बड़ा मुश्किल होता है खुद को समझाना, साझा होना और साथ चलना। इसीलिए कि 'युग' जो कि हमारे 'चेहरे' के कल आज और कल को परिभाषित करता है। अब आहिस्ता-आहिस्ता उसके लंपट हो जाने से डर लगता है। मंजिलें तय भी होती हैं, मगर नहीं सुझता कि प्रतिफल क्या होगा। जिसे देखो वही आगे निकलने की होड़ में लंपट होने को उतावला हो रहा है। हम मानें या नहीं, मगर बहुत से लोग मानते हैं, बल्कि दावा भी करते हैं, कि खुद इस रास्ते पर नहीं गए तो तय मानों बिसरा दिए जाओगे। दो टूक कहते भी हैं कि अब भोलापन कहीं काम नहीं आता, न विचार और न ही सरोकार अब 'वजूद' रखते हैं। काम आता है, तो बस लंपट हो जाना। इसीलिए सामने वाला लंपटीकरण से ही प्रभावित है।
लंपटीकरण आज के दौर में बाजार की जरुरत भी
लगती है। सब कुछ बाजार से ही संयोजित है। सो बगैर बाजारु अभिरचना में समाहित हुए
बिना कौन पहचानेगा, कैसे तन के खड़े होने लायक रह पाओगे। यह न समझें कि यह अकेली चिंता
है। कह न पाएं, लेकिन है बहुतों की। हाल में एक जुमला अक्सर सुनने को मिलता है,
अपनी बनाने के लिए धूर्तता के लिए धूर्त दिखना जरुरी नहीं, बल्कि सीधा दिखकर धूर्त
होना जरुरी है। सीधे सपाट चेहरे हंसी लपेट हुए मासूम नजर आते हैं। लेकिन पारखी
उनकी हंसी के पेंच-ओ-खम को ताड़ लेते हैं। अबके यही मासूम (धूर्त) लंपटीकरण की राह
पर नीले रंग में नहाए हुए लग रहे हैं, और हमारा, आपका मन, दिल उन्हें 'तमगा' देने
को उतावला हुए जा रहा है। बर्तज भेड़ हम उस लंपटीकरण की आभा के मुरीद हो रहे हैं।
अब यह न मान लें, कि लंपट हो जाना किसी एक
को ही सुहा रहा है। यहां भी हमाम में सब नंगे हैं, कि कहावत चरितार्थ हो रही है।
मानों साबित करने की प्रतिस्पर्धा हो। नहीं जीते (यानि लंपट नहीं हुए) तो पिछड़
जाएंगे। मेरा भी मन कई बार लंपट हो जाने को बेचैन हुआ। तभी कोई फुस्स फुसाया कि तुम
में अभी यह क्वालिटी डेवलप नहीं हुई है। आश्चर्यचकित.. अच्छा तो लंपट होने के
लिए किसी बैचलर डिग्री की जरुरत है। बताया कि इसकी पहली शर्त है, लकीर पीटना बंद
करो। सिद्धांतों का जमाल घोटा पीना पिलाना छोड़ दो। गांधी की तरह गाल आगे बढ़ाने का
चलन भी ओल्ड फैशन हो चला है। दिन को रात, रात को दिन बनाने अर्थात जतलाने और
मनवाने का हुनर सीखो। जो तुम्हें सीधा सच्च कहे, खिंचके तमाच मार डालो। समझ
जाएगा, मुंडा बिगड़ गया। बस.. दिल खुश् होकर बोल उठा, व्हाट ऐन आइडिया सर जी।