ड से सम्मानित "अरुणा रोय" ने भी अपनी पुस्तक "जीने और जानने का अधिकार" में पुलिस की हक़ीकत को ब्यान कर दिया है। उन्होंने लिखा है, कि "एक नक्सलवादी या आतंकवादी, पुलिस के साथ एक मुठभेड़ में मारा गया" जब हम अखबारों में ऐसे समाचार पढ़ते हैं तो हमें क्या महसूस होता है? बहुत कम ऐसे लोग हैं जो ऐसे समाचार सच मान लेते हैं। ज्यादातर लोग जानते हैं कि "मुठभेड़" का मतलब है "हत्या"
बहरहाल ,पुलिस का यही "मुठभेड़ " एक बार फिर चर्चा में है। वैसे भी दिल्ली में भी फर्जी मुठभेड़ के मामले आते रहे हैं चाहे वो अंसल प्लाजा का मुठभेड़ हो, कनाट प्लेस या फिर २००२ में ओखला में हुई मुठभेड़ हो। या फिर हाल में हुए अहमदाबाद का फर्जी मुठभेड़ हो। पंजाब, जम्मू व कश्मीर में तो यह घटना लगभग हर दिन होते रहते हैं। गुजरात में सोहराबुद्दीन शैख़ व तुलसी राम प्रजापति के मामले को भी अभी ज्यादा दिन नही हुए हैं। इससे पूर्व भी अहमदाबाद के राजनीतिक संरक्षण प्राप्त और बाद में राजनीतिज्ञों के लिए "बेकाम के" हो चुके अब्दुल लतिफ को फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया था। अहमदाबाद में हीं समीर खान , मुम्बई के उपनगरीय इलाका मुमरा की १९ वर्षीय मुम्बई कॉलेज की छात्रा इशमत जहाँ का फर्जी मुठभेड़ को भी बहुत ज़्यादा दिन नही गुज़रे हैं। अर्थात देश के हर राज्य में इस तरह की कारनामें गठित होती रहती है। वास्वतव में देखा जाये तो फर्जी मुठभेड़ों की संस्कृति, कानून के शासन की पराजय है।
अगर फर्जी मुठभेड़ों के इतिहास की बात करें तो इसका इतिहास काफी पुराना है। लेकिन मुठभेड़ के बहाने अपराधियों को खत्म करने का चलन 1968 में आन्ध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल से शुरू हुआ। आतंकवादियों, माओवादियों, नक्सलवादी के मार गिराने के नाम पर फर्जी मुठभेड़ों का सिलसिला अब भी जारी है।
फर्जी मुठभेड़ क्यों होते है? आखिर पुलिस क्यों इसका सहारा लेती है? ऐसी कौन सी बाध्यता है, जो इनको फर्जी मुठभेड़ के लिए प्रेरित करता है? क्या फर्जी मुठभेड़ का जिम्मेदार सिर्फ पुलिस है, या इनके साथ कोई और भी है?
वास्तव में, पुलिस जब अभियुक्त को कानूनी कार्रवाई के तहत दोषी सिद्ध करने में नाकाम साबित होती है तो इन विकल्पों को चुनती हैं। पुरस्कार की चाहत, नाम व शोहरत भी यह कार्य करने पर मज़बूर करता है। बल्कि सच्चाई यह है कि बड़े कुख्यात अपराधियों को भी इसमें दखल होता है। कभी-कभी कारपोरेट जगत भी पूरी तरह हावी रहती है। कोई व्यक्ति यदि परेशान कर रहा हो तो पहले उसकी सुपारी अपराधियों को दी जाती थी, अब यह काम पुलिस वाले फर्जी मुठभेड़ के माध्यम से अंजाम देने लगे हैं।
पुलिस का यह कुरूप चेहरा सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि भारत के बाहर भी कई देशों में फर्जी मुठभेड़ होती है। मानवाधिकार की सर्वाधिक वकालत करने वाला देश अमेरिका भी इस मामले में पिछे नहीं है, अक्सर पद, पहुंच तथा व्यक्तिगत महत्वकांक्षा हेतु पुलिस आधिकारी ऐसे कारनामों को अन्जाम देते रहते हैं।
कहीं न कहीं इन मुठभेड़ों के पिछे राजनैतिक उददेश्य भी छिपे होते हैं। 2002 में फर्जी मुठभेड़ के मुददे को "देश प्रेम " बनाम "देश द्रोह " की कार्रवाई करार दिए जाने के पिछे एक बड़ा कारण गुजरात चुनाव था, जिसका फायदा नरेन्द्र मोदी ने हासिल किया और अब भी स्थिति कुछ वैसी ही है, क्यूंकि कुछ ही महीनो लोकसभा व विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं।
29.1.09
जिसमे इंसान को इंसान बनाया जाए
आज फ़िर आदमी नंगा हो गया गया है ।
दोस्त मेरे शहर में दंगा हो गया है ॥
बुलड़शाहर से आए ओज के कवि अर्जुन सिसोदिया ने वीर रस की कविता पढ़ी
दिल्ली दस घंटे की इजाजत हमे जो देदे
इंच इंच पाक में तिरंगा गाढ आयेंगे।
युवा कवि चेतन आनंद ने भी कविता पढ़ी। बोले थे -
न आंसू की कमी होगी
न आँहों की कमी होगी
कमी होगी तो बस तेरी निगाहों की कमी होगी
की मेरे कत्ल का चर्चा
अदालत में न ले जाना
तुझे ख़ुद को बचाने में
गवाहों की कमी होगी
राहुल कुमार
बसंत पंचमी
जप में बहुत बड़ी शक्ति
विनय बिहारी सिंह
रामकृष्ण परमहंस से एक व्यक्ति ने पूछा था- हम संसारी लोगों का ध्यान ज्यादा देर तक नहीं लगता। आंख बंद करते हैं तो एक मिनट तक तो ध्यान कर पाते हैं लेकिन उसके बाद मन भटकने लगता है। तब क्या हम लोगों को जप करना चाहिए? तब रामकृष्ण परमहंस ने कहा- हां। जप में बहुत शक्ति है। जैसे- कोई नाव रस्सी से बंधी है तो अगर कोई रस्सी पकड़ ले तो नाव ( भगवान) तक पहुंच सकता है। जप वही रस्सी है। एकाग्र होकर जप करना चाहिए। किस देवता पर एकाग्रचित्त हों? इसका जवाब है- जो आपको पसंद हो। कहां ध्यान करें? इसका जवाब रामकृष्ण परमहंस ने दिया था- या तो हृदय में या दोनों भृकुटियों के बीच में। दोनों भृकुटियों के बीच को ही गीता में नासिकाग्र कहा गया है। नासिकाग्र पर ध्यान करना चाहिए। मान लीजिए यह भी संभव नहीं है। तो किसी भी देवता का ध्यान कर जाप कीजिए। कुछ नहीं तो सिर्फ- राम, राम, राम का हीजाप कीजिए। कुछ संतों ने कहा है कि सांस लीजिए तो मन ही मन रा.... कहिए औऱ सांस छोड़ते वक्त म..... कहिए। यह भी अजपा जाप है। इससे आपका मन शांत होगा। रामकृष्ण परमहंस ने कहा था- ईश्वर में भक्ति हो और मनुष्य जाप करता रहे तो उसका काम बन जाएगा। वे कहते थे- जाप आपके भीतर कई क्षमताएं पैदा कर देता है।
जिंदगी- एक मुठ्ठी रेत
रात खो गया मेरा दिल.......!!
