आज बड़ी अजीब बात हो गई,अपर्तियाषित रूप से एक ऐसा विषय चर्चा में आगया जिस पर बात करना हमारे कालेज के लड़को की तो बात छोडिये,लड़कियों के बीच भी छिड़ना कल्पना के परे है.पर कभी कभी ऐसा हो जाता है और आज भी ऐसा ही हुआ.विषय बनी तसलीमा नसरीन की जात.और कहने कि ज़रूरत नही कि ज्यादातर हमारी प्यारी दोस्तों की सहानुभूति उनके साथ थी और इस से मुझे कोई आश्चर्य नही हुआ. तसलीमा एक तो महिला हैं,बेचारी महिलाओं के साथ लोग जाने क्यों सहानुभूति करने लगते हैं,और सब से बड़ी बात कि उन्होंने इस्लाम की तोहीन करने की हिम्मत दिखाई. इन दोनों कारणों में से दूसरा कारण किसी भी लेखक या लेखिका को instant महान बनाने के लिए काफ़ी है.तसलीमा की बात की जाए तो उनके हालत चाहे जो भी रहे हों,एक लेखिका के तौर पर उनका आंकलन किया जाए तो वो एक साधारण लेखिका हैं.उनमें ऐसा कुछ नही था जो उन्हें महान तो क्या चर्चित बना सकता.तब उन्होंने वही किया जो उन से पहले रुश्दी जैसे लोगों ने किया था और रातों रात चर्चा का विषय तो बने ही,कुछ ख़ास लोगों की सहानुभूति के पात्र भी बन गए.ये कुछ ‘ख़ास लोग, बेचारे,पता नही उन्हें इस्लाम से इतना खोफ क्यों आता है.एक आम धारणा ये है कि हम उसी चीज़ या इंसान से डरते हैं जो हम से ज़्यादा मज़बूत हो और जिस के बरे मैं हमें पता हो कि उसकी ताकत अहमदीनेजाद आगे हम कुछ भी कर लें,उसे हरा नही सकते.इस्लाम ने हमेशा लोगों को यही दिखया है.आज भी जब अधिकतर मुस्लिम देश बुरी तरह से बरबाद हो रहे हैं, आपस में बंटे हुए अपनी ही कौम का खून गैरों के हाथों दिन रात बहते हुए देख रहे हैं लेकिन अपने मुफाद,अपनी खुदगर्जी के चलते कायरों की तरह चुप हैं क्योंकि वो जानते हैं कि हसन बोलेंगे तो अपनी अय्याशियों से हाथ धोना पड़ सकता है.हर नस्रुल्लाह त्याग कर अपने से कहीं ताक़तवर दुश्मन का सामना करना पड़ सकता है और ये सब उन जैसे सुविधाओं की लोगों के चुके कायर अय्याशों के बस की बात नही है.सो वो चुप अपने ही मासूम भाई बहनों और बच्चों के खून से प्यास बुझाने वालों के तलवों को चाटते हुए रंगरलियों में मसरूफ हैं.लेकिन इस्लाम ऐसे कायरों और अय्याशों का होता तो कब का मिट चुका होता क्योंकि उसके दुश्मन कोई ऐरे गैरे नही,दुनिया की महाशक्तियां हैं जो यदि किसी को मिटाने पर आजायें तो खून की नदियाँ बहाने में उन्हें ज़रा भी देर नही लगती.लेकिन आज भी इस्लाम की ताक़त इन नाम निहाद(तथा कथित)महाशक्तियों को दुबक जाने पर मजबूर कर देती है तो वो ईरान का रूप ले लेती है.आज भी करोड़ों निर्दोषों का खून पीने वाले नर पिशाच की बोलती अहमदीनेजाद और हसन नस्रुल्लाह जैसे लोगों के सामने बंद हो जाती है .जिस इस्लाम को इमाम हुसैन (अ.सलाम ) ने अपने और अपने चाहने वालों के खून से सींचा था उसको दुनिया की कोई ताक़त कयामत तक मिटा नही सकेगी.