30.9.08
क्यूँ बदल रहा है बचपन ?
ऐसी नौकरी का क्या फायदा जिसमें अपनों को कन्धा देना भी नसीब न हो
अध्यक्ष जी की कुंवारी कॉल
ईद एवं नवरात्री की हार्दिक शुभकामनायें
आ गइल 'महतारी'
ब्लाग-http://www.mahtari.blogspot.com/
Email- mantosh11@gmail.com
पहिला रचना पेश बा-------
कइसे रहबअ, तोर बिन संघतिया
मंतोष सिंह
जात रहनी बहरा, रुआंसु भइल अंखिया
कइसे रहबअ, तोर बिन संघतिया।।
माई छुटली, बाप अउरी घरवा दुअरिया
जिनगी अंहार भइल, गइल अंजोरिया
जिया में डसेला, परदेस वाली रतिया
कइसे रहबअ, तोर बिन संघतिया।।
गंउवा के खेतवा में, बइठे ना कोयलिया
सरसो ना जौ, गेंहू, लौउके ना बलिया
चारू ओर पसरल बा, दिन में अंहरिया
कइसे रहबअ, तोर बिन संघतिया।।
शादी-बियाह में लौउके नाहीं डोली
छठ, जिऊतिया, तीज होखे नाहीं होली
फुरसत ना बा इंहा, बाटे ना बटोहिया
कइसे रहबअ, तोर बिन संघतिया।।
मन नाहीं लागताअ, लिखतानी पतिया
हमके भेजा दअ यार, गंवई से गडिय़ा
अब ना सहाताअ, परदेस में दरदिया
कइसे रहबअ, तोर बिन संघतिया।।
कुपोषण बनी देशव्यापी समस्या
जय माता दी
- हृदेश अग्रवालनवरात्री की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएंमातारानी सभी आतंकवादियों को सद्बुद्धि देईद की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं
ब्लाग पर एक और पत्रकार
ख़राब होती व्यंगात्मक भाषा
रबिन्द्र नाथ टेगोर ने भी कहा है की "अंध" नामक शब्द से दूर रहो इससे दूर रहो "मै सहीं हूँ और मैं ही सहीं हूँ "
धर्मनिरपेक्षता या भ्रम
चर्च पर हमले
रास्ट्रीय शर्म,
संसद और मन्दिर
पर हमले उनका धर्म,
ये धर्मनिरपेक्षता है
या राजनीतिक भ्रम।
-----गोविन्द गोयल
29.9.08
कौन सफल है आतंकवाद या राजनीति?
कुछ भी हो पर नेताओं ने अपने-अपने स्तर पर अपनी जानकारी देनी शुरू कर दी. किसी को लग रहा था कि पकिस्तान का हाथ है, कोई कह रहा था कि सिमी अपना जाल फैला रहा है किसी का कहना था कि इस संगठन पर प्रतिबन्ध सही है तो कोई कह रहा था कि यदि सिमी पर प्रतिबन्ध है तो बजरंग दल पर भी प्रतिबन्ध होना चाहिए. जितने मुंह उतनी बातें, अब सबका ध्यान इस तरफ़ था कि किस दल पर क्यों और किस तरह का प्रतिबन्ध लगे? अब जांच बंद हो गई, सुरक्षा का बंदोबस्त ढीला कर दिया गया. बस आतंकियों को मौका मिला और फ़िर धमाका.............
अब फ़िर शुरू हुई जांच, बयानवाजी, प्रतिबन्ध की बातें बगैरह-बगैरह........... इन सबके बीच कभी मन में आता है कि कौन सफल रहा "आतंकी" जो धमाके करके दहशत फैला रहे हैं या फ़िर "राजनेता" जो इसी दहशत का लाभ उठा कर भेदभाव को और हवा दे रहे हैं?
सुरक्षा व्यवस्था तो सफल है ही नहीं पर सोचना होगा कि कौन सफल है आतंकवाद या राजनीति?
कत्ल कर दिया गया...
मंदिर की चौखट पर...
2
अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
फिर न दहले दिल्ली
- हृदेश अग्रवाल
इस पर एक शेर अर्ज है कि:
एक घायल ...संदिग्ध आतंकवादी हो सकता है
एक घायल ...संदिग्ध आतंकवादी हो सकता है , जिसके पास से पुलिस को ३ पासपोर्ट , सिमकार्ड, व ५०० रु. के नोटों की गड्डी वाला थैला मिला है ...
मेरा प्रश्न है कि यदि वह आतंकवादी ही है तो क्या उसे भी घायलों को दी जाने वाली सहायता मिले ?
क्या आत्मघाती आतंकवादी के परिवारजनों को भी मृतकों के परिवारों को दी जाने वाली मदद दी जानी चाहिये ?
जमिअत उलेमा-ए-हिन्द की सेयासी सोदेबाज़ी
जामिया नगर में हुई तथाकथित मुठभेड़ के बाद सैंकड़ो लोगों और कई मुस्लिम संगठनों के चीफ़ से बाते करने का मौक़ा मिला.मेरी बातचीत में एक बात खुल कर सामने आई वो ये कि अब हाथ पर हाथ रखकर बैठने का समय नहीं है.
लेकिन काफ़ी अचरज उस वक्त हुआ जब इस सिलसिले में मेरी बात हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी मुस्लिम संगठन होने का दावा करने जमिअत उलेमा-ए-हिन्द के कार्यकारी महासचिव मौलाना अब्दुल हमीद नुमानी से हुई.
उनके कहने का लुबे लुबाब ये था कि पुलिस के अत्याचार के ख़िलाफ़ ज़्यादा हो होहल्ला करने की आवाश्यता नहीं है. उनका तर्क था कि हमने राजनैतिक डील के बाद गुजरात में उन सैंकड़ो लोगों को रिहाई दिलवाई है जो गोधरा कांड में अभियुक्त थे.
दिलचसप बात ये है कि जब उनसे पुछा गया कि मुठभेड़ जैसे मामलो पर क़ानुनी लड़ाई लड़ने की ज़रूरत है तो उनका कहना था कि ऐसी चीज़ों को ख़ामोशी के साथ लड़ने की आवशयकता है. उन्होने कहा कि जो लोग ज़्यादा चिल्ला रहे हैं दरअसल काम कुछ नहीं कर रहे हैं.
जिनको थोड़ी सेयासी समझ है और जो लोग जमियत के इतिहान को थोड़ा बहुत जानते हैं उन्हे मौलेना नुमानी के बातों से अंदाज़ा लग गया होगा के असल में मनुमानी साहब कहना क्या चाहते हैं.
याद दिला दू के जब 2004 में लोकसभा चुनाव होने वाले थे तो तब भी मई 2003 में जमिअत नें एक अधिवेशन बुलाया था और एक मुस्लिम सेयासी जमाअत बनाने की बात कही गई थी. जानकारों की राय में दरअसर वो अधिवेशन एक सेयासी सौदे बाज़ी थी.
2009 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं तो अप्रैल 2008 में देवन्द में भी आतंकवाद विरोधी कंवेनशन हुआ. मीडिया ने तारिफ़ की लेकिन पसे परदा उसका भी मक़सद सेयासी था जिसपर कोई सवाल नहीं उठाया ये अलग बात है.
आज की बात का जो सार था वो ये कि सेयासी सौदेबाज़ी ही मामले का हल है. मुझे ऐसा लगता है कि जामिया मुठभेड़ भी जमिअत के लिए एक अचछा मौक़ा है और अब वो इस मामले को सेयासी सौदेबाज़ी में बदलेंगे. और मेरी राय में कांग्रेस से अच्छी डील हो सकती है. ऐसे ही क़ौम की रहनुमीइ करते रहें.