रात,खो गया मेरा दिल....!!
कल रात ही मेरा दिल चोरी चला गया,
और मुझे कुछ पता भी ना चला,
वो तो सुबह को जब नहाने लगा,
तब लगा,सीने में कुछ कमी-सी है,
टटोला,तो पाया,हाय दिल ही नहीं !!
धक्क से रह गया सीना दिल के बगैर,
रात रजाई ओड़ कर सोया था,
मगर रजाई की किसी भी सिलवट में,
मेरा खोया दिल ना मिला,
टेबल के ऊपर,कुर्सी के नीचे,
गद्दे के भीतर,पलंग के अन्दर,
किसी खाली मर्तबान में,
या बाहर बियाबान में,
गुलदस्ते के भीतर,
या किताब की किसी तह में,
और आईने में नहीं मिला मुझे मेरा दिल !!
दिल के बगैर मैं क्या करता,
घर से बाहर कैसे निकलता,
मैं वहीं बैठकर रोने लगा,
मुझे रोता हुआ देखकर,
अचानक बेखटके की आवाज़-सी हुई,
और जब आँखे खोली,
तो किसी को अपने आंसू पोंछते हुए पाया
देखा तो,
सामने अपने ही दिल को
मंद-मंद मुस्कुराते पाया,
दिल से लिपट गया मैं और पूछा उसे,
रात भर कहाँ थे,
बोला,रात को पढ़ी थी ना आपने,
गुलज़ार साहब की भीगी हुई-सी नज़्म,
मैं उसी में उतर गया था,
और रात भर उनकी नज्मों से
बहुत सारा रस पीकर
मैं आपके पास वापस आ गया हूँ.....!!
हर ख़्वाहिश पर दम निकले!
"मेरी आँखों में भी बड़े-बड़े सपने हैं। कुछ कर गुज़रने की तमन्ना है. मैं भी स्लमडॉग मिलिनेयर के जमाल की तरह करोड़पति बनना चाहता हूँ, लेकिन मेरी सबसे बड़ी ख़्वाहिश यह है कि हमारी झोपड़ियाँ हर हाल में क़ायम रहें."
ये कहना है भारत की राजधानी दिल्ली के बेगमपुर इलाके में स्थित एक झुग्गी बस्ती में रहने वाले 18 वर्षीय राकेश कुमार का।
राकेश के पिता ने उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ से रोज़ीरोटी और आशियाने का सपना लेकर आज से कोई 30 बरस पहले दिल्ली का रुख़ किया था।
राकेश बताते हैं कि पिता का सपना आज भी अपनी मंज़िल को नहीं पा सका है और विरासत में धन-दौलत के बजाए पिता के सपने को साकार करने की मजबूरी और ज़रूरत मिले हैं।
वो कहते हैं, "अगर ये झोपड़ियाँ अभी टूट गईं तो हमारे सपने बिखर जाएंगे। एक बेहतर आशियाना पाने के साथ-साथ मुझे कंप्यूटर इंजीनियर भी बनना है."
रील और रियल में फ़र्क़
जब उनसे पूछा गया कि क्या वो भी स्लमडॉग मिलिनेयर के जमाल की तरह करोड़पति बन सकने का सपना देखते हैं, तो उनका कहना था, "रील और रियल लाइफ़ में फ़र्क़ होता है। लगता नहीं है कि करोड़पति बन सकता हूँ क्योंकि हम जिस अभाव में रहते हैं वहाँ सपने देखे तो ज़रूर जाते हैं लेकिन अक्सर पूरा होने से पहले ही चकनाचूर हो जाते हैं."
स्लमडॉग मिलिनेयर एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती मुंबई के धरावी की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म है, जिसमें झुग्गी बस्ती के जमाल नामक एक युवक के करोड़पति बनने की कहानी है।
फ़िल्म इसी शुक्रवार को भारत में रिलीज़ हुई है। फ़िल्म की झोली में चार गोल्डन ग्लोब अवार्ड भी आ चुके हैं.
सपनों साकार होना
रील और रियल लाइफ़ के फ़र्क़ को जानने के लिए झुग्गी बस्ती की 15 वर्षीया सोनी गुप्ता से जब ये जानना चाहा कि उनके सपने क्या हैं और क्या उन्होंने फ़िल्म स्लमडॉग मिलिनेयर के बारे में सुना है तो उनका कहना था,"मैंने फ़िल्म के बारे में टीवी पर ख़बर सुनी है, लेकिन मेरे ख़्याल से असली ज़िंदगी में सपनों को साकार करने के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती है। गंदगी, ख़राब माहौल, शोर-शराबे और गाली-गलौज के बीच सपने नहीं बुने जा सकते."
हालाँकि सोनी का कहना था कि वो अभी 10वीं क्लास में पढ़ रही हैं और आगे चलकर कंप्यूटर की दुनिया में जाना चाहती हैं क्योंकि उनके अनुसार इस क्षेत्र में नौकरी आसानी से मिलती है।
प्रतिभा की कमी नहीं
स्लम बस्ती में बच्चों को पढ़ाने वाले 22 वर्षीय सरकरी टीचर मुमताज़ जोहर से जब बच्चों की प्रतिभा, सपने और उनके माता-पिता की ख़्वाहिश के बारे में पूछा तो उनका कहना था, "यहाँ के बच्चे-बच्चियों में न प्रतिभा की कमी है न शौक की, माता-पिता भी चाहते हैं कि उनकी औलाद पढ़-लिखकर बड़े आदमी बने, लेकिन सुविधाओं का अभाव, घर की परेशानियाँ और छोटी उम्र में काम का बोझ, बच्चों की प्रतिभा और शौक पर छुरी चला देते हैं।"
दिल्ली के कई झुग्गी बस्तियों में अनेकों युवाओं से मिला, जिनमें कई अपने माहौल से ख़ासे नाराज़ दिखे।
तैमूर नगर के नौशाद का कहना था, "सपने बहुत हैं, लेकिन मैं पुलिसकर्मी बनना चाहता हूँ ताकि यहाँ से नशाख़ोरी, शराब पीने की आदत का ख़ात्मा कर सकूँ, एक को देखकर दूसरा नशे का आदी बनता ही जा रहा है और रोज़ इसकी तादाद में बढ़ोत्तरी हो रही है, मुझे इस माहौल में घुटन होती है।"
शिक्षा की ज़रूरत
चौदह वर्षीय अमीरुन्न निसां एक मस्जिद के इमाम की बेटी हैं. उनका भी घर एक झुग्गी बस्ती में है. उन्होंने स्लमडॉग मिलिनेयर फ़िल्म के बारे में नहीं सुना है लेकिन वो भी ख़ूब पैसा कमाना चाहती हैं.