क्योंकि आज अहमदीनेजाद और नस्रुल्लाह जैसे बहादुर हैं तो कल कोई और होंगे इसलिए इस्लाम की ताक़त कभी कम नही हो सकेगी और ना ही उसकी ताक़त से असुरक्षित लोगों की. ऐसे में कोई तसलीमा नसरीन और सलमान रुश्दी जैसे छिछोरे लेखकों के महान और चर्चित होने का सबसे आसान तरीका यही है जो उनहोंने अपनाया . जहाँ तक बात लेखकों की आज़ादी की है , कि किसी को भी अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार है तो मैं कहती हूँ कि ऐसी आजादी नहीं होनी चाहिए . इस दुनिया और समाज ने कुछ उसूल कुछ पाबंदियाँ इसीलिए बनायी हैं कि ये हमें ख़ुद पर कंट्रोल करने पर मजबूर करती हैं.जो मन में आया बोल दिया,जो मन किया पहन लिया की इजाज़त दे दी जाए तो दुनिया की बात क्या करें,हमारे अपने देश में दस बीस प्रतिशत लोग सड़कों पर नंगे घूम रहे होंगे.आप कहेंगे’अरे तो क्या हुआ,हमारी मरजी,हम जो चाहे करें,ये लोकतांत्रिक देश है,अभिव्यक्ति की आज़ादी हमें हासिल है तो हम जैसे चाहें रहें.लेकिन ऐसा नही है.ऐसा होना भी नही चाहिए,आज़ादी का ये मतलब कतई नही है कि हम अपने कुंठित आचरण से आने वाली नस्ल को गुमराह करें.किसी मर्द को ये आज़ादी नही होनी चाहिए कि वो बिना इजाज़त किसी ओरत को छू सके और किसी लेखक या पेंटर को ये आज़ादी नही होनी चाहिए कि वह करोडो लोगों की पवित्र आस्थाओं का मजाक बना सके.जिस तरह डकैती और बलात्कार की सज़ा होती है वैसी ही सज़ा ऐसे लोगों की होनी चाहिए क्योंकि ये सामाजिक अपराधी हैं.कुछ intellectual लोग बड़ी उदारता से कहते हैं कि उनकी किताब पर बैन ठीक नही है,यदि उसने कुछ ग़लत लिखा है तो आप उसे सिरे से नकार दीजिये.यदि आपको अपनी आस्था पर विश्वास है तो कोई आपका क्या बिगाड़ सकता है.ऐसे लोगों के लिए मेरा जवाब है कि ऐसा कह देना आसान है वो भी दूसरे के लिए बड़ा आसान है .आग पड़ोसी के घर में लगी हो तो मशवरे देने में मज़ा आता है लेकिन यही आग जब आपके घर में लगी हो तो बोलती बंद हो जाती है.जहाँ तक हमारी आस्था और विश्वास का सवाल है तो जिसे दुनिया की बड़ी से बड़ी ताक़तें लाख सर पटकने पर भी हिला नही सकीं उसका चंद रुश्दी और तसलीमा जैसे शोहरत के भूखे लेखक क्या बिगाड़ सकते हैं.यह तो सस्ती शोहरत के लिए अपने कुंठित और विक्षिप्त विचारों को परोसकर पश्चिमी देशों की संतुष्टि कर के उनकी सहानुभूति पा लेते हैं. हैं.लेकिन दुनिया और ख़ुद ये लोग भी जानते हैं कि उनकी चर्चा कितने पलों कि मेहमान है और ये भी कि सस्ती शोहरत किसी को महान नही बना सकती.अपने घर को तमाशा बनाना वाला थोडी देर तक तो उसके घर से ईर्शिया करने वालों से सहानुभूति पा सकता है पर अन्दर ही अन्दर सहानुभूति रखने वाला भी जानता है कि ये किसी हमदर्दी के लायक नही है तथा इसे अपने घर में जगह देना कितना घातक हो सकता है.
