हाल ही में हुए
खुलासे में यह बात सामने आई है कि भारत में कट्टर हिन्दू संगठन के रूप में काम कर रहे बजरंग दल भी बम बनाने लगा है और इससे आतंकवादी संगठन सिमी, इंडीयन मुजाहिद्दीन (ईएम) की तरह ही यह भी आतंकवादी संगठन बनने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है।बजरंग दल के इस रवैये पर विष्व हिन्दू परिषद और भारतीय जनता पार्टी भी बिल्कुल मौन हैं इस पर कार्यवाही नहीं कर रही हैं।उड़ीसा व कर्नाटक में हुए चर्चों पर हमले में धर्म के नाम पर बजरंग दल ने साम्प्रदायिक हमले किए हैं जो कि हिन्दू के नाम की दुहाई देने वाले बजरंग भी तो एक आतंकवादी संगठन के रूप में काम कर रहा है अगर बजरंग दल एक धार्मिक व हिन्दुत्ववादी संगठन है तो सिमी भी कोई आतंकवादी संगठन
नहीं है। अगर सिमी पर प्रतिबंध जरूरी है तो बजरंग दल पर भी प्रतिबंध जरूरी है।कर्नाटक में हुए हमले की निंदा करते हुए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष मो. शफी कुरैशी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात कर बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने को कहा क्योंकि हमारे देष को बजरंग दल से बहुत बड़ा खतरा है।वहीं उत्तर प्रदेष के पूर्व मुख्यमंत्री व समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने भी केन्द्र सरकार से बात कर कहा है कि बजरंग दल पर जितनी जल्दी हो सके प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए क्योंकि बजरंग दल हिन्दुत्तव के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे करवा रहा है जिससे हमारे देष के नागरिकों को खतरा है क्योंकि बजरंग दल भी बम बनाने लगा है।वहीं बेंगलूरू में इन दोनों के समर्थन में श्रीश्री रविषंकर जी महाराज ने हिंसा पर खेद जताते हुए कहा कि हर जगह धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे कराना हिन्दू धर्म के खिलाफ है। उन्होंने केन्द्रीय जांच कमेटी को गठित कर जांच करने के लिए कहा है।बजरंग दल को आज हिन्दुस्तान में अपनी पहचान बनाने में कोई ज्यादा समय नहीं लगा है इसकी स्थापना उत्तर
प्रदेश में विश्व हिन्दू परिषद ने एक युवा शाखा के रूप में की थी जिसे 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्न्वंस में ज्यादा पहचान मिली। तब बजरंग दल ने अपनी कई नई शाखाओं की स्थापना की जिसमें प्रमुख हैं दुर्गा वाहिनी, गौरक्षा समिति।भास्कर के डीबी स्टार में बताया गया है कि बजरंग दल ने कई जगह बम बनाए जिसमें उनके नेताओं व कार्यकर्ताओं की जान गई।
5 comments:
aapka lekh aacha laga
lekh aacha hai
aacha laga
आतंकी कोई हो उस पर लगाम लगनी चाहिए ,आप देखिए की लोग अपने स्वार्थ मे क्या कर रहे है। ईसकी एक बानगी यहां है।
शहर को अशान्त होने से बचाया पत्रकार ने।
