आज यूँ ही भड़ास पर Blogs देखते हुए नज़र जा कर ठहरी अतुल जी के ब्लॉग पर जिसका शीर्षक था "पुराना राजदीप कहीं खो गया"। और सहसा ही ज़हन कुलांचें मारता हुआ जा पहुँचा उन दिनों में जब हम अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता कर रहे थे। कुछ अलग सी ही बात थी तब। हमको लगता था की वर्तमान में तो बस पत्रकारिता ही है जो पूरे आदर्शों के साथ सत्य और समाज के लिए खड़ा होता है। पत्रकारिता के अलावा हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार व बेईमानी की बू आती थी।
हमको लगा हम इसी क्षेत्र में पूरी लगन व मेहनत से काम करेंगे और "PRESS" की सहायता से जितना मुमकिन होगा बदलाव लायेंगे। हमारे डिपार्टमेन्ट के बाहर एक बड़ा सा छायादार वृक्ष हुआ करता था। हम उसे "बोधी ट्री" कहा करते थे। न जाने कितनी ही बहसों को हमने यहाँ शुरू किया जो कभी अपने अंजाम तक नहीं पहुँच पायीं। उस जगह को हम कभी नहीं भूल सकते जहाँ हमने राजदीप सारदेसाई, बरखा दत्त, प्रणॉय रॉय सरीखे पत्रकारों को अपना आदर्श बनाया।
अपने सपनों को संजोये और अपने आदर्शों के साथ हम सभी ख़बरों की नगरी में अलग-अलग संस्थानों के लिए काम करने लगे। और आज चार साल बाद जब मुड़कर अपने अनुभवों को देखते हैं तो कहीं न कहीं एक असंतुष्टि सी मन को विचलित कर देती है। जिन बातों का उल्लेख यहाँ होने जा रहा है वो हम में से लगभग सभी के लिए नई नहीं हैं, परन्तु हाँ हम सभी इन बातों के इतने आदी हो चुके हैं कि इनका होना न होना हमको प्रभावित ही नहीं करता।
दिल्ली आने के बाद हमने देखा कि किस तरह ख़बरों कि दुनिया में ख़बरों के मायने बदलते चले गए। देश व राजनीति कि उथल-पुथल से परे भी ख़बरों का एक नया रूप उभर कर आने लगा। यहाँ sting operations थे, glamour था, विवादों में घिरे celebrities थे और थी इन कथित ख़बरों को "सबसे पहले" जन साधारण तक पहुंचाने की होड़।
२४ घंटे न्यूज़ परोसने कि अंधी दौड़ में न जाने कब हम सभी शामिल होते चले गए - और बेतहाशा दौड़ने लगे। शनैःशनैः पीछे छूटने लगे पत्रकारिता के आदर्श - हम लोगों के घरों में घुसने लगे, पीछे रह गए वो ख़यालात जिनके ज़रिये हम समाज को कुछ देना चाहते थे - हम Aish-Abhi कि शादी में ही गुम हों कर रह गए यह भूलकर कि देश में और भी बहुत कुछ घट रहा होगा, हम शान्ति और सभ्यता से अपनी बात को कहना छोड़ कर तेज़ आवाज़ में चीख-चीखकर लोगों को नींद से जगाने लगे - फिर चाहें कई बार हम सोते रह गए हों जब किसी ज़रूरतमंद को इन्साफ न मिल पाया हो।
अब अगर कोई यह कहे कि मीडिया ने न जाने कितने लोगों को इन्साफ दिलाया है, तो यह कहना ग़लत नहीं है, पर हाँ यहाँ हम यह भी तो नहीं कह सकते कि बस अब हमारे दायित्व ख़त्म आगे अब कुछ वक्त तक समाज सेवा से छुट्टी। अगर हमने किसी कि मदद कि तो यह हमारा फ़र्ज़ था, हमको चाहिए कि हम और लोगों कि मदद करें। यह बातें बेहद सिद्धांतवादी प्रतीत होती हैं, पर हमने जो रास्ता चुना है वो सिद्धांतों का ही तो है, तो इसमें नया क्या है।
