मैं क्या मानता हूं या क्या नहीं मानता क्या इस बात से जो परम सत्य है उस पर कोई भी प्रभाव पड़ेगा? जैसे कि सारे उल्लू , चमगादड़ एक हो जाएं जिनमें से कुछ डाक्टर हों,कुछ इंजीनियर और कुछेक तो साइंसदान हों जो एक बौद्धिक परिषद गठित कर लें और चिल्ला-चिल्ला कर कहें कि सूर्य का कोई अस्तित्त्व नहीं होता है तो इसपर आप क्या कहेंगे कि भाई आप अपनी जगह बिलकुल सही हो क्योंकि सूर्य का प्रकाश आप देख ही नहीं सकते इस लिये आपके लिये सूर्य का अस्तित्त्व संदिग्ध और इंसान अव्वल दर्जे के मूर्ख हैं जो सूर्य को इतना महत्त्व देते है। रक्षंदा आपा के पोस्ट पर खटराग नामक किन्हीं सज्जन (या सजनी)का कमेंट आया जो उन्होंने काफ़ी दिमाग लगा कर लिखा है जिसे मैं ज्यों का त्यों आप लोगों की नजर कर रहा हूं तो फिर क्या बात है आइये और एक दूसरे की आस्था पर कीचड़ फेंकने के लिये जब मौका मिला है तो क्यों गवाएं, हिन्दू मुसलमानों पर मुसलमान हिन्दुओं पर क्रिश्चियन इन दोनो पर और जैन बौद्धों पर कुल मिला कर पूरे देश में कीचड़ ही कीचड़ हो जाए तो फिर आइए इस नेक काम में शरीक हो जाइए ताकि आगे अगर इस बात को लेकर कोई मजहबी दंगा-फसाद शुरू हो जाए तो लोग ये न कह सकें कि भड़ासियों ने इसमें हिस्सा नहीं लिया था। आइये सिर टकराइये क्योंकि मैं भी एक बार एक पोस्ट डाल चुका हूं धर्म के विषय पर जो कि मेरी एक विशेष मत रखने वाले व्यक्ति से मुलाकात के बारे में थी जो कि मानता है कि सारे संसार में जो भी अप्रिय और अनाचार है उसके पीछे जैन लोग हैं वे अहिंसा का तो बस दिखावा करते हैं, आइये मौका मत छोड़िये लेकिन पहले इस टिप्पणानुमा टिप्पणी को पढ़ लीजिये..........................
(साथ ही मुनव्वर आपा का पिछला पोस्ट भी पढ़ना न भूलिये जो उन्होंने कुछ इसी विषय से मिलते जुलते अंदाज़ में लिखा था)
यानी हिंदुस्तान में कर्म काण्ड, पण्डे पुजारियों, भिखारियों, तांत्रिकों पर विश्वास जनता की आस्था का मामला है, इस पर कोई विवाद न उठाये. बलात्कार की शिकार महिला की भीड़ द्वारा पत्थरों से हत्या ही सज़ा, मज़बूरी में रोटी चुराने वाले को दोनों हाथ कटवाने की सज़ा, नमाज पढने से इंकार करने पर कूल्हे की हड्डी तुड़वाने की सज़ा, आदमी को चार बीवियाँ रखने और तीन बार तलाक बोलकर सम्बन्ध ख़त्म करने की छूट, इन पर भी कोई सवाल या विरोध न करे, ये भी आस्था विश्वास और धर्म से जुड़ा मामला है. आज इसाई जगत दुनिया में शीर्ष पर है तो सिर्फ़ इसीलिए की उसने तानाशाह मध्ययुगीन केथोलिक चर्च और उसकी मान्यताओं, पाखंड, राजनीती में उसके दखल को नकार दिया. सच्चाई अक्सर पोलिटिकली करेक्ट नहीं होती. तो क्या हम पोलिटिकली करेक्ट होने के किए झूठ बोलने लगें, या सच्चाई छुपा लें, या अर्धसत्य का सहारा लें? यूरोप और यू एस ने धर्म को राजनीती से अलग करके ही इतनी सफलता पाई है. कल तक जो समाज चर्च और प्रेस गेलिलियो, केपलर का विरोध करता था, उसकी परवाह नहीं की गई. ईसाइयों में जीसस क्राइस्ट के अस्तित्व और ईश्वर के वजूद पर सवाल उठाने वाली किताबों का भी विरोध हुआ पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इसाई देशों ने उन्हें प्रतिबंधित नहीं किया. जनता समाज जनास्था और धर्म तो डार्विन के सिद्धांतों के खिलाफ अभी भी हैं, तो क्या उन्हें रेफर करने वाली हर किताब बैन कर दें? और तसलीमा, रुश्दी की बातों का विरोध करने से ही जब पूछा गया की आपको किन किन पेजेस की कौन कौन सी बातों पर आपत्ति है, और कौन से तर्क तथ्यहीन है. तो एक भी आदमी जवाब भी न दें सका (किसी ने किताब पढी ही नहीं थी). आप मोहतरमा को कौन सी बातें इनकी किताबों में ग़लत महसूस होती हैं? किस पेज पर और क्यों? एक नई ब्लॉग पोस्ट पर क्लेरिफाई करें. आशा है, आप उन कट्टरवादियों की तरह बिना पढे विरोध नहीं करती होंगी!
12.4.08
जनता(मूर्ख या अक्लमंद) की आस्था का मामला है.......
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
great rupesh bhaee, thik hi kaha aapne.....
aakhir rupesh bhai jo hain isliye unki har baat me rup chuta hai ji.
bhai saab,
bade katu vachan kah jate ho,
jo satya hota hai or satya ke siva kuch hota hi nahi hai.
Post a Comment