मानवीय सोच और संवेदनाओं को समर्पित दो लघु कविताएं लिख रहा हूं। लिखने के लिये बार-बार निरंतरता बनाने का प्रयास करता हूं लेकिन हर बार कोई न कोई कारण गैप बना देता है।
यों ही
मानव क्यों उठा रहा अपनी अर्थी
स्व कंधों पर।
इस शहर से उस शहर तक
अन्जाने खामोश पथ पर
कब तक फिरेगा
यों ही बेसहारा।
तेरे अपने इस जीवन पर
हक है तेरा पूरा फिर भी
क्यों उठा रहा अपनी अर्थी।
जीवन के कुछ मूल्य
वो समय बहुमूल्य
जो तूने खोया
यों ही बेकाम।
ठहर कुछ पा सकता है अब भी
सोच क्या बन गया है मानव
क्यों उठा रहा अपनी अर्थी,
स्व कंधों पर।।
नित्य- निरंतर
यह मेरे स्वप्न
मेरी धरोहर
इनका टूटना-जुड़ना
नित्य-निरंतर
एक विडम्बना है।
कल्पना के आधार पर
विचारों का किला
सदैव हर आहट पर
भरभराकर गिरा
इसका बनकर बिखरना
नित्य-निरंतर
एक विडम्बना है।
आसमां के पंक्षी की तरह
दूर कहीं उड़ चला
पर पलक खुलते ही
जमीन पर आ गिरा
इसका उड़कर गिरना
नित्य-निरंतर
एक विडम्बना है।
पंकुल
13.12.08
नित्य- निरंतर
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2 comments:
sundar.....
सार्थक रचना !
कविता के माध्यम से
मानवीय जीवन की कशमकश को
बहुत अच्छी तरह रेखांकित
किया है आपने !
आशा है आगे भी ऐसी ही
सशक्त कवितायें पढने को मिलेंगी !
मेरी हार्दिक शुभकामनाएं !
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