राज चले हिन्दी की और
- हृदेश अग्रवाल
महाराष्ट्र में मनसे प्रमुख राज ठाकरे मराठी भाषा की वकालात करते थे और उत्तर भारतीयों का अपमान अब कहां गया? मराठियों का सम्मान करने वाली मनसे पार्टी के एक कार्यकर्ता ने कोर्ट के बाहर हिन्दी भाषा में बोर्ड लगाया और मराठी छोड़ हिन्दी को अपनाया। जिसमें दिखाया गया है कि आतंकवाद के खिलाफ मनसे प्रमुख राज वकीलों से कह रहे हैं कि हमें गर्व है कि हम इस देष के नागरिक हैं और हमें आतंकवाद के खिलाफ एक जुट होकर लड़ना चाहिए, तो राज ठाकरे जी क्या आपकी पार्टी एक आतंकवादी पार्टी से कम है? जो खुलेआम मुंबई में उत्तर भारतीयों पर अपना मोर्चा खोले हुए है। क्या आप नहीं मानते कि आपके इस रवैये से लोगों का मुंबई शहर में घूमना मुष्किल हो गया है? उत्तर भारतीय शहर में घूमने से पहले कई बार सोचते हैं कि कहीं हमें मनसे कार्यकर्ताओं की मार न खाना पड़े। इस पर यही कहूंगा कि मराठी व गैर मराठी के मसले को भूल आप यह क्यों नहीं सोचते कि हम सब इस प्यारे भारत देष के नागरिक हैं जहां पर सभी भाषा-भाषियों व समाज के लोगों का अधिकार है। अगर आप भी यही सोचें कि महाराष्ट्र पर सिर्फ मराठों का ही अधिकार नहीं बल्कि समूचे देषवासियों का अधिकार है तो फिर देखिए यह आतंकवाद एक चुटकी में खत्म हो जाएगा। आतंकवादी संगठन या आतंकवादी भारत की तरफ निगाह उठाने की जुर्रत तक नहीं करेगा। आतंकवाद ने अगर भारत पर आंख उठाई तो समूचे भारतीय लोग आतंकवादियों का वही हश्र करेंगे जो आजादी के समय अंग्रेजों का हुआ था, क्योंकि भारत एक परिवार है और इसमें रहने वाला हर नागरिक इस परिवार का सदस्य है। झगड़े तो हर घर में होते हैं लेकिन झगड़कर आपस में लड़ते नहीं, बल्कि एक जुट होकर ही रहते है। अगर हम भाषावाद या जातिवाद के विवादों को भूल जाएं और सिर्फ यही याद रखें कि हम सब पहले हिन्दुस्तानी हैं, और कोई नहीं। तो फिर देखो पाकिस्तान भी हमसे आंख मिलाने में
इस पर एक शेर अर्ज है कि :
समझ ले बेटा पाकिस्तान
बाप है तेरा हिन्दुस्तान
मत डर हिन्दुस्तान, क्या करेगा पाकिस्तान
मनोज कुमार राठौर
मत डर हिन्दुस्तान
क्या करेगा पाकिस्तान
हमें पता आतंकवादी कौन
जब भी क्यों हम रहते मौन
मासूमो की जान है जाती
सरकार तो बस नोट दिखाती
लगता नेताओं की है सांठ-गांठ
इसलिए सुनती है उनकी बात
पोटा कानून लागू नहीं करती
क्यों नये कानून की माला जपती
चुनौती देकर करते हमले
फिर भी हम नहीं होते चोकन्ना
आख़िर क्यों नहीं लेतें बदला
कब तक सहगें हम यह हमला
जब किया है परमाणु करार
तो इस पर भी करो विचार
अब तो करना होगा युद्ध
तभी होगें हम सब मुक्त
कब तक करे हम समझोता
बह देते हर समय धोखा
सभी एक ही थाली में हैं खाते
इसलिए घर के भेदी लंका ढाते
अब समझोते की नहीं
समझाने की बारी है
चंद मिनटों में करो यह काम
भारत मां का लेकर नाम
नारायण जैन को क्षमा करो नारायण
रविवार 28 सितंबर को कोलकाता में हिन्दी दैनिक सन्मार्ग के संपादक राम अवतार की श्रद्धांजलि सभा में विविध क्षेत्रों से आए प्रतिनिधियों ने श्रद्धांजलि अर्पित की। इनमेंं पत्रकारिता, उद्योग, राजनीति के साथ साथ शहर की सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधि भारी संख्या में थे। सभा की अध्यक्षता समाज के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रामनिरंजन झुनझुनवाला कर रहे थे। सभा कक्ष में हिन्दी जगत के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार डा. कृष्ण बिहारी मिश्र, वरिष्ठ साहित्यानुरागी श्री जुगल किशोर जैथलिया, डा. प्रेम शंकर त्रिपाठी सरीखे चन्द लोग भी थे। इनकी उपस्थिति दिवंगत सम्पादक की श्रद्धांजलि सभा को गरिमापूर्ण बना रही थी। राजनीति से जुड़े अधिकतर लोगों की श्रद्धांजलि गुप्ताजी के चित्र पर मालाएं अर्पित करने तक सीमित रहीं, जबकि शब्द-शक्ति के इन चन्द उपासकों से लोग गुप्ताजी के सम्बन्ध में कुछ सुनने को लालायित थे। अन्य लोगों के पास गुप्ताजी के बारे में कहने के लिए भावना कम, औपचारिकता अधिक दिखाई दे रही थी।
श्रद्धांजलि सभा का सबसे त्रासद अवसर तब आया, जब श्रद्धेय डा. कृष्ण बिहारी मिश्र अपना सारगर्भित वक्तव्य रख रहे थे। उनकी वाक-शैली और शब्दों के चयन का पूरा देश कायल है। डा. मिश्र ने गुप्ताजी के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त करने में बमुश्किल दो-तीन मिनट लगाए होंगे कि तभी आयोजकों में से नारायण जैन उठे और डा. मिश्र को अपना वक्तव्य समाप्त करने जैसा संकेत दे डाला। सभा कक्ष में बैठे सुधी श्रोताओं के लिए यह वज्रपात से कम न था। डा. मिश्र सरीखे विनम्र साहित्यकार ने सदाशयता का परिचय देते हुए अपना वक्तव्य वहीं समाप्त कर दिया। पर नारायण जैन की यह धृष्ठता लोगों को रास नहीं आई। भाषा-साहित्य के इस महान उपासक के जीवन में भी शायद यह पहला अवसर रहा होगा, जब माईक पर बोलते समय किसी ने उन्हें बीच में टोकने की गुस्ताखी की हो। डा. मिश्र की विद्वता से वास्ता रखने वाले बखूबी जानते हैं कि हिन्दी पत्रकारिता की जन्मभूमि के इस वयोवृद्ध कलमकार को सुनने लोग लालायित रहते हैं। सहज आकर्षित कर लेने वाली आवाज और विनम्र एवं ओजपूर्ण वाकशैली के इस धनी के साथ हुई घटना पर मुझ जैसे कई लोगों के मन में टीस पहुंची। पर धृष्ठता का मुकाबला करने की बजाए लोगों ने स्तब्ध भाव से इस घटना पर मौन रखा। पर नारायण जैन, जिनका एक राजनैतिक पार्टी से भी वास्ता है, ऐसा करना हिन्दी जगत के मनीषी के साथ अपमानपूर्ण एवं निन्दनीय घटना है, इसे शायद ही कोई भुला पाएगा। डा. मिश्र ने मृदु मुस्कान के साथ सिर्फ इतना कहा-भावनाओं को समय-सीमा में नहीं बांधा जाना चाहिए। नारायण जैन ने समूचे हिन्दी जगत को शर्मसार किया है।
जवाब नेता देंगें
बम ब्लास्ट के बारे में
पुलिस से
मत मांगों कोई जवाब,
आतंकवादियों के
प्रवक्ता तो
हमारे नेता हैं जनाब।
-----गोविन्द गोयल
28.9.08
मेरा दर्द
शालीनता भी हो तो सोने पर सुहागा
पल्लवी अग्रवाल के ध्यानार्थ
अज्ञात ठिकाने से किन्हीं पल्लवी अग्रवाल ने स्व.रामअवतार गुप्ता पर लिखे मेरे पोस्ट पर अपनी जोरदार प्रतिक्रिया व्यक्त की है। यह पोस्ट मीडिया जगत के सर्वाधिक लोकप्रिय ब्लॉग भड़ास.कॉम ने भी प्रकाशित किया था। मैं पल्लवी अग्रवाल से परिचित नहीं हू, फिर भी इस सम्बन्ध में सुधी पाठकों के बीच दो-तीन बातें जोडऩा जरूरी समझता हूं।
स्व.रामअवतार गुप्ता के बारे में उन्होंने जो विचार व्यक्त किए हैं, बेशक उनके हैं और मेरे पास उसका विरोध करने का कोई तार्किक औचित्य भी नहीं है। पर उनका यह लिखना कि श्रद्धांजलि की आड़ में चापलूसी एवं ....(एक नया शब्द उन्होंने ईजाद किया है, जिसका अर्थ मेरी समझ से बाहर है) करना ठीक नहीं है। गुप्ताजी को उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता का शोषक और ताबूत में आखिरी कील ठोकने वाला आदि कहा है। मरणोपरान्त सम्मानित पेशे से जुड़े किसी सज्जन के प्रति ऐसी टिप्पणी से मेरी तरह औरों की आंखें भी पहली बार ही दो-चार हुई होंगी।
पल्लवी जी से कहना चाहूंगा कि मैंने सन्मार्ग में स्तंभ भी लिखा है और फ्रीलांसर के रूप में काफी समय तक मेरी रिपोर्टें भी छपीं हैं। यह 1987-91 के दौर की बात है। सन्मार्ग मुझे अवसर दे, इसके लिए मैंने कभी गुप्ताजी की न तो चिरौरी की, न चमचागिरि। सन्मार्ग में मैंने कभी काम नहीं किया जबकि फाकाकशी उन दिनों मुझ पर भारी पड़ रही थी। यदि चमचागिरि पर ही पत्रकारिता करनी होती तो 1989 में मैं कोलकाता से पत्रकारिता करने का सपना लेकर भोपाल नहीं जाता। वहां श्री स्वामी त्रिवेदी के स्वामित्व वाले मध्य भारत के लिए बाकायदा लिखित परीक्षा देकर उत्तीर्ण नहीं हुआ होता और रविवार जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक एवं आज तक के संस्थापक संपादक स्व. एस. पी.सिंह एवं टाइम्स ऑफ इंडिया के डा. अजय कुमार ने तुंरत ज्वाइन करने का ऑफर नहीं दिया होता। संडे मेल के कोलकाता संस्करण में 1990 में श्री उदय सिन्हा ने मेरा चयन नहीं किया होता।
यह अलग बात है कि 1991 में जनसत्ता ज्वाइन कर लेने के बाद गुप्ताजी ने कई अवसरों पर सन्मार्ग ज्वाइन करने का प्रस्ताव रखा था। मुझे नहीं समझ पड़ता कि आखिर मैंने किन अर्थों में गुप्ताजी की चापलूसी की? और आज उनके नहीं रहने पर चापलूसी करके मैं क्या हासिल कर लूंगा?
