31.5.10
किन्नरों ने की अलग गणना की मांग
नई दिल्ली, एजेंसी : देश में आजकल जाति आधारित जनगणना का मुद्दा सरगर्म है। इस सबके बीच अपने उत्थान के लिए एक ऐसे वर्ग की अलग से गिनती किए जाने की आवाज भी उठ रही है, जो सदियों से वंचित, उपेक्षित और तिरस्कृत है। पिछले साल नवंबर में चुनाव आयोग से अन्य के रूप में अलग मतदाता श्रेणी हासिल होने के बाद देश के किन्नर चाहते हैं कि मुल्क में जारी जनगणना में भी उनकी अलग श्रेणी में गिनती की जाए। अब तक किन्नरों की गणना पुरुष वर्ग में की जाती रही है और इस बार भी निर्देशों में कोई बदलाव नहीं किया गया है। किन्नरों की अलग श्रेणी में गणना के लिए मुहिम चला रहे सिस्फा-इस्फी संगठन के सचिव डॉक्टर एस. ई. हुदा ने कहा कि एक अनुमान के मुताबिक देश में तकरीबन एक करोड़ किन्नर हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह वर्ग देश का सबसे उपेक्षित और तिरस्कृत तबका है। हुदा ने कहा कि इनसान होने के बावजूद समाज में हिकारत भरी नजरों से देखे जाने वाले इस वर्ग के उत्थान के लिए इसके सदस्यों की सही संख्या का पता लगाना बेहद जरूरी है ताकि उनके लिए योजनाएं बनाई जा सकें और उनका समुचित क्रियान्वयन हो सके। इस लिहाज से मौजूदा जनगणना सबसे सही मौका है और अगर यह हाथ से निकल गया तो किन्नरों के लिए आशा की किरण अगली जनगणना तक कम से कम 10 और वर्षों के लिए बुझ जाएगी। मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पाण्डेय ने कहा कि देश के किन्नर अपने मौलिक अधिकारों से भी वंचित हैं और उनके प्रति समाज की नकारात्मक मानसिकता ही इस वर्ग के कल्याण की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। किन्नरों की अलग से गणना को लेकर देश के महापंजीयक कार्यालय ने सूचना का अधिकार कानून के तहत दी गई जानकारी में कहा है कि देश में इस समुदाय की अलग से गिनती करने का मामला तकनीकी सलाहकार समिति (टीएसी के समक्ष रखा जाएगा। इस समिति की सिफारिशों को अंतिम फैसले के लिए सरकार के सामने पेश किया जाएगा। ऑल इंडिया किन्नर एसोसिएशन की अध्यक्ष सोनिया हाजी ने पुरुषों और महिलाओं की ही तरह किन्नरों को भी अलग श्रेणी देने की मांग करते हुए कहा कि उन्हें अलग दर्जा और पहचान मिलनी चाहिए। ऐसा नहीं होना न सिर्फ नाइंसाफी है, बल्कि मानवाधिकारों का उल्लंघन भी है। उन्होंने कहा कि किन्नर ऐसे शारीरिक दोष की बहुत बड़ी सजा भुगत रहे हैं जिसके लिए वे खुद कतई कुसूरवार नहीं हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर यू. पी. अरोरा ने इस मामले पर कहा कि इस वक्त समाज में समानता की बात की जा रही है, लेकिन खासा बड़ा मुद्दा होने के बावजूद किन्नरों को बराबरी का दर्जा देने के बारे में भारतीय समाज में अभी तक कोई बात नहीं हुई है। हमारे समाज में किन्नर के रूप पैदा हुए बच्चों को त्याग दिया जाता है। यह एक बड़ा गुनाह है। बहरहाल, किन्नरों की अलग जनगणना के लिए प्रयास कर रहे लोगों को उम्मीद है कि समाज तथा सरकार का नजरिए बदलेगा और इस वंचित वर्ग को उसका हक मिलेगा।
विनाश का द्वार दिखता ही नहीं
सभी जानते हैं कि पर्यावरण में हर प्राणी की अपनी जगह है और कोई न कोई महत्वपूर्ण भूमिका उसे मिली हुई है। बहुत सारे पक्षी और छोटे उड़ने वाले जीव फलों और बीजों को दूर तक ले जाते हैं और इस तरह प्रकृति की विविधता के विस्तार में सहायक होते हैं। अनेक जानवर आदमी द्वारा इकट्ठे किये गये कूड़े-कचरे को साफ करते हैं, वह उनकी भोजन की कड़ी के रूप में इस्तेमाल होता है। कई पशु-पक्षी मरे हुए जानवरों को खाते हैं और इस तरह वे वातावरण को संतुलित रखने में मदद करते हैं। कई कीड़े ऐसे होते हैं जो जमीन की उर्वरा बढ़ाने में सहायक होते हैं और इस तरह आदमी की खाद्यान्न समस्या हल करने में मदद करते हैं।
ध्यान से देखें तो प्रकृति ने सभी प्राणियों के जीवन में अन्योन्याश्रय का संबंध बना रखा है। सृजन और विनाश की जो प्रक्रिया प्रकृति में निरंतर चलती रहती है, वह बड़ी ही अद्भुत है। जंगल में एक जानवर मरता है तो उसके शरीर से अनेक जानवर पोषण प्राप्त करते हैं। हड्डियों से चिपका जो कुछ थोड़ा-बहुत बच जाता है, उस पर छोटे-छोटे कीट पलते हैं। बचे हुए हिस्से का भी विघटन हो जाता है और वह मिट्टी के साथ मिलकर उसकी उपजाऊ शक्ति को बढ़ा देता है। दूर कहीं से हवा में उड़ते हुए बीज आकर जब वहां गिरते हैं तो अपने-आप उग आते हैं। नयी सृष्टि नयी कोंपलों में व्यक्त हो उठती हैं। यह विनाश पर सृजन नहीं तो और क्या है।
प्रकृति अपना कुछ भी जाया नहीं करती। जो चीजें आदमी के लिए घृणास्पद और त्याज्य हैं, उनका भी मनुष्य के उपयोग के लिए ही प्रकृति रूपांतरण कर देती है। हम जो त्याग देते हैं, उससे भी कुछ प्राणी पोषण प्राप्त कर लेते हैं और जो बच जाता है, वह रूपांतरित होकर अन्न या फल के रूप में हमारे पास ही वापस आ जाता है। बड़ी अद्भुत व्यवस्था है। लेकिन इस व्यवस्था को आदमी ही अपनी नासमझी से नष्ट कर रहा है।
शहर बढ़ रहे हैं, जंगल कम हो रहे हैं, पेड़ कट रहे हैं। इस नाते तमाम प्राणियों का प्राकृतिक आवास खत्म हो रहा है। जाहिर है वे खुले आसमान में अपनी रक्षा नहीं कर सकते। इससे दुहरा नुकसान हो रहा है। एक तो कई पशु-पक्षी धीरे-धीरे विलुप्त होने के कगार पर हैं, दूसरे प्राकृतिक संतुलन डगमगा रहा है। इस बार की गर्मी को ही लीजिए. कितनी भयानक है, आप कल्पना नहीं कर सकते। आम तौर पर 45 डिग्री से ऊपर तापमान। कई जगहों पर इससे भी ज्यादा। सहना मुश्किल है। जब आदमी इससे परेशान है तो पशु-पक्षियों का क्या हाल होगा।
सौ साल का रिकार्ड टूट रहा है। इतनी गर्मी पहले नहीं पड़ी। गर्मी ही क्यों, पिछली ठंड ने यूरोप और अमेरिका को जमा ही दिया था। दुबई में बर्फ पड़ी, कोई सोच भी नहीं सकता। बारिश अमूमन या तो बहुत भयानक होती है या होती ही नहीं। यह सारे खतरे आदमी ने खड़े किये हैं। खास तौर से औद्योगिक रूप से विकसित देशों ने। अब वे खतरा पहचानने भी लगे हैं लेकिन पीछे लौटने में बड़ी मुश्किल है। आगे विनाश का द्वार है पर तय कर लिया है कि आगे ही बढ़ते जाना है।
पिछले दिनों बड़ी चर्चा हुई, अब गिद्ध नहीं दिखते। पर अब तो बहुत सारे पक्षी नहीं दिखते, बहुत सारे कीट-पतंग जो हम-आप बचपन में गांवों में देखते थे, अब कहां हैं। गौरेया कितनी बची हैं? भगजोगनी कहां गयी? जुलाहे कहां हैं? बतखें कितनी बचीं? अगर हम इनके बारे में नहीं सोचेंगे तो हमारे जीवन के बारे में प्रकृति भी नहीं सोचेगी, यह साफ-साफ समझ लेने की जरूरत है।
क्या लापरवाह छात्र भी बन सकते है पत्रकार !
