भड़ासियों के लिए खुशखबरी। सदस्य संख्या 250 से 260 जा पहुंची। कुल दस नए साथी भड़ास से जुड़े हैं। इन सभी दसों साथियों ने अपनी तरफ से इच्छा जताई थी भड़ास से जुड़ने के लिए और इन्होंने अपने मोबाइल नंबर, पद, पता, लोकेशन भी मुहैया कराए हैं। इन सभी के सदस्य बनने पर हम सभी भड़ासी उत्साहित हैं।
इन नए साथियों से अपेक्षा है कि वे अपना कंठ खोलेंगे और खुलकर अपनी भड़ास निकालेंगे। भड़ास माने गाली देना ही नहीं बल्कि वो बातें जिन्हें आप किसी दोस्त से भी शेयर नहीं कर पाते, खुल कर विस्तार से समझाकर नहीं कह पाते, यहां कहना है, यहां उगलना है, यहां विश्लेषित करना है, यहां बुरा अच्छा गुनना बुनना है। भड़ास सांस्कृतिक भी हो सकती है, राजनीतिक भी, साहित्यिक भी, सामाजिक भी और निजी भी। ढेर सारे रंग हैं भड़ास के। हम लोगों ने अभी कुछ का ही स्वाद चखा है। बाकी की झलकियां देखी हैं या देख रहे हैं।
अब देखिए ना....भड़ास के मुख्य संरक्षक और कवि हरेप्रकाश जी जब रोज एक कविता हम सभी भड़ासियों को पढ़ाते हैं तो उसके पीछे मकसद सिर्फ एक है, वो है कि हमें अपनी सोच समझ व चेतना के दायरे को सचेत तरीके से बढ़ाते फैलाते जाना है, ना कि किसी हद किसी सीमा या किसी दीवार तक सीमित कर लेना है। भड़ास दरअसल बहुत विशाल व व्यापक अर्थों को लिए हुए शब्द है जिसका सरलीकृत अर्थ गालीगलौज या नाराजगी के रूप में लगाया जाता है। भड़ास दरअसल क्रांति का दूसरा नाम है। वो बातें जिन्हें तत्कालीन समाज या तत्कालीन समय कहने उठाने लिखने से डरता कतराता कांपता भागता है, हम सब बड़ी बेबाकी से भड़ास पर लिख कह उगल देते हैं। और ये बातें हजारों हजार पढ़े लिखे हिंदी मीडिया के साथियों व अन्य प्रबुद्धों के दिमाग में किसी हथौड़े की तरह टन्न टन्न गूंजती हैं। सोचने को मजबूर करती हैं। कायम की गई राय व सोच को बदलने को प्रेरित करती हैं। सोचने समझने की नई दृष्ठि देती हैं। और सबसे बड़ी बात, लाख टके की कि आपमें साहस व आत्मविश्वास का संचार करती हैं। आपको अकेला समझने व डिप्रेस्ड रहने की मजबूरी से मुक्त करती हैं। लगता है, अपने जैसे हजारों हजार लोग इस देश के कोने कोने में मौजूद हैं। हमारी तकलीफें एकाकी नहीं, निजी नहीं, सामूहिक हैं। हम दुखों का साझा कर सकते हैं। सोच की एका कायम कर सकते हैं। संघर्ष को सामूहिक बना सकते हैं। प्लीज हरे भाई, आप भड़ास को यूं ही समृद्ध करते रहें, बिना कहे बिना बताये इसे दिशा देते रहें।
खैर, मैं लग गया भाषण देने। आदत जो पड़ गई है। बड़बड़ बड़बड़ बोलते रहने की। उसी तरह लिखने भी लगा हूं। माफ करियेगा। आप भड़ासी साथी कितना सधे तरीके से कितना बढ़िया बढ़िया आजकल लिख पढ़ रहे हैं भड़ास पर। खासकर मैं कुछ नए साथियों की तारीफ किए बिना तो नहीं रह सकूंगा। वरूण राय और कमला भंडारी तो कमाल के हैं। ये दोनों साथी लगते ही नहीं कि नए हैं। जैसे सदियों से इनसे जान पहचान और नाता है, ऐसा महसूस हो रहा है। बाकी अपने रजनीश के झा जी, विकास परिहार, अबरार अहमद, रक्षंदा, विद्युत मौर्य, विनीत खरे, गौरव, खालिद.....ढेरों नाम हैं, कई तो मुझसे छूट रहे हैं क्योंकि मेरी भी स्मरण शक्ति की सीमा है, लगातार सक्रिय हैं और अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। और हां, अपने हृदयेंद्र ने धमाकेदार इंट्री की है। कई लोग हैं जी बीच बीच में चौका छक्का मारकर चुप्पी साध जाते हैं। पर वरूण राय, कमला भंडारी तो वीरेंद्र सहवाग की तरह लगातार ठोंके जा रहे हैं, धांय धांय ठांय ठांय.....। भई, आप लोगों में तो वाकई कलेजा है, जान है, दम है.....। सोच के वैविध्य को इसी तरह खिलाते बिखेरते रहें।
