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9.4.08

गर्दिशों में सगा हुआ।

मेरी जिंदगी का दरख्त जो संग हादसों के बड़ा हुआ
हुई अपने खून की बारिशें तो ये जख्म दिल का हरा हुआ
न है नक्श है न कोई निशां मेरे लापता से वजूद का
मुझे आईने में दिखा अभी वही शख्स जो है मरा हुआ
छिपे कितने पिंजरे उजालों के तेरी आंखों के इन उजालों में
मैं हूं कैद यूं तेरे ख्वाबों में न हूं नींद में न जगा हुआ
ये जो बिन पिये ही बिखर गई वो शराब थी तेरे नाम की
मेरी जिंदगी वो गिलास है जो न खाली है न भरा हुआ
न वो नगमा आया अमीरी में कभी रू-ब-रू मेरे भूल से
था जो हमसे इतना खफा-खफा वही गर्दिशों में सगा हुआ।
पं.सुरेश नीरव
मो.९८१०२४३९६६
(श्री अरोरा के देहांत पर डॉ.रूपेश श्रीवास्तव,अबरार अहमद और अनिल भारद्वाज ने जो संवेदना व्यक्त की है वह इस बात की मिसाल है कि हम भड़ासी-भाई सुख-दुःख में कितना एक-दूसरे से जुड़े हैं?)

2 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

पंडित जी,आप हमारे भावों को ऐसे ही अभिव्यक्ति देते रहिये, हमारे हिस्से की हंसी आप व्यक्त करिये और आपके आंसू हम बहाएं यही भड़ास की धार्मिकता है....

अबरार अहमद said...

न है नक्श है न कोई निशां मेरे लापता से वजूद का
मुझे आईने में दिखा अभी वही शख्स जो है मरा हुआ

बडे भईया प्रणाम स्वीकारें। वाकई दिल को छू गई आपकी यह दस लाइनें। जिंदगी का सच सामने रख दिया आपने। उक्त दो लाइनें तो बेहद संजीदा हैं।