लापरवाह छात्र मैं उन छात्रों की बात कर रहा हूं जो देश के जाने-माने पत्रकारिता के प्रतिष्ठित संस्थान माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एंव संचार विश्वविद्यालय नोएड़ा कैंपस की। वैसे तो इस युनिवर्सिटी में छात्रो को प्रवेश परीक्षा पास कर ही दाखिला दिया जाता है जिसका मतलब छात्रों में वाकई पत्रकार बनने के गुण है। लेकिन छात्र इसके विपरीत ये सोचते है कि माखनलाल में दाखिला मिलने के बाद वो पत्रकार बन गये है जो सोच शायद मेरे हिसाब से बिल्कुल गलत है।
नोएड़ा कैंपस में रोजाना सुबह 10 बजे क्लास शुरू होने का समय है। कुछ छात्र समय पर पहुंच जाते है, लेकिन कुछ ने तो कसम ही खा रखी है कि हम समय पर नहीं पहुंचेंगे। छात्रों के पास तमाम ठोस बहाने है सर जाम लग गया था, आटो खराब हो गया था, सर पानी नहीं आ रहा था, देर से उठ पाये है। इतना ही नहीं कुछ वरिष्ठ बुद्धीजीवी छात्र ऐसे भी है जिनका मानना है कि कैंपस में आने वाली फैक्लटी तो किताब से पढ़ कर पढ़ाती है अपने अनुभव शेयर करती है बकवास पढाते है हमें नहीं पढ़ना है, हम तो उनसे अधिक जानते है। माना की आप उनसे ज्यादा जानते है लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आप उनकी क्लास ना लें। बहरहाल, हम आपको एक करिश्मा बताते है- जो छात्र दस बजे कभी कालेज नहीं पहुंचे वो आज सुबह साढ़े आठ बजे शुरू होने वाले प्रेक्टिकल परीक्षा के दौरान कैंपस में समय पर पहुंच गये क्योंकि यहां सवाल परीक्षा का था। वर्तमान में आधे से अधिक मीड़िया संस्थान में सुबह 6 बजे से शिफ्ट शुरू होती है तो ये लोग वहां कैसा बहाना बनायेंगे। ओह! माफ करना वहां तो बॉस का डंडा सभी की अक्ल को ठिकाने लगा देता है। खैर आज कहीं कोई जाम नहीं था, किसी की बस नहीं छूटी थी और कोई देर से नहीं उठा था सभी सही टाईम पर कालेज में उपस्थित थे। अगर ऐसी स्थिति क्लास के दौरान होती तो शायद पढ़ाई और नॉलेज का स्तर कोई ओर ही होता। छात्रों के लापरवाही से तो ऐसा लगता है वो शायद पत्रकार नहीं बन पायेंगे, क्योंकि जो क्लास ना ले सके, समय पर नहीं पहुंच सके वो क्या खाक पत्रकार बनेगा।
वैसे मेरा एक मानना यह भी है कि अगर कालेज प्रशासन छूट ना देता तो शायद छात्र इतने लापरवाह नहीं होते क्योंकि परेशानी और मुश्किल एक दो लोगों के साथ होती है सभी के साथ नहीं। कालेज के प्रशासन को इस बात पर ध्यान होगा कि कमीं कहां पर है क्योंकि देश में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्विद्यालय का नाम है। इसकी गरिमा छात्रों और कालेज प्रशासन के हाथों में ही है। मैं भी इसी कालेज से एम. जे प्रथम वर्ष का छात्र हूं।
सूरज सिंह।
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बंद करो यह लव,सेक्स और धोखा
भारत में प्यार(यानी आशिकी) के मायने
भारत कृष्ण की जन्मभूमि है, वही कृष्ण जिनकी कई हजार गोपियां थीं. राधा को उनकी प्रेमिका का दर्जा प्राप्त था. जी हां, आजकल की भाषा में आप राधा को कृष्ण की गर्लफ्रेंड कह सकते हैं. लेकिन समाज का भेदभाव देखिए कृष्ण के इस प्यार को(जो अगर सही से देखें तो गलत था) उसे भी कृष्ण की रासलीला मान उसका मजा लेता है लेकिन उसी रासलीला को देखने के बाद जब पार्क में किसी प्रेमी-युगल को देखता है तो उसे गाली देता है. खैर, श्रीकृष्ण की बात सिर्फ इसलिए कर रहा हूं ताकि एक उदाहरण दे सकूं कि भारतीय समाज में प्रेम कितना पुराना है और संस्कार और संस्कृतियों को ठेंगा दिखा कर आप प्रगतिशील नहीं कहलाएंगे . वरना यह तो वही बात हुई न कि कृष्ण करें तो रासलीला हम करे तो करेक्टर ढीला. आखिर जब हमारा समाज कृष्ण जी की प्रेमलीला को पवित्र मानता है तो क्या उसको सभी को समान दृष्टि से नहीं देखना चाहिए.
फिर यहां चन्द्रगुप्त, अर्जुन, पृथ्वीराज चौहान आदि कई प्रेमी भी हुए कुछ सफल तो कुछ असफल. कइयों के बारे में तो खुद हमारे बुजुर्ग कहानियां सुनाते थे. लेकिन मजाल कि वह सुन सकें कि हमें भी किसी से प्रेम हो गया है. चलिए यह बात तो हुई इतिहास की जरा वर्तमान को देख लीजिए. प्रेम करना जुर्म है, और इसकी सज़ा मौत भी हो सकती है – यह मैं नही समाज कहता है. आज का समाज जो पाश्चात्य को तो अपना रहा है लेकिन उसकी अन्य चीजें अपनाने में पता नही क्यों असहजता महसूस कर रहा है.
गलती किसकी – युवाओं की या हमारी संस्कृति की
एक बार और गंभीरता से सोचना पड़ा और पाया कि मुझे युवा होने के कारण युवा वर्ग के साथ पक्षपात नहीं करना चाहिए. गलती कहीं न कहीं हमारी भी है यानी युवा वर्ग की भी रही. समाज में प्रेम का बड़ा अलग स्थान है यानी अगर आप छुप-छुप कर जो करना चाहो कर लो, अगर उसकी भनक किसी को लगी तो गए काम से समझो और हां कभी-कभी जान से भी.
