यह बात लगभग अस्सी के दशक है। मानिकपुर में अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान कोल-भीलों के लिए काम करने लगा था। पाठा के गरीबों की खबर दिल्ली में बेचने वाले गया प्रसाद गोपाल (अब सिर्फ गोपाल भाई) के यहां पहुंचने लगे थे। उनमें कई बड़े और स्थापित नाम हैं। मैं भी दिल्ली की आवारगी छोड़कर घर लौट रहा था। बुंदेलखंड एक्सप्रेस की एक बोगी में गोपाल जी मिल गए। काफी देर तक चर्चा हुई। उसके बाद वह मुझे अपने साथ मानिकपुर ले गए। वहां कई लोग मिले। हजारी सिंह वहां रहते थे। और भी तमाम लोग थे। गोपाल जी के भाई संतोष से दोस्ती हो गई। दरअसल संतोष बहुत बड़े दारूबाज थे। और हम भी कम नहीं थे। सो शाम की महफिलें पीटर के होटल में सजने लगीं। शायद गोपाल जी को इसकी भनक भी थी पर वह खामोश रहे। मेरे हिस्से जो काम था। उसे मैं पूरी शिद्दत से निपटाता। वैसे काम सिर्फ नाम का था। कुछ खबरें बनानी होती थीं आदिवासियों से जुड़ी हुई और वह काम अपने लिए चुटकी बजाने जैसा था। इसके बाद रेलवे स्टेशन चले जाना। वहां के पान वालों के यहां सिगरेट फूंकते रहना।
यह सिलसिला लगभग छह महीने चला। मानिकपुर से कुछ दूर जरवा में मेरे दोस्त खालिद का फार्म हाउस था। एक दिन पता लगाते हुए खालिद आ धमके। उनके साथ बाबी भी थे। खालिद अपने साथ लाइसेंसी बंदूक भी लाए थे। वह जरवा चलने की जिद करने लगा। गोपाल जी से चर्चा हुई तो उन्होंने इस शर्त के साथ जाने दिया कि तीनों लोग परासिन जरूर जाना। हमने हां भरी और एक मिनी बस में लद लिए। जरवा के लिए। दो घंटे बाद हम जरवा पहुंचे। सड़क किनारे खालिद का माटी का घर था। वहां एक कोल रहता था। खालिद ने उसे आवाज दी। वह आया और हम लोगों के बैग कांधे में टांगकर घर ले गया। शाम हो चली थी। मन करने लगा शराबनोशी का। खालिद भांप गया। वह ओल्डमंग की पेटी लाया था। उसने खोल दी। और हम लोग शुरू हो गए। कुछ देर बाद एक मुर्गा मंगवाया गया। वह जब बनकर तैयार हुआ, रात हो चुकी थी। गरमी के दिन...। हम लोग बाहर बैठ के चट्टानों के चबूतरों पर। फिर शुरू हो गए। रात बारह बजे खा पीकर सो गए। सुबह जंगल में घुस गए। शिकार का मन हो गया। कोशिश करी और सफल हो गए। शिकार को घसीटते हुए ले आए। थोड़ी दूर में आदिवासियों का गांव था। वहां शिकार लाकर पटक दिया। वह लोग खुश हुए। ऐसा करते-करते हफ्ता-दस दिन गुजर गए।
एक दिन संतोष आ धमके राजदूत मोटरसाइकिल से। बोले भाईसाहब ने परासिन जाने के लिए कहा है। हम लोग तैयार हो गए। सबसे पहले संतोष ने मुझे और बाबी को परासिन पहुंचाया। इसके बाद खालिद भाई को लाया। रात बियावान जंगल के बीच स्थित इस गांव में गुजारी। सियारों के रोने की आवाज...