पल्वीजी, मैं आपकी बातों से आहत महसूस कर रहा हूं। मेरे 26 वर्ष के पत्रकारिता के कैरियर में किसी की चापलूसी लेने जैसी कोई घटना हुई हो तो अवश्य सार्वजनिक करें। मेरी भी तो आंख खुले। और हां, हिन्दी पत्रकारिता के ताबूत में कील ठोकने का मैंने जो काम किया है, कृपया उसकी भी पड़ताल करें। लोगों को बताएं।
हां, यह सही है कि और शहरों की तरह कलकत्ता में धनपशुओं की कमी नहीं है और मौके-बेमौके उन्हैं दूहने का काम जैसा दूसरी जगह होता है, यहां भी होता रहता है। पर मेरी जानिब से यदि किसी धनपशु के दोहन की कोई घटना हुई हो तो कृपया जरूर बतावें। आभारी रहूंगा।
राष्ट्रीय महानगर अपने पाठकों के बल पर 8 वर्षों से निकल रहा है। हजारों पाठकों को अपना साथी इसने बनाया है तो इसके पीछे अखबार के तेवर हैं। अगर धनपशुओं की तरह पैसे की हवस होती तो इस अखबार ने कब का डीएवीपी करा लिया होता।
स्वाभिमानी तेवरों के साथ अखबार निकलाने वालों पर ओछी टिप्पणियां करने से पहले थोड़ा आत्मसंयम रखना चाहिए। पल्लवीजी या इस नाम से जिस भली आत्मा ने भी अपने विचार लिखे हैं, जवाब देंगी, ऐसी अपेक्षा है।
हाइवे से लड़की अगवा, भाजपाई बचाव में उतरे
27 सितंबर की रात 10 बजे शहर में खुलेआम एक इण्डिका में सवार में लोगों ने एक लड़की को जबरन उठा लिया. मामला पुलिस तक जैसे पहुंचा और कार्रवाई जैसे ही शुरू हुई उसके थोडी ही देर बाद भाजपा के प्रदेश स्तर के पदाधिकारी अपराधियों को बचाने में जुट गए. हालात यह रहे कि भाजपा के इनपदाधिकारियों ने देर रात तक पुलिस पर सत्ता का दबाव बना कर मामले को बदलवा तो लिया ही कहानी में लड़की का अपहरण ही हट गया और अपहृत व्यक्ति बदल कर लड़का हो गया.प्रत्यक्षदर्शियों से प्राप्त जानकारी के अनुसार इण्स्ट्रियल एरिया स्थिति जिला उद्योग संघ के कार्यालय के समीप सतना रीवा राजमार्ग पर रात सवा दस बजे एक युवती अपनी स्कूटी क्रमांक १९ एमबी ८९१९ से गुजर रही थी. तभी एक इण्डिका कार एमपी. १९ जी ८३५३ में सवार कुछ युवा तेजी से स्कूटी के सामने आकर उसे रोक देते है. आनन फानन में उस लड़की को उठाकर उस कार में जबरन लाद लिया जाता है और वाहन तेजी से वहां से गुजर जाता है. मामला यहां तक जब प्रत्यक्षदर्शियों ने देखा तो तुरंत पुलिस को सूचना दी तथा वाहन का नंबर लिखाया. सूचना पर पुलिस भी तुरंत हरकत में आई लेकिन सतना पुलिस की यह तत्परता तब समझ में आई जब कुछ देर बाद मामला ही सुलटाने की कवायद में खुद पुलिस कर्मी भी शामिल नजर आने लगे. दरअसल जबतक पुलिस स्कूटी को अपने में कब्जे में लेकर निकली थी तभी घटनास्थल पर शहर कुछ भाजपाई और गल्ला के कई बड़े व्यापारी पहुंचे. यहां सेजब उन्हें जानकारी मिली की स्कूटी पुलिस के कब्जे में है तो वे बिना समय गंवाए अपने मोबाइलों से संपर्क में जुट गए और आनन फानन में घटना स्थल से बाईपास की ओर चले गए. बताया गया है कि इन्होंने ज्यादा वक्त न गंवाते हुए चेतक मोबाइल से संपर्क किया बाईपास में खड़ी पुलिस की चेतक के पास पहुंच गए. यहां से पुलिस की मोबाइल वाहन यूनिट संग्राम कालोनी पहुंची जहां रात को आमजन से स्कूटी दिखा कर यह पता करने लगी की इस वाहन को चलाने वाली युवती को जानते है. इसके पीछे पुलिस की मंशा युवती का पता पुष्ट करना रही. यहां से एक साजिश(बाईपास में हुई सेटिंग) के तहत पुलिस को यह बताया गया यह स्कूटी किसी लड़के की है. वह लड़का किसी बड़े गल्ला व्यापारी का लड़का है. यहां महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि बाईपास से जनप्रतिनिधियों एवं गल्ला व्यापारी की वह गाड़ी यहां भी चेतक वाहन से साथ-साथ पहुंची हुई थी. इधर कुछ देऱ बाद पता चला कि आरोपी इण्डिका गाड़ी टिकुरिया टोला के पास बरामद कर ली गई है. इसके बाद थाने का घटना क्रम जाना जाय तो यहां भाजपा के वरिष्ट नेता तथा प्रदेश पदाधिकारी अनिल जायसवाल अपने पार्टी के साथियों के साथ मामला मैनेज करने पहुंच चुके थे. सत्ता का दबाव काम आया और पुलिस ने भी जो कहानी बताई वह काफी चौंकाने वाली रही. इस नई कहानी के अनुसार अपहरण लड़की का नहीं किसी लड़के का हुआ दर्शा दिया गया. इस जानकारी के बाद आगे का घटनाक्रम पता करने की फिर हमने जहमत ही नहीं उठाई.
क्यों नहीं थाने पहुंचा चेतक
यहां सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि प्रत्यक्षदर्शियों की सूचना पर जब पुलिस का मोबाइल वाहन चेतक लड़की की स्कूटी बरामद कर चुका था तो उसे लेकर वह थाने क्यों नहीं पहुंचा. इसके अलावा वह स्कूटी सहित बाईपास में क्या करने गया था. बाईपास में चेतक स्कूटी सहित खड़ा है इसकी जानकारी उन भाजपा नेताओं और गल्ला व्यापारियों को कैसे पता चली. इस काण्ड में जिसका अपहरण हुआ वह लड़की थी बाद में वह लड़के में कैसे बदल गई. इस जैसे कई सवाल हैं जो अभी भी अनुत्तरित हैं.
सलवार कुर्ता पहने थी लड़की
प्रत्यक्षदर्शियों की माने तो लड़की काली स्कूटी में सवार थी तथा सलवार कुर्ता पहने हुए थी. अंदाज से ज्यादा उम्र की नजर न आने वाली उस युवती ने अपना मुंह सफेद दुपट्टे से ढंक रखा था.
देवी गीत ...
नव रात्री पर्व सारे देश में नौ दस दिनों तक देवी पूजन , भक्तिभाव पूर्ण गायन , उपवास , बड़े बड़े पंडालों की स्थापना , और गरबा के आयोजन कर मनाया जाता है . देवी गीतों का प्रचार सब तरफ बढ़ गया है . पावन पर्व में गीत संगीत से पवित्र भअवना का प्रादुर्भाव और प्रसार बड़ा सुखद व मन भावन होता है . इसी दृष्टि से हर वर्ष नवरात्रि से पहले नये नये देवीगीत , जस , नौराता , के कैसेट्स बाजार में आ जाते हैं . दूर दूर गाँव ,शहरों में उत्सव समितियां ये कैसेट्स अनवरत बजाकर एक भाव भक्ति का वातावरण बना देती हैं . अब तो नवरात्रि के अनुकूल एस एम एस , रिंगटोन , वालपेपर आदि की भी मार्केटिंग हो रही है . बाजार की इस बेहिसाब माँग के चलते अनेक सस्तुआ शब्दों हल्के मनोरंजन वाले विकृत मानसिकता के देवी गीत भी विगत में सुनने को मिले . इनसे मन कोपीड़ा होती है , यह सांस्कृतिक पराभव ठीक नहीं है .