आजकल प्यार के मायने बदल गए हैं. युवा वर्ग ने प्यार को मात्र दैहिक संतुष्टि का जरिया मान लिया है. जिसे चाहो उसे प्रेमी या प्रेमिका बना लो, और फिर अपना काम बनता है तो भाड़ में जाए जनता. कुछ लोगों की वजह से सब लोगों की नजरों में प्यार की नई परिभाषा आ गई है. अब प्यार को धोखे का पर्याय माना जाने लगा है. गलती सिर्फ लड़कों की नहीं है, कई बार लड़कियां भी लड़कों को पीछे छोड देती हैं. प्यार को प्यार नही मात्र बेढंगा दिखावा बना दिया गया है, हाथ में मोबाइल लो यह मत देखो कि आसपास कोई बड़ा है या नहीं बस शुरु हो जाओ अपनी दुनिया की बातें करो. पार्क आदि सामाजिक स्थलों को अपने दैहिक संतुष्टि करने के लिए इस्तेमाल करो और संस्कृति को तो मानों बिस्तर के नीचे रख कर सो जाओ. यह कुछ ऐसी वजहें हैं जिनकी वजह से बड़े प्यार के नाम से चिढ़ने लगे हैं. उन्हें लगता है कि हर लड़का/ लड़की एक जैसे होते हैं सिर्फ मतलबी और सेक्स के लिए प्यार करना जानते हैं.
बनना तो है पश्चिमी देशों की तरह लेकिन करना वैसा नहीं
सबसे बड़ी परेशानी की वजह, हम सब ने पश्चिमी देशों जैसा बनने की सोच तो ली लेकिन उनकी कुछ आदतों से परहेज ही रखते हैं. हम क्यों भूल जाते हैं कि “गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है”. मोबाइल और इंटरनेट ने बाकी की दूरियां छुमंतर कर दी हैं.
सही कौन, कौन गलत- पता नहीं
यह तो एक आम परेशानी है कि कौन सच्चा प्रेम करता है और कौन मात्र दैहिक संतुष्टि के लिए. कई बार तो इस पेशमपेश में सही बंदे भी डूब जाते हैं.
लव में सेक्स – सही या गलत ?
असर खो रहे हैं फ़तवे?
हालांकि यह विषय काफी गंभीर है, और मुझ जैसे नाचीज़ को इस बहस में नहीं पड़ना चाहिए, मगर बात गंभीर है और मुझे अपने विचार सार्वजनिक करने का ह्क़ भी, इसलिए यह पोस्ट लिखने का साहस बढ़ा है. विषय है मुस्लिम समाज में हर दिन दिया जाने वाला नया फ़तवा. मैं समझता हूँ शायद इस्लाम में इतनी पाबंदियां नहीं बताई गई होंगी जितनी आज के मौलवी फतवे के रूप में इस्लाम का वास्ता देकर लगभग हर दिन जारी कर रहे है. कुछ मौलवी कहते हैं कि इस्लाम में फ़तवे का अर्थ शरई हुक्म है, जबकि कुछ धार्मिक नेताओं का मानना है यह इंसानी राय है. यहाँ यह लिखना भी लाज़मी है कि इंसान कई बार खुद भी गलत हो सकता है और इस सभ्य समाज में क्या किसी को धर्म के नाम पर क्या अपनी राय के बोझ में दबाया जा सकता है? देखा जा रहा है कि मुस्लिम समाज में पिछले कई वर्षों से हर मामले में मज़हब की आड़ लेने का दस्तूर सा बन गया है, ज़रूरत होती है मौके की.
क्या खाएं, कैसे खाएं, क्या पहनें,कैसे चलें, जैसे नितांत व्यक्तिगत विषयों पर मुस्लिम धार्मिक संस्थाएं फ़तवे जारी कर चुकी हैं.मुस्लिम समाज की सर्वोच्च नियामक संस्था दारुल उलूम देवबंद का कहना है कि हज़ारों साल पहले यह नियम-क़ायदे बने हैं ऐसे में इन्हें थोपे गये बताना ग़लत है.हालांकि अब समाज के बुद्धिजीवियों और कुछ धर्मगुरुओं के बीच इस बात पर बहस छिड़ गई है कि क्या फतवों के मसले पर देवबंदी ज़्यादा सख्त नहीं है?वैसे फ़तवे की परिभाषा भी स्वयं मुस्लिम समाज में बहस का विषय है. पर उपदेश कुशल बहुतेरे....यहाँ भी चल रहा है, मसलन दारुल उलूम देवबंद का एक फ़तवा है कि बैंक में खाता खुलवाना शरियत के खिलाफ़ है, लेकिन स्वयं देवबंद के कई बैंकों में खाते चल रहे हैं.जबकि इस्लाम में ब्याज़ लेना हराम बताया गया है.इन तमाम बातों पर स्थिति साफ़ होना ज़रूरी है.
कई मुस्लिम नेताओं को इस बात पर आपत्ति है कि कई गंभीर विषयों, समाज की दुर्दशा, सामाजिक बुराइयों जैसे विषयों पर कोई मौलवी फ़तवा जारी क्यों नहीं करता? अशिक्षा के दंश और आरोपों की गर्मी से झुलस रहे मुस्लिम समाज के लिए हालांकि लखनऊ के एक मौलवी का यह फ़तवा कि मुस्लिम लड़कियों को तालीम हांसिल करना उनका फ़र्ज़ है, सचमुच एक पुरसुकून ठंडी हवा का झोंका जैसा है. ज़्यादा फ़तवे भी कहीं मुस्लिम समाज के पिछड़े होने का कारण तो नहीं?
ENCOURAGED MANISHA
30.5.10
कबाड़ी वाला
मेरठ प्रेस क्लब में घमासान
भारत को चाहिए इस्पाती इरादोंवाला प्रधानमंत्री-ब्रज की दुनिया
भोपाल। प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष पद पर पत्रकार प्रभात झा की ताजपोशी के बाद कुछ बदलाव की अपेक्षा की जा रही थी। हुआ भी ऐसा ही। सीधी साधी राजनीति करने के आदी रहे प्रभात झा को अध्यक्ष बनने के बाद जैसे ही पहला मौका मिला उन्होंने कांग्रेस पर राजनैतिक वार कर डाला। प्रदेश की भाजपा सरकार ने स्विर्णम मध्यप्रदेश बनाने के मुख्यमन्त्री के संकल्प पर सुझाव लेने के लिये सदन का विशेष सत्र आमन्त्रित किया था। काग्रेस ने इस सत्र के बहिष्कार का निर्णय ले लिया था। कांग्रेस के इस निर्णय के पालन करने में सिवनी जिले के केवलारी विधानसभा क्ष़्ोत्र से लगातार चौथी बार चुनाव जीतने वाले कांग्रेस विधायक हरवंश सिंह भी शामिल थे जो कि विधानसभा के उपाध्यक्ष पद पर बैठे हुये हैं जो कि एक संवैधानिक पद हैं।
वैसे इसके पहले भी कांग्रेस ने कई बार सदन से बहिष्कार किया था लेकिन प्रदेश इंका के उपाध्यक्ष और विस उपाध्यक्ष हरवंश सिंह इस बहिष्कार में शामिल नहीं हुये थे। इस बार उनका यह निर्णय लेना सियासी हल्कों में चर्चित हैं। बस इसे आधार बना कर भाजपा अध्यक्ष ने प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री एवं वरिष्ठतम नेता कैलाश जोशी तथा पूर्व प्रदेश संगठन मन्त्री कप्तान सिंह सौलंकी के साथ प्रदेश संवैधानिक प्रमुख महामहिम राज्यपाल से मिलकर एक ज्ञापन सौंपा तथा विस उपाध्यक्ष के विरुद्ध आवश्यक कार्यवाही करने की गुहार कर डाली।