पर हमारे तो सिद्धांत ही बदल गए हैं। हमारे लिए राखी सावंत-मिका का निजी जीवन अहम् हो चला है, बॉलीवुड अदाकारा कश्मीर शाह के पैर में मोच आना इतनी बड़ी कहबर हो चली है कि हम उस पर घंटों तक लाइव दिखा सकते हैं। उसी प्रकार करिश्मा और ऐश्वर्या के शादी के जोड़े पर हम पूरे दिन ख़बर दिखा सकने का माद्दा रखते हैं। Reality shows के gossip, सास-बहू के टीवी shows, काला जादू और भटकती आत्माएं हमको TRP देती हैं। चैनल्स पर ज्यादा से ज्यादा वक्त हमारे गजोधर भैय्या के लिए रिज़र्व रहते हैं। अब या तो देश में कुछ हो ही नहीं रहा और देश सुप्तावस्था में चला गया है, या फिर मीडिया नींद से नहीं जाग रहा है।
हर न्यूज़ चैनल एक निश्चित राजनैतिक पार्टी से प्रभावित दीखता है। कहीं तो आप किसी पार्टी के ख़िलाफ़ लिख नहीं सकते, तो कहीं पर आप किसी अन्य नेता के समर्थन में कुछ बोल नहीं सकते - फिर चाहें आपके पास आपके कितने ही निजी अनुभव हों, कितनी ही आप-बीतियाँ हों। आपके संस्थान से ऊपर तो कुछ भी नहीं है ना? अंत में आपको अपना मन मारकर पत्रकारिता को दरकिनार कर एक वफादार कर्मचारी बनना ही पड़ता है और संस्थान के आदर्श पत्रकारिता के आदर्शों पर हावी हो कर विजयी हो जाते हैं। यही आदर्श रूप है आज के मीडिया का।
चंद ऐसे ही आदर्शों का ज़िक्र था अतुल जी के ब्लॉग में। सच ही तो है, मीडिया स्वयं ही अपनी परिभाषाएं और अपनी सीमाएं अपनी सहूलियत के मुताबिक़ सुनिश्चित करता है। समाज का दर्पण होने का दावा करने वाला मीडिया क्यूँ नहीं वो दिखता जो हो रहा है - सच तो सच, झूठ तो झूठ? एक चोरी दिखायें, और दूसरी चोरी को कह दें कि समाज में ग़लत असर जायेगा तो यह तो hypocrisy ही हुई न? आप जैसे हो वैसे हमेशा, हर जगह रहो तो लोग आपको आदर्श मानते हैं, अन्यथा वही आप पर हँसते हैं। और मीडिया पर यदि सवालिया निशान लगने लगें और लोग हम पर हंसने लगें, तो ये मीडिया के भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं।
आरुषि के क़त्ल में मीडिया की भूमिका हमारे लिए शर्मनाक साबित हुई। फिर हम किसे जगाने की बात करते हैं। हम समाजसे कहाँ अलग हैं और उसे कैसे सुधारेंगे? हम में से कौन इस बात से अनजान है कि मीडिया में नौकरी पाने के लिए जुगाड़ का कितना अहम् किरदार होता है? हर वर्ष न जाने कितने ही बच्चे पत्रकारिता में डिग्री और डिप्लोमा हासिल कर मैदान में कुछ कर दिखाने का जज़्बा लिए उतरते हैं, और अंततः उनमें से कई लोग काबिल होते हुए भी अपने लिए जगह नहीं बना पाते हैं। वो कभी अपनी किस्मत को कोसते हैं तो कभी अपने आपको।
मीडिया कि नियुक्तियां भी अब काफ़ी हद तक contacts पर होने लगी हैं। ऐसा हरगिज़ नहीं है कि Vacancies नहीं होतीं - Vacancies होतीं हैं और भरती भी हैं, पर आते वो हैं जिन्हें हम चाहते हैं।
अपने दिल पर हाथ रखकर हम में से कई इस बात से सहमत होंगे कि हमारे संस्थानों में एक अच्छा खासा तब्का जुगाड़ से आता है। जिसके चलते कई बार ऐसी परिस्थितियाँ भी आती हैं जब हम अपने से काबलियत और अनुभव में कहीं पीछे किसी व्यक्ति को इंटरव्यू देने जाते हैं और वो हमको रिजेक्ट भी कर देता है। या फिर ऐसा ही कोई व्यक्ति होता है जिसे हम रिपोर्ट करते हैं। कई बार हमारे नीचे भी कोई काबिल बन्दा होता है जो हमसे संकुचाते हुए अपनी बात कहता है और हम उसे कुछ भी नहीं समझते।
