कहते हैं शामें अकसर उदास कर दिया करती हैं.खासकर जाते हुए दिन के उजाले,आते हुए अंधेरों से जब गले मिलते हैं तो जाने क्यों दिल अपने आप उदास हो जाया करता है.
जिंदगी की शामें तो इन शामों से भी अजीब होती हैं.
ये शामें तो अपने साथ उदासियों के साथ साथ ढेर सारी तन्हाइयां भी ले कर आती हैं.
बात कुछ महीनों पुरानी है,अखबार में शहर के पन्ने पर एक ख़बर कुछ यूँ थी. डालनवाला इलाके में एक बुजुर्ग दम्पति मिस्टर एंड मिसेज़ कपूर की हत्या---
ख़बर तफसील(डिटेल)से कुछ यूँ थी कि डालनवाला इलाके में अपने बंगले में दोनों पति पत्नी की हत्या रात के किसी समय कर दी गई. हत्या के अगले दिन दोपहर तक किसी को इस वारदात का पता नही चला.करीब चार बजे पड़ोस की मिसेज़ ओबराय किसी काम से उनके गेट के अन्दर गयीं,बंगले में चारों तरफ़ खामोशी थी.उन्होंने दोनों को कई आवाजें दीं.उन्हें ये देख कर भी हैरानी हुयी कि उस दिन का अखबार अभी तक घर के बाहर ही पड़ा हुआ है. तभी उनकी निगाह ड्राइंग रूम के दरवाज़े के नीचे से आती हुयी खून की पतली धार पर पड़ी जो अब जम चुकी थी. ये देखते ही वो चीखने लगीं.उनकी चीख से पड़ोस के और लोग जमा हो गए.
पुलिस को इत्तेला (ख़बर)दी गई.दरवाजा खोला गया तो अन्दर जिंदगी के सारे निशान मिट चुके थे.
बड़ा ही भयानक मंज़र था.
श्रीमती कपूर की लाश किचन के बाहर पड़ी थी तो मिस्टर कपूर ड्राइंग रूम के सोफे के करीब खून से लथ-पथ पड़े हुए थे.
अखबार में उनके ड्राइंग रूम का मंज़र दिखाया गया था.वो मंज़र(दृश्य)मुझ से आज तक नही भूलता.
हाँ,हमारी उनसे अच्छी पहचान थी.वो अकसर हमारे घर आया करते थे.
दोनों पति पत्नी बहुत ही मिलनसार और खुश मिजाज तबियत के मालिक थे.ज़िंदगी से भरपूर.
हर कोई उनकी इस दर्दनाक और दुर्भाग्य पूर्ण मौत पर आंसू बहा रहा था.लेकिन अफ़सोस कि इन आंसू बहाने वाली आंखों में उनके अपने बच्चों की आँखें नही थीं.
आंसू बहाने वाली वो आँखें थीं तो लेकिन सात समंदर पार,कपूर अंकल के दोनों बेटे फैमिली समेत अमेरिका में मुकीम हैं.
उन्हें इस सानिहे(दुर्घटना)की इत्तेला (ख़बर)तो फ़ौरन दे दी गई थी लेकिन वो इतनी जल्दी कैसे आ सकते थे.कितनी अजीब बात थी,अभी कल तक सब के नजदीक वो दुनिया के खुश किस्मत तरीन इंसानों में से एक थे.
दोनों बेटे बहुत कम उमरी(कम आयु)में तरक्की की सीढियां चढ़ते हुए अपनी अपनी मंजिल पा चुके थे.एक डॉक्टर था तो दूसरे ने मैनेजमेंट में डिग्री ली हुयी थी.
डालन वाला देहरादून के पोश इलाकों में से एक जाना जाता है.वहां अपने खूबसूरत बंगले में दोनों हँसी खुशी जिंदगी गुज़ार रहे थे.
साल में एक बार बेटे परिवार समेत माँ बाप से मिलने आजाया करते थे. दो बार कपूर अंकल और आंटी बेटों के पास अमेरिका भी हो आए थे.देखा जाए तो उनकी खुश नसीबी पर किसे शक हो सकता था.