लेकिन संविधान और संसदीय कार्यवाहियों के विशेषज्ञों का यह मानना हैं कि विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का निर्वाचन सदन के सदस्य करते हैं इसलिये राज्यपाल को इनके विरुद्ध कार्यवाही करने का कोई अधिकार नहीं होता हैं। यदि कोई कार्यवाही करनी होती हैं तो संसदीय कार्य मन्त्री सदन में अविश्वास प्रस्ताव लाकर विधि अनुसार उस पर बहस करवा कर एवं मतदान के जरिये उन्हें पद से अलग कर सकते हैं। वैसे भी प्रजातान्त्रिक परंपरा का पालन करते हुये विस उपाध्यक्ष का पद प्रदेश में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस को दिया गया हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक श्री हरवंश सिंह उपाध्यक्ष हैं। हालांकि जब श्री हरवंश सिंह के नाम पर भाजपा ने सहमति दी एवं उनका इस पद पर निर्वाचन हुआ तब उन पर उनके ही गृह जिले में भाजपा की तत्कालीन सांसद एवं वर्तमान विधायक नीता पटेरिया एवं उनके ड्रायवर की शिकायत पर बंड़ोल थाने में धारा 307 का आपराधिक प्रकरण लंबित था। लेकिन फिर भी हरवंश सिंह निर्विरोध विधान सभा के उपाध्यक्ष चुने गये।
इस व्यवस्था को देखते हुये प्रदेश भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेताओं की सलाह पर प्रदेश अहध्यक्ष प्रभात झा ने भाजपा विधायक दल से अविश्वास प्रस्ताव लाने के निर्देश दिये हैं। अब इस मामले में कहा जाता हैं कि गेन्द मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान के पाले में चली गई हैं। हालांकि प्रदेश की राजनीति में सन 1980 के दशक से आज तक कांग्रेस और भाजपा में नूरा कुश्ती के किस्से जब चाहे तब चर्चित रहें हैं। अपनी ही पार्टी के अन्दर प्रदेश के कई कद्दावर नेताओं को इन आरोपों का सामना करना पड़ा हैं। इनमें कांग्रेस के अर्जुन सिंह,कमलनाथ,दिग्विजय सिंह,हरवंश सिंह तो भाजपा के सुन्दरलाल पटवा,बाबूलाल गौर,शिवराजसिंह चौहान आदि के नाम शामिल बताये जाते हैं। अब यह तो समय ही बतायेगा कि भाजपा विधायक दल अपने नव निर्वाचित प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा के पहले ही राजनैतिक तीर को निशाने पर लगने देगा और विस उपाध्यक्ष के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लायेगा या फिर यह भी नूरा कुश्ती की भेंट चढ़कर अंधेरे में कहीं गुम हो जावेगा।
नजर एटवी के जाने का मतलब
(मकबूल शायर शाहिद नदीम द्वारा प्रस्तुत)
शऊर फिक्रो-अमल दूर-दूर छोड़ गया, वो जिंदगी के अंधेरों में नूर छोड़ गया.
नजर एटवी साहब बिना किसी को खबर किये चुपचाप रुखसत हो गए. हम सबको आंसू बहाने का भी मौका नहीं दिया. पता नहीं कितने लोग होंगे जिनको कई सप्ताह तक खबर नहीं हुई. मीडिया भी अब साफ-सुथरे, इमानदार और नेक इंसानों की मौत की परवाह नहीं करता, इसीलिए उनके जाने की खबर एटा के अख़बारों में भले ही छप कर रह गयी हो, पर बड़ी खबर नहीं बन सकी. यह उलाहना इसलिए मुनासिब लग रहा है क्योंकि वे केवल अच्छे इन्सान ही नहीं, उर्दू-हिंदी और हिन्दुस्तानी के एक बड़े अदीब थे, चमकते शायर थे. उनके जाने से हिन्दुस्तानी जुबान और अदब का जो नुकसान हुआ है, वह कभी पूरा नहीं हो सकता. उर्दू मुशायरों पर वे लगातार ३५ सालों से छाये हुए थे. विदेशों से भी उन्हें मुशायरों में बुलाया जाता था. वे खुद भी अदबी गोष्ठियां और मुशायरे करते रहते थे और हमेशा इस बात का ख्याल रखते थे कि उसका मयार और संजीदगी कायम रहे. उनकी अपनी शायरी के क्या कहने. उसमें समाज और मुल्क के मुस्तकबिल के चिराग रोशन थे. उन्होंने कुछ समय तक लकीर नाम से एक अख़बार भी निकाला. उर्दू जुबान की जो खिदमत उन्होंने की, उसकी कितनी भी तारीफ की जाय काम होगी.
नजर एटवी का जन्म २८ फरवरी १९५३ को एटा के हाता प्यारेलाल में हुआ था. उनका बचपन का नाम शमसुल हसन था. उनके पिता अब्दुल लतीफ़ सिविल कोर्ट में काम करते थे. प्रारंभिक शिक्षा आर्य विद्यालय एटा में हुई. एटा से ही उन्होंने बी ए किया. पहले उनकी दिलचस्पी फिल्मों में थी. १९७२ में वे उर्दू शायरी की ओर मुड़े और बहुत जल्दी वहां अपना बेहतर मुकाम बना लिया.
अभी उम्र भी क्या थी. यही कोई ५६ साल. यह भी कोई जाने की उम्र है. अभी तो उनसे समाज को, शायरी को बहुत कुछ हासिल होना था. वह एक मई २०१० का मनहूस दिन था, जो उन्हें हमसे छीन ले गया. बुखार आया और चढ़ता ही गया. रक्तचाप कम होता गया और वे बचाए नहीं जा सके. इतने वक्त तक उनके जाने की खबर एटा से आगरा तक दो सौ किलोमीटर भी नहीं पहुंची. पहुंची भी तो कुछ ऐसे लोगों के पास रही, जिन्होंने दूसरों से शेयर नहीं किया. उनकी याद में लोग बैठे नहीं, एक गोष्ठी तक कायदे से नहीं हुई. समाज और अदब के लिए जीने-मरने वालों की क्या इतनी ही कद्र यह समाज करता है? बड़े अफसोस की बात है. इतने कम समय में भी उन्होंने बहुत लिखा, बहुत काम किया, पर वह सब भी पता नहीं अब शायरी के प्रेमियों तक पहुँच पायेगा या नहीं. एक संग्रह जरूर उनके नाम साया हुआ है. उसका उन्वान है, सीप. उनके लिए यही सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी कि उनके कलाम लोगों तक पहुंचें. सीपी से नजर साहब की तीन गजलें यहाँ पेश हैं-
१.
तूने चाहा नहीं हालात बदल सकते थे
मेरे आंसू तेरी आँखों से निकल सकते थे.
तुमने अल्फाज की तासीर को परखा ही नहीं
नर्म लहजे से तो पत्थर भी पिघल सकते थे
तुम तो ठहरे ही रहे झील के पानी की तरह
दरिया बनते तो बहुत दूर निकल सकते थे
क्यूँ बताते उन्हें सच्चाई हमारे रहबर
झूठे वादों से भी जो लोग पिघल सकते थे
होठ सी लेना ही बेहतर था किसी का
लबकुशाई से कई नाम उछल सकते थे
क़त्ल इन्साफ का होता है जहाँ शामो-सहर
ऐसे माहौल में हम किस तरह ढल सकते थे
डर गए हैं जो हवाओं के कसीदे सुनकर
वो दिए तुमने जलाये नहीं, जल सकते थे
हादसे इतने जियादा थे वतन में अपने
खून से छप के भी अख़बार निकल सकते थे
२.
