तन का बलात्कार हुआ
मन का बलात्कार हुआ
एषा लगता है मानो
जिस्म के हर अंग का
बलात्कार हुआ
तन को बिन मर्जी के छुआ
तन का बलात्कार
मन को बिन मर्जी के छुआ
मन का बलात्कार
एषा लगता है मानो
हर अंग का बलात्कार हुआ
जरुरी नही की बलात्कार हमेशा
chu कर हो
बिना छुए भी कई बार
आंखो से बलात्कार हुआ बाहर ही नही घर मै भी
औरत की साँसों का
उसकी khusiyo का
का जीवन भर बलात्कार हुआ
17.4.08
बलात्कार
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4 comments:
कमला बहन,कचोट जाती हैं अंदर तक इस तरह की बातें,शाब्दिक अभिव्यक्ति सुन्दर लेकिन संदेश दुःख भरा है.....
उफ, इतना साफ साफ, इतना तीखा और धारधार....बिना शाब्दिक चमत्कार के सहज तरीके से कही गई ये कविता अंदर तक बेध देती है, कठघरे में खड़ी कर दते ही।
शानदार है अभिव्यक्ति, जारी रखें। आप अपने समय की प्रतिनिधि हैं, अपने लोगों की प्रतिनिधि हैं, अपने लोगों की दुखों-पीड़ाओं की प्रतिनिधि हैं.....जाहिर है, तब जो कुछ अभिव्यक्त होगा, वो शायद सब न पचा सकें।
यशवंत
बड़ी तीखी छुरी हो मोहतरमा, सत्य को जिस सहजता से कह डाला वह वाकई प्रसंशा के लायक है, आपकी सोच और विचार के कलम दिल को छुरी से काटते से प्रतीत हो रहे हैं।
मगर है जबरदस्त।
बधाई।
जारी रहिये।
rupesh ji aap to much hai .
jab bhi aapke comments padhti hun ek energy milne lagti hai . aap sochte honge kitni dheet hai baar baar wahi galti karti hai . kya karu thodi si buddhu hun par fikar na kariye aap jeshe guru ke hote hue chinta ki koi baat nahi hai.
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