ट्रेन और टॉयलट...!!
तारकेश कुमार ओझा
ट्रेन के टॉयलट्स और यात्रियों में बिल्कुल सास - बहू सा संबंध हैं। पता
नहीं लोग कौन सा फ्रस्ट्रेशन इन टॉयलट्स पर निकालते हैं। आजादी के इतने
सालों बाद भी देश में चुनाव शौचालय के मुद्दे पर लड़े जाते हैं। किसने कितने शौचालय बनवाए और किसने नहीं बनवाए , इस पर सियासी रार छिड़ी रहती है। देश के सेलीब्रिटीज नामचीन हस्तियां टॉयलट पर फिल्में बनाती हैं और कमाई करती है। जिनसे यह नहीं हो पाता वो विज्ञापन के जरिए ही मुट्टी गर्म करने की कोशिश में रहती है। दूसरे मामलों के बनिस्बत शौचालय में विशेष सुविधा है।रसगुल्ला खाकर रस पीने की तर्ज पर सेलीब्रिटीज इसकी आड़ में फिल्म और विज्ञापन से कमाई भी करते हैं तिस पर मुलम्मा यह कि बंदा बौद्धिक है। फिल्म और विज्ञापन के जरिए शौचालय की महत्ता का संदेश समाज को दे रहा है। टॉयलट्स एक महागाथा की तर्ज पर शौचालय से शासकीय अधिकारियों का पाला भी पड़ता रहता है। कुछ दिन पहले मेरे क्षेत्र में हाथियों के हमलों में ग्रामीणों की लगातार मौत से दुखी एक शासकीय अधिकारी दौरे पर निकल पड़े। एक गांव में उन्हें निरीक्षण की सूझी। इस दौरान वे यह जानकार दंग रह गए कि सरकार ने गांव में 63 घरों में सरकारी अनुदान से शौचालय तो बना दिए, लेकिन इस्तेमाल एक का भी नहीं हो रहा है। सब में ताले पड़े हैं। दिशा - मैदान के लिए ग्रामीण आदतन जंगल जाते हैं और वहां जानवारों के हमलों का शिकार होते हैं। फिर तो अधिकारी का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। फिर क्या... आनन - फानन जांच और निगरानी समिति गठित हुई। हालांकि ग्रामीणों की आदत में सुधार हुआ या नहीं, इसका नोटिस नहीं लिया जा सका।
यात्रा के दौरान ट्रेन के टॉयलट स्वाभाविक स्थिति में भी नजर आ जाए तो
सुखद आश्चर्य होता है। याद नहीं पड़ता कि साधारण दर्जे की किसी यात्रा में ट्रेन के शौचालय सही - सलामत मिले हों। कभी पानी उपलब्ध तो यंत्रादि टूटे। कभी बाकी सब ठीक तो पानी गायब। बचपन में लोकल ट्रेन में सफर से इसलिए डर लगता था कि उसमें टॉयलट नहीं होते थे। हाल में मेमू लोकल में इसकी व्यवस्थाहो तो गई। लेकिन कुछ दिन पहले गोमो - खड़गपुर मेमू लोकल से यात्रा के दौरान जायजा लिया तो डिब्बों के टॉयलट इस हाल में मिले... कि कुछ महीने पहले की गई पुरानी यात्रा की याद ताजा हो गई। वहीं टूटे नल, बेसिन में पड़े प्लास्टिक की बोतलें और टॉयलट के पास गुटखा और पान की पीके वगैरह। लोग कहते हैं इसके लिए व्यवस्था दोषी है। व्यवस्था कहती है कि हम सुविधाएं देते हैं, लोग तोड़फोड़ और गंदगी फैलाते हैं तो हम क्या करें। आखिर कहां तक हम व्यवस्था सुधारते रहें। सचमुच टॉयलट एक महागाथा...
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लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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