तेरे लिए जहमत है मेरे लिए नजराना
जुगनू की तरह आना, खुशबू की तरह जाना
मौसम ने परिंदों को यह बात बता दी है
उस झील पे खतरा है, उस झील पे मत जाना
मैंने तो किताबों में कुछ फूल ही रखे थे
दुनिया ने बना डाला कुछ और ही अफसाना
जब मैंने फसादों की तारीख को दुहराया
रोती मिली आबादी हँसता मिला वीराना
खाई है कसम तुमने वापिस नहीं लौटोगे
कश्ती को जला देना जब पार उतर जाना
चेहरे के नुकूश इतने सदमों ने बदल डाले
लोगों ने मुझे मेरी आवाज से पहचाना
३.
उनकी यादों का जश्न जारी है
आज की रात हम पे भारी है
फासले कुर्बतों में बदलेंगे
होंठ उनके दुआ हमारी है
अब बहुत हंस चुके मेरे आंसू
कहकहों अब तुम्हारी बारी है
मुझसे ये कह के सो गया सूरज
अब चरागों की जिम्मेदारी है
सिर्फ मीजाने-वक्त है वाकिफ
आसमाँ से जमीन भारी है
जिक्र जिसका नजर नजर है नजर
उस नजर पर नजर हमारी है.
राय साहबों की महिमा
आपका साबका कभी न कभी ऐसे लोगों से ज़रूर पड़ा होगा, जिन्हें बिन मांगी सलाह देने की आदत होती है. किसी के भी फटे में टांग अडाने की उनकी आदत, उनकी जिंदगी की ज़रूरत हो सकती है, मगर इससे आपको अवश्य कोफ़्त पैदा कर जाती होगी. शादी-ब्याह के मौकों पर ऐसे “राय साहबों” की खेप देखने को मिल जाती है, हर बात में नुक्स निकालना इनकी फ़ितरत में शुमार होता है. कोई माने-न माने यह तबका अपनी बात ज़रूर कहने को उतारू मिलता है. आपने कुछ खरीदा हो या नया घर बनवाया हो, बात किसी के रिश्ते ही क्यों ना हो, आपको इनकी सुनना ज़रूर पड़ेगी..... पहले क्यों नहीं बताया, वहाँ से खरीदवा देता, वह मेरा परिचित है, काफी सस्ता मिल जाता.......यदि घर में यह खिडकी वहाँ लग जाती तो बात कुछ और होती......उस घर में रिश्ता मत करना उनके बेटे के लक्षण अच्छे नहीं हैं.....और हाँ ये राय साहबगण किसी भी जगह अपना ‘राष्ट्र चिंतन’ करना शुरू कर देते हैं. अब इस चरित्र पर ज़्यादा क्या लिखूं, आप इसके बारे में भाल-भाँति जानते ही होंगे.
एक स्वरचित कविता रुपी पंक्तिया ऐसे ही “राय साहबों” को समर्पित कर रहा हूँ.-
हमारे पुरखों ने दिये थे उपदेश,
उनके पुरखों ने भी दिये होंगे उपदेश,
हम भी दे रहे हैं उपदेश,
शान से, नमक-मिर्च लगाकर,
कल आने वाले भी,
देंगे उपदेश,
उसी आन-बान-शान से,
इस तरह बढ़ती जा रही है,
उपदेश देने वालों की
लंबी कतार,
मगर क्या हम,
वही रहेंगे,
उपदेश संस्कृति के संवाहक............
आज का उपदेश भी लगे हाथों झेल ही लें – कान में कही गई बात अक्सर सौ मील के फासले पर सुनी जाती है और किसी व्यक्ति या विषय के बारे में की गई कोई बात जब चार मुंह से अलग-अलग निकलती है तो उसके बाद उस व्यक्ति का भी उन पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता, उस वक़्त वह आदमी, आदमी ना होकर एक चरित्र बन जाता है. और वह विषय, एक कथा.
29.5.10
भूमि घोटाले से सम्बंधित प्रकाशित समाचार और हरवंश सिंह के खंड़न करने से कुछ ऐसे सवाल पैदा हो गयें हैं जिनका लोग उत्सुकता के साथ जवाब तलाश रहें हैं। इन तमाम सवालों के जवाब यदि जल्दी ही खुलकर जनता के सामने आ जाये तो इस मामले में अपने आप दूध का दूध और पानी का पानी हो जावेगा वरना यह भी लफ्फाजी के दौर में गुम कर रह जायेगा। इसे महज एक संयोग कहें या कुछ और कि भादंवि की धारा 420 याने धोखाधड़ी का हरवंश सिंह के खिलाफ यह कोई पहला मामला नहीं हैं।ब्लकि ऐसा कुछ रहा हैं कि मानो दोनों के बीच चोली दामन का साथ रहा हो। इसके पहले भी तीन मामले और चर्चित रहें हैं। एक फर्म के पार्टनर के रूप में आदिवासियों द्वारा, एक वकील के रूप में पिछड़े वर्ग की विधवा महिला द्वारा और सरकार के मन्त्री के रूप गलत हलफनामा देकर प्लाट लेने और फिर पटवा द्वारा मामला पेश होने पर प्लाट लौटाने के धोखेधड़ी के मामले हरवंश सिंह के खिलाफ चर्चित रहें हैं। म.प्र.राज्य परिवहन निगम के अध्यक्ष के रूप में तत्कालीन गृहमन्त्री हरवंश सिंह को न्यायलय के अवमानना के दोषी पाते हुये दो हजार रूपये का जुर्माना तथा एक माह की कैद की सजा सुनायी थी। इसके हरवंश सिंह सहित अन्य दोनों आरोपियों ने कोर्ट में बिना शर्त माफी मागी थी तथा कोर्ट के आदेश का पालन किया था तब कहीं जाकर कोर्ट ने हरवंश सिंह सहित सभी आरोपियों को कुछ हिदायतें देकर सजा समाप्त की थी।
एक बार फिर भूमि खरीदी विवाद में उछला हरवंश का नाम-
इस हफ्ते जमीन खरीदी के मामले में इंका विधायक हरवंश सिंह और उनके पुत्र विवाद में उलझे हैं या नहींर्षोर्षो यही मामला मीडिया और लोगों की जुबान पर रहा हैं। मामले की शुरूआत यूं हुई कि जबलपुर से प्रकाशित होने वाले पीपुल्स समाचार पत्र ने जबलपुर डेट लाइन से एक समाचार प्रकाशित किया कि लख्नादौन की एक अदालत में एक परिवाद पेश हुआ हैं जिसमें इंका विधायक हरवंश सिंह और उनके पुत्र विवाद में आ गये हैं। कोर्ट ने पुलिस को निर्देशित किया हैं कि 18 जून 2010 तक जांच कर प्रतिवेदन प्रस्तुत करे। इस समाचार में धनोरा थाने के अंर्तगत आने वाले ग्राम आमानाला के खसरा नंबंर 221,373,385 और 400 दिये गये थे जिनकी भूमि विक्रीत की गई हैं। इसक बाद दूसरे दिन स्थानीय दैनिक सिवनी युगश्रेष्ठ ने समाचार के कुछ और तथ्यों के साथ प्रकाशित किया और इसे इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी कवर किया। इसके एक दिन बाद विधानसभा उपाध्यक्ष हरवंश सिंह ने एक खंड़न जारी कर यह कहा कि इस जमीन खरीदी में वे या उनके पुत्र का कोई लेना नहीं हैं। यह हमेशा की तरह उन्हें बदनाम करने की साजिश की हैं।