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7.3.12

जरा राहुल की हार व अखिलेश की जीत से बाहर निकलिए


उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव को मिनी लोकसभा चुनाव बता कर सारे इलैक्ट्रॉनिक मीडिया चैनल भले ही अखिलेश यादव की पीठ थपथपाते हुए उनकी तारीफ करते हुए नहीं थक रहे हों और राहुल गांधी की ठोक-ठोक कर भद्द पीट रहे हों, मगर सच्चाई ये है कि उत्तरप्रदेश ने एक बार फिर राष्ट्रीय विचारधारा वाले दलों को नकार कर क्षेत्रीय दलों को तरजीह दी है। अफसोस कि देश के बड़े-बड़े धुरंधर पत्रकार व बुद्धिजीवियों की दृष्टि इस तथ्य की ओर नहीं जा रही और वे केवल लच्छेदार भाषा के डायलोग बोल कर अपने-अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने में लगे हुए हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में भले ही ऐसी प्रवृत्ति को गैर कानूनी या अनीतिक नहीं बताया जा सके, साथ ही चुनाव आयोग की ओर से भले ही क्षेत्रीय दलों को कानूनी मान्यता दी जाती हो, मगर अनेक प्रांतों, भाषा, संप्रदाय, वर्ग और जातियों में बंटी हुई जनता के लिए यह अंतत: घातक साबित होगा। अफसोस कि इसके बावजूद मीडिया ने इसे देश को नई दिशा देने वाला करार देना शुरू कर दिया है। मतदाता को विवेकशील बता कर शाबाशी देना शुरू कर दिया है।
यद्यपि यह धरातल का सच है कि राहुल की लाख कोशिश के बाद भी अपने दल को कुछ नहीं दिलवा पाए और क्षेत्रीय नेता मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश यादव विरासत की तैयार जमीन पर कामयाब हो गए हैं, मगर इसको किसका जादू चला और किसका नहीं, ऐसा कहना नितांत दकियानूसी ख्याल है। अगर उनके इस शब्द को स्वीकार कर भी लिया जाए तो ऐसा माहौल मीडिया का ही बनाया हुआ है। असल में कोई भी नेता यह कह कर प्रचार नहीं करता कि वह जादू चलाने आया है अथवा अपने खूबसूरत चेहरे से मतदाताओं को रिझाने को निकला है। चुनाव प्रचार को इस प्रकार जादू की संज्ञा देना मीडिया की ही उपज है। वही चुनाव में जादू के फैक्टर को उभारता है और वही फैसला करता है कि किसका जादू चला और किसका नहीं। इससे एक अर्थ यह भी निकलता है कि हमारा मीडिया भी इसी प्रकार के जादू में ही यकीन रखता है, जब कि उसे आम मतदाता को वास्तविक लोकतंत्र के प्रति जागरूक करना चाहिए। मीडिया के चुनावी शब्द जादू को आधार भी मान लिया जाए, तब भी राहुल व अखिलेश की तुलना बेमानी है।
उत्तरप्रदेश के परिदृश्य में भले ही अखिलेख का जादू राहुल की तुलना में किन्हीं कारणों से कामयाब हो गया हो, मगर क्या वाकई वे बराबरी करने के योग्य हैं। क्या अखिलेश राहुल की तरह देश के और राज्यों में इसी प्रकार का जादू चला सकते हैं। असल बात तो ये है कि खुद अखिलेश ने ही अपनी तुलना राहुल करने पर तनिक आपत्ति जताई थी, मगर मीडिया कहां मानने वाला था। दरअसल मुलायम या अखिलेश को जो कामयाबी हासिल हुई है, उसकी चाहे जितने तरीके समीक्षा की जाए, मगर सच्चाई ये है कि उत्तर प्रदेश की जनता उसी दल को फिर से स्वीकार कर लिया है, जिसको उसने गुंडाराज की संज्ञा देते हुए पहले बेदखल कर दिया था और मायावती को सिर पर बैठाया था। आज जब वह मायावती की करतूतों से परेशान हो गई तो उसने फिर से मुलायम को अपना लिया। मतदाता मात्र इधर से उधर पलटी खा गए। कांग्रेस व भाजपा के सुशासन के नारे बेकार हो गए। मजे की बात देखिए कि जनता ने लगे हाथ जीत के जश्न में सपा के कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए हुड़दंग व दादागिरी को भी देख लिया। यह मुद्दा भी बना। ऐसे में अखिलेश से जब यह पूछा गया कि जैसी आपके दल की छवि थी, जीतते ही आपके कार्यकर्ताओं ने वैसा ही करना शुरू कर दिया तो उनको कहना पड़ा कि कानून हाथ में लेने को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
