कई साथी इस बात से परेशान हैं कि उनके संपादक या सीनियर या उनके चम्पू उन्हें जंगली तरीके से उत्पीडित करते हैं। उनके लिए एक पुरानी कविता नुमा भडासी गजल प्रस्तुत है। जो हमारे साथियों में प्रचलित थी। आप इससे प्रेरणा ले सकते हैं. किसने लिखा है ये नहीं बताऊंगा। इसमें असंसदीय शब्दों के लिए क्षमा चाहूँगा। क्योंकि मूल रूप में यह और भदेस थी।
उसकी गांड पे मारो लात।
तभी सुनेगा तेरी बात।।
सच का साबुन मारोगे तो
तुरत दिखेगी उसकी जात।।
चापलूसी और लल्लो चप्पो
काम न आएगी, हे तात । ।
आग लगा दो पानी में तुम
इतनी तेरी है औकात। ।
आज ही जाकर मुह पर थूको
तभी सुनेगा तेरी बात।।
उसकी गांड पे मारो लात । ।
21.4.08
तभी सुनेगा तेरी बात।।
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5 comments:
बमबम भोले,भाईसाहब मूल कविता यदि संभव हो तो मुझे और यशवंत दादा को भेजें ताकि उसका आनंद लिया जा सके क्योंकि एक बार हमें मनीषा दीदी की पोस्ट से भड़ासी डिक्शनरी हटानी पड़ी थी,शायद कहीं तो हम भी ’शरीफ़ होने का के ढोंग” का नाटक करते हैं.......
बमबम भाई। पूरा बमबम कर दिया आपने।
बमबम भाई ,
आनंद्कंद कर दिया, वैसी जब इतना लिखा तो पूरी कविता पेल ही डालो.
जय जय भडास
bambambahi aapki kavita ka sandesh accha hai par abhadra shabdo ka istemaal karne se bache kyuki ishi tarha sab karne lage to hum samaj ko kya denge.
kamlabhandari
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