यहाँ गौरतलब बात यह है कि यह परिस्थितियाँ विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पायी जाती हैं। प्रिंट में तो आप कि सफलता का पैमाना ही आपकी काबलियत होती है। आपके अनुभव और आपकी ख़बर को समझने की सलाहियत ही आपको एक सीनियर जर्नलिस्ट का खिताब देती है। पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में उम्र, तजुर्बा और काबलियत आपकी तरक्की में बाधा नहीं बन सकते। किसी अच्छे चैनल में जाने के लिए रिसेप्शन पर resume देना सिर्फ़ उनके जाडों के लिए अलाव का प्रबंध करने के समान रह गया है। एक अच्छा जुगाड़, चंद e-mails, कुछ फ़ोन काल्स और फिर कुछ follow-ups आपको एक अच्छी नौकरी तो दिलवा ही सकते हैं। जुगाड़ अच्छा है, और ऊँट आपकी करवट बैठा तो अच्छा पैकेज भी मिल ही जायेगा।
अब ऐसे माहौल में नए बच्चे कैसे अपना भविष्य बनायेंगे? अमिटी और Apeejay को तो कैम्पस प्लेसमेंट मिल ही जायेगा, चैनल्स के अपने institutes के बच्चे भी कुछ कर ही गुजरेंगे? पर उनका क्या जो गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों से निकल कर इस विरासत को पूरी इमानदारी व दृढ़ निश्चय के साथ संभालना चाहते हैं?
समाज के आदर्शों की चिंता करनी है तो अपने आदर्श तो सुनिश्चित करने ही पड़ेंगे। ऐसे में अत्यन्त आवश्यक है की वरिष्ठ पत्रकारों का ऐसा संगठन हो जो हमारे ऊपर लगाम रख सकें। मीडिया के भी कुछ कानून हों, कुछ कायदे हों - जो हमको हमारी सीमाएं बताएं और हमारे आदर्शों को धूल-धूसरित होने से बचाए। क्या हम आने खोते हुए वर्चस्व को बचा सकेंगे?
7.8.08
मीडिया के आदर्शों की बदलती परिभाषाएं
Labels: मीडिया के आदर्श
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3 comments:
पल्लवी जी,हम समेकित रूप से किसी संस्था में यदि बदलाव नहीं ला पा रहे हैं तो कम से कम हमे तो अपने आदर्शों पर डटे रहना चाहिये वरना तो बाजार ने ही पत्रकारिता क्या हर बात की दिशा और दशा को अपने हिसाब से मोड़ रखा है। यही संघर्ष जो कि बाजार मेरे आदर्शों को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर अनुकूल करना चाहता है और मैं डटा अपनी जगह,मेरे लिये जिजीविषा बन गया है;मैं जिन्दा हूं और सदा रहूंगा....पत्रकारों के संगठन की बात मत करियेगा वरना नई मुसीबत पाल लेंगी।
जय जय भड़ास
आत्मा को झकझोरने वाला लेख है आपका। लेिकन आत्मा हो तो कुछ झोटा खाए। बहुत बधाई
डॉ. भानु प्रताप सिंह
पल्लवी जी,
आपके विचार और आपका अनुभव कमोबेश पत्रकारिता के सभी जन का है, वैसे आपने कहा कि अखबारों में वरिष्ठ का खिताब के लिए..........सो आपको बताता चलूँ दोनों जगह मुकाम के लिए एक ही पैमाना है. वैसे भी डॉक्टर रुपेश जी ने सही कहा आप अपने विचारों को जिंदा रखें, मर नही जायेंगे क्यूंकि विचारों में जिजीविषा होती है, और पत्रकारिता करने आए लोगों ने नाही बल्की इसके दलाल ने अपने लाला के फायदे के लिए इसको गिरवी रख छोरा है, अब आशा और उम्मीद तो नयी पौध से ही है.
जय जय भड़ास
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