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10.4.08

बाजार मे हिन्दी का जलवा

इन दिनों भड़ास और दुसरे कई मीडिया माध्यमो के जरिये हिन्दी मीडिया मे चल रही उथल-पुथल पर नजर पड़ ही जाती है, कहीं कोई चैनल ला रहा है, कही कोई अख़बार आ रहा है, कही कोई वेबसाइट आ रही है, कुल मिलाकर हिन्दी पत्रकारों के लिए बाजार ने ढेर सरे मौके उपलब्ध कराये हैं, ऐसे मे कई बार बाजार धन्याद करने का मन करता है, दरअसल बाजार को गरियाने वाले भी हजारों लोग हैं लेकिन जहाँ तक मैंने देखा है बाजार ने कई बेहतर चीजें भी खड़ी की हैं..मसलन ये बाजार ही है जहाँ एक निम्न कुल मे पैदा बॉस उच्च कुल के कर्मचारी को टास्क देता है और उसे लीड करता है, मेरे पुराने ओर्गनिजेशन मे एक से बढकर एक कर्मकांडी लोगों को मेरे बॉस के पीछे लीन मे खड़ा होना पड़ता था, अगर बाजार नही होता और पैसा कमाने की मजबूरी नही होती तोःक्या कथित तौर पर उच्च कुल मे जन्मे हम लोग एक शूद्र की सत्ता को मानते, भले ही वह कितना योग्य क्यों न होता, ये बाजार का एक रूप है जिसपर शायद ही किसी की नजर गई हो,
दूसरी अहम् चीज जो बाजार ने हम हिन्दी पत्रकारों को उपलब्ध करायी है वह है मौके, मौको के आभाव मे न जाने कितने हिन्दी पत्रकारों का शोषण किया गया पर आज देखिये साहब आप मेरे मन माफिक पैसे नही दे रहे है तोः मैं चला, आज हमारी प्रतिभा की कीमत लगाने के लिए बहुत लोग खड़े हैं वरना दस-दस साल तक बेगारी कराने वाले पूंजीपति क्या हमे पैसे देते,
तीसरी चीज जो बाजार ने हमे दी वो है संगठित होने की ताकत, अब आप अपने विचारों से मिलते जुलते लोगों को एक मंच पर इकट्ठा कर सकते हैं जैसे भड़ास पर और शुरू कर दीजिये कोई भी आन्दोलन, क्या ये पहले मुमकिन था...
दोस्तों न तोः विचारों की उलटी करने का मन है न ही कोई बहस शुरू करने का बस उन लोगों को बाजार के फायदों के बारे मे बताने का है जो बाजार के फायदों को जमकर इस्तेमाल करते हैं और बाजार को ही गरियाते फिरते हैं अम मिया जिसकी खाते हो कम से कम उसकी तोः मत बजाओ और अगर तुम खानेवाली थाली मे हे छेद करने के आदी हो तोः फिर कहना ही क्या... दरअसल मैं मोहल्ला चाप कई लोगों के विचारों से बेहद परेशां हूँ जो खाते तोः बाजार की हैं और राग कोम्मुनिस्म का गाते हैं। यार कमसेकम किसी के प्रति तोः इमानदार रहो, दोस्तों ये सच है की बाजार ने हमे कई मौके उपलब्ध कराये हैं तोः हमे इसी की खाकर इसीको गरियाने की परम्परा कमसे कम बंद करनी चाहिए बाकी अप्रासंगिक और खत्म हो चुके फटीचर और लिजलिजे बुद्धिजीवियों को भी अब कोई नया मुद्दा खोजना होगा ......बाकी अगर बाजार ने हिन्दी और हिन्दी बिरादरी का भला किया है तोः इसका धन्यवाद देने मे क्या जाता है....

4 comments:

Anonymous said...

dada sari baat to bilkul thik kahi hai aapne magar jara mail to karo na.

Anonymous said...

dada sari baat to bilkul thik kahi hai aapne magar jara mail to karo na.

Anonymous said...

badhai,
satya hai or katu bhi.
katu unlogon ke liye so apne aap ko so called (swaymbhu budhijeevi) kahte hain.

JAi Bhadaas

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

सिंह साहब,अब आप जरा खुल कर मैदान में आ गये हैं इसी तरह से हम सब मिल कर "जागो रे...की हांक लगाएंगे। जारी रखिये इसी तरह से धारदार लेखन.....