भूमि घोटाले से सम्बंधित प्रकाशित समाचार और हरवंश सिंह के खंड़न करने से कुछ ऐसे सवाल पैदा हो गयें हैं जिनका लोग उत्सुकता के साथ जवाब तलाश रहें हैं। ग्राम आमानाला के उक्त प्रकाशित खसरों की भूमि के मालिक कितने और कौन कौन हैंर्षोर्षो क्या एक से अधिक मालिकाना हक वाली भूमि का विक्रय किसी एक मालिक ने बीते दिनों किया हैंर्षोर्षो क्या कानून के अनुसार ऐसा विक्रय किया जा सकता हैंर्षोर्षोक्या ऐसी रजिस्ट्री रजिस्ट्रार द्वारा पास कर दी गई हैं या अभी जप्त हैंर्षोर्षो यदि पास कर दी गई हैं तो क्या किसी सामान्य आदमी की ऐसी रजिस्ट्री सामान्य तौर पर पास हो सकती हैर्षोर्षो यदि हरवंश सिंह और उनके पुत्र के नाम ऐसी कोई रजिस्ट्री नहीं हुयी हैं तो फिर ऐसा कौन वजनदार बेनामी व्यक्ति हैं जिसके खिलाफ फरियादी की ना तो पुलिस ने सुनी और ना ही किसी अन्य अधिकारी नेर्षोर्षो क्या ऐसी कोई रजिस्ट्री किसी ऐसे खास बेनामी के नाम तो नहीं हुयी हैं जिसे भारी राजनैतिक या प्रशासनिक संरंक्षण प्राप्त हैं जिसक चलते फरियादी को कोर्ट की शरण लेना पड़ार्षोर्षोक्या जिले में ऐसे कोई ताकतवर कांग्रेसी या विपक्षी दल के नेता शेष बचे हैं जो हरवंश सिंह के खिलाफ षड़यन्त्र रचकर उन्हें फंसाने का प्रयास कर सकता हैंर्षोर्षो ये तमाम सवाल ऐसे हैं कि जिनके जवाब यदि जल्दी ही खुलकर जनता के सामने आ जाये तो इस मामले में अपने आप दूध का दूध और पानी का पानी हो जावेगा वरना यह भी लफ्फाजी के दौर में गुम कर रह जायेगा।
क्या धारा 420 और हरवंश सिंह में हैं चोली दामन का साथ-
इसे महज एक संयोग कहें या कुछ और कि भादंवि की धारा 420 याने धोखाधड़ी का हरवंश सिंह के खिलाफ यह कोई पहला मामला नहीं हैं।ब्लकि ऐसा कुछ रहा हैं कि मानो दोनों के बीच चोली दासमन का साथ रहा हो। इसके पहले भी तीन मामले और चर्चित रहें हैं। एक फर्म सतपुड़ा एग्रीकल्चर के पार्टनर के रूप में हरवंश सिह पर बकोड़ा सिवनी के आदिवासियों को दिये जाने वाले डीजल पंपों में धोखाधड़ी करने के आरोप सहायक पंजीयक सहकारी संस्था सिवनी ने अपने न्यायालय में सही पाये थे और 21 जून 1982 को पुलिस थाना सिवनी में एफ.आई.आर. दर्ज कराके कार्यवाही करने की मांग की थी। बाद में यह मामला विधानसभा में भी उठा था। दूसरा मामला सी.जे.एम. सिवनी के कोर्ट में क्र. 1650/84 धारा 420 एवं 34 में दर्ज हुआ जिसमें एक पिछड़े वर्ग का विधवा औरत गंगा बाई ने अपने वकील हरवंश सिंह पर यह आरोपित किया था कि उसने धोखे से उसकी जमीन पहले अपने भाई और फिर अपने नाम करा ली। मामला हाई कोर्ट तक गया लेकिन इसी बीच फरियादी गंगा बाई की मृत्यु हो गई। एक मन्त्री के रूप में हरवंश सिंह द्वारा गलत शपथ पत्र देकर हाउसिंग बोर्ड से प्लाट लेने और फिर पूर्व मुख्यमन्त्री सुन्दरलाल पटवा द्वारा मामला हाई कोर्ट में पेश करनें के बाद प्लाट वापस कर देने का मामला भी चला था। इस जनहित याचिका का क्रमांक 5064/98 था। जिसमें कोर्ट ने आरोपियों को कुछ हिदायतें भी दी थी तथा सुभाष यादव के मामले में याचिका कत्ताZ पटवा को फटकार भी लगायी थी। और अब विधानसभा उपाध्यक्ष के पद पर रहते समय उन पर एक अल्पसंख्यक ने जमीन के मामले में हरवंश सिंह पर धोखाधड़ी करने का आरोप लगाया हैं जिसका उन्होंने पुरजोर खंड़न किया हैं। लेकिन कोर्ट ने 18 जून तक मामले की जांच कर प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिये पुलिस को निर्देशित किया हैं। एक स्थानीय अखबार ने ऐसा कोई सगा नहीं जिसे ठाकुर ने ठगा नहीं हैडिंग से एक समाचार छापा था। इन्हें नजदीक से जानने वालों का दावा हैं कि वे अपने सियासी सफर में जब भी किसी नये पायदान पर पहुंचें हैं तो पिछले पायदान पर पहुंचाने वाले को धोखा देकर ही पहुंचें हैं। इतना ही इनके दरबार के नव रत्नों में एक भी रत्न ऐसा बाकी नहीं हैं जिसने धोखा ना खाया हो। विधि शास्त्र की किताब बन्द कर यदि राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र की किताब खोले तो धोखा खाने वालों की संख्या इतनी अधिक हो जावेगी कि यदि एक किस्से की दो लाइनें भी लिखी जायें तो एक महाग्रन्थ तैयार हो सकता हैं। इसलिये उनके निकटस्थ साथी ही अब यह कहने से नहीं चुकते हैं कि जिसने धोखा देने को ही सफलता का मूलमन्त्र बना लिया हो उससे अपन खुद बच कर निकल जाओ यही बड़ी उपलब्धि होगी।
माफी मांगने पर कोट्रZ के अवमानना की सजा हुई थी समाप्त हरवंश की-
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की ग्वालियर खंड़ पीठ ने कंपलेंट पिटीशन सिविल/6/2002 में अपने निर्णय दिनांक 27 मार्च 2002 को म.प्र.राज्य परिवहन निगम के अध्यक्ष के रूप तत्कालीन गृहमन्त्री हरवंश सिंह को न्यायलय के अवमानना के दोषी पाते हुये दो हजार रूपये का जुर्माना तथा एक माह की कैद की सजा सुनायी थी। तीन आरोपियो पर यह आरोपित था कि उन्होंने कोर्ट के आदेशानुसार राज्य परिवहन निगम के कर्मचारी को भुगतान नहीं कर कोर्ट की अवमानना की हैं। फरियादी ने अवमानना की पिटीशन दायर की थी जिस पर हाई कोर्ट ने यह सजा सुनायी थी। इसके हरवंश सिंह सहित अन्य दोनों आरोपियों ने कोर्ट में बिना शर्त माफी मागी थी तथा कोर्ट के आदेश का पालन किया था तब कहीं जाकर कोर्ट ने हरवंश सिंह सहित सभी आरोपियों को कुछ हिदायतें देकर सजा समाप्त की थी।
फड़ चित्रकारी का सफ़र राजस्थान से रीवा तक
सत्य नारायण जोशी
अशोक जमनानी की लघु कथा: पेटदर्द
माणिक
उड़नखटोले से उतरकर “राम” पूछेंगे, कब से भूखे हो...?