बहरहाल पुलिस ने अपनी तरफ़ से पूरी तफ्तीश(छान बीन) की और इसे कभी लूट के इरादे से की गई वारदात तो कभी जायदाद के कागज़ हासिल करने के लिए किया गया क़त्ल बताती रही.
दोनों बेटे आए,उन्होंने भी अपनी तरफ़ से पूरा ज़ोर लगाया लेकिन पुलिस कुछ ख़ास कामयाबी हासिल नही कर पायी.
ये कोई नई बात नही है . देहरादून सेटल होने के बाद ऐसे कई केसेस ख़ुद मेरी नज़रों से गुज़रे हैं.
पहले के केसेस में भी ऐसा ही होता रहा है.
क़त्ल होने वाले ऐसे ही तनहा बुजुर्ग थे,और कातिल बहुत कम पकड़े जासके हैं।
देहरादून में हर चौथे पांचवें घर के बेटे और बेटियाँ विदेशों में जिंदगी गुजार रहे हैं.ये इस शहर का बड़ा अजीब सा सच है.अच्छे स्कूलों के लिए मशहूर इस शहर में दूर दूर से लोग बच्चों की अच्छी एजुकेशन के लिए आते हैं और इस शहर को अपना लेते हैं.
दसवीं और बारहवीं यानी स्कूली शिक्षा के बाद इस शहर में बच्चों के लिए कोई ख़ास स्कोप नही है लेकिन हाई एजुकेशन के लिए बुनियाद यहाँ के अच्छे स्कूल ही उन्हें मुहैया कराते हैं.
ये उसी बुनियाद का नतीजा है कि यहाँ पढे बच्चे ऊंची-ऊंची डिग्रियाँ लेकर विदेशों में अच्छी जॉब पा जाते हैं.
जिस घर के बच्चे विदेशों में सेटल हैं उन्हें रश्क भरी निगाहों से देखा जाता है.
अहाँ आने वाले सभी माँ बाप का सपना अपने बच्चों का अच्छा मुस्तकबल(भविष्य)होता है और अच्छे मुस्तकबल का मतलब आज के आधुनिक होते समाज के बच्चों और कभी कभी माँ बाप के लिए भी विदेश में ऊंची जॉब पाना ही है.
एक ज़माना था जब दून को रिटायर्ड लोगों का शहर माना जाता था.ख़ास कर मिलिटरी के ज़्यादा तर रिटायर्ड लोग अपनी बकिया(बची)जिंदगी सुकून से बिताने के लिए इस शहर में बसेरा कर लिया करते थे.
शांत और खूबसूरत माहौल,हसीन मौसम और सादा से मिलनसार लोगों के बीच रहना हमेशा से पसंद रहा है लोगों को.
इसके बाद अच्छे स्कूलों की वजह से ये पढने वाले बच्चों के वालिदैन( माता,पिता) की पसंद बनता चला गया.
वक़्त ने तब करवट बदली जब ये शहर नए स्टेट की राजधानी बन गया.
तरक्की तो काफी हुयी,लोगों को रोज़गार मिला तो दूर दूर से लोग आकर यहाँ बसने लगे.
लेकिन ये शांत सा शहर अशांत होता चला गया.
जहाँ अपराध के मामले कम से कम सुनने को मिलते थे वहां दिन दहाड़े जुर्म की घटनाएं होने लगीं.
और ऐसे में सब से ज़्यादा असुरक्षित हो गए ये तनहा जोड़े.
अभी एक साल भी नही हुआ जब ऐसे ही हालात में मसूरी में एक बुजुर्ग दम्पति को रात के अंधेरे में क़त्ल कर दिया गया था.
मि. कपूर की तरह ही उनके दोनों बेटे विदेश में थे और बेटी मुम्बई में ब्याही थी.
कहा जा सकता है कि ये हमारी राज्य सरकार और पुलिस प्रशासन की नाकामी है कि बार बार ऐसे जुर्म दोहराए जा रहे हैं लेकिन क्या सिर्फ़ उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?
क्या अपने बुजुर्गों के प्रति हमारे बच्चों की कोई ज़िम्मेदारी नही बनती?