सुरुचिपूर्ण भक्ति , व देवी उपासना के लिये गीत संगीत ऐसा होना चाहिये जो श्रद्धा , विश्वास, सद्भाव , समर्पण तथा भक्ति को बढ़ावा दे .
इसी उद्देश्य से मैंने कुछ भावपूर्ण , सुन्दर , व सार्थक शब्दमय देवी गीतों की रचना की है . जो भी गायक , सी.डी. निर्माता , भक्त , धार्मिक संस्थायें चाहे वे इन सोद्देश्य गीतों को मुझसे निशुल्क जनहित में प्राप्त कर उन्हें प्रचारित करने हेतु कैसेट , सीडी बनवा सकते हैं . चाहें तो संपर्क करें .
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव "विदग्ध"
C / 6 ,विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
मो. ०९४२५४८४४५२
Email vivek1959@yahoo.co.in
फर्जी मुठभेड़......?
यह सच है कि आज आम जनता आतंकवाद से तंग आ चुकी है बल्कि वह यह भी मानने लगी है कि आतंकवाद को जल्द से जल्द जड। से खत्म कर देनी चाहिए। उन सब को मार गिराना चाहिए जो सैकड़ों हजारों बेकसूरों की जान लेने में नहीं हिचकिचाते। बशर्ते वह वाकई आतंकवादियों हो और उनके आतंकवादी होने का पूरा सबूत भी हो।
पुलिस जिसे अपने कार्य के लिए अत्यंत दयानतदार व इमानदार माना जाता है लेकिन आज कानून व्यवस्था को कायम रखने वाली इस पुलिस के किरदार पर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। इसमें अनेकों विकृतियाँ आ गई हैं। पहले इसका राजनीतिकरण हुआ और अब इसका अपराधीकरण हो रहा है। कानून व्यवस्था को अपने हाथ में लेना और अपने मुताबिक चलाना हमारे देश की पुलिस के लिए कोई नई बात नहीं है, जिस पर आश्चर्य किया जाये। लग-भग हर दिन, हर समय देश के किसी न किसी कोने में पुलिस द्वारा कानून को हाथ में लेने के मामले सामने आते रहते हैं। शातिर बदमाशों तथा आतंकवादियों के साथ पुलिस की मुठभेड़ आम बात है, पर इनमें कितनी जायज और कितनी फर्जी होती है, इसका पता नहीं चल पाता। न जाने अब तक कितने हीं मासूम लोगों को फर्जी मुठभेड़ में मार डाला गया होगा।
श्रीनगर के दैनिक समाचार पत्र कश्मीर टाईम्स के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख "इफ्तिखार गिलानी"ने सिहरा देने वाली आपबीती "जेलं में कटे वो दिन" लिखकर देश की पुलिस की हक़ीकत सामने ला चुके हैं। 1968-75 में आई।ए।एस। रह चुकी मैगसेसे अवार्ड से सम्मानित "अरुणा रोय" ने भी अपनी पुस्तक "जीने और जानने का अधिकार" में पुलिस की हक़ीकत को ब्यान कर दिया है। उन्होंने लिखा है, कि "एक नक्सलवादी या आतंकवादी, पुलिस के साथ एक मुठभेड़ में मारा गया" जब हम अखबारों में ऐसे समाचार पढ़ते हैं तो हमें क्या महसूस होता है? बहुत कम ऐसे लोग हैं जो ऐसे समाचार सच मान लेते हैं। ज्यादातर लोग जानते हैं कि "मुठभेड़" का मतलब है "हत्या"
बहरहाल ,पुलिस का यही "मुठभेड़ " एक बार फिर चर्चा में है। हर रोज विभत्स ब्यौरे सामने आने के साथ ही फर्जी मुठभेड़ का मामला राष्ट्रीय विवाद का रूप लेता जा रहा है, जिसके कारण पुलिस का कुरूप चेहरा उजागड़ हुआ है। विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के राजनेता भी इस मुद्दे पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में पिछे नहीं है। वैसे भी दिल्ली में भी फर्जी मुठभेड़ के मामले आते रहे हैं चाहे वो अंसल प्लाजा का मुठभेड़ हो, कनाट प्लेस या फिर २००२ में ओखला में हुई मुठभेड़ हो। पंजाब, जम्मू व कश्मीर में तो यह घटना लगभग हर दिन होते रहते हैं। गुजरात में सोहराबुद्दीन शैख़ व तुलसी राम प्रजापति के मामले को भी अभी ज्यादा दिन नही हुए हैं। इससे पूर्व भी अहमदाबाद के राजनीतिक संरक्षण प्राप्त और बाद में राजनीतिज्ञों के लिए "बेकाम के" हो चुके अब्दुल लतिफ को फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया था। अहमदाबाद में हीं समीर खान , मुम्बई के उपनगरीय इलाका मुमरा की १९ वर्षीय मुम्बई कॉलेज की छात्रा इशमत जहाँ का फर्जी मुठभेड़ को भी बहुत ज़्यादा दिन नही गुज़रे हैं। अर्थात देश के हर राज्य में इस तरह की कारनामें गठित होती रहती है। वास्वतव में देखा जाये तो फर्जी मुठभेड़ों की संस्कृति, कानून के शासन की पराजय है।
अगर फर्जी मुठभेड़ों के इतिहास की बात करें तो इसका इतिहास काफी पुराना है। लेकिन मुठभेड़ के बहाने अपराधियों को खत्म करने का चलन 1968 में आन्ध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल से शुरू हुआ। आतंकवादियों, माओवादियों, नक्सलवादी के मार गिराने के नाम पर फर्जी मुठभेड़ों का सिलसिला अब भी जारी है।
फर्जी मुठभेड़ क्यों होते है? आखिर पुलिस क्यों इसका सहारा लेती है? ऐसी कौन सी बाध्यता है, जो इनको फर्जी मुठभेड़ के लिए प्रेरित करता है? क्या फर्जी मुठभेड़ का जिम्मेदार सिर्फ पुलिस है, या इनके साथ कोई और भी है?