एक खबर है, खबर क्या जी, धांसू शोध का विषय. बिहार हिंदी डिक्शनरी का एकमात्र ऐसा शब्द है जिसके बारे में ही शायद - हरि अनंत, हरि कथा अनंता.... कहा गया होगा. बिहार केवल खबर नहीं पूरा अखबार है, यह आप-हम अच्छी तरह से जानते हैं. अब इसी अखबार से एक एक खबर, वह यह कि बक्सर की डुमरांव विधानसभा सीट से निर्दलीय विधायक दद्दन पहलवान पूरे पाँच महीने तक ज़मीन पर पैर नहीं धरेंगे. आप अन्यथा न लें, वे इस दौरान पलंग पर आराम नहीं करेंगे, वे जनप्रतिनिधि हैं सो अपनी जनता की सुध-बुध लेने पाँच महीनों तक हेलीकॉप्टर से उडेंगे, गरीबों से मिलेंगे, उनकी भूख-प्यास का हाल जानेंगे. कल्पना कीजिये, कितना भावप्रवण दृश्य होगा जब भूखी-नंगी जनता के बीच उनका ‘खेवनहार’ उड़नखटोले से उतरेगा, पूछेगा कि कब से खाना नहीं खाया, पानी नहीं पिया, कब से कपडे तन पर नहीं हैं?
1 जून से 30 सितम्बर तक के लिए दद्दन भाई ने एक निज़ी कम्पनी का हेलीकॉप्टर किराए पर लिया है, इसका किराया है 75 हज़ार रुपये प्रति घंटा और वे इस पर हर दिन साढ़े तीन घंटे की उड़ान भरेंगे, हर दिन करीब तीन लाख का खर्चा. इस किराए में पायलट और देखभाल का खर्च शामिल नहीं है. इस हिसाब से पहलवान क़रीबन 7 करोड़ रुपये खर्च कर अपनी गरीब जनता का हाल जानेंगे. इस हवाई यात्रा में वे सरकारों की कारगुज़ारियों का अपनी गरीब जनता के सामने पर्दाफाश करेंगे.
पहलवान जी, पहले समाजवादी पार्टी में थे. राबड़ीदेवी सरकार में वे मलाईदार विभाग के मंत्री भी रहे हैं, जब दलगत राजनीति से मोहभंग हो गया तो, डुमरांव से निर्दलीय विधायक बन गए. अब लालू यादव और नितीश कुमार दोनों उनके निशाने पर हैं. वैसे पहलवान खुद अपना हेलीकॉप्टर खरीदना चाहते थे, मगर इसके लिए उनके पास योग्य स्टाफ नहीं होने से उन्होंने यह आइडिया ड्रॉप कर दिया. पूरा खर्च (उनके अनुसार) उन्होंने अपनी भोजपुर, पटना, बनारस की ज़मीनें बेचकर जुटाया है. भविष्य में कभी खुद का हेलीकॉप्टर खरीदने का फिर प्लान बना तो, इसके लिए भी अभी से तैयारी शुरू कर दी गई है, उनका बेटा करतार अमरीका में पायलट का प्रशिक्षण ले रहा है.गरीबों तक किसी जनप्रतिनिधि के पहुँचने के जज़्बे से मेरी तो आँखें भीग गईं हैं, आपकी...........?
Atul Garg back from China
Atul Garg back from China
Oh God! again
पत्रकारिता के सम्बन्ध में ओशो के विचार-ब्रज की दुनिया
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं,एक क्रांति होनी चाहिए.बुनियादी रूप से पत्रकार एक क्रांतिकारी व्यक्ति होता है,जो चाहता है कि यह दुनिया बेहतर हो.वह एक युयुत्स है और उसे सम्यक कारणों के लिए लड़ना है.मैं पत्रकारिता को अन्य व्यवसायों में से एक नहीं मानता.मुनाफा ही कमाना हो तो ढेर सारे व्यवसाय उपलब्ध हैं;कम-से-कम कुछ तो हो जो मुनाफे के उद्देश्य से अछूता रहे.तभी यह संभव होगा कि तुम लोगों को शिक्षित कर सको,जो गलत हैं उनके खिलाफ विद्रोह करने की शिक्षा उन्हें दे सको;जो भी बात विकृति पैदा करती है,उसके खिलाफ उन्हें शिक्षित कर सको.
पत्रकारिता और अन्य समाचार माध्यम इस संसार में एक नई घटना है.इस तरह की कोई प्रणाली गौतम बुद्ध और जीसस के समय नहीं थी.उस वक्त जो दुर्घटनाएं होती थीं,उनका हमें कुछ पता नहीं है,क्योंकि उस समय कोई समाचार माध्यम नहीं था.समाचार माध्यमों के आगमन से बिलकुल ही नई बात पैदा हुई है,जो भी अशुभ है,जो भी बुरा है,जो भी नकारात्मक है-फ़िर वह सच हो अथवा झूठ,वह सनसनीखेज बन जाता है,वह बिकता है.लोगों की उत्सुकता होती है बलात्कार में,हत्या में,रिश्वत में,सब तरह के अपराधी कृत्यों में,दंगे-फसादों में.चूंकि लोग इस तरह के समाचारों की मांग करते हैं इसलिए तुम संसार में जो भी अशुभ घाटा है उसे इकठ्ठा करते हो.फूलों का विस्मरण हो जाता है, केवल कांटें ही कांटें याद रह जाते हैं-और उनको बड़ा करके दिखाया जाता है.अगर तुम उन्हें खोज नहीं पाते हो तो तुम उन्हें पैदा करते हो क्योंकि अब तुम्हारी एक मात्र समस्या है-बिक्री कैसे हो?अतीत में हमें उन्हीं समाचारों का पता चलता था,जिन्हें शुभ समाचार कहें.शस्त्रों में चोरों या हत्यारों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा जाता था.वही एक मात्र साहित्य था.पत्रकारिता ने अपराधियों के महान बनने की सम्भावना का द्वार खोल दिया.
स्वीडन में पिछले दिनों एक घटना घटी.एक आदमी ने एक अजनबी की हत्या कर दी और अदालत में उस हत्यारे ने कहा कि मैं अपना नाम समाचार पत्रों में प्रथम पृष्ठ पर देखना चाहता था.मेरी एकमात्र इच्छा यह थी कि अख़बारों में मैं अपना नाम छपा हुआ देख लूं.मेरी इच्छा पूरी हुई.यह सब गलत बातों पर ध्यान देने के कारण हैं.इसी वजह से एक बड़ा ही विचित्र व्यक्तित्व पैदा हो रहा है.
समाचार माध्यमों को कुछ चीजों का बहिष्कार करना चाहिए.जिनसे परध पैसा होते हैं,लोगों के प्रति अमानवीयता पैदा होती है.लेकिन उनका निषेध करने की बजाय तुम उनसे मुनाफा कमाते तो,उनके बल पर समृद्ध होते हो,बिक्री बढ़ाते हो परन्तु इस बात की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते कि इसके अंतिम परिणाम क्या होंगे?
पुराने अर्थशास्त्र की धारणा थी कि मांग होने पर पूर्ति होती है.लेकिन नवीन अन्वेषण बताते हैं कि जहाँ पूर्ति होती है वहां धीरे-धीरे मांग पैदा हो जाती है.पत्रकारिता को न मात्र लोगों की जरूरतों को पूरा करने की ओर ध्यान देना चाहिए बल्कि उसे स्वस्थ पूर्ति भी पैदा करनी चाहिए,जो लोगों में स्वस्थ मांग पैदा करे.लोग विज्ञापन क्यों देते हैं?खासकर अमेरिका में,वह उत्पादन तो दो साल बाद बाजार में आता है और उसका विज्ञापन दो साल पहले शुरू हो जाता है.इस प्रकार पहले पूर्ति होती है,वह पूर्ति मांग पैदा करती है.इसलिए बड़े-बड़े विज्ञापनों की जरूरत होती है.