अच्छी नौकरियां पाना और डॉलर भेज कर माँ बाप के प्रति जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेना काफ़ी है?
यही तो वो बच्चे हैं जिनकी उंगली पकड़ कर दुनिया की सर्द-ओ-गरम से बचाते हुए माँ बाप ने उन्हें पूरी हिफाज़त से बड़ा किया था.
माली की तरह दिन रात अपने खून पसीने से सींच कर जिस पौधे को बड़ा किया,वही पौधा जब फलने फूलने लगा,जब उसकी घनी छाँव में सुस्ताने का वक़्त आया तो वो पेड़ बन कर अपनी छाँव देने कहीं और जा बसा.
बेचारा माली,उस पेड़ पर लगे फूलों और फलों को तसव्वुर (कल्पना)की आंखों से देख कर खुश होता रहता है.
उसकी घनी छाँव की ठंडी राहत को तन्हाई की चिलचिलाती धुप में बस महसूस ही कर सकता है.
गलती सिर्फ़ हमारे बच्चों की नही है.ये हम ही हैं जो ऐसे सुनहरे ख्वाब ख़ुद देखते हैं और अपने बच्चों को दिखाते हैं.
अभी कुछ महीनों की बात है,हमारी ममा माली बाबा से मस्रूफियत(व्यस्तता)का रोना रो रही थीं.तब माली बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा था,''अरे मैडम ,बस कुछ दिन की बात है,देखना बच्चे बड़े होंगे और चिडियों की तरह इंग्लैंड या अमेरिका उड़ जायेंगे.यहाँ इस शहर में यही होता है,फिर तो आप बूढे बूढी तन्हाई का रोना रोया करेंगे.''
ममा को उनकी इस बात ने जैसे बेतहाशा खुशी दी थी.तभी मुस्कुराते हुए कहने लगी थीं, ''बस बाबा आप दुआ करें,इन बच्चों की खातिर ही तो यहाँ आ कर बसे हुए हैं.''
ये सिर्फ़ मेरी ममा का नही,यहाँ रहने वाले हर वालिदैन(माता,पिता) का ख्वाब है.
ये तो आने वाला वक़्त बताता है कि ये खूबसूरत ख्वाब रेगिस्तान में सेराब(पानी का धोखा)की तरह है.जो देखने में बहुत हसीन लगता है लेकिन जो ताबीर में देता है सिर्फ़ अकेलापन.
आप कह सकते हैं कि जिन वालिदैन के बच्चे उनके साथ रहते हैं वही कौन सा खुश हैं. ये भी कि आज के दौर में दूरी का फर्क कहाँ रहा,मोबाइल ,इंटरनेट और वेबकैम के ज़रिये हम पल पल की खुशियाँ आपस में बाँट सकते हैं.लेकिन मैं कहती हूँ कि सिर्फ़ खुशियाँ...
तन्हाइयां और दुःख बांटने का काम न कोई मोबाइल कर सकता है न ही इंटरनेट और वेबकैम.
मैं मानती हूँ कि बेहिस(संवेदनहीन)बच्चों के साथ रहते हुए भी बुजुर्ग अपने आप में तन्हा हो जाते हैं.लेकिन सिर्फ़ मन से.
ये भी ज़रूरी नही कि सारे बेटे और बेटियाँ बेहिस ही हों.अच्छे और बुरे यहाँ भी होते हैं.
लेकिन इंसान असुरक्षित तब महसूस करता है या हो जाता है जब वो तन्हा हो.
मुझे याद है एक बार कपूर आंटी से ममा ने कहा था,''भाभी आज के टाईम में देहरादून क्या,मुम्बई क्या और अमेरिका क्या,दूरियों का तो फर्क मिट गया है,'' तब कपूर आंटी के चेहरे पर जैसे दर्द के तारीक(अंधेरे)साए आकर ठहर गए थे.उनका जवाब मुझे आज भी याद है, उन्होंने कहा था, ''ऐसा नही है सारा ,सहूलत बहुत हो गई है पहले के मुकाबले में लेकिन पता नही क्यों,कभी कभी ऐसा लगता है कि ये सहूलतें प्यास और बढ़ा देती हैं.''