वो कहती है कि यदि बच्चों को अच्छे संस्कार दिए जाएं और शिक्षित कर दिया जाए तो झुग्गी बस्तियों से सभी बुराई जैसे नशाख़ोरी और ज़ोर-ज़ोर से गाने बजाना ख़त्म हो सकता है।
झुग्गी बस्तियों में काम करने वाली स्वंय सेवी संस्था आश्रय के प्रमुख संजय कुमार का कहना है कि सपने हर जगह हैं लेकिन झुग्गी बस्तियों में इन सपनों के मरने की दर अधिक है।
सपनों का मर जाना
फ़िल्में, ख़ासकर स्लमडॉग मिलिनेयर और मीडिया के झुग्गी बस्तियों के नवयुकों पर पड़ने वाले प्रभाव पर संजय कहना था, "इन बच्चों में बड़े सपने पहले से भी हैं, फ़िल्में उनके सपने को बल देती हैं और मुमकिन है स्लमडॉग मिलिनेयर भी उनके सपने को बढ़ावा दे।"
झुग्गी बस्तियों के नौजवानों से बात करने के बाद महसूस होता है कि आकर्षक, सुन्दर और गगनचुंबी इमारतों के बीच आबाद ये झुग्गियाँ दरअसल दूर दराज़ से आए लाखों लोगों के सपनों के क़िले हैं और इनके गिर्द बसी झुग्गियों में ऐसे सपनों को मंज़िल देने की कोशिश का सफ़र अभी भी जारी है।
क्रांतिकारी कवि पाश ने कहा था- सबसे ख़तरनाक होता है, हमारे सपनों को मर जाना.
...ऐसे में सवाल उठता है कि अगर ये सपनों के क़िले ढ़ह गए तो कितना ख़तरनाक हो सकता है? क्योंकि इन झुग्गियों में कइयों को तो सपने भी या सपने ही विरासत में मिले हैं.
28.1.09
सूना जीवन
रोज़ के मानिंद आज फ़िर पसरा सन्नाटा है
सुनाई देता है
बस सन्नाटे का अट्टाहास
दिखाई देता है
तो बस गहन अन्धकार
खिलखिला कर हँसी थी कभी किसी
सदी
मेरा भी घर था कभी
जहाँ एकांत ढूंढे नहीं मिलता था
खुशियों का सैलाब बहा करता था
घर वही है
समाज लोग वही हैं
पर सामाजिक बंधन टूट गए लगतें हैं
रिश्ते स्वार्थ सिद्ध हो गए हैं
फ़िर भी इक आस ने अब तलक जीवन ज्योत जलाए रखी है
कि कभी तो संवरेगा मेरा सूना जीवन
लौट कर आएगी खुशी मेरे घर आँगन
लोकनाथ ब्रह्मचारी
लोकनाथ ब्रह्मचारी १८वीं शताब्दी में ढाका (बांग्लादेश) जिले में रहे और विलक्षण संत के रूप में ख्याति प्राप्त की। उस समय ढाका भारत का ही अंग था। उन्होंने वैसे तो कई दुखी लोगों की मदद की। लेकिन एक घटना बांग्लादेश में आज भी याद की जाती है। यह तो कहने की जरूरत नहीं कि सच्चे संत लोक कल्याण के लिए चमत्कार करते रहे हैं। आइए पहले उस विवरण को जानें। उनके बारे में गोपीनाथ कविराज ने लिखा है कि उनके एक सहपाठी ने इस घटना का जिक्र किया था। इस सहपाठी को मलेरिया ने धर दबोचा। वे महीनों खाट पर पड़े रहे। बहुत इलाज हुआ लेकिन बुखार था कि ठीक ही नहीं हो रहा था। वे दिन पर दिन कमजोर होते जा रहे थे। तब किसी ने कहा कि आप लोकनाथ ब्रह्मचारी के पास जाइए। शायद वे कुछ चमत्कार कर दें। मरता क्या न करता। उनके सहपाठी अपने पिता के साथ ब्रह्मचारी के पास पहुंचे। उनके पिता ने कहा- महात्मा जी इस लड़के का बुखार उतर ही नहीं रहा है। लोकनाथ ब्रह्मचारी ने कहा- तो मैं क्या करूं। डाक्टर को दिखाओ। लड़के के पिता ने कहा- बहुत सारे डाक्टरों को दिखाया लेकिन बुखार उतर नहीं रहा है। लेकिन लोकनाथ ब्रह्मचारी चुपचाप बैठे रहे। लड़के की आंखों से आंसू गिरने लगे। देख कर संत को दया आई। उन्होंने कहा- जाओ इस आश्रम के बगल वाले पोखरे में नहा कर आओ। लड़के को बुखार था लेकिन संत का आदेश कैसे टाले। वह गया और पोखरे से नहा कर आ गया। लोकनाथ ब्रह्मचारी ने कहा अब भात और दही खा लो। आश्रम में भात औऱ दही दोनों थे। थाल में परोस कर आया। लड़के ने बुखार के बावजूद खाया। फिर लोकनाथ ब्रह्मचारी ने कहा- अब घर जाओ। घर पहुंचने के बाद लड़के का बुखार उतर गया। फिर जीवन में उसे दुबारा मलेरिया नहीं हुआ। लोग चकित थे। बुखार में नहा कर दही भात खाना तो भयानक है। लेकिन लोकनाथ ब्रह्मचारी ने यह चमत्कार कर दिया।
27.1.09
लोकतंत्र और लोकप्रियता
लखनऊ शहर की दीवारों पर आजकल एक पोस्टर हर जगह देखा जा सकता है जिसमे कहा गया है कि 'हमें ak-४७ नही विकास चाहिए 'निश्चित तौर पर ये समाजवादी पार्टी के भावी उम्मीदवार संजय दत्त के ख़िलाफ़ है जिन्होंने ख़ुद चुनाव न लड़ने कि स्थिति में अपनी पत्नी मान्यता के मैदान में उतरने की बात भी कही है फिल्मी सित्तारों की राजनीति में दिलचस्पी कोई नई बात नही है ग्लेमर के आदि बन चुके इन सितारों के लिए राजनीति ,उसी ग्लेमर का एक हिस्सा और सुर्खियों में बने रहने का कामयाब नुस्खा है ,वहीँ राजनैतिक पार्टियों के लिए ये सितारे विरोधियों के चुनावी मैदान में पैर उखाड़ने का अचूक अस्त्र है यहाँ बात संजय दत्त या फ़िर अन्य किसी सितारे की उम्मीदवारी की नही है ,और मैं व्यक्तिगत तौर पर यह कह सकता हूँ ,कि संजय घर के बिगडैल हो सकते हैं लेकिन किसी भी कीमत पर देशद्रोही नही हो सकते ,हाँ कानूनन उन पर अपराध जरुर सिद्ध होता है सवाल सिर्फ़ यह है की क्या किसी व्यक्ति की लोकप्रियता उसके राजनैतिक रूप से योग्य होने का परिमापक हो सकती है ?,क्या हर लोकप्रिय व्यक्ति को लोकतंत्र के रक्षक दल में शामिल कर लेना चाहिए ?