मैंने पूरे विश्व की यात्रा की है और मैं हैरान हुआ हूँ क़ि यह तथाकथित समाचार माध्यम,अगर उसे कुछ नकारात्मक नहीं मिलता तो वह उसे पैदा करता है.हर प्रकार के झूठ निर्मित किये जाते हैं.वह लोगों के दिमाग में यह ख्याल पैदा नहीं करता क़ि हमारी प्रगति हो रही है;हम विकसित हो रहे हैं;क़ि हमारे भविष्य में इससे बेहतर मनुष्यता होगी.वह सिर्फ यही ख्याल पैदा करती है क़ि रात घनी से घनी होती चली जाएगी.समाचार पत्र,आकाशवाणी के प्रसारणों,दूरदर्शन,फिल्मों पर एक नजर डालें तो ऐसा लगता है क़ि अब नरक की ओर जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा है.
हमारे पाठक भी कुछ कम नहीं हैं.अख़बार में अगर कुछ हिंसा नहीं हुई हो,कहीं कोई आगजनी न हुई हो,कहीं लूटपाट न हुई हो,कोई डाका न पड़ा हो,कोई युद्ध न हुआ हो,कहीं बम न फटा हो तो तुम अख़बार पढ़कर कहते हो कि आज तो कोई खबर ही नहीं है.क्या तुम इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे?क्या तुम सुबह-सुबह उठ कर यही अपेक्षा कर रहे थे कि कहों ऐसी घटना हो?कोई समाचार ही नहीं है.तुम्हें लगता है कि अख़बार में जो खर्च किये,वे व्यर्थ गए.अख़बार तुम्हारे लिए ही छपते हैं.इसलिए अख़बार वाले भी अच्छी खबर नहीं छापते.उसे पढने वाला कोई नहीं है,उसमें कोई उत्तेजना नहीं है,उसमें कोई सेंसेशन नहीं है.पत्रकारिता पश्चिम की दें है.पत्रकारिता को स्वयं को पश्चिम से मुक्त करना है और फ़िर अपने को एक प्रमाणिक , मौलिक आकर देना है.यदि तुमने पत्रकारिता को आध्यात्मिक आयाम दिया तो आज नहीं कल पश्चिम तुम्हारा अनुसरण करेगा.क्योंकि वहीँ तीव्र भूख है,गहन प्यास है.
स्वस्थ पत्रकारिता को विकसित करो.ऐसी पत्रकारिता विकसित करो जो मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व का पोषण करे-उसका शरीर,उसका मन,उसकी आत्मा को पुष्ट करे;ऐसी पत्रकारिता जो बेहतर मनुष्यता को निर्मित करने में संलग्न हो,सिर्फ घटनाओं के वृतांत इकट्ठे न करे.माना कि नकारात्मकता जीवन का हिस्सा है,मृत्यु जीवन का हिस्सा है,लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हें अपनी श्मशान भूमि बीच बाजार में बनानी चाहिए.तुम अपनी श्मशान भूमि शहर के बाहर बनाते हो,जहाँ सिर्फ एक बार जाते हो और फ़िर वापस नहीं लौटते.इसी कारण नकारात्मकता को मानसिक कुंठा मत बनाओ.नकारात्मकता पर जोर न दो वरन उसकी निंदा करो.यही स्वस्थ पत्रकारिता का लक्ष्य होना चाहिए.
समय आ गया है.पत्रकारिता एक नए युग का प्रारंभ बन सकती है.राजनीति को जितना पीछे धकेल सकते हो धकेलो.पत्रकारिता में बड़ी-से-बड़ी क्रांति करने की क्षमता है बशर्ते भारत में अलग किस्म की पत्रकारिता पैदा हो,जो राजनीति से नियंत्रित नहीं हो लेकिन देश के प्रज्ञावान लोगों द्वारा प्रेरित हो.पत्रकारिता का मूल कार्य होना चाहिए प्रज्ञावान लोगों को और उसकी प्रज्ञा को प्रकट करना.
दरख़्त
28.5.10
ममता से ‘हत्या का लायसेंस’ छुड़ा लो मनमोहन
(उपदेश सक्सेना)
महिलाओं को भले ही आधी आबादी कहा जाता हो, समाज में उनकी बराबरी की बातें कही जाती हों, उनके उत्थान के लिए कई स्तर पर सरकारी प्रयास किये जा रहे हों फिर भी कुशलता से घर चलाने वाली महिलाओं को अक्सर अच्छा वाहन चालक नहीं माना गया है, इस तथ्यात्मक सत्य को जानते हुए भी मनमोहन सिंह सरकार में रेल का स्टेयरिंग ममता बैनर्जी को सौंपा गया है. शायद रेल चलाने के लिए किसी ड्राईविंग लायसेंस की ज़रूरत न रहने के चलते ऐसा किया गया हो सकता है, या मनमोहन सरकार की राजनीतिक मजबूरी भी, मगर इन दोनों कारणों से बेकसूर यात्रियों की “हत्या” का लायसेंस भी तो किसी को नहीं दिया जा सकता.
ममता बैनर्जी के पास लोकसभा में 19 सदस्य हैं, वहीँ राज्यसभा में उनके मात्र 2 सदस्य, यही सबसे बड़ा लायसेंस उनके पास है जिसके बल पर उन्हें निर्दोषों की जान लेने का अघोषित हक़ सा मिला हुआ है. ममता को इस सरकार में रेल मंत्रालय संभाले एक साल हो चुका है, और यदि आंकड़ों को देखें तो इस दौरान हुईं रेल दुर्घटनाएं इसके पहले किसी भी रेल मंत्री के इतने कार्यकाल में नहीं हुईं थी. देश के दूसरे रेल मंत्री रहे लालबहादुर शास्त्री ने एक के बाद एक हुईं तीन रेल दुर्घटनाओं की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था, राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में रेल मंत्री रहे माधवराव सिंधिया ने भी ऐसी ही एक दुर्घटना के बाद पद छोड़ने में देर नहीं लगाईं थी, अब ऐसी तो क्या किसी भी तरह की नैतिकता की बात राजनेताओं में सोचना बेमानी सा लगता है.
ममता बैनर्जी के क्रियाकलापों पर मैं पहले भी लिख चुका हूँ, ज़्यादा लिखने से मुझे उनके प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त समझा जा सकता है, लेकिन में भी आम जनता हूँ और मेरे पास अपनी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता (?) के अलावा दुःख जताने का कोई हथियार भी तो नहीं है. दुर्घटना चाहे आतंकी हरकतों के कारण हो रही हों या मानवीय चूक के, इस देश का क़ानून किसी को किसी की जान लेने का हक़ नहीं देता. भारतीय रेल में हर दिन लाखों की संख्या में यात्री अपनी जान इसलिए जोखिम में नहीं डालते कि सरकार किसी दुर्घटना की स्थिति में उनके परिवार को चंद लाख रूपये का “ममता का सदका” न्योछावर कर दे. सरकार क्यों नहीं ऐसा क़ानून बनाती कि किसी दुर्घटना की स्थिति में किसी ज़िम्मेदार के खिलाफ़ सामूहिक ह्त्या का मुकदमा चलाया जा सके, या विभागीय मंत्री को इसके बाद राजनीति के अयोग्य घोषित कर दिया जा सके, शायद सरकार में इतना साहस नहीं है, क्योंकि जनता से ज़्यादा उसकी सहयोगी दलों के प्रति भी तो ज़िम्मेदारी है, बात चाहे पटरियों (रेल) की हो या हवा (विमानन) की.