ये सर्कस का खेल हमें याद दिलाता है
कि जो दे हमें रोटी वही अन्नदाता है
जी हां, ये रोटी का ही तो खेल है
जो शेर को चूहा और चूहे को शेर बनाता है
वर्ना क्या शेर भी कभी
किसी के आगे पूंछ हिलाता है?
मगर व्यवस्था का व्याकरण
हमें यही सिखाता है
कि जो पिंजरे में कैद है
आदमी उसी को डराता है।
पं. सुरेश नीरव
10.4.08
सुरेश नीरव उवाच...
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5 comments:
SURESH JI......VAH...VAH...VAH
SACHMUCH GAJAB KAHA HAI AAPNE.
pandit jee apne jevan ka rahasya bata diya.
bahoot badhiya
बडे भईया प्रणाम। आशीर्वाद दें। बहुत अच्छी रचना है। आपकी गजलें और कविताएं वाकई दिल को झकझोर देती हैं। जिंदा रहने की इस लडाई को आपने बहुत ही शानदार ढंग से पेश किया है। बधाई स्वीकारें।
महाराज पंडित जी,हम भड़ासी तो बाजार में दहाड़ते पूंजीवाद के शेर की भी दुम मरोड़ने चल पड़ते हैं क्योंकि हम व्यवस्था का व्याकरण नहीं सीख पाए या फिर जान कर भी नकारे हैं...
suresh ji such kaha aapne ki roti liye insaan ho ya jaanwar sabko sabkuch karna padta hai . bahut acchi kavita hai .
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