मेरा मानना है कि भारत में लोकप्रिय कोई भी हो सकता है ,अगर लोकप्रिय होने का शोर्ट कट अपनाना चाहता हो ,तो ख़ुद को विवादित कर लो या विवाद में रहो जिस देश में अतीक अहमद,मुख्तार अंसारी,अरुण गवली ,पप्पू यादव ,शहाबुद्दीन और राज ठाकरे जैसे कुख्यात संसद व विधानसभाओं में हो ,वहां निश्चित तौर पर लोकप्रिय होना कोई बड़ी बात नही यह दुर्भाग्यपूर्ण है हर हिन्दुस्तानी एक एंग्रीमेन ढूंढ़ रहा है ,कभी वो एंग्रीमेनकानून के लिए सिरदर्द बन चुके माफिया डान बन जाते हैं तो कभी गुंडई के बल पर अधिकारों को दिलाने का दावा करने वाला कोई राज ठाकरे| फिल्मी सितारों में भी जनता उसी एंग्रीमेन को ढूंढ़ती है ,रुपहले परदे में विलेन के दांत खट्टे करता हुआ हीरो उसके वर्चुअल वर्ल्ड का हिस्सा बन जाता है निश्चित तौर पर ये खोज राजनैतिक प्रदुषण की उब से पैदा हुई कुंठा का नतीजा है समाज का लोकप्रिय तबका इस कुंठा को भली भाति इस्तेमाल करता है ,वे आसानी से आम जनता पर शासन करने का अधिकार हासिल करता है ,और ख़ुद को पुनः स्थापित कर लेता है
अगर भारतीय राजनीति में फिल्मी सितारों के सफर पर निगाह डाली जाए ,तो शायद जयललिता को छोड़कर कोई एक भी अभिनेता या अभिनेत्री होगा जिन्होंने अपनी राजनैतिक जीवन की यात्रा में जनकल्याण के दृष्टीकोण से कुछ ख़ास किया हो,कमोवेश यही हाल उन अपराधियों का है जो भीड़ को बरगलाकर सत्ता -प्रतिसत्ता का हिस्सा बने हुए हैं ये बात दीगर है कि अधिकाँश फिल्मी सितारों को राजनैतिक पार्टिया अपने मनचाहे अंदाज में जनता के सामने परोस देती हैं किसी को किसी प्रदेश की बहु बना दिया जाता है तो किसी को किसी क्षेत्र का बेटा बेटा रामपुर की सांसद जयाप्रदा के बारे में वहां के एक शिक्षक कहते हैं' वो समाजवादी पार्टी की सांसद हैं हमारी नही ,चुनाव के बाद हमने उन्हें नही देखा अब हम अपने हाथों से अपना मुँह पिट रहे हैं लेकिन यह भी सच है अगली बार भी वही चुनाव जीतेंगी ',यही हाल धर्मेन्द्र,गोविंदा और विनोद खन्ना का है ,सिनेमा के पर्दे पर दुश्मनों को ललकारने वाले ये हीरो वास्तविक जीवन में अपने होठों पर ताला लगा लेते हैं ,पूर्व सांसद अमिताभ बोलते हैं तो डरते हैं कि उनके शब्द कहीं राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय न बन जाएँ ,और कोई बखेडा न खड़ा हो जाए ,हाँ उन्हें समाजवादी पार्टी का खुलेआम प्रचार करने और पत्नी जया को सांसद के रूप में देखने पर कोई ऐतराज नही है ये अभिनेता जब अपनी लोकप्रियता को चुनावों के दौरान बड़ी बड़ी होडिंगो पर लिखे 'यु पी में हैं दम क्यूंकि जुर्म यहाँ हैं कम 'जैसे नारों के रूप में पिछले विधानसभा चुनावों में भजाता है तो ये भूखी नंगी और वैचारिक कोमा में जी रही जनता को जूता मारने जैसा होता है अब जबकि राखी सावंत,मल्लिका आदि भी राजनीति में आना चाहती हैं तो सोच लें की बुनियादी समस्याओं से हर पल जूझ रहे आदमी का क्या होगा ,संविधान बनने वालों ने भी लोकतंत्र को लोकप्रियता का गुलाम न बनने देने के लिए कुछ नही सोचा |
राजनीती के अपराधीकरण को लेकर चर्चाएँ लगातार हो रही हैं ,लेकिन राजनीति का अपराधियों की और एवं अपराधियों का राजनीति की और विसरण बदस्तूर जारी है मीडिया व समाज का बुद्धिजीवी वर्ग इसके लिए राजनैतिक पार्टियों को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहरा देता है ,लेकिन कभी भी आम जनता को कटघरे मैं खड़ा करने का साहस नही करता ,जबकि सत्यता यह है की सबसे पहले हम ख़ुद जिम्मेदार हैं हम हर अपराधी में एक हीरो ढूंढ़ते है अबू सलेम और बृजेश सिंह जैसे इंटरनेशनल माफिया सरगनाओं की आगामी चुनाव में उम्मीदवारी लगभग तय है ,अगर न्यायालय ने अड़ंगा नही लगाया तो ये लोग कल को चुनाव जीतेंगे और लोकतंत्र का सीना कुचल कर रख देंगे ऐसा इसलिए भी है कि लोकतंत्र के लंबरदारों ने आजादी के बाद से ही आम भारतीय की सोच को पंगु बना दिया है ,हम आज भी शर्मनाक राजनैतिक pratikon के गुलाम हैं ,जिनके बिना हम ख़ुद को अभिव्यक्त भी नही कर पाते हम वहीँ सोचते हैं जो वे सोचने को कहते हैं हम वही देखते हैं जो वे दिखाते हैं ऐसे में अगर कोई बाहुबली ,बलात्कारी या फ़िर सिरफिरे किस्म का गुंडा ,संसद और विधान सभाओं में पहुँचा जाता है तो क्या ग़लत है ,वहां पहुँचा कर वो अपने अपराधों को सफ़ेद कपडों से ढक लेता है और देश में निति निर्धारण की प्रक्रिया का हिस्सा बन जाता है एक मित्र कहते हैं की इन लोकप्रिय चेहरों का केवल एक उपयोग हो सकता है की वो किसी भी आइडोलोजी को जन जन तक पहुंचाएं ,क्यूंकि जो वो कहेंगे लोग आसानी सा आत्मसात कर लेंगे ,लेकिन अफ़सोस वो इसमे भी असफल रहे हैं ,अभिनेताओं को फुरसत नही होती ,अपराधियों की अपनी आइडोलोजी है |
कहां है आदर्श जनकल्याणकारी राज्य, सहज में क्यों नहीं सुनी जाती आवाज
>>पंकज व्यास, ratlam