अपने दिग्गजों के बारे में कहना ही क्या....हरे भाई, डाक्टर साहब, मनीष राजा, पंडित सुभाष नीरव जी, मुनव्वर आपा, अंकित माथुर....ये सब दिखते रहते हैं तो संतोष रहता है, चलो भड़ास पर दिग्गज भड़ासियों की मौजूदगी बनी हुई है, इनकी उपस्थिति से मैं किसी चंचल बच्चे की भांति मुक्त भाव से अपनी दुनिया में तल्लीन रहता हूं, मस्त रहता हूं। सैंया भये कोतवाल तो फिर डर काहे का......।
सभी दिग्गज साथियों, पुराने साथियों और नए साथियों से अनुरोध करना चाहूंगा...प्लीज, जय यशवंत न कहा करें। यशवंत के साथ दादा भी न जोड़ा करें। इससे अनजाने में ही सही, एक मठाधीशी का निर्माण होता दिख रहा है और इसकी गंध को मैं खुद के अंदर उगता/पनपता/पलता महसूस कर रहा हूं। मैं अपने आप को इस दुनिया का सबसे बड़ा चूतिया, बकचोद, बदतमीज, बददिमाग, उद्दंडी, अराजक, देहाती, असभ्य और गंवार मानता हूं। और मैं हूं भी। मुझे बनावटीपन, सड़े हुए सिस्टम, ढपोरशंखी बातें, बाजारू एटीकेट, कथित सुसभ्यता.....बकवास व चिढ़ाने वाले लगते हैं और न चाहते हुए भी मैं इन स्थितियों में पड़े होने पर/फंसे होने पर इन सभी को चिढ़ाने की कोशिश में एकदम से रिएक्ट करते हुए दूसरे छोर पर खड़ा हो जाता हूं, हांथ में ढेला और चिक्का थामे, कि कोई चूं चां किया तो खींच के मारेंगे, भन्न से कपार पर......।
तो जो आदमी इतना अनप्लांड व अनसिस्टमेटिक व अनइथिकिल हो उसकी आप जय करके, उसको आप दादा बोलकर दरअसल और कुछ नहीं करेंगे तो कम से कम इन उपमाओं और जयजयकार के कारण उसके अंदर जाने अनजाने महानता का बोध भर देंगे और धीरे धीरे वो इस महानता के बोधे के मारे अपनी ओरिजनिलटी को खोने लगेगा। जो मैं खोना नहीं चाहता। भइया, मुझे सीधे यशवंत कह दीजिए....बस, वरना मैं खुद अपने बारे में चिल्लाकर कहूंगा....बहुत हुआ सम्मान......इसके आगे का आप खुद समझ सकते हैं क्या है....:)
डाक्टर रूपेश जी शुरू से एक बात इशारे से कहते रहे हैं, सिर्फ जय भड़ास काफी है, जय ए जय बी जय सी जय डी....का कोई मतलब नहीं। वो बिलकुल सही और उपयुक्त है। मेरे खयाल से यशवंत कहना पर्याप्त है। ज्यादा प्यार उमड़े तो यशवंत भाई कह सकते हैं, लिख सकते हैं। उससे भी ज्याद प्यार उबले (याने कि उमड़े की अगली अवस्था) तो यशवंत जी कह/लिख सकते हैं।
ध्यान रखिए, हम मठों को तोड़ रहे हैं तो कहीं अनजाने में, अवचेतन में कहीं एक नए मठ का तो निर्माण नहीं करने लगे हैं। और अगर हम ऐसा कर रहे हैं तो फिर हम हिंदी वाले भाइयों में बराबरी का रिश्ता कायम नहीं हो पाएगा। हम उसी पयलगी, जी सर जी सर, भैया जी, भइया जी, दादा, बाबा, काका.......संबोधनों के जरिए चापलूसी, मक्कारी, धूर्तता, रीढ़विहीनता, मठाधीशी, सामंती सत्ता, व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन दे रहे हैं। हालांकि कई बार हम अनजाने में ये सब कर रहे होते हैं लेकिन इससे जो मैसेज कई अबोध/निर्दोष लोगों तक जाता है वो मठ निर्माण मूर्ति स्थापना जैसा होता प्रतीत होता है। तो हम दिल में एक दूजे के प्रति सम्मान का पहाड़ बनाया करें, बकरार रखें, प्यार का समंदर बहाया करें निर्माण करें पर अपने संबोधनों को इस समंदर इस पहाड़ से न जोड़ें वरना वो कई कई दूसरे अर्थ देने लगता है।
प्लीज, मेरी भावनाओं को महसूस करने की कोशिश करें। हम भड़ासी तय कर सकते हैं कि हम एक दूसरे का ज्यादा सम्मान नहीं करेंगे, जो ज्यादा सम्मान मांगेगा उसे हम खुलकर कहेंगे...बहुत हुआ सम्मान.......:)
तो दोस्तों, दादा को गोली मारों, जय को सिर्फ भड़ास तक सीमित रखें।