वास्तव में, पुलिस जब अभियुक्त को कानूनी कार्रवाई के तहत दोषी सिद्ध करने में नाकाम साबित होती है तो इन विकल्पों को चुनती हैं। पुरस्कार की चाहत, नाम व शोहरत भी यह कार्य करने पर मज़बूर करता है। बल्कि सच्चाई यह है कि बड़े कुख्यात अपराधियों को भी इसमें दखल होता है। कभी-कभी कारपोरेट जगत भी पूरी तरह हावी रहती है। कोई व्यक्ति यदि परेशान कर रहा हो तो पहले उसकी सुपारी अपराधियों को दी जाती थी, अब यह काम पुलिस वाले फर्जी मुठभेड़ के माध्यम से अंजाम देने लगे हैं।
पुलिस का यह कुरूप चेहरा सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि भारत के बाहर भी कई देशों में फर्जी मुठभेड़ होती है। मानवाधिकार की सर्वाधिक वकालत करने वाला देश अमेरिका भी इस मामले में पिछे नहीं है, अक्सर पद, पहुंच तथा व्यक्तिगत महत्वकांक्षा हेतु पुलिस आधिकारी ऐसे कारनामों को अन्जाम देते रहते हैं।
कहीं न कहीं इन मुठभेड़ों के पिछे राजनैतिक उददेश्य भी छिपे होते हैं। 2002 में फर्जी मुठभेड़ के मुददे को "देश प्रेम " बनाम "देश द्रोह " की कार्रवाई करार दिए जाने के पिछे एक बड़ा कारण गुजरात चुनाव था, जिसका फायदा नरेन्द्र मोदी ने हासिल किया और अब भी स्थिति कुछ वैसी ही है, क्यूंकि कुछ ही महीनो लोकसभा व विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। दिल्ली में शुरू हुआ यह "खेल" देश को किस दिशा में ले जायेगी, यह आने वाला समय ही बतायेगा।तबतक आप मुशीरुल हसन के बयान पर राजनैतिक उठापटक का "खेल" देखते रहीये।
अफरोज आलम 'साहिल'
ब्लोगर्स के लिए
आ रे मेरे
सप्पन पाट,
मैं तैने चाटूं
तू मैंने चाट।
आप मेरी जय जय कार करो मैं आपकी।
NO HYPE JUST FACTS
सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे
अगले चुनावों के वक्त मैं भाजपा का पक्षधर बिल्कुल भी नहीं था, परन्तु पारिवारिक माहौल भाजपा का रहने के कारण मतदान जरूर उसके पक्ष में किया। लेकिन हृदय से सदैव कांगे्रस के लिए ही दुआ निकली। लगता था भाजपा के बूढ़े तो अपनी ही राजनीति में लड़ मरेंगे, लेकिन कांगे्रस में अभी भी कुछ युवा हैं। यूपीए की सरकार बनी तो मन को सुकून मिला। लेकिन वह भी मुçस्लम तुष्टिकरण के साथ रही। देश की संसद पर हमले का आरोपी फांसी की सजा पा चुका। उसने तो राष्ट्रपति से क्षमा माफी अपील तक करने से मना कर दिया और हमले को सही करार दिया। पर हमारी सरकार के ही कुछ प्रतिनिधियों ने उसकी क्षमा माफी याचिका राष्ट्रपति के पास भिजवाई और आज तक उसका पता नहीं है। वह शख्स , जिसे पकड़ते ही गोली मार दी जानी चाहिए थी, आज भी जिंदा है। कौन कह सकता है कि वह जेल में है। जनता को भ्रमित करने के लिए जरूर जेल में है, परन्तु ऐशो-आराम वही हैं। पैसा सब कर देता है। संसद से मुझे कोई लेना-देना नहीं होता, अगर वह भारत में नहीं होती। अबु सलेम चुनाव लड़ने की तैयारी तक कर चुका। एक आम मतदाता उससे भी नहीं पूछ सका कि देशद्रोहियों को क्यों बख्शा जा रहा है।
देश में धड़ाधड़ बम ब्लास्ट हो रहे हैं। सरकार क्या सोई हुई है। हमारी सरकार मात्र कुछ लाख रुपए मृतकों को देकर ही इतिश्री कर लेती है। पुलिस का काम है अपराधियों को पकड़ना। लेकिन सजा दिलाना भी तो किसी का धर्म है। पुलिस अगर किसी को एनकाउंटर करती है, तो उसे फर्जी करार देकर पुलिस को ही बदनाम किया जाता है और यदि सबूत के साथ पकड़ भी ले, तो भी सबूत सही नहीं कहकर न्यायालय से फटकार खानी पड़ती है। न्यायालय में यदि सही सबूत भी हुए और सजा भी हुई, तो भी क्या वे सजा पा जाते हैं, सोचनीय विषय है।
भारत के ही कुछ लोग भारत में ही रहकर भारत के ही खिलाफ बोलते हैं। जयपुर धमाकों में पकड़े गए आतंकवादी के पक्ष में जामा मस्जिद का इमाम आंदोलन की धमकी देता है। कहता है उसे रिहा नहीं किया, तो देश में दंगा हो जाएगा। सरकार क्यों ऐसे लोगों के खिलाफ कुछ नहीं कर पाती। कश्मीर में पाकिस्तान के पक्ष में आंदोलन हो रहे हैं, परन्तु वोट के लालच में सत्ताधीश अंधे-बहरे और गूंगे तक हो गए हैं।
कई बार मैं सोचता हूं कि आम मतदाता की पदवी को अपने नाम से ही हटा दूं, परन्तु यदि ऐसा करता हूं तो भी मेरा वोट रद्द हो जाएगा और मैं शायद भारत का नागरिक ही ना रहूं। तो कहीं तो मेरा अस्तित्व रहे, इसलिए मुझे वोट देना पड़ता है। उम्मीदवारों में एक हत्या का आरोपी है तो दूसरा बलात्कार का। तीसरा बलवा का, तो चौथा भूमाफिया है। पांचवा नशेड़ी और जुएबाज है, तो छठा लठैत है। किसी एक को तो मत देना ही पड़ेगा। किसे दूं भारत के संविधान से यह पूछने का अधिकार भी नहीं है मुझे।
27.9.08
एक होनहार बच्चे की सफल कहानी, आप सभी आमंत्रित हैं
राहुल वार्ष्णेय का प्रोफाइल
Rahul is a promising dancer of guru deba prasad Das style of Odissi. He was initiated to odissi dance By Smt. Jyoti Shrivastava in the tender age of seven. Initially he was trained in Odissi dance as well as Hindustani vocal music but after 5 Years of training he devoted himself towards Odissi only. He has performed in all major production of vaishali kala kendra, Noida, a performing arts institution established by his guru. He has performed almost all over india to appreciative audiences and recently performed in International Odissi Dance Festival ''Stirring Odissi'' Malaysia.
Rahul has also attend various workshop with Guru Durga Charan Ranbir, Ramli ibrahim, Guru Shashankdhar Acharya and guru gangadhar pradhan. he has been under scholarship from the centre for cultural resource and training for the last four years. Under the able guidance of guru. His talent is shaped to the extent of attaining the level of presenting his debut solo performance ''MANCHA PRAVESH''
His aim to excel in Odissi and bring glory to this art form.
राहुल की ज़मीनी हकीकत
राहुल एक होनहार बालक होने के साथ सर्वगुण संपन्न है. पर उसके पास उतना धन नही है. पर उसका सबसे अनमोल खजाना उसकी माँ है. जो दुनिया का हर दर्द सहकर उसे आगे बढ़ने में कोई कसार नही छोड़ रही है. नॉएडा के सेक्टर ५६ के एक छोटे से एक कमरे के घर में गुज़र बसर कर रहे राहुल के पास इतना भी पैसा नही है की वो अपने मकान को सही करवा सके. पर उसकी माँ उसे स्वेटर बुनकर उसे पढ़ा लिखा तो रही है इसके साथ ही उसके हर प्रतिभा का पूरा सम्मान भी कर रही है. राहुल को किसी की मदद की ज़रूरत नही है पर हाँ अगर लोग उसे बड़ी संख्या में जुटकर त्रिवेणी सभागार में उसके मंच प्रवेश पर उसका उत्साहवर्धन ज़रूर कर सकते हैं तो देर किस बात की ये काम ज़रूर करिएगा मैं आप सभी का इंतज़ार करूंगा पॉँच अक्टूबर को.
Amit dwivedi
आतंकियो की सक्रियता को सलाम