छत्तीसगढ राज्य का बिलासपुर शहर जहां एक दिन अचानक अफ़वाह फ़ैली की ईदगाह की दिवाल को ढहा दिया गया तथा कब्र मे बुलडोजर चला दिया गया।इस अफ़वाह को सही मान मुसलमान धर्मावलम्बी उद्देलित हो उठे और समाज के लोग एक स्थान पर इसका बिरोध करने के लिए इकठ्ठे होने लगे। अफ़वाह को हवा देने वाले या कहिए की समाज के अगुआ बनने वाले दो मुस्लिम ब्यक्ति इसकी रणनीति तय कर रहे थे।इसमे स्थानीय नगर निगम का एक पूर्व पार्षद एवं बिकास प्राधिकरण का अध्यक्ष तथा दूसरा वर्तमान पार्षद था। इनकी कोई रणनीति जब तक परवान चढती तब तक इसी समाज का एक जागरूक ब्यक्ति सामने आ चुका था।वह ब्यक्ति थे स्थानीय दैनिक समाचार पत्र के सम्पादक मिर्जा शौकत बेग जो एक प्रखर पत्रकार माने जाते है। उन्होने अपने सान्ध्य दैनिक मे इस पर एक विस्तृत समाचार प्रकाशित किया और सच्चाई सामने रखी। उन्होने लिखा की ईदगाह का सौंदर्यीकरण किया जा रहा था जिसके कारण दिवाल ढह गई थी और इसे जानबूझ कर नही ढहाया गया। जिन लोगो द्वारा विरोध किया जा रहा है वे मुस्लिम समाज के हितचिन्तक कभी भी नही रहे हैं जिम्मेदार पद पर रहने के वाबजूद कभी भी समाज के कल्याण के लिए कोई भी कार्य नही किया केवल कांग्रेस के मंत्रियो और नेताओ को मजारो मे घुमाते रहे तथा अपनी राजनीतिक रोटी सेंकते रहे है। समाचार मे लिखा गया की जिस क्षेत्र मे ईदगाह है उस क्षेत्र मे प्रेस क्लब तथा अन्य रिहायसी मकान भी है जहां अनजानी कब्रो का अस्तित्व नई बात नही है ।पूरे क्षेत्र मे बेतरतीब पाय जाने वाले अनजानी कब्रो की सुध कभी भी नही ली गई फ़िर ईदगाह के उस कब्र के लिय हाय तौबा क्यों। इस समाचार ने अफ़वाह को हवा देने वालो की हवा ही खोल दी तथा शहर को अशान्त होने से बचाया।लोग सच्चाई जान कर वहकावे मे नही आए और ईदगाह के विकास के लिये स्थानीय प्रशासन को धन्यवाद दिया। स्थानीय पुलिस भी दबाव मे आकर ठेकेदार के खिलाफ़ शिकायत दर्ज कर ली थी अब उसके खिलाफ़ किसी तरह की कार्यवाही न करने की सहमति बन चुकी है।
Swami Laxamananand Saraswati and Press
मार्क ट्वेन ने एक जगह लिखा है “If you do not read Newspapers you are UNINFORMED and if you do you are MISINFORMED”. मैं, पिछले दिनों स्वामी लक्षमणानन्दजी जी की हत्या और उसके फलस्वरूप उपजी हिंसा सम्बन्धी खबरों को कुछ नजदीक से ही पढ़ रहा था। नजदीक से पढ़ने का कारण कुछ तो स्वभाव गत सहज जिज्ञासा और कुछ इस कारण से कि, कुछ वर्ष पहले मुझे स्वामी लक्ष्मणानन्दजी से प्रत्यक्ष मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था।
मैं आदतन अंग्रेजी के समाचार पत्र अधिक पढ़ता हूं। स्वामी जी कि हत्या और तत्पश्चात उपजी हिंसा सम्बन्धी समाचारों को अंग्रेजी समाचार पत्रों ने जिस तरह छापा है कि मुझे अनायास ही मार्क ट्वेन की उपरोक्त उक्ति याद हो आयी। हिंसा सर्वथा निन्दनीय है । हिन्दू धर्म में मनुष्य ही नहीं किसी भी जीवन्त वस्तु के खिलाफ तीनों आयाम यथा मनसा,वाचा, कर्मणा में से कोई भी आयाम की हिंसा वर्जित है। गांधी जी का भी एक बहुत ही प्रसिद्ध कथन है कि “An Eye for an Eye would leave the Whole World Blind”.