बड़ी हसरतें छिपी थीं उनके लहजे में.
सच ही तो है,क्या कानों में आती आवाजें,कंप्यूटर स्क्रीन पर हँसते और बोलते चेहरे कुरबत(नजदीकी)का वो अहसास दे सकते हैं जो एक माँ अपने बेटे को सीने में छिपाते हुए महसूस करती है?
या एक दादा और दादी को पोते पोतियों,निवासे निवासियों की शरारतों से हासिल होता है?
क्या ये नकली आवाजें,ये तस्वीरी चेहरे बेबसी की मौत मरते हुए माँ बाप को बाहर निकल कर बचा पायी थीं?
कितनी अजीब बात है,अपने बच्चों की नाज़ुक ऊँगली पकड़ कर दुनिया की हर मुश्किलों का सामना करने वाले वालिदैन उन नाज़ुक हाथों को मज़बूत बनाते बनाते जब ख़ुद कमज़ोर हो जाते हैं,जब उन हाथों में अपने लिए सहारा तलाश करने लगते हैं तो अहसास होता है कि वो मज़बूत हाथ तो उनके आस पास भी नही.क्योंकि वो हाथ तो डॉलर की तलाश में हजारों मील दूर जा चुके हैं.
पास बची हैं फ़क़त (सिर्फ़) तन्हाइयां.
सिर्फ़ तन्हाइयां.......
9.5.08
तन्हाई की ये कौन सी मंजिल है रफीको ?
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4 comments:
रक्षंदा,
पूरा पढ़ गया और पढ़ते हुए जाने कौन कौन से भाव दिल में आते रहे। क्या यही हमारी सबकी नियति है? जिन बच्चों को पाल पोसकर बड़ा करो, वो बुढ़ापे के वक्त अपने करियर व अपने अरमानों को पूरा करने के लिए सात समंदर पार चले जाएं और घर में रह जाए तनहाई।
मैं खुद अपने बारे में सोचता हूं। मां पिता गांव में है और मैं यहां दिल्ली की दुनिया में मस्त हूं। कई बार तो महीनों हो जाते हैं फोन किए।
अभी कल ही मां से बात हुई। मैंने कहा कि बहुत गर्मी पड़ रही है, गांव में इस बार आने का इरादा नहीं है क्योंकि बच्चे हर बार बीमार पड़ जाते हैं।
उन्होंने बड़े रुवांसे मन से कहा कि कुछ दिन के लिए बच्चों को लेकर चले आओ।
मैं उनकी भावना को समझ सकता हूं। पूरे एक साल हो गए मां को मुझे व मेरे बच्चों को देखे। हर बार गर्मी की छुट्टियों में गांव जाने का रिवाज सा रहा है। सभी लोग आते हैं और फिर पूरे महीने एक दूसरे के साथ खुशी खुशी गांव के जीवन को इंज्वाय करते हैं। मां पिता को भी घर भरा पूरा लगने और बच्चों के खेल कूद व शरारत से आनंद आता है।
पर क्या किया जाए....।
पैसे के बिना जीवन चल नहीं सकता और पैसा बड़ा निर्दयी होता है जो आता है तो ढेर सारा कुछ ले जाता है।
आपकी ये पोस्ट अब तक की सभी पोस्टों से बेहतरीन है, मेरी नजर में। साथ में हिंदी उर्दू में कहीं कोई गल्ती दिख नहीं रही। कैसे किया ये सब? बधाई...
यशवंत
हम तो इसी लिये खानाबदोशों की तरह सब संग लिये जिये जा रहे हैं.... गांव शहर कुनबा सब साथ है....
सुन्दर पोस्ट है...
रक्षंदा जी,
बड़ा दर्द है, अच्छी कृति है, यशवंत दादा ने सही कहा की अपनापन सा लगता है. मगर भौतिकवाद ने हमसे हमारी जिन्दगी छीन ली है.
सुंदर लिखा है.
यह दुख तो सबके साथ है। इस पोस्ट को पढ़ते हुए मुझे अपने माता-पिता की याद आने लगी। - आनंद
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