श्री श्री श्री पंडित नीरव महराज (उनकी स्टाइलिश लेखनी की फैनलिस्ट में मैं भी हूं भाया...) से अनुरोध है कि वे रोजाना जरूर लिखें, हालांकि उन्होंने खुद ही लिखा है कि यहां लिखना दिनचर्या में शुमार हो गया है। नीरव जी की उपस्थिति उस किसी रेगुलर कालम की तरह है यहां जहां पाठक तुरंत जाता है, नया कुछ ताजा कुछ पाने के लिए ताकि उसे दिल से मुस्कान होठों तक आ जाए। सोच में पड़ जाए। चौंक जाएं। इतनी भूमिका मैं इसलिए बांध रहा हूं क्योंकि नीरव जी से मुझे एक काम कराना है। नीरव जी से अनुरोध है कि वो पंकज पराशर जी को ढूंढ कर लाएं। वे एकदम से गायब हैं। नीरव जी से इसलिए अनुरोध कर रहा हूं क्योंकि भड़ास से नीरव जी की भेंट कराने वाले, मुलाकात या मुकालात कराने वाले अपने पंकज पराशर जी ही हैं जो इन दिनों खुद गायब हो गए दीखते हैं।
बातें बहुत हैं, शब्द कम, समय कम, जगह कम, स्याही कम....तो हे नजदीक, दूर दराज के दोस्तों मित्रों भड़ासियों.....आप सबको मेरा ढेर सारा प्यार, आभार, सम्मान, इनाम, धन्यवाद....। अंत में अपने भड़ासी भाई डाक्टर रूपेश से अनुरोध के साथ कि उपर मैंने जो भी बात कही हैं, उसका पोस्टमार्टम करें और बताएं कि मैं कहां गलत हूं, कहां सही। उपरोक्त बातें मेरी निजी भड़ास है। आप सभी के प्रति आभार के साथ
जय भड़ास
यशवंत सिंह
12.4.08
अब कितने हो गए रे..??? जी सरदार, कुल दौ सौ साठ.......तो फिर जाओ दादा को गोली मार आओ!!!
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3 comments:
दाग सिर्फ औरों के देखने से क्या हासिल.
अपना आइना है तू खुद पे भी नज़र रखना.
कुँअर बेचैन
यशवंतजी आप दुरस्त फ़र्मा रहे हैं.यह तौफ़ीक आप में ताउम्र बरकरार रहे मैं इसकी दुआ करता हूँ.
आपका अहमदाबाद में आना मेरा परीक्षा कार्य में व्यस्त होना आपने खुद कहा था कि डॉ.रुपेशजी और अन्य साथी आपका बंबई में इंतज़ार कर रहे हैं अपने नसीब को क्या कहूँ- मैं बस के ड्राइवर से कहता रह गया कि भाइ पांच मिनिट ही रोक ले जरा जी भर के देख तो लूँ उस शख्सियत को जो रुस्वा होते हुए भी ब्लाग की दुनिया में अपनी पहिचान रखती हैं जिसकी गालियां भी दुआओं की तरह लगती हैं.
मैने आपसे ये भी कहा था कि मैं डॉ.रूपेशजी से बेहद प्रभावित हूँ वे हमारे पडोसी है कभी गरीबखाने पर करम फ़र्मायें अन्य साथियों को भी नियमित पढ़ता हूँ.
रही ढोंगियों की बात जिन्हें भाषा और विचारों की डायाबिटीज़ हैं उनका इलाज़ डॉ.रूपेशजी के पास ही होगा हमने इन चूतियो के लिए ही एक ग़ज़ल में मशवरा दिया था-
ग़ज़ल
चोर बस्ती के सरदार होगे.
साहु सारे गिरफ्तार होंगे.
चिकनी चुपड़ी जो तुम से कहेंगे,
खोखले उनके किरदार होंगे.
उंगलियाँ हम को जो कर रहे हैं,
वो अंगूठों के हकदार होंगे.
हम से मरवायेंगे आप बरसों,
तब कहीं जा के हुशियार होंगे.
बहुत पहुंचे हुए संत हैं हम,
मुफ्त में यू न दीदार होंगे.
तुम को चक्खा तो हमने ये जाना,
आप इतने मज़ेदार होगे.
डॉ.सुभाष भदौरिया अहमदाबाद.
दादा,हम तो बोले बिना रह ही नहीं सकते अगर मुंह पर पट्टी बांध दो तो पता नहीं कहां-कहां से बोलेंगे। आपने कहा पोस्टमार्टम करें तो ये प्रक्रिया तो मुर्दों के लिये है जीवंतता के लिये सर्जरी का विधान है लेकिन उसकी भी यहां जरूरत नहीं है बस कभी जब नाखून और बाल बढ़ जाएं तो सजा संवार लेना चाहिये। डा.सुभाष जी अगर कभी आप मुंबई आएं तो सेवा का मौका दें हमारी भी कुटिया पावन हो जाए....
Daman agar hai saaf to fir ehtiyat rakh, isse jara bhi dag sambhala na jayega.
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