हम गणतंत्र का 60 वां जश्न mana रहे हैं, लेकिन अब सोचने की जरूरत आ गई है, संविधान में प्रस्तावित एक आदर्श जनकल्याणकारी राज्य की दिशा में क्या हम आगे बढ़ पाए हैं। आज हम स्वतंत्रता का आवरण ओढ़े हैं,लेकिन आज भी हमारी आवाज सहज रूप से नहीं सुनी जाती, उसके लिए धरने, आंदोलन, अनशन करने पड़ते हैं। आम जनता तो ठीक विधायक, सांसद आदि जनप्रतिनधियों को भी आंदोलन को विवश होना पड़ता है, इससे बड़ी बात क्या होगी? क्या जनकल्याण को रेखांकित करना खुद सरकार की जिम्मेदारी नहीं, जो आंदोलन की जरूरत है। इसका ताजा उदाहरण दिल्ली में लाल किले को लेकर दिए गए धरने का है, लाल किले से सलामी की खिलाफत की गई हैं और स्वतंत्र भारत के लिए भारत के अपने स्मारक की मांग की गई है। बकौल तीसरा स्वाधीनता आंदोलन के गोपाल राय, लाल किले पर एक भारतीय शहीद का नाम नहीं, द्वितीय विश्व युद्घ में शहीद हुए जर्मन सैनिकों के नाम अंकित है। इससे बड़ी शर्म की बात क्या होगी, जिस काम को सरकार को करने चाहिए, उस काम को करने के लिए आंदोलन की जरूरत पड़ती है और उल्टा देश को अंधेरे में रखा जाता है, यही नहीं नौबत यहां तक कि तीसरा स्वाधीनता आंदोलन वालों को अनशन करना पड़ता है। राजधानी के ये हाल हैं तो सब जगह क्या होंगे? सवाल कई हैं, लेकिन खास सवाल ये है कि अब भी आवाज सहज में क्यों नहीं सुनी जाती, आखिर कहां है जनकल्याणकारी राज्य?संविधान में प्रस्तावना है कि भारत एक आदर्श जनकल्याणकारी राज्य होगा, लेकिन आज स्थिति इसके उलट है। आदर्श जनकल्याणकारी राज्य की बात तो दूर, हम जनकल्याण को साधने में भी सफल होते प्रतीत नहीं होते हैं। एक समय था, जब हिंदुस्तां गुलाम था, तब अपनी आवाज, अपनी बात को उठाने के लिए जन आंदोलन, धरना, अनशन आदि का सहारा ले लिया जाता था, आज हम आजाद हैं, फिर तो सहज रूप से जन-जन की आवाज सरकार को सुननी चाहिए, पर क्या ऐसा हो रहा है? जवाब, आपका नहीं में ही होगा। आज भी गरीब, मजलूम, असहाय लोगों की आवाज दबा दी जाती है, और हम विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र होने का दंभ भरते जाते हैं। लाल किले का ही उदाहरण ले लें। बकौल तीसरे स्वाधीनता आंदोलन के गोपाल राय, जिस लाल किले पर आजादी के बाद से सलामी लेते, देते आ रहे हैं, वो गुलामी का प्रतीक है। उस पर एक भी हिंदुस्तानी शहीद का नाम नहीं है, वरन् उस पर द्वितीय विश्व युद्घ में मारे गए सैनिकों के नाम अंकित है। सबसे बड़ी बात तो ये है, जो काम सरकार को करना चाहिए, वो तीसरे स्वाधीनता आंदोलन वाले कर रहे हैं और हद तो तब हुई जब उन्हें आमरण अनशन करने की नौबत आन पड़ी। जबकि, होना तो यह चाहिए था कि उनकी आवाज को तवज्जो दी जाती। उनकी मांग कोई नाजायज तो है नहीं, जो मानी न जाए। उनका कहना सही भी है कि जिस लाल किले पर एक भी भारतीय शहीद का नाम अंकित नहीं, अगर, वे भारत के लिए एक अलग से स्मारक की मांग करते हैं, तो इसमें बुरा क्या है?ï सवाल इतना सा नहीं है। सवाल तो इससे भी बड़ा है कि क्यों देश की सरकारों ने पूरे राष्टï्र को आजादी के बाद से आज तक अंधेरे में रखा और लाल किले को महिमा मंडित करते रहे? क्या लाल किले की हकीकत से सरकार अनजान थीं या उसने जानने की जरूरत नहीं समझी? जो काम तीसरa स्वाधीनता आंदोलन वाले कर रहे हैं, वो काम क्या खुद सरकार का नहीं है? क्या देशभक्ति की बात करना सरकारों के हिस्से में नहीं आता? क्या जनकल्याण करना सरकारों का दायित्व नहीं हैं? जब देश की राजधानी दिल्ली के ये हाल हैं। लाल किले की सत्यता से सरकार अनजान है, तो देश के अन्य भागों में क्या हो रहा है, क्या इसकी जानकारी सरकार को है? बात करें जनकल्याण की तो ये बात किसी से छुपी नहीं है कि एक सेवानिवृत्त कर्मचारी को भी अपना सेवानिवृत्ति प्रकरण सुलझाने के लिए मशक्कत करनी पड़ती है, आमजन को रजिस्ट्री करवाने के लिए बाबुओं की जी-हजुरी करनी पड़ती है, एक आम आदमी को सरकारी दफ्तर में काम होता है, तो वह जाने से पहले दस बार सोचता है कि कहीं उसकी चप्पल न घिस जाए। सरकारी अस्पतालों के हालात क्या होते हैं, किसी से छुपा नहीं है। भ्रष्टïाचार ने आम आदमी को लील लिया है। देश के युवा और ऊर्जावान प्रधान मंत्री ने कहा था कि केन्द्र से 100 पैसे निकलते हैं, तो आम जन तक केवल 15 ही पहुंच पाते हैं और 85 भ्रष्टïाचार में चले जाते हैं। जो भ्रष्टïाचार में लिप्त हैं, उन अधिकारियों, कर्मचारियों की देशभक्ति कहां चली गई। मुझे समझ नहीं आता कि उनमें देशभक्ति का ज्वार क्यों नहीं फूटता? आप यकीन मानिए, जिस दिन इस देश के भ्रष्टï अधिकारी, ·र्मचारियों में देशभक्ति जाग जाएगी, उस दिन देश की आधी समस्याओं का हल हो जाएगा। हम चाहें नेताओं की लाख बुराईयां कर लें, लेकिन हकी·त तो ये है कि नेता तो 5 साल राज करते हैं, लेकिन यथार्थ में असली राज तो अफसरशाही का ही है। ये वो ही अफसर होते हैं, जो चाहे तो नेताओं को अंधेरे में रख सकते हैं, चाहे तो उनके काम में मदद कर सकते हैं। ये चाहें तो देश को अर्श पर ला सकते हैं और चाहे तो फर्श पर। आप सूचना के अधिकार को ही ले लें, सरकार बड़े नेक इरादे से शासन को पारदर्शी बनाने के लिए सूचना के अधिकार का कानून लेकर आई, लेकिन यदाकदा सूचनाएं न देने के समाचार सुनने व पढऩे को मिल ही जाती है। दरअसल, हमारे यहां ठीक से कॉम्बिनेशन नहीं हो पा रहा है। सरकार जनकल्याण चाहती है, तो अफसरशाही आड़े आती है और अफसर ईमानदार हो जाते हैं, तो नेता घपलेबाज। हकीकत में हमारे यहां गुड आईडिया वाले लोग तो बहुत है। सरकार भी जनकल्याण नहीं चाहती है, ऐसा नहीं। सरकार तो जनकल्याण चाहती है, लेकिन ऐसा लगता