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21.4.08

रोको मत पतवार मुझे तुम

रोको मत पतवार मुझे तुम
देखें कितनी ताकत है इन लहरोंवाले सागर में
रखते हैं अणुधर्मी ऊर्जा हम शब्दों की गागर में
नाव नहीं जो डूब जाऊंगा मुझको आंधी-सा बहने दो
रोको मत पतवार मुझे तुम मुझको सागर सहने दो
दुख की फुहार में भीगे पर छीजे नहीं कभी
सुख के डिस्को में भी नाचे पर रीझे नहीं कभी
नपी-तुली सुविधा के सपने डगर-मगर ढहने दो
रोको मत पतवार मुझे तुम मुझको सागर सहने दो
बहुत किया शोषण लहरों का अब सब लहरें बागी हैं
खारापन तुम रहे पिलाते अब सभी मछलियां जागी हैं
मौसम की मुद्रा में परिवर्तन है हार जाओगे रहने हो
रोको मत पतवार मुझे तुम मुझको सागर सहने दो
पं. सुरेश नीरव
.९८१०२४३९६६

5 comments:

Anonymous said...

शानदार प्रस्तुती,अब वाकई मे भडास एक अच्छी पत्रिका बनती जा रही है यशंवंत जी बधाई :)

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

पंडित जी,सचमुच का पावर हाउस..... ताकत मिलती है ऐसे शब्दगुंफन से....

अबरार अहमद said...

बहुत किया शोषण लहरों का अब सब लहरें बागी हैं
खारापन तुम रहे पिलाते अब सभी मछलियां जागी हैं
मौसम की मुद्रा में परिवर्तन है हार जाओगे रहने दो
रोको मत पतवार मुझे तुम मुझको सागर सहने दो

बडे भईया प्रणाम स्वीकार करें। कई दिनों से आपकी रचनाएं पढने को नहीं मिल रही थीं। मन उदास था पर आज जब आपकी पोस्ट देखी तो सुकून आया। उक्त चार लाइनें तो बेहद उम्दा हैं। जवाब नहीं आपकी कलम का। मन प्रसन्न हो गया। साथ ही वो आत्मविश्वास जागा है कि मन कह रहा है कि
रोको मत पतवार मुझे तुम मुझको सागर सहने दो

Anonymous said...

पंडित जी,

तन मन सब उर्जावान हो गया।

बेहतरीन है

अनिल भारद्वाज, लुधियाना said...

Thanks for providing us rich literary diet.Please continue.