बात जहाँ तक बैन न लगा कर उसे नकारने की है तो इसके लिए एक साधारण सा उदाहरण है.यदि एक आदमी सड़क पर नंगा घूम रहा हो तो कुछ लोग तो नफरत से मुंह मोड़ कर गुज़र जायेंगे.कुछ उसका मजाक उडायेंगे तो कुछ मज़ा भी लेंगे पर कुछ नासमझ बच्चे खिलवाड़ सब हैरानी से देखेंगे और अपने कच्चे जेहन में इस विचार को आने से रोक नही पाएंगे कि क्या कारण है कि वह आदमी नंगा घूम रहा था और क्या ऐसा कोई भी कर सकता है? हो सकता है वह अपने बडों से इसकी चर्चा भी करे और बड़े उन्हें समझा भी दें कि क्या सही है और क्या ग़लत है पर सवाल ये उठता है कि हम ऐसे हालात आने क्यों दें? कुछ सरफिरे लोगों की अभिवयक्ति की आज़ादी के लिए हम अपनी आने वाली नस्ल की राह में उलझनें क्यों पैदा करें?
तसलीमा ने भारत से जाते हुए कहा कि भारत काफी बदल
5 comments:
रक्षंदा आपा,मैं आपकी बात से शतप्रतिशत सहमत हूं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी करने की स्वतंत्रता नहीं मिल जाती है सिर्फ़ तस्लीमा को ही क्यों ऐसे सभी लोगों को यह समझना चाहिये कि उदारता का अर्थ कमज़ोरी हरगिज़ नहीं होता। बहुत सुंदर लेख है साधुवाद स्वीकारिये....
यानी हिंदुस्तान में कर्म काण्ड, पण्डे पुजारियों, भिखारियों, तांत्रिकों पर विश्वास जनता की आस्था का मामला है, इस पर कोई विवाद न उठाये. बलात्कार की शिकार महिला की भीड़ द्वारा पत्थरों से हत्या ही सज़ा, मज़बूरी में रोटी चुराने वाले को दोनों हाथ कटवाने की सज़ा, नमाज पढने से इंकार करने पर कूल्हे की हड्डी तुड़वाने की सज़ा, आदमी को चार बीवियाँ रखने और तीन बार तलाक बोलकर सम्बन्ध ख़त्म करने की छूट, इन पर भी कोई सवाल या विरोध न करे, ये भी आस्था विश्वास और धर्म से जुड़ा मामला है. आज इसाई जगत दुनिया में शीर्ष पर है तो सिर्फ़ इसीलिए की उसने तानाशाह मध्ययुगीन केथोलिक चर्च और उसकी मान्यताओं, पाखंड, राजनीती में उसके दखल को नकार दिया. सच्चाई अक्सर पोलिटिकली करेक्ट नहीं होती. तो क्या हम पोलिटिकली करेक्ट होने के किए झूठ बोलने लगें, या सच्चाई छुपा लें, या अर्धसत्य का सहारा लें? यूरोप और यू एस ने धर्म को राजनीती से अलग करके ही इतनी सफलता पाई है. कल तक जो समाज चर्च और प्रेस गेलिलियो, केपलर का विरोध करता था, उसकी परवाह नहीं की गई. ईसाइयों में जीसस क्राइस्ट के अस्तित्व और ईश्वर के वजूद पर सवाल उठाने वाली किताबों का भी विरोध हुआ पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इसाई देशों ने उन्हें प्रतिबंधित नहीं किया. जनता समाज जनास्था और धर्म तो डार्विन के सिद्धांतों के खिलाफ अभी भी हैं, तो क्या उन्हें रेफर करने वाली हर किताब बैन कर दें? और तसलीमा, रुश्दी की बातों का विरोध करने से ही जब पूछा गया की आपको किन किन पेजेस की कौन कौन सी बातों पर आपत्ति है, और कौन से तर्क तथ्यहीन है. तो एक भी आदमी जवाब भी न दें सका (किसी ने किताब पढी ही नहीं थी). आप मोहतरमा को कौन सी बातें इनकी किताबों में ग़लत महसूस होती हैं? किस पेज पर और क्यों? एक नई ब्लॉग पोस्ट पर क्लेरिफाई करें. आशा है, आप उन कट्टरवादियों की तरह बिना पढे विरोध नहीं करती होंगी!