मूल सवाल ये है कि कल के मुलायम, जिन्हें कि भाजपा मुल्लायम कहा करती थी, आज फिर महान कैसे हो गए? यह किस प्रकार का चुनाव है? ऐसे चुनाव में सोच जैसी तो को0ई बात ही नजर नहीं आती। सब जानते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का तमगा लगा कर भले ही हम गौरवान्वित महसूस करते हों, मगर आज भी हमारा चुनाव जाति और संप्रदायवाद पर टिका हुआ है। बातें भले ही हम राष्ट्रीयता की करें और अन्ना फैक्टर की दुहाई दें, मगर हमें जाति और संप्रदायवाद ही प्रभावित करते हैं। ताजा चुनाव अन्ना की आंधी से ठीक बाद हुए और उम्मीद की जानी चाहिए थी कि अन्ना की तथाकथित दीवानी जनता को प्रत्याशी-प्रत्याशी में भेद करके वोट डालना चाहिए था, मगर ऐसा हुआ नहीं। लोगों ने जाति, संप्रदाय और क्षेत्रीय हितों व व्यक्तिगत अहसानों को ध्यान में रख कर ही वोट डाले। एक जमाना था, जब तीन ही विचारधाराएं थीं, हिंदूवाद, धर्मनिपेक्षवाद और कम्यूनिज्म। उनमें कौन सही कौन गलत, इससे कोई मतलब नहीं, मगर कम से कम वे विचारधाराएं तो थीं। जातिवाद पहले भी था, धरातल पर, मगर उसमें उभार तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के मंडल कमीशन के बाद आया। जो देश पहले हिंदूवाद और धर्मनिरपेक्षता में बंटा हुआ था, जातियों में खंड-खंड कर दिया गया। नतीजा ये हुआ कि राज्यों में जाति आधारित क्षेत्रीय दल प्रमुखता से उभरे, जबकि उनकी मौलिक विचारधारा कांग्रेस अथवा भाजपा वाली ही थी। उत्तर प्रदेश में एक ओर जहां मुलायम सिंह ने यादवों के अतिरिक्त मुसलमानों को अपने कब्जे में किया, तो मायवती ने दलितों को अपने साथ ले लिया। इसका परिणाम ये हुआ कि इन्हीं दोनों वर्गों के दम पर चुनाव जीतती रही कांग्रेस चौपट हो गई। अकेले कांग्रेस ही क्यों, भाजपा की हालत भी वैसी ही हुई, हालांकि उसके पास हिंदूवाद का आकर्षक नारा था। इस स्थिति के लिए केवल क्षेत्रीय दल ही दोषी नहीं हैं, राष्ट्रीय दल भी उतने ही उत्तरदायी हैं। इस चुनाव में भाजपा ने जहां मध्यप्रदेश के रिजेक्टेड उमा भारती को हिंदूवाद और जाति विशेष के लोगों को प्रभावित करने के लिए उतारा तो कांग्रेस ने ऐन चुनाव के वक्त मुसलमानों को रिझाने के लिए विवादित बयान दिए। ये दोनों ही दल जान चुके थे कि वे जातिवादी व्यवस्था पर कायम दलों का मुकाबला उसी जातिवाद के आधार पर कर पाएंगे। मगर वह प्रयोग विफल हो गया। न कांग्रेस मुसलमानों को मुलायम से छीन पाई और न ही भाजपा हिंदूवादी दलित जातियों को हिंदूवाद के नाम पर मायावती से तोड़ पाई। सत्ता तो कुछ मत प्रतिशत के अंतर से इधर से उधर हो गई, मगर प्रमुख रूप से सपा व बसपा की ही बोलबाला रहा।
ताजा चुनावी समीक्षाओं के शोरगुल और लच्छेदार डायलोग से हट कर सोचें तो यह स्थिति देश के लिए सुखद नहीं है। कांग्रेस व भाजपा को नए सिरे सोचना होगा कि आखिर क्षेत्रीयता से मुकाबला करने के लिए अपने राष्ट्रीय स्वरूप में निखार कैसे लाया जाए। लीक से हट कर की गई इन बातों के चाहे जो अर्थ निकाले जाएं, मगर सच ये है अशिक्षित जनता व केवल सत्ता की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों के साथ मीडिया भी गैर जिम्मेदारी वाला व्यवहार कर रहा है।
-tejwanig@gmail.com

2 comments:

Shikha Kaushik said...

i was very depressed yesterday when i saw u.p. poll result .rahul gandhi has done very hard work .he has given a option to us to choose a govt.except b.s.p &s.p. but public has refused .very sad .
YE HAI MISSION LONDON OLYMPIC

अजित गुप्ता का कोना said...

क्षेत्रीयता से निपटने के लिए राष्‍ट्रीय दलों को भी क्षेत्रीय नेतृत्‍व तैयार करना होगा। मायावती और अखिलेश उसी क्षेत्र से आते हैं जबकि राहुल गांधी और उमा भारती उस क्षेत्र से नहीं हैं। इसलिए जब तक स्‍थानीय नेतृत्‍व को स्‍थान नहीं मिलेगा तब तक ऐसा ही होता रहेगा।