है प्रशासन में निष्ठïावान लोगों की कमी हो गई है। एक दूसरा पहलू यह पिछले चुनावों के समय देखने को आया कि जनप्रतिनिधि विधायक निधि से, सांसद निधि से किसी और कोष से जनकल्याण के कार्य स्वीकृत करवाते हैं, उद्घाटन करते हैं, लोकार्पण करते हैं, तो प्रचारित तो ऐसा करते हैं मानो ऐहसान करते हों, जबकि उनका यह फर्ज बनता है कि वे जनकल्याण के काम करे। लेकिन नहीं, वे तो ऐसा जताते हैं कि मानों उन्होंने जनकल्याण के कार्य स्वीकृत कर जनता पर अहसान किया हो। संविधान में जनकल्याणकारी राज्य की अवधारणा है और हमारे जनप्रतिनिधियों, अफसरों, नौकरशाहों, कर्मचारियों का कर्तव्य बनता है कि वे जनकल्याण में रत रहे। इस बात को हमें समझना होगा, तभी हम एक आदर्श जनकल्याणकारी राज्य की दिशा में आगे बढ़ पाएंगे।
26.1.09
पदमश्री की गरिमा का क्या
उन्होंने कुछ समाजसेवा भावी व्यक्तियों के साथ १९८८ में एक संस्था "विद्यार्थी शिक्षा सहयोग समिति"का गठन किया। समिति ने आर्थिक रूप से कमजोर उन बच्चों को शिक्षा के लिए आर्थिक सहायता दी जो बहुत होशियार थे। यह सहायता जन सहयोग से जुटाई गई।इसमे श्री महेश्वरी जी का व्यक्तिगत योगदान कितना था? वैसे श्री महेश्वरी जी एक कॉलेज में लेक्चरार है और घर में पैसे लेकर कोचिंग देते हैं। श्रीगंगानगर में ऐसे कितने ही आदमी हैं जिन्होंने समाज में महेश्वरी जी से अधिक काम किया है। स्वामी ब्रह्मदेव जी को तो इस हिसाब से भारत रत्न मिलना तय ही है। उन्होंने ३० साल पहले श्रीगंगानगर में नेत्रहीन,गूंगे-बहरे बच्चों के लिए काम करना शुरू किया। आज तक उनके संरक्षण में कई सौ लड़के लड़कियां अपने पैरों पर खड़े होकर अपना घर बसा चुके हैं। जिनसे समाज तो क्या उनके घर वालों तक को कोई उम्मीद नहीं थी आज वे सब की आँख की तारे हैं। सम्मान की घोषणा करने वाले यहाँ आकर देखते तो उनकी आँखें खुली की खुली रह जाती। आज स्वामी जी के संरक्षण में नेत्रहीन,गूंगे-बहरे बच्चों की शिक्षा के लिए क्या किया जा रहा है वह शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। पता नहीं ऐसे लोग क्यूँ सम्मान देने वालों को नजर नहीं आते। आज नगर के अधिकांश लोगों को श्री महेश्वरी के चयन पर अचम्भा हो रहा है। अगर श्री महेश्वरी को इस सम्मान का हक़दार मन जा रहा है तो फ़िर ऐसे व्यक्तियों की तो कोई कमी नही है।
यहाँ बात श्री महेश्वरी जी के विरोध की नहीं पदमश्री की गरिमा की है। सम्मान उसकी गरिमा के अनुकूल तो होना ही चाहिए ताकि दोनों की प्रतिष्ठा में और बढोतरी हो, लेकिन यहाँ गड़बड़ हो गई। सम्मान की प्रतिष्ठा कम हो गई, जिसको दिया जाने वाला है उसकी बढ़ गई। मैं जानता हूँ कि जो कुछ यहाँ लिखा जा रहा है वह अधिकांश के मन की बात है किंतु सामने कोई नहीं आना चाहता। मेरी तो चाहना है कि अधिक से अधिक इस बात का विरोध हो और सरकार इस बात की जाँच कराये कि यह सब कैसे हुआ। मेरी बात ग़लत हो तो मैं सजा के लिए तैयार हूँ। यह बात उन लोगों तक पहुंचे जो यह तय करतें हैं कि पदमश्री किसको मिलेगा।
लड़ के पाए हैं आज़ादी हम दोस्तों
इससे ज्यादा हमें कोई प्यारा नहीं
लड़ के पाए हैं आज़ादी हम दोस्तों
होके आज़ाद लड़ना गवारा नहीं
हम लड़े हैं सदा धर्म पर जाति पर
बांटना देश को अब दोबारा नहीं
ये हमारा वतन हमको प्यारा वतन
इससे ज्यादा हमें कोई प्यारा नहीं
स्लम-डॉग की वाह-वाह.......!!
हमारे समय की तस्वीर
तस्वीर चाहते हैं हम लोग, जिसमें
सभी कुछ हो सभ्य, शालीन और सुसंस्कृत
तस्वीर में समय हंस रहा
अठखेलियां कर रहा हो
बच्चों के साथ
बूढ़ों के साथ बैठा हो चारपाई पर
समय चाहे हो घर से बाहर
पर मुकम्मल तौर पर घऱ लौटता हो
जैसे लौटता है गणतंत्र दिवस
और न भी लौटता हो
तो भी विश्वास हो हमें कि
लौट आएगा एक दिन
समय जाता हो दिल्ली-कोलकाता
यात्रा करता हो मेट्रो या ट्राम्वे से, किंतु
जब भी घर लौटा हो तो
इस तरह नहीं, जैसे
दफ्तर से लौटता है
किसी का पति, भाई या बेटा
थका-थका सा, बोझिल और टूटा हुआ
हम लोग आए हैं
बंगलुरू से, अहमदाबाद से
भुज से, भोपाल से भी आए हैं कुछ लोग
कुछ लोग आ रहे हैं नंदी ग्राम से
और जो नहीं आ सके हैं लातूर से, मुंबई से
या ताज-ओबेराय से, उनकी लाए हैं हम पसंद
हम लोग ऐसे समय की
तस्वीर चाहते हैं
जो बूढ़ों की तरह खूंसट न हो
बहरा न हो अतीत सा
फुसफुसाता न हो
फटने वाले बारूद की तरह
तस्वीर में भी, डरावना
न हो मृत्यु सा
वह इस सदी सा न हो
और ऐसी ही कई सदियों सा भी न हो
उसमें मंदी न हो महंगाई न हो
बाटला हाउस की जग हंसाई न हो
वह तो ऐसा हो
जिसे हम ले जा सकें
अगली सदी में
जैसे लोग ले जाते हैं
कोई भेंट, कोई उपहार किसी की खुशी में
प्रेमी देते हैं जैसे सरप्राइज
और जैसे हम ले गए थे
हाईस्कूल में पास होने की खबर
अपने घर
कृपा करके पहले हमें
हमारी तस्वीर बना दीजिए
पवन निशान्त
http://yameradarrlautega.blogspot.com
25.1.09
राष्ट्रीय महानगर के कार्यक्रम में उमड़ा देशप्रेमियों का सैलाब
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
teri raahon me jaan tak luta jayenge
ful kya cheez hai tere kadmo mein hum
bhet apne saron ki chadha jayenge.
