झुम्पा लहीदी की किताब " डी अन अकस्ताम्द अर्थ "ने अपनी बिक्री के पहले ही हफ्ते मैं बिक्री के सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए लोगों मैं इस किताब के प्रति उत्साह देखा गया। मैं ये सोचने को मजबूर हो गया की क्या हिन्दी साहित्य मैं आजकल कोई ऐसी रचना नही है जो की एक बड़े वर्ग के द्वारा सराही जा रही हो, हिन्दी साहित्य मैं आजकल क्या चल रहा है, बड़े बड़े रचनाकार और साहित्य के मठाधीश क्या कर रहे हैं, मुझे लगता है की सभी आई पी एल दे मैचों मैं रचना का कोई विषय तैयार कर रहे हैं। बड़ी निराशा होती है यार जब हिन्दी की कोई कृति बाजार मैं उपलब्ध नही होती या की उचित प्रतिष्ठा प्राप्त नही कर पाती, आज समय आ गया है की उन साहित्य रचनाओं को तलाशा जाए जो की उत्तम मार्केटिंग के आभाव मैं पाठकों तक नही पहुँच सकी और आपनी प्रतिष्ठा नही प्राप्त कर सकी।
झुम्पा लहीदी के साथ मेरी सहानुभूति है और हिन्दी के लेखकों पर तरस , कृपया कुछ कीजिये
4.5.08
हिन्दी के बारे मैं भी सोचो
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6 comments:
संजीव जी ,
वैसे तो आपकी बात में दम है परन्तु आप ये पता लगाने की कोशिश करें कि इन अंगरेजी किताबों को खरीदने वालों में से कितने इसे पढते भी हैं. बच्चे की जगह कुत्ते को प्रेम्बुलेटर में घुमाने की तरह अंगरेजी किताब रखना भी आजकल स्टेटस सिम्बल हो गया है.
वरुण राय
भाई,
आपने सही लिखा मगर वरुण भाई से मैं सहमत नहीं हूँ. वाकई में हिंदी के पाठक कम हुए हैं भले ही आई आर एस हमारे हिंदी अखबारों की बढोतरी को बताये मगर पाठक कम हुए हैं, कहने का तात्पर्य है की उत्तम साहित्य के क्योँ की अगर लोग उत्तम साहित्य में रूचि दिखाते तो हिंदी का बेहतरीन मासिक कादम्बिनी पाठकों के लिए तरस ना जाता.
जय जय भडास
परन्तु मैं आपकी बात से एकदम सहमत हूँ रजनीश भाई. लेकिन मेरी समझ से स्टेटस सिम्बल वाला कारण भी इसके लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है.
वरुण राय
इस स्थिति के लिए किसी एक तत्व को पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराना मुझे उपयुक्त नहीं लगता. यह सही है कि अंग्रेज़ी पढना, बल्कि अंग्रेज़ी किताब का प्रदर्शन करना भी एक स्टेटस सिम्बल है. लेकिन जितने लोग इस कारण किताब खरीदते हैं, उससे आधे भी अगर उसे पढ लेते हैं या पढने के लिए खरीदते हैं तो भी हम हिन्दी वालों को लज्जित होना चाहिए.
हिन्दी में मुझे दो-तीन बातें नज़र आती है. पहली तो है प्रकाशक की उदासीनता. हिन्दी का बडे से बडा प्रकाशक किताब की मार्केटिंग नहीं करता. वह सरकारी खरीद में ही संतुष्ट है.
दूसरा हिन्दी मीडिया. किताब, लेखक और रचनाकर्म उसके लिए कोई अहमियत नहीं रखते.
और तीसरी बात है खुद हिन्दी का रचनाकर्म. हिन्दी में गैर ज़िम्मेदारी और बगैर तैयारी के जो लिखा-छापा-छपवाया जा रहा है वह भी पाठकों को विकर्षित करता है.
भाई, स्टेटस सिम्बोल तो है ही नहीं, नहीं होता तो अंग्रेजियत के पहनावे लोग छोर चुके होते. अब मुम्बई को ही देखो सारे अंग्रेजी अखबार, क्या बिकते हैं धड़ल्ले से मगर वास्तविकता से दूर लोग लेते हैं सु डो कु के लिए,
चलो अखबार भी खुश की नम्बर बढ़ रहा है
और लोग भी खुश नए नए सु डो कु रोज मिल रहे हैं.
भाई,हिंदी के लिये हमें सुरक्षा की मुद्रा बना कर खड़े होने की आवश्यकता नहीं है बस इतना ही कहना है कि
"कुछ तो जरूर बात है कि हस्ती नहीं मिटती
सदियॊं से रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा"
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