ध्यान रहे किसी विशिष्ट लोगो पर गलती से भी बम्ब मत मारना इससे शायद तुम लोगो को कुछ परेशानी हो । पुलिस का मनोबल तो हम जैसे लोग तोअड चुके है मुठ भेड पर प्रश्न चिन्ह लगाकर । कोई पुलिस वाला क्यों शहीद होगा जब उस पर आरोप लगे । हम लोग ने अपना काम कर दिया है अब आपको डरने की जरुरत नहीं आओ हमें मारो हम मरने के ही लायक है।
क्योंकि आप के कृत्य के बाद हम चर्चा करते है पोटा पर ,कानून पर । क्योंकि हमारे हुक्मरानों को वोट की चिंता है । और आप पर कार्यवाही वोट पर फर्क डाल सकती है । इसलिए आप अपना काम करो । हमे मारना है क्यों न आपके हाथ मरे ।
आख़िर कब तक
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पत्रकार संघ के चुनाव
उनकी इसी बात से मुझे एक पुराने वाकये की याद आ गई। हुआ यूं कि मेरी होमसिटी (श्रीगंगानगर) से इसी संगठन के जिलाध्यक्ष और महासचिव महोदय जयपुर आए थे। मेरे शहर का ही एक मित्र दिलीप नागपाल मेरे घर के ही पास किराए पर रहता है, वे पहले उसके पास गए। शायद मुझसे बात भी नहीं करना चाहते थे। शाम को दिलीप तो ऑफिस आ गया और वे दोनों उसके घर रुक गए। अब गर्मी का टाइम तो था ही, जिलाध्यक्ष और महासचिव महोदय दोनों ने आधी रात तक तो कमरे में उधम मचाया और रात करीब डेढ़ बजे केवल अंडरवीयर -बनियान में छत पर जाकर सो गए। यह भी नहीं देखा कि पास ही मकान मालकिन की बेटी और जंवाई भी सो रहे हैं। या देखकर भी अनदेखा कर दिया कि हमें कौन रोकेगा। मकान मालकिन ने सुबह-सुबह पांच बजे ही गेट बजाकर दिलीप को कह दिया कि या तो अभी इन तेरे दोस्तों को बाहर कर नहीं तो आठ बजे तक तू भी तेरा सामान समेट ले। आखिर वहां से उन दोनों ने मेरे मोबाइल पर कॉल किया कि हमें केवल फे्रश होना है और नहाना-धोना है। मैंने अपने घर बुला लिया। आखिर दस बजे उन्हें चाय-नाश्ता कर विदा किया, लेकिन उन दोनों भाइसाहब ने ना धन्यवाद ना बाद में मिलेंगे कहा। केवल `ओके´ कहकर विदा हुए। बाद मेंे मैडम ने आकर मुझे डांटा कि आपके दोस्त ऐसे हैं क्या, पूरा टॉयलेट गंदा कर गए। बाथरूम गंदा कर गए।
अब मैं सोचता हूं कि यदि ऐसे लोग किसी भी संगठन के किसी भी जिला विशेष के किसी भी ऊंचे पद पर होंगे, तो समाज में क्या इम्पैक्ट जाएगा। संगठन की क्या छवि बनेगी, राम जाने।
किस्मत की बलिहारी भइया
किस्मत की बलिहारी भइया, किस्मत की बलिहारी भइया
मेहनतकश को भूख नसीब पर, खाए जुआरी माल-मलइया
टाटा बिरला सेज बनावैं, हाथ बटावे कॉमरेड भइया
मार भगावें गरीब मजूर को, जमीन तुम्हारी काहे की भइया
भागो-भागो दूर गरीबो, देस तुम्हारा नहीं रहा अब
इंडिया शाइनिंग, इंडिया शाइनिंग, देत सुनात दिन-रात है भइया
गान्हीजी के देस में हमरी, हुई हाल ई काहे भइया
पूछा इकदिन माट साब से, बोले उड़ गई तोरी चिरइया
अब जे इस देस में रहबै, जै हिन्द बोली बन्द करो
भारतवर्ष का वासी हौ तो, अंखियां अपनी बन्द करौ
नाम रटो इटली मइया के, सोनिया देवी कहात हैं भइया
काका कहिन हार के हमसै, ले चल जीवत मशान रे भइया
हम न जीइब अब ई कलियुग में, देस हमार ना रहा ई भइया
बजरंग दल पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए
- हृदेश अग्रवाल
दहेज प्रताड़ना पर रोक लगे
- हृदेश अग्रवाल
कलर्स चैनल पर चल रहे धारावाहिक बंधन सात जन्मों का में दिखाया जा रहा है कि मां-बाप किस लाड़ प्यार से अपनी बेटी को पालते हैं कि जब उनकी बेटी बड़ी होकर शादी के बंधन में बंधकर ससुराल में जाए तो उसे अपने मायके की याद न आए। माता-पिता बेटी का पालन पोषण कर बड़ा करते हैं जब बेटी की शादी के लायक होती है तब उसे देखने लड़के वाले आते हैं तो लड़की को देख पसंद आने पर लड़के के माता-पिता शादी के लिए हां करते हैं और लड़की के माता-पिता को यह दिलासा देते हैं कि हमें सिर्फ लड़की चाहिए दहेज नहीं क्योंकि हम दहेज नहीं मांगते और हमारे घर में बहू को बहू नहीं बल्कि बेटी की तरह लाड़-प्यार से रखते हैं। यह बात सुन लड़की के माता-पिता की खुषी का ठिकाना ही नहीं रहता इसी बीच लड़के वाले बोलते हैं कि हमें तो दहेज में कुछ नहीं चाहिए बस बारातियों के स्वागत में कोई कसर नहीं रहना चाहिए। इस पर लड़की के माता-पिता कहते हैं कि बारातियों के स्वागत में कोई कसर नहीं रहेगी जिससे आपको कोई षिकायत का मौका मिले। तो तुरंत ही लड़के वाले अपना एक और दांव फैकते हैं कि वैसे तो हमें दहेज में कुछ नहीं चाहिए लेकिन आप अपनी बेटी को तो खाली हाथ विदा नहीं करेंगे आप हमें गलत मत समझिए वैसे तो आप इतने समझदार हैं ही हमारे कहने का क्या मतलब है।ससुराल में जब बेटी जाए तो सास-ससुर के रूप में माता-पिता मिले और ननद व देवर के रूप में बहन व भाई। लेकिन जब लड़की ससुराल पहुंचती है तो उसका बड़ा आदर सत्कार होता है और बहू उन्हें लक्ष्मी दिखती है, जैसे ही बहू की शादी को 15 दिन या महिना भर होता है ससुराल वाले अपना रंग दिखाना चालू कर देते हैं उसे लक्ष्मी की बजाए मनहूस दिखती है जब ससुराल वाले देखते हैं कि हमारा समधियों ने तो दहेज के नाम पर कुछ भी नहीं दिया सिर्फ और सिर्फ अपनी बेटी को खाली हाथ पहुंचा दिया फिर वह दहेज मांगने के लिए कोई न कोई बहाना बनाते हैं और दहेज न मिलने पर उसे या तो घर से धक्के मार कर घर से निकाल देते हैं या फिर बेटी जैसी लगने वाली बहू को इतना परेषान किया जाता है कि उसके मां-बाप को अपनी बेटी की इस हालत पर तरस आए और कम से कम बेटी की यह हालत न हो दहेज तो दे ही देंगे। दहेज मिला तो ठीक नहीं तो बहू को ससुराल वाले एक नौकरानी की तरह बर्ताव कर बात-बात में उसे उसके मां-बाप के बारे में जली-कटी सुनाते हैं और कहते हैैं कि भिखारी कहीं के कहां तो कहते थे कि आपको हमारी तरफ से कोई षिकायत का मोका नहीं मिलेगा, षिकायत तो दूर हमें तो उल्टा उनकी बेटी को पालना पड़ रहा है। हरामखोर, मनहूस कुतिया मर क्यों नहीं जाती जैसे अभद्र शब्द का इस्तेमाल करने लगते हैं।ससुराल वालों को जैसे ही मौका मिलता है वह लक्ष्मी जैसी लगने वाली बहू को मारना, पीटना भी चाहू कर देते हैं सारा काम कराने के बाद भील अगर कोई गलती हो जाए तो उसे भूखे रहने की सजा देते हैं और ताने मारते हैं कि तेरे मां-बाप के यहां यही सीख कर आई है तू। हे भगवान इस लड़की ने तो हमारे खानदान की नाक कटा दी। और अंत में बहू को बेटी का दर्जा देने वाले उसी बहू को तेल डालकर जिंदा जला देते हैं। लेकिन वही ससुराल वाले यह भूल जाते हैं कि वो अगर किसी और की बेटी को दहेज के लिए जिंदा जला रहे हैं और कल कोई उनकी बेटी के साथ यही करे तो कहते हैं कि दहेज के लिए हमारी बेटी को जिंदा जला डाला।बंधन सात जन्मों का के धारावाहिक में दिखाने वाली घटना कोई कालपनिक घटना नहीं बल्कि हमारे देष के ज्यादातर राज्य के छोटे-बड़े शहरों में होने वाली यह आम घटना है।कहने को सरकार कहती है कि यह पहले वाला वक्त नहीं जहां महिलाओं को सिर्फ चूल्हा-चैका के अलावा कोई औरे काम करने की इजाजत नहीं थी आज के वक्त में हर क्षेत्र में पुरूष जितना आगे हैं उनसे कहीं आगे महिलाएं भी अपना नाम रोषन कर रहीं हैं। आज लड़के-लड़की में कोई फर्क शेष नहीं है। लेकिनप आज भी दहेज के लिए लड़कियों को ही क्यों जलाया जा रहा है। इस दहेज की आग से इन लड़कियों को बचाने के लिए सरकार को कोई सख्त कानून बनाने के साथ-साथ कठोर कदम भी उठाने चाहिए। जिससे की किसी भी मां-बाप के कलेजे के टुकड़े को कोई उनके सामने जला के न मार सके।