Happy Republic Day !
Friends18.com GandhiJi Comments
Gandhi swapna jab satya bana,
Desh tabhi jab gantantra bana,
Aaj fir sae yaad kare woh mehnat,
Jo thi ki veero ne,aur bharat gantantra bana.
देश प्रेम जिंदा रहेगा
आज के इंसान को ये क्या हो गया?इसका पुराना प्यार कहां पर खो गया?
मुझे नहीं लगता है कि भारत जैसे देश में लोगों के बीच प्यार खोता जा रहा है, हो सकता है कि हम आतंकवाद, जातिवाद, राष्ट्रवाद और न जाने कितने वाद-विवादों से घिरे थे, घिरे हैं और घिरे रहेंगे, मगर एक बात इन्हीं वाद-विवादों के बीच से हमें एक-दूसरे से जुड़े रहने के लिए प्रेरित करती है... और वह है तिरंगा....
जिस तरह तिरंगे को लहराता देख मेरा मन एक अजीब से अहसास से झूमने लगता है, उसी तरह हर वो भारतीय आंखें तिरंगे के तीनों रंगों को देख कर शहादत करने वालों को एक बार तो याद करती होगी..उन आंखों के सामने एक बार उन बम-धमाकों के धुएं में चलती-फिरती, भागती-दौड़ती वो तस्वीरें दिखाई देती होंगी, जिन्होंने आतंकवाद के दंश को प्रत्यक्ष झेला है...और वो आंखें भी देशप्रेम से भर जाती होंगी, जिन्होंने मीडिया की नजर से उन्हें देखा है, भले ही ये अप्रत्यक्ष दृश्य हो, मगर इसने भी उतने ही घाव दिए हैं, जितने प्रत्यक्ष साक्ष्य वालों ने लिए हैं....हम भले आतंकवाद के बारे में सोचते हों-
कैसा ये खतरे का फजल है, आज हवाओं में भी जहर है...
मगर मुझे महसूस होता है कि इस फजल ने भी हमें दिलों से, संवेदनाओं से जोड़कर रखने में मदद की है। जब भी हम अपने जवानों के शरीर पर तिरंगा लिपटा हुआ देखते हैं, उस समय एक बार देश को तहस-नहस करने वालों को मिटाने अपनी मुटि्ठयां भींच लेते हैं। और वो जहरीले लोग यही सोच-सोच कर खुश होते हैं कि इस देश को तो...
डस दिया सारे देश को जहरीले नागों ने,घर को लगा दी आग घर के चिरागों ने...
उन्हें ये सोच कर अंदर ही अंदर मरने दें हम, क्योंकि हम उस देश के वासी हैं जिसने संसार को शून्य दिया है और ये शून्य अपने आप में बहुत घहरा अर्थ समेटे हुए हैं। शून्य यानी ब्रह्माण्ड , हमारे अंदर का ब्रह्माण्ड , हमारे बाहर का ब्रह्माण्ड ... और उस तिरंगे का चक्र(अशोक चक्र) जिसमें एक नही, २४ तिलिया है. ये हमें २४ प्रहार देश-प्रेम की याद दिलाती रहती है वो भी अनजाने में...एक संदेश के जरिये ...
सुनो जरा ओ सुनने वालों, आसमान पर नजर घुमा लो ..एक गगन में करोड़ों तारे, रहते हैं हिल-मिल कर सारे...
फिर हम क्यों डरते है ऐसी अप्रत्याक्षित बातो से, क्या हम ये सोचते है कि....
किसके सिर इल्जाम धरें हम, आज कहां फरियाद करें हम,करते हैं जो आज लड़ाई, सब के सब हैं अपने ही भाई...
देखिए हर दिल अगर ये फरियाद खुद से कर लें, तो देश-भक्ति कभी खोएगी नहीं, यकींन मानिए यह लहराएगी तिरंगे के रंगों में, जल में, थल में और गगन में ...
एक बार फिर से कवि प्रदीप की आत्मा सदा देगी..अपना तो वो देश है भाई, लाखों बार मुसीबत आई... इंसानों ने जान गंवाई पर देश की लाज बचाई..
गणतंत्र की जय हो...
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वाह रे पंचायत! सोचा, लड़की का क्या होगा?
प्रेमी को देना पड़ेगा खर्चा , खबर यह नहीं बल्कि यह होनी चाहिए कि अब गरीब तबके की लड़की का क्या होगा ? भारतीए समाज में एसा कोई प्रावधान नहीं है,जिसमें गर्भवती लड़की को किसी और के खूंटे बांधा जाए । पंचायत का फैसला यह होना चाहिए कि गरीब लड़की के साथ अगर प्रेम किया गया है तो उसके प्रेमी के साथ विवाह होना चाहिए । यह कहां से उचित फैसला हुआ, कि गरीब को पैसा देकर मुंह बंद करवा दो । मैंने भी एक अखबार में इस खबर को देखा । एजैंसी के रिपोर्टर ने मसाला लगाकर खबरें प्रस्तुत की थीं, अखबार ने भी बढिया डिस्पले देकर पाठक तक पहुंचाया । लेकिन क्या सुबह इस खबर को पढ़ कर आपकी आत्मा ने कोई सवाल नहीं किया । अगर नहीं तो आप सो रहे हैं ?
बुरा मत मानना क्या गरीब लड़की की जगह आप में से किसी की लड़की होती, उच्च श्रेणी के लड़के की जगह आपके इलाके के किसी करोड़पति या फिर किसी बड़े नेता का लड़का होता, तब आप क्या करते । मान लो आपको कहा जाता कि १ करोड़ लेकर बेटी का गरभपात करवा लें, किसी के साथ ब्याह दें । क्या आप एसा करते ? जरा सोचिए ....
यह मुजफ्फर नगर की पंचायत का फाल्ट नहीं है, फाल्ट हमारे समाज का है । हमेशा से ही गरीबों को कुचला गया है, गरीब लड़कियों के चीरहरण किए गए हैं । वह चाहे मुंशी प्रेमचंद की कोई कहानी हो, अथवा कोई बड़े लेखक का जासूसी उपन्यास अथवा किसी बड़े डायरैक्टर की कोई फिल्म क्यों न हो ? आपने कहानी अमित जी के पोस्ट में पढ़ी होगी,कहानी मैं नहीं बताऊंगा । लेकिन इतना जरूर कहूंगा, कि सोचिए क्या यह ठीक है ।
प्रेमी कराएगा प्रेमिका की शादी
डोडे खाओ, ड्यूटी करो
बेबस कर्मी
bhadasi भाइयों aaphi लोग bataen की इस mandi के दौर में सरकार द्वारा इनको hatana jayaj है । दो हज़ार रुपया में सरकार berojgari kaa फायदा नहीं उठा रही........ ऐसे में यदि ये bhrast बनते हैं तो क्या ग़लत है । क्यों नहीं ये नरेगा को लूट लें ..... jab नरेगा कर्मी ही लूट रहा है तो वो कैसे इसे सफल karne के बारे में सोचे ......
पहले गोरे थे, अब काले हैं
24.1.09
अरे ये सुभाष चंद्र बोस कौन है.........