मैं मुद्दे से भटक रहा हूं। मुद्दा अंग्रेजी समाचार पत्रों एवं उनमें छपे समाचारों का है। समाचार पत्रों को समाज का चौथा स्तम्भ माना गया है। लेकिन प्रतीत ऐसा हो रहा है कि इस समूह ने सामाजिक गैरजिम्मेदारी के सारे कीर्तिमान तोड़ने की ठान ली है। सारे समाचार पत्र 98% कालम सेन्टीमीटर की स्पेस इस दृष्टिकोण को प्रतिपादित करने में लगे हैं कि स्वामी जी एक हिन्दू नेता थे,विश्व हिन्दू परिषद के नेता थे और उनकी हत्या माओवादियों ने की । विश्व हिन्दू परिषद मिथ्या प्रचार कर इसाईयों को निशाना बना रहा है। बेचारे इसाई बलि के बकरे सम हिंसा का शिकार हो रहें हैं। बड़े बड़े समाचार पत्रों के बड़े बड़े कालमिस्ट एवं संवाददाता मोटे हर्फों में छप रहें हैं। अधिकांश ने बगैर अपनी आर्म चेयर से उठे ये लेख लिख डाले। यह स्टालिनिस्ट मानसिकता का द्योतक है। मैं जो सोचता हूं वह ही सही है। भले ही Majority संख्या विपरीत सोचने वालों की हो। भले ही सापेक्ष प्रमाण खिलाफ हों ‘लेकिन सही तो मैं ही हूं’। यह ही तो स्टालिनवाद है।
किसी एक समाचार पत्र ने भी स्वामी जी की हत्या के सम्बन्ध में संजीदगी से 10 कालम सेन्टीमीटर भी खर्च नहीं किये। दो आदिवासी जातियों (पाण और अन्य) के बीच चली आ रही दशकों की वैमनश्यता को नकारते हुये सिर्फ RSS और विश्व हिन्दू परिषद को गाली देने की भूमिका निभा रहें हैं। पाण जाति के अनूसुचित जनजाति घोषित होने और उससे उपजी विषमता को कहीं भी समुचित रुप से उद्बोधित नहीं किया गया है। खैर ये तो बारीक तथ्य हैं इनके विषय में प्रेस क्लब के बार में बैठ कर जानना मुश्किल ही नही “डान के शब्दों” में असम्भव है।
लेकिन मोटे तथ्यों को नकारना उनकी नीयत को ही संदेह के घेरे में ला खड़ा कर देता है। आज की हिंसा को रोकने के लिये उसके पार्श्व की वजह समझनी आवश्यक है। George Santayana ने तकरीबन एक सौ वर्ष पहले कहा था कि “People who do not learn from their past are doomed to repeat it” अतएव हिंसा पर काबू तभी पाया जा सकेगा जब हम इसकी Genesis तक पहुंच पायें। सरकार अपने बाहुबल द्वारा टहनियों पर दवा छिड़क रही है जब कि बीमारी तने और जड़ में है। इस दवा से सम्भव है कि एक बार फिर पेड़ हरा भरा दिखने लगे लेकिन बीमारी यथास्थिति बनी रहेगी। Pain killers से Symptoms तो ठीक हो ही जाते हैं लेकिन कुछ समय बाद pain killers का effect कम होते ही बीमारी फिर सर उठा लेती है। जो चिकित्सक pain killers के द्वारा इलाज करते हों या तो उन्हें चिकित्सा पद्धति का ज्ञान नही है,या उनकी नीयत मरीज को ठीक करने की है ही नहीं।
आइये इन पत्रकार एवं सरकारी महानुभावों को तथ्यों से अवगत कराने का प्रयत्न किया जाये। स्वामी जी हत्या होने के आधे घन्टे के भीतर ही बिना किसी जांच पड़ताल के सरकारी हलकों द्वारा यह हत्या माओवादियों के मत्थे मढ़ दी जाती है। आइये इस आरोप को परखा जाये।
1) माओवादियों का इस आश्रम के आस पास के इलाके में कभी कोई आतंक नहीं रहा है।
2) अमूमन माओवादियों का पहला निशाना पुलिस होती है।
3) आश्रम में उपस्थित चारों पुलिस कर्मियों को माओवादी हाथ तक नहीं लगाते।
4) ओड़ीशा में माओवादियों में अधिकांश संख्या आदिवासियों की है।
5) स्वामीजी विगत चालीस वर्षों से वहां आदिवासी बच्चों को शिक्षा प्रदान कर रहे थे।
6) अतएव आदिवासियों की स्वामी के साथ किसी भी प्रकार की दुश्मनी होने की सम्भावना सहज गले के नीचे नहीं उतरती।
7) कथित माओवादियों की तरफ से एक पत्र आता है जिसमें Secularism के नाम पर हत्या की बात कही जाती है। इसके पहले भारत में कभी भी कहीं भी माओवादियों ने Secularism को लेकर किसी घटना को अंजाम दिया हो इसकी कोई मिसाल नहीं है।
8) आक्रमणकारियों ने चेहरे ढक रखे थे। माओवादी तो खुलेआम अपने आपको क्रान्तिकारी कह कर आक्रमण करते हैं। इनके नकाबपोश हो आक्रमण करने का भी इसके पहले का कोई उदाहरण नहीं है।
दूसरा पहलू है हत्या से प्रतिकार में उपजी हिंसा का। सारे समाचार पत्र का मजमून यों लगता है कि एक ही लेखक लिख रहा हो। सारे अन्य सभी मुद्दों को नकार कर सिर्फ विश्व हिन्दू परिषद और RSS को दोषी ठहराने में लगे हैं। मानो उस आदिवासी क्षेत्र में विश्व हिन्दू परिषद के हजारों की संख्या में कार्यकर्ता इसाईयों का कत्लेआम कर रहें हों।
स्वामीजी की शव यात्रा में तकरीबन पांच लाख लोग थे। क्या वे सभी विश्व हिन्दू परिषद के लोग थे? स्वामीजी जब उस क्षेत्र में समाज सेवा में चालीस वर्षों से कार्यरत थे ,क्या उनका एक प्रभाव क्षेत्र नहीं होगा? क्या जिन लोगों के जीवन को स्वामीजी ने विगत चालिस वर्षों में कभी न कभी छुआ होगा उनकी निर्मम हत्या(उन्हें सिर्फ गोली ही नहीं मारी गयी है , हत्या के पश्चात उनके पांवों को भी तीन टुकड़ों में काटा गया है) से उनका भड़कना अस्वाभाविक है?