सुदीप बंदोपाध्याय का तृणमूल में लौटना तय
प्रकाश चण्डालिया
पश्चिम बंगाल में निरंतर हाशिए पर जा रही कांग्रेस में सियासी कैरियर के गर्दिशी दौर से गुर रहे विधायक सुदीप बंदोपाध्याय का ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस में लौट जाना अब कुछेक दिनों की बात है। सुदीप बंदोपाध्याय को तृणमूल में वापस लेने की मांग पुरजोर उठ रही है। ये वही सुदीप बंदोपाध्याय हैं, जिन्हें कभी सुब्रत मुखर्जी के चलते ममता ने पार्टी से दरकिनार कर दिया था। यह तबकी बात है, जब केंद्र में एनडीए की सरकार थी और ममता की पार्टी उसमें शामिल थी। एनडीए की सरकार में ममता की पार्टी को कैबिनेट रैंक के दो पोस्ट परोसे जा रहे थे। इनमें एक नाम सुदीप बंदोपाध्याय का तय था, पर सुब्रत मुखर्जी को सुदीप के बढ़ते कद से ईष्र्या होना लाजिमी थी, नतीजतन उन्होंने विरोध किया और ऐसा चक्कर चलाया कि ममता ने सुदीप के साथ किनाराकशी कर ली। सुदीप को बाद में कांग्रेस ने लपक लिया और वे इस पार्टी के विधायक भी बने। हालांकि कांग्रेस की गुटबाजी में वे प्रिरंजन दासमुंशी की नाव पर नहीं बैठ सके, अलबत्ता उनके सियासी कैरियर को एक बार फिर कई वर्षों से कोपभवन में समय व्यतीत करना पड़ रहा है।
सुदीप को पश्चिम बंगाल कांग्रेस में सोमेन मित्र का करीबी माना जाता रहा है। ये वही सोमेन मित्र हैं, जिन्होंने हाल ही में कांग्रेस से किनारा करके प्रगतिशील इंदिरा कांग्रेस के नाम से अपनी नई पार्टी बनायी है। सोमेन चाहते हैं कि सुदीप जैसा लोकप्रिय नेता उनके दल में शामिल हो। भविष्य को देखते हुए सुदीप बंदोपाध्याय को यह नागवार गुजर रहा है।
पिछले दिनों सिंगुर में ममता के मंच पर एकाएक प्रकट होने वाले धुरंधर कांग्रेस नेता सुब्रत मुखर्जी को तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं की जिस जलालत का सामना करना पड़ा था, वह उनके शेर-अंदाज सियासी सफर का सबसे काला अवसर रहा होगा। सुब्रत इस भ्रम में थे कि ममता के साथ खड़े होने पर तृणमूल कार्यकर्ता भी पुरानी घटनाओं को भुलाकर उनका खैरमकद्दम करेंगे, पर उन्हें इसके उलटे असर से मुखातिब होना पड़ा। नतीजा यह निकला कि सुब्रत मुखर्जी, जो कभी ममता की पार्टी में रहते समय कोलकाता के मेयर हुआ करते थे, अब कांग्रेस से किनारा करके पुन: इस पार्टी में लौटने की सोच भी नहीं पा रहे हैं। उधर, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रियरंजन दासमुंशी ने उन्हें प्रदेश प्रवक्ता पद से भी हटा दिया है।
सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार ममता बनर्जी परोक्ष-अपरोक्ष सुदीप के संपर्क में हैं और वे चाहती हैं कि तृणमूल का यह पूर्व लोकप्रिय नेता पुन: पार्टी में लौटे। समझा जा रहा है कि नवरात्र के दौरान या उसके आगे-पीछे सुदीप और ममता का मिलन फिर से हो जाएगा। सिंगुर में टाटा के नैनो प्रोजेक्ट को लेकर तृणमूल इस समय ग्रामीण अंचलों में लोकप्रियता के शिखर पर है (यह अलग बात है कि मध्यम एवं उच्च वर्गीय शहरी वोटर ममता के रूख से इत्तफाक नहीं रखता)। सुदीप बंदोपाध्याय के लिए तृणमूल में लौटने का यह सबसे मुनासिब अवसर है। मामला सिर्फ इसी पर अटका है कि ममता सार्वजनिक तौर पर सुदीप को लौट आने का आमंत्रण कब देती हैं। वैसे विधानसभा की औद्योगिक कमिटी के चेयरमैन के रूप में विधायक सुदीप बनर्जी ने पिछले दिनों राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी के समक्ष ममता के आन्दोलन का पुरजोर समर्थन करते हुए अपना पांसा तो फेंक ही दिया था।
पाक की पहरेदारी
एक परिचय / मुबारक बाद / कुछ अलग
मैं विवेक आप सभी दोस्तों का धन्यवाद करता हूँ । जिन्होंने अपने कीमती समय में से कुछ समय निकालकर मेरा ब्लॉग पढ़ा । जिनमे से विशेष मुबारकबाद के हक़दार हैं करुना मदान , शिरीष , धीरेन्द्र और अनेक मित्र जिन्होंने मुझे फ़ोन करके मेरा उत्साह बढाया । ये वो लोग हैं जिनमे सच को जानने की जिज्ञासा है। मुझे खुशी इस बात की ज़्यादा है की आप लोग जो भडास पर अपने आर्टिकल लिखते हैं वो सभी जागरूक लोग हैं । समाज में फैली बुराइयों ने आपको एक कदम उठाने को मजबूर किया है और आप बखूबी अपने काम को अंजाम दे रहे हैं । आप सभी बधाई के पात्र हैं। लेकिन क्या पत्रकारिता और सच्ची पत्रकारिता दो अलग अलग बातें नही हैं ? ज़रूर हैं। और मेरा यकीन है की भडास पे लिखने वाले भाई सच्चे पत्रकार हैं । मैं शुक्र गुजार हूँ यशवंत भाई का जिन्होंने भडास पर लिखने का गौरव मुझे प्रदान किया। मैं जानता हूँ की रेगुलर रूप से भडास पर लिखने वाले सभी लोगों ने मेरा ब्लॉग ज़रूर देखा होगा और आप सभी के मन मैं कुछ सवालों ने ज़रूर सर उठाया होगा । लेकिन इसे महज़ एक हलके से रूप से लेकर आपने उन सवालों का दम घोंट दिया होगा । और इसमे कुछ नया भी नही है क्यूंकि जब भी कोई बात किसी की भलाई के लिए कही जाती है अक्सर उसे शक से भरी नज़रों का सामना करना पड़ता है । क्यूंकि आज जिस समाज में जहाँ हर कोई एक दूसरे का गला काटने पर तुला है उस समाज में यदि कोई ऐसी बात करे जिसमे आपकी तरक्की छुपी हो यकीनन लोग उसे सच नही मानेंगे । इसी बात का सामना आप और हम सभी लोगों को करना पड़ता है। लेकिन सच फिर भी सच ही रहता है . यहाँ में आपको आमंत्रित करना चाहता हूँ हांगकांग ट्रिप के लिए एक फ्री बिज़नस टूर। जो भी भाई इस ट्रिप पर आना चाहते हैं और थोड़ा सा परिश्रम करने को तैयार हैं बे जिझ्क मुझे फ़ोन कर सकते हैं। मेरी सिर्फ़ यही ख्वाहिश है की मैं ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को अपने साथ इस ट्रिप पर ले जा सकूं लेकिन सबसे बड़ी बाधा यही है की ऐसा सिर्फ़ मेरी खवाहिश से नही हो सकता आपकी ख्वाहिश भी उतनी ही ज़रूरी है । हांगकांग ट्रिप के अलावा भी बहुत कुछ है जिसकी उम्मीद भी बहुत से लोग अपने जीवन में छोड़ चुके होते हैं । तो यदि आपके दिल में कोई ऐसा सपना कोई ख्वाहिश हो जिसे आप किसी कारण से छोड़ चुके हैं तो हो सकता है की ये मौका आपके लिए ही हो। अंत में आप सभी लोगों के सुन्हेरे भविष्य की शुभकामनाओं के साथ आपका मित्र विवेक
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26.9.08
नेता तो बहाना है....हम भी क्या कम हैं ??