कुछ लोग कहते हैं की फैजाबाद में गुमनामी बाबा की समाधी उन्ही की है सो हम भी आज के दिन कुछ पलों के लिए वहां चहेल कदमी कर आए और लगे हाथ कुछ बात चीत भी कर ली गुमनामी बाबा से लेकिन बाबा जी ने मुझे कोई जवाब नही दिया हाँ वापसी पर अलबत उस समाधी से आवाज़ आई की अबे नालायक तू क्यों मेरी चिंता में घुला जा रहा है जब मेरे देश ने ही मुझे भुला दिया तो तू तो अभी ठीक से देशवासी भी नही हो पाया है ! जा पहले इन तथा कथित देश भक्तों से नेताओं से देशवासी होने का पहचान पत्र ले कर आ फ़िर मुझसे बात करना और हाँ रात के अंधेरे में ही आना नही तो तेरा भी सौदा कर दिया जाएगा और फ़िर तुझे भी मरने से पहले यूँ ही गुमनामी की ज़िन्दगी बितानी होगी और मरने के बाद भी सरकार ही घोषित करेगी की तू है कौन और वो भी १००-२०० सालों की जाँच करने के बाद.........,,ये वो नेता जी थे जिनको शायद हम सभी भुला चुके हैं और चिरकुट सरकारी मदद लेने वाले क्रांतिकारियों से भी गया गुजरा समझते हैं.....................,,,,,,,,,,,,
जय हो रहमान
जै-जै ओबामा
"सुनी है के भगवान को जनम भओ है"....गहरे अचरज से उसने पूछा "कहाँ ?"..."अरे बड़े दिनो से टीबी में कहूं चल रओ थो, तंयीं बाबू जी ने सुइ बताओ के किस्न भगवान को औतार हैं वो...ऐंसे कउंके देस में जनमे हैं बे जहां कभउं कोई करिया नइ होय"....फिर वह खुशी से मिश्रित अपने आप में उम्मीदों संग कहीं खोते हुए बोला "तो का भैया हमरी मजूरी होन लग्हे का ?"....दूसरा अपनी धुन में यशगाथा सुनाता रहा वो उम्मींद से भरता रहा अपना मन.....घर में खाट पे आकर धरा सा गया रोज़ चिंतित,व्यथित रहने वाला हल्कोरी आज वेफ़िक्र खाट पे पड़ा हुआ है....झिन्या से रहा नही गया खुशी मगर जिज्ञासा से सनी आश्चर्य की मारी तिरछी भौंह से पूछा "का बात है आज तुम बड़े निसफिकर लग रये हो। ....जान के अच्छो तो लगो मनो बात तो कछु है सही"........"अरी कछु नइहै बस बैसइ" फिर निंश्चिंतता से जबाव दिया.... "अच्छा मैं जैसे चूले चौंका में ही घुसी हों जानत हों कछु तो है.........."झल्ला कर सवाल में जान डालते हुए फिर पूछा...."हाँ अब सबकी चिंता दूर होजै है" कहते हुए हल्कोरी ने मुंह पर गमछा डालते हुए कहा....."कैसे ?"...... भौंह का तिकोना उसके खूबसूरत चेहरे पे उभर आया.....पल्लू दांतों से बाहर निकालते हुए बोली....हल्कोरी ने जबाव दिया "अरे कहूं बिदेस में भगवान को जनम भओ है....ते बे सब कै रै थे"......"कौन ?"......फिर झिन्या ने उतावली हो कर पूछा......."एरी तू बेसुरत रेत है....तोय कछु पता नइ रेय बो कलगी भगवान हैं...ओबामा".....झिन्या को जैसे साक्षात भगवान दिख गये हों श्रद्धा और विश्वास के साथ दोंनो हाथ जोड़ कर दूर से आंख बंद कर बोली जै हो भगवान।........."अब हमरी सुइ सुरत लइयो...ओबामा भगवान...जै जै ओबामा"।।।.....मीडिया किसी को भी इतना कवरेज़ देने से पहले ज़रा इनके बारे में भी सोचे कि आखिर ये लोग भी तो हैं जो अपके अर्थ को ज़रा में अनर्थ बना कर ले लेते हैं हालाकि समूचा देश इस वक्त सिर्फ काले से दिखने वाले ओबामा को निहार रहा है, मैंने इतना नकारापन कभी इस देश में नहीं देखा।।।।।। इन हालात की ज़िम्मेदार... ग़ैरज़िम्मेदार मीडिया और मज़बूर सरकार है....।।।।।
23.1.09
मैं और कल्याण सिंह 1997 में
ये कोई अपना सा कितना अपना है
खैर बात हो रही थी अपनेपन की तो अपने हुसैन से हमें कुछ आस और उम्मीदें भी है। हुसैन सुनकर तो लगता है की जैसे कोई भारतीय ही अमेरिकी रास्त्रपति बन गया हो। शायद यही कारन रहा होगी कि भारतीय मीडिया ने ओबामा को सर आँखों पर बिठाया। ओबामा के खाने लेकर पीने तक की हर ख़बर भारतीय मीडिया ने बताई और दिखाई भी। ओबामा जितने अमेरिका मै हीरो बने है, उससे ज्यादा भारतियों के दिमाग मै छा गए है। मीडिया ने ओबामा से पूरी दुनिया को कुछ आस उम्मीद भी बना दी है। अब हुसैन तो हमारे ठहरे तो कुछ ज्यादा उम्मीदें पाल लेने मै कोई बुरे भी तो नही है। भारतियों ने भी कुछ यही किया है, इस्स्में सायद भारतीय मीडिया का भी अहम् रोल है। जिसने ओबामा को भारतियों बीच का आदमी साबित कराने मै कोई कसार बाकी नही रखी. अब अपने से उम्मीद लगना भी बेमानी नही है, सो भारतियों ने भी ओबामा से कई उम्मीदें सजा रखी है। भारतियों को उम्मीद है की ओबामा पाकिस्तान को आतंकबाद को ख़त्म करने के लिए कहेंगे और उसे मिलने वाली सहायता पर भी कुछ रॉक लायेंगे। कुल मिलकर आतंकबाद से लाकर हर समस्या का समाधान ओबामा के पास होगा, ऐसा भारतियों और ओबामा से उम्मीदें लगाये लोगों का मानना है। पर शायद ऐसा कराने की अमेरिकी राष्ट्रपति की मंशा हो। शब्दों के जादूगर ओबामा ने कुछ उम्मीदें रख छोडी है। लेकिन इन उम्मीदों पर वह कितने पूरे होंगे यह तो आने वाला समय ही बताएगा। अपना सा लगाने वाला यह कितना अपना होगा, अभी तो कहना मुश्किल ही है। उसकी भी वजह साफ़ है, ओबामा ने अभी ऐसा कुछ भी नही किया है की हमें लगे की वह हमारा अपना सा है। फिर भी हमें ओबामा से अपने होने का इंतज़ार रहेगा। आखिरकार हमारे तथाकथित दिग्गजों ने हमें ओबामा से कुछ उम्मीदें जो दिखाई है। अब ये उम्मीदें पूरी होंगी, इसके लिए तो वक्त का ही इंतज़ार करना पड़ेगा।