भारत में सिर्फ अंग्रेजी में ही लिखने वाले secular हैं। इसीलिये हिन्दी में लिख कर मैं तुरन्त ही संदेह के घेरे में पहुंच जाता हूं। विश्व हिन्दू परिषद,हिन्दू संस्थायें और RSS Soft Target हैं उन्हें बिना किसी संकोच के कट्टर कहा जाता रहा है। Minorities के खिलाफ लिखने से कहीं न कहीं पूरातन पन्थी,हिन्दू कट्टरवादी व संघीय के लेबल लग जाने का भय घिर आता है। अल्पसंख्यक तुष्टीकरण सरकारी नीतियों से उपर उठ तथाकथित बौद्धिक समाज की सोच का बिम्ब हो गया है।
ये अपने आपको बुद्धिजीवी कहने वाले अग्रिम पंक्ति पर अधिकार जमा कर अपने आपको देश व समाज का कर्णधार समझने लगे हैं। मुश्किल यह है कि इनमें से अधिकांश या तो किसी व्यक्तिगत AGENDA के तहत् या बौध्दिक आलस्य के मारे सच्चाइयों से परे बुद्धिजीवी कहलाते हुये सिर्फ कलम जीवी हो कर रह गये हैं। कलम का बुद्धि से कोई सीधा रिश्ता नहीं है। कई Columnist हैं जो हर रविवार एवं अन्य दिन भी सिर्फ लफ्फाजी करते हैं और स्थायी स्तम्भ के रुप में छपते हैं। ये Page 3 संवाददाता सिर्फ भाषाई जमा खर्च या लफ्फाजी कर सत्ता के नजदीक पंहुंच सरकार व जनता दोनों के बीच रसूख बनाने में सफल हो पा रहें हैं। Lord Macculay की भाषा नीति ने जहां रूसो और वोल्टेयर की बयार बहाई वहीं बौद्धिक गुलामी की जंजीरें भी इस देश की किस्मत में लिख दी।
इस मोड़ पर आकर पहला प्रश्न जो उठता है कि क्या वजह है कि सब लोग इकट्ठे हो झुठ बोल रहें हैं।
1) सम्भवतः हत्या इसाई मिशनरियों के द्वारा करवाई गयी है और अल्पसंख्यकों के नाम पर ये इसाई मिशिनरी Aggressor और Victim दोनो का रोल निभा रहें हैं।
2) सरकार एवं प्रेस अपने चिर परीचित स्वभाव वश हिन्दू संगठनों को Soft Target पा झूठ बोल रही है।
3) एक और संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता की कहीं आर्थिक लेन देन भी समाचार पत्रों की इस संदेहास्पद भूमिका में एक कारण नहीं है।
4) कुछ दिन पहले एक रशियन एजेंट के खुलासे में यह बात कही गयी थी कि इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में उन्होंने (रशिया ने) सैंकड़ों की संख्या में भारतीय समाचार पत्रों में मनचाहे लेख छपवाये थे।
यह गन्दी एवं ओछी राजनीति मुझ जैसे आम Secular व्यक्ति को भी अब अपनी मान्यतओं पर एक प्रश्न चिन्ह लगाने पर मजबूर कर देती है।
Post a Comment