यानी हिंदुस्तान में कर्म काण्ड, पण्डे पुजारियों, भिखारियों, तांत्रिकों पर विश्वास जनता की आस्था का मामला है, इस पर कोई विवाद न उठाये. बलात्कार की शिकार महिला की भीड़ द्वारा पत्थरों से हत्या ही सज़ा, मज़बूरी में रोटी चुराने वाले को दोनों हाथ कटवाने की सज़ा, नमाज पढने से इंकार करने पर कूल्हे की हड्डी तुड़वाने की सज़ा, आदमी को चार बीवियाँ रखने और तीन बार तलाक बोलकर सम्बन्ध ख़त्म करने की छूट, इन पर भी कोई सवाल या विरोध न करे, ये भी आस्था विश्वास और धर्म से जुड़ा मामला है. आज इसाई जगत दुनिया में शीर्ष पर है तो सिर्फ़ इसीलिए की उसने तानाशाह मध्ययुगीन केथोलिक चर्च और उसकी मान्यताओं, पाखंड, राजनीती में उसके दखल को नकार दिया. सच्चाई अक्सर पोलिटिकली करेक्ट नहीं होती. तो क्या हम पोलिटिकली करेक्ट होने के किए झूठ बोलने लगें, या सच्चाई छुपा लें, या अर्धसत्य का सहारा लें? यूरोप और यू एस ने धर्म को राजनीती से अलग करके ही इतनी सफलता पाई है. कल तक जो समाज चर्च और प्रेस गेलिलियो, केपलर का विरोध करता था, उसकी परवाह नहीं की गई. ईसाइयों में जीसस क्राइस्ट के अस्तित्व और ईश्वर के वजूद पर सवाल उठाने वाली किताबों का भी विरोध हुआ पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इसाई देशों ने उन्हें प्रतिबंधित नहीं किया. जनता समाज जनास्था और धर्म तो डार्विन के सिद्धांतों के खिलाफ अभी भी हैं, तो क्या उन्हें रेफर करने वाली हर किताब बैन कर दें? और तसलीमा, रुश्दी की बातों का विरोध करने से ही जब पूछा गया की आपको किन किन पेजेस की कौन कौन सी बातों पर आपत्ति है, और कौन से तर्क तथ्यहीन है. तो एक भी आदमी जवाब भी न दें सका (किसी ने किताब पढी ही नहीं थी). आप मोहतरमा को कौन सी बातें इनकी किताबों में ग़लत महसूस होती हैं? किस पेज पर और क्यों? एक नई ब्लॉग पोस्ट पर क्लेरिफाई करें. आशा है, आप उन कट्टरवादियों की तरह बिना पढे विरोध नहीं करती होंगी!
खटराग जी मैं भी आपकी बात से सहमत हूं। कट्टड़ता और ठोसी गई आस्था के सामने झुकने से बेहतर है कि सलीब पर चढ़ जाएं पुराने दौर में जो ईसा ने किया और नए दौर में तसलीमा जैसे कई लोग कर रहे है। बस मैं अभिव्यक्ति की आजादी के बारे में विवेक की भाषा के प्रयोग के पक्ष में हूं, जो भावना मैंने तसलीमा की किताब पड़ने के बाद यहां http://aawaarapan.blogspot.com/2008/02/blog-post_19.html जाहिर की थी। रक्षंदा जी की रुढ़ीवादी बात से हू ब हू सहमत होना मुश्किल है। ढोंग और कर्मकांड के खिलाफ आवाज उठाना अगर आस्था को ढेस पहुंचाना है, तो ये जितनी बार पहुंचाई जाए कम है। लेकिन उसका सही तर्क होना चाहिए। जैसे कि खटराग जी ने कहा तसलीमा की कौन सी किताब के कौन से पन्ने पर आपत्ति है, कोई नहीं बताता। मैं भी कई बार घटनाक्रम को देखकर तसलीमा के बारे में लिखना चाहता था, लेकिन थोड़ सब्र कर उनकी किताब को पढ़ने के बाद ही मैंने मुनासिब समझा। जितना उनको पढ़ा है, उसी हिसाब से अभिव्यक्त कर रहा हूं। जिस बात पर मुझे एतराज लगा मैंने उपरोक्त पोस्ट मे दर्ज कर दिया
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