चीतों के दहाड़ से पूरा जंगल थर्राता रहा। खालिद के हाथ में बंदूक थी सो डर किसी बात का नहीं लगा। वैसे भी हम लोग मचानों में सो रहे थे। यह अजीब गांव था। देश की तरक्की से दूर। यह गांव तब तक देश-दुनिया के नक्शे में नहीं था। यहां डाकू खुले आम विचरण करते थे। ददुआ के गिरोह की यह मुफीद जगह मानी जाती रही है। यह इतने दुर्गम इलाके में था कि पुलिस यहां जाने से के नाम से कांपती थी। हद दरजे की ऊंचाई में है यह गांव। इसकी जंगल की सीमाएं मध्यप्रदेश के सतना और रीवा जिले को जोड़ती हैं। दस-ग्यारह आदिवासी परिवार यहां रहते थे। सब की कुल जमा आबादी पैंसठ थी। यहां की सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि इन लोगों को रिश्ते नहीं मालूम थे। लोग आदम सभ्यता में जी रहे थे। इनकी कमसिन बालाओं की गोद तेंदूपत्ता ठेकेदारों के लोगों की जिस्मानी भूख शांत कर कब हरी हो जाती थीं किसी को पता नहीं चलता था। इस इलाके में श्याम बीड़ी बहुत फेमस है। आजकल इसके मालिक माननीय हैं। इनका पुश्तैनी घर मानिकपुर में ही है। इस गांव की एक और पीड़ा देखिए। इन लोगों को पानी लेने के लिए गगरी और मटकी के साथ तीन किलोमीटर नीचे उतरना पड़ता था। पूरा रास्ता पथरीला। जंगली। रास्ते में जंगली जानवरों का खतरा। गोपाल जी की कोशिश थी कि परासिन में कुआं बनवाया जाए। और हम चारों को उसी मकसद से वहां भेजा गया था। हम चारों के लिए आटा, दाल, आलू, प्याज, नमक, मिर्च और सरसों का तेल भी गोपाल जी ने दूसरे दिन भिजवाया था। वह तीन दिन में खत्म हो गया। हम लोगों ने पूरे गांव को खिला दिया। संतोष को मानिकपुर भेजा गया। शाम को वह लौटा तो उसके साथ खाने-पीने की सामग्री के साथ एरोस्टेकेट की चार बोतलें थीं। हम लोगों ने छक कर पी और रात को टिक्कर और भुने हुए आलू से भूख शांत की। फिर कुएं के लिए काम शुरू हुआ। खुदाई मशीन मंगवाई गई। हम लोग करीब एक माह वहां रहे। कमबख्त पानी नहीं निकला। जहां-जहां खुदाई कराई, वहां अस्सी-नब्बे फीट बाद चट्टान आ जाती और हम सबके हाथ पैर फूल जाते। थक हार कर हम लोग परासिन वालों को प्यासा छोड़कर लौट आए। बाद में बांदा के कलक्टर से इस सिलसिले में मुलाकात की। वह काफी बागी किस्म के थे। बांदा में पहली पोस्टिंग थी उनकी। उन्होंने परासिन के लिए काफी कुछ किया पर कुआं नहीं बन सका। और वह आईएएस की पहली और आखिरी नौकरी छोड़कर मिजोरम चले गए। वहां कुआं बना कि नहीं, मुझे नहीं मालूम। न ही मैं गोपालजी से कभी पूछ सका। हालांकि उनसे कई बार मुलाकात हुई दो-दोचार साल के अंतराल में। मेरी ख्वाहिश है कि एकबार परासिन जरूर जाऊं। देखूं परासिन की प्यास मिटी है कि नहीं।
22.8.08
परासिन की प्यास
Labels: पाठा के जंगल
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1 comment:
मुकुंद भाई,मुझे लगता है कि अब तक शायद ददुआ या ठोकिया ने तो कुंआ बनवा ही दिया होगा अगर ये अपने जीते जी न बनवा पाए होंगे तो आजकल तो दो महिलाएं इस क्षेत्र में (डाकू) हाथ आजमा कर कैरियर बनाने का प्रयास कर रही हैं ये राजनीति में आने से पहले कुंआ बनवा ही देंगी नहीं तो आश्वासन तो दे ही देंगी।
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