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8.5.08

हमरा गवही मे रहे के विचार बा - भाग दो

गुल्ली डण्टा मे राजेश मस्त पीलीयर था, तभी पता चलता की मास्टर साहब की निंद पुरी हो गई और वे जोर से पुकारते "अरे चल सन अब पढाईयो त कल जा" फिर अपने-अपने बोरे को झाडते और बैठ जाते फिर शुरु होता नागरिकशास्त्र की पढाई, पर पढाई मे मन किसका, सभी का मन तो बैधनाथ चाचा के जामुन के पेड पर लगा होता था,पता नही कैसे-कैसे टाईम पास होता फिर आता खेल की धण्टी और शुरु होता कब्ड्डी की बाजी, सारे पीलीयर अपने अपने कपडे उतार मैदान पहुच जाते देखने वालो की भी कमी नही थी कुबेर भाई सबसे आगे होते थे, लेकिन जैसे ही भौजी की आवाज सुनते की बस पार वहा से, भौजी के मुँह से गालियों की बोछार होती थी, फिर छुट्टी होती और सभी दौडते हुये घर की ओर भागते
घर पहुचने पर माँ जी थाली परोसते हुये बोलती "सुन खाना खा ल और पापा ओह पार हरीअरी लावे गईल है तु भी जा, जल्दी हो जाई" बस फिर क्या था उस पार पहुचे की दीदी लोग के आवाज और ऊ भी फरेनवा जामुन के पेड के तरफ से बडा धर्म संकट पापा के पास जाये की जामुन खाये, फिर बाद मे सोचे की चल यार पापा से दु-तीन झापड खा लेब लेकीन जामुन त जरुरे खाईब, बस फिर क्या पहुच गये जामुन के पेड के पास और फटा फट पेड के ऊपर चढ जाते बस दीदी का ईन्शट्र्क्शन शुरु- अरे जामुन के पेड अद्राह (कमजोर्)होखलई तनिक सम्भल के न त गिरबे त सब जामुन धईले रह जाई मन भर फरेनवा जामुन खाने मजा ही कुछ और था, जामुन खाने पर जीभ एक दमे काला हो जाता था फिर पकडाने का डर अलग,तो फिर हम नीमक खाते और बाँस के दतुवन के जीभा से तीन चार बार जीभा करते और ऊसके बाद कुछ खा लेते




तभी ननकी चाचा दीखाई पडते फिर क्या बात! अरे भाई ननकी चाचा के साथ भैस नहलाने का जो मौका मिलता था ऊसका कोई जोर नही वो अपने आप को गाँव मे भैस के मामले मे सुपर आदमी समझते और क्या मजाल की कोई कुछ बोल दे और ऊनका बात काट दे चाहे वो मसला खेती का हो या पंचायती का ऊनके तर्को के आगे सभी पस्त हो जाते, हम शाम को ऊनके साथ घर पहुचते और पापा जी के डाँट से बचत हो जाती थी फिर रात को एभेरेडी लालटेन या फिर दिया मे पढाई होता....

5 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

धीरज भाई,मिट्टी की सोंधी सी गंध है आपकी पोस्ट में जो अतीत में खींच ले जाती है.... सुन्दर फोटोग्राफ़्स हैं...

Anonymous said...

भाई चौरसिया जी.
कमाल है, बेहतरीन है. फोटो भी और कहानी भी, अरे भैया मेरे इसे पूरा कर ही दो जल्दी से. लग रहा है की हम आने गाव में आ गए हैं.

अबरार अहमद said...

भईया धीरज बागीचे की फोटो देखकर अपना गांव याद आ गया। बहुत बढिया। इसी तरह गांव की सैर कराते रहो। वैसे भी देश से गवंई संस्कृति खत्म होती जा रही है।

अबरार अहमद said...

भईया धीरज बागीचे की फोटो देखकर अपना गांव याद आ गया। बहुत बढिया। इसी तरह गांव की सैर कराते रहो। वैसे भी देश से गवंई संस्कृति खत्म होती जा रही है।

यशवंत सिंह yashwant singh said...

धीरज भाई, बधाई, गांव की खुशबू भड़ास पर बिखरने की खातिर। सच्चे अर्थों में अब जाकर भड़ास को सार्थकता मिली है, क्योंकि हम सबका नारा ही भदेस और देसज है। हम गंवई लोग हैं जो अपनी मिट्टी के संस्कारों के जरिए पले बढ़े हैं। ये जो शहरी घटिया संस्कृति है, हमारे पर दबाव बनाती है कि ऐसे ही घटिया बनो।

इस माहौल में आप अगर ये सब चीजें भड़ास पर डालते रहेंगे तो हम सभी को अपने अपने देस की याद आती रहेगी।

एक बार फिर दिली बधाई स्वीकारें
यशवंत