भाई यशवंत जी,
भड़ास में किन्हीं नीलोफर की पोस्ट को लेकर बड़ी चर्चाएं हैं। बड़ी अच्छी बहस करती हैं नीलोफर। मैने उनकी पोस्ट पढ़ी। नीलोफर की दिक्कत यह है कि वह जिस्म से बाहर खड़ी नहीं हो पाती। वह शुचिता की आग्रही हैं तमाम नकारों के साथ। यही है वह चीज जो उनकी परिधि तय करता है। इस परिधि से बाहर नीलोफर झांकना नहीं चाहती। इस मामले में उन्हें साहसी नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि नीलोफर जिस परिवेश में पली बढ़ी हो वहां संबोधनों के कुछ अन्य मायने भी हों लेकिन हमारे गांव में तो कोई भी चलन संबंधहीन होता ही नहीं है। कह सकते हैं-
तुम्हारे शहर में कोई मइयत को कांधा नहीं देता
हमारे गांव में छप्पर भी मिलकर उठाते हैं।।
नीलोफर की दुनिया अपने इर्द-गिर्द ही नाचती है (कम से कम उनकी पोस्ट से यही लगता है)वह इस दुनिया में किसी के प्रवेश को लेकर दुराग्रही है। एक खिड़की है अधखुली, देखने की जुगुप्सा, हवा के झोंको से कांपती। अब खिड़की वह भी अधखुली आखिर कितना फलक दिखाई देगा और कितनी रोशनी सिमेटेगी यह खिड़की। शायद एक कमरा भी रोशन न हो सके। लेकिन शरीर, शरीर तो इतना नहीं। उसे नहाना है, हर पल हर क्षण नई रोशनी से। यह काम अधखुली खिड़की से कैसे होगा। यह खिड़की भी अधखुली क्यों। खिड़की है पूरा खुल सकती है, पूरा खुलने को ही होती है खिड़की। अल्प का भी अल्प क्या। जो अल्प है दरवाजे का उससे भी कम। फिर खिड़की को भी समझना चाहिए-
हवा के हाथ खाली हो चुके हैं
यहां हर पेड़ नंगा हो चुका है।।
तो फिर नंगों के शहर में नंगेपन को अशलील कैसे कहा जा सकता है। वह तो शलील ही कहलाएगा। नंगे रहकर शालीनता का ढोंग सब कर रहे हैं। नीलोफर भी शुचिता का पैमाना लेकर इस नंगपन को नापने की दौड़ में शामिल हैं। उनकी यह कोशिश उस परिंदे की याद दिलाती है जो पेड़ के गिरने पर भी उसकी शाख से लिपटा रहता है।
अच्छी लगे तो पोस्ट कर देना। धन्यवाद
--
jadon
(भड़ास को मिली एक मेल)
13.6.08
तुम्हारे शहर में कोई मइयत को कांधा नहीं देता, हमारे गांव में छप्पर भी मिलकर उठाते हैं।।
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