पता नहीं कब और किसका लिखा यह पहाडा बचपन में ही पढ़ा था ,ऐसा दिल में घुसा कि आज तक याद है,आपको बता रहा हूँ गौर करें....नेता एकम नेता !नेता दुनी दगाबाज !नेता तिया तिकडमबाज !नेता चौके चार सौ बीस ! नेता पंजे पुलिस दलाल !नेता छक्के छक्का-हिन्जडा !नेता सत्ते सत्ता-धारी ! नेता अट्ठे अरिन्गाबाज ! नेता नम्मे नमक-हराम ! नेता दस्से सत्यानाश !!इस अनाम कवि को मैं बचपन से ही सलाम करता आया हूँ !!दस छोटी-छोटी पंक्तियों में देश की एक महत्वपूर्ण कौम का समूचा चरित्र बखान कर दिया है ,मगर ये एक कौम तो क्या, शायद कोई भी आदमी कितना भी लांछित क्यों न जाए ,किसी भी कीमत पर देश का सच्चा नागरिक बनने को तैयार नहीं है ,हाँ ;एक-दूसरे को कोसते तो सभी हैं........ट्रैफिक जाम,तू जिम्मेवार.....!!रोड पर कूडा ,तू जिम्मेवार....!!कहीं कुछ भी ग़लत हो जाए
प्रस्तुतकर्ता-- भूतनाथ
हिन्दी पत्रकारिता के एक पराक्रमी युग का अवसान
प्रकाश चण्डालिया
संपादक-राष्ट्रीय महानगर (हिन्दी साप्ताहिक)
हिन्दी दैनिक सन्मार्ग के संचालक-संपादक श्री राम अवतार गुप्ता का मंगलवार 23 सितंबर को स्वर्गवास हो गया। वे 83 वर्ष के थे। अदम्य साहस और प्रबल इच्छाशक्ति के प्रतीक गुप्ताजी ने सन्मार्ग को निर्विवाद रूप से पूर्वी भारत का सर्वाधिक प्रसारित हिन्दी दैनिक बनाया। किसी जमाने में वे इस समाचार पत्र के प्रबन्धक हुआ करते थे। तत्कालीन संचालकों ने जब अखबार को बन्द करने का निर्णय किया तो श्री गुप्ता को यह फैसला रास न आया और उन्होंने मालिकों से सन्मार्ग खरीदने की इच्छा प्रकट की। अत्यन्त संघर्ष के बाद उन्होंने सन्मार्ग खरीदा, इसे बखूबी पटरी पर लाए और जीवन की अंतित सांस तक इसकी विकास यात्रा के सारथि बने रहे। उनके इकलौते पुत्र का वर्षों पहले असामयिक निधन हुआ था। इस कारण इस समाचार पत्र को उन्हें स्वयं के पराक्रम से ही संचालित करना पड़ा। बल्कि यूं भी कहा जा सकता है कि कालान्तर में सन्मार्ग परिवार के सभी सदस्य इनके पुत्र सरीखे हो गए। गुप्ताजी अंतिम समय तक अखबार में निरंतर निखार लाने में लगे रहे। न्यूजप्रिंट की कीमतों का हिंसाब तो कोई गुप्ताजी से सीखे। विज्ञापन के क्षेत्र में भी वे एक-एक सेंटीमीटर का मोल समझा करते थे। हिन्दी समाचार पत्र संचालकों में उनका नाम देश भर में आदर के साथ लिया जाता रहा है। वे समाचारपत्र संचालकों की अखिल भारतीय संस्था आईएनएस के पदों पर भी रहे। प्रतिष्ठित मातुश्री पुरस्कार से भी उन्हें नवाजा गया था। श्री राम अवतार गुप्ता अन्य सम्पादकों के मुकाबले आत्मप्रचार से सर्वदा दूर रहे। ऐसा भी नहीं था कि शोहरत ने उन्हें दंभी या आत्ममुग्ध बना दिया था। हिन्दी पत्रकारिता के विकास के लिए उनकी प्रेरणा से अ.भा.हिन्दी पत्रकारिता विकास परिषद की स्थापना की गयी।
गुप्ताजी पर रामजी की कृपा अवश्य थी। सन्मार्ग की यात्रा रामनवमी से शुरू हुयी, उनका नाम राम अवतार था और उनका निधन मंगलवार को हुआ। यह महज संयोग हो सकता है, पर आस्था रखने वाले के साथ प्रभु कहीं न कहीं लीलाएं करते ही रहते हैं। गुप्ताजी के कक्ष में रामदरबार का चित्र सहज ही किसी की भी श्रद्धा का केंद्र बन जाता था।
देश के किसी कोने में भी यदि राष्ट्रीय स्तर का कोई समाचारपत्र प्रकाशन यात्रा शुरु करता है तो स्थानीय स्तर पर अपेक्षाकृत कम संसाधनों पर चलने वाले अखबारों पर प्रतिकूल असर तो पड़ता ही है। पर सन्मार्ग इस मामले में अपवाद माना जा सकता है। नवभारत टाइम्स भी यहां से निकला पर सन्मार्ग को टक्कर नहीं दे पाया। 1991 में इ्ण्डियन एक्सप्रेस के हिन्दी दैनिक जनसत्ता का प्रकाशन शुरू होने पर गुप्ताजी को विचलित होते अवश्य देखा गया था, पर उन्होंने अपनी दूरदर्शिता के साथ सन्मार्ग में कई आमूलचूल परिवर्तन करते हुए पेज बढ़ाए, नतीजतन जनसत्ता की भारी भरकम सम्पादकीय फौज और तेवरों से लोहा लेने में वे कभी पीछे नहीं रहे। जनसत्ता के बाद शहर में और कई बड़े घरानों के अखबारों ने अपनी प्रकाशन यात्रा शुरु अवश्य की, पर सन्मार्ग के करीब आजतक कोई नहीं है। सन्मार्ग का कोलकाता संस्करण देश के इस भूभाग के हजारों हिन्दी पाठकों का पहला प्यार है। हजारों लोगों की नींद सन्मार्ग देखकर खुलती है।
हालांकि यह भी सत्य है कि गुप्ताजी ने जब पेज तीन (अब 4 पर) पर छपास रोगियों की फोटुओं को विज्ञापन का दर्जा देकर प्रकाशित करना शुरु किया तो सुधी पाठक इसे पचा नहीं पाए। आज भी इसे पत्रकारिता के मानदण्ड के खिलाफ माना जाता है। पर इस सम्बन्ध में गुप्ताजी से पूछा जाता तो वे कभी मुंह नहीं छुपाते थे। साफ कहते-यार, यहां हर किसी को अपनी फोटू छपाने का रोग है, किसकी छापें, किसको इनकार करें। छपास रोगियों को आज विज्ञापन की दर से सन्मार्ग में अपनी तस्वीर छपानी पड़ती है। हालांकि यह सिलसिला और अखबारों में भी है, लेकिन सन्मार्ग के अपने तेवर हैं। यही कारण है कि लोग सन्मार्ग में हजारों रुपए देकर फोटुएं छपाते हैं। सन्मार्ग में फोटू छपाने के लिए कुछ का सालाना बजट तो लाखों का है। इसमें भी दो राय नहीं कि ऐसा अधिकतर मारवाड़ी समाज के कुछ मध्यमवर्गीय लोग ही अपनी भड़ास निकालने के लिए करते हैं। कभी कभी तो छपास रोगियों की फोटुएं हास्यास्पद बन जाती हैं। इन सब स्थिति को भांपते हुए लगता है, गुप्ताजी ने सही कदम उठाया था।
गुप्ताजी अन्यान्य सम्पादकों की तरह सामाजिक संस्थाओं में अधिक फेरी नहीं लगाते थे। जब उनकी ऐसा करने की उम्र थी, उनका अपना दौर था, तब भी नहीं। उन्हें इतवारी समारोहों में मंचों पर ज्यादा नहीं देखा जाता था। यही नहीं, सन्मार्ग कार्यालय के समीप ही विशुद्धानन्द सरस्वती विद्यालय में मारवाड़ी समाज का पारम्परिक होली व दीपावली का सम्मेलन हुआ करता है। मारवाड़ी समाज का प्रतिनिधि प्रीति सम्मेलन होने का दावा किया जाता है, पर गुप्ताजी शायद ही ऐसे आयोजनों में शरीक हुए। मेल-मिलाप की रस्म अदायगी के लिए वे कार्यक्रम की समाप्ति पर सभा स्थल पर अवश्य जाते और लोगों से दुआ-सलाम कर वापस अपने कक्ष में लौट जाया करते। सम्मेलन की सभा में मैंने हाल के वर्षों में उन्हें कभी नहीं देखा। इसके पीछे कारण कुछ भी रहा हो, पर मुझे गुप्ता जी के इस कदम पर स्वाभिमानी सम्पादक की भूमिका नकार आती है। वैसे भी जिस प्रतिनिधि प्रीति सम्मेलन में समाज की नेतागिररि करने वाले बमुश्किल 100-150 लोग उपस्थित होते हों, वहां गुप्ताजी जैसे वरिष्ठ पत्रकार की उपस्थिति उनकी कमजोरी पर मुहर ही तो लगाती।
इन पंक्तियों के लेखक को गुप्ताजी का स्नेह एवं आशीर्वाद सदैव प्राप्त हुआ। सन 1999 में मेरे संपादन में निकलने वाले महानगर गार्जियन पर हमला होने पर गुप्ताजी को सूचित किया तो न सिर्फ उन्होंने हर संभव सहयोग का आश्वासन देकर मनोबल बढ़ाया बल्कि सन्मार्ग में इस घटना को प्रमुखता से प्रकाशित भी किया था। यहां अग्रज पत्रकार की भूमिका साफ नकार आती है।
राष्ट्रीय महानगर को भी श्री राम अवतार गुप्ता ने सदैव अपने स्नेह से नवाजा। सांध्य दैनिक से साप्ताहिक संस्करण में तब्दील किए जाने के उपरान्त नए तेवर में आए राष्ट्रीय महानगर की पेज सज्जा और सामग्री के चयन पर उन्होंने अत्यन्त हर्ष व्यक्त किया था और अपना भरपूर आशीर्वाद दिया था। सन्मार्ग के प्रधान संवाददाता सुरेंद्र सिंह ने बताया कि गुप्ताजी ने किस प्रकार सन्मार्ग के सम्पादकीय विभाग के सहयोगियों के समक्ष राष्ट्रीय महानगर को सराहा था। (यह अलग बात है कि जब श्री सुरेंद्र सिंह ने मुझे फोन पर यह जानकारी दी थी, मैं शहर के ही एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार के साथ अहमदाबाद से उदयपुर की यात्रा पर था और वे महाशय राष्ट्रीय महानगर के नए तेवर पर अपनी ईष्र्यात्मक प्रतिक्रिया दे रहे थे)।
वरेण्य श्री राम अवतार गुप्ता के निधन पर हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। गुप्ताजी का नहीं रहना सन्मार्ग के लिए तो दु:खद है ही, पत्रकारिता से जुड़े हर शख्स के लिए यह निजी क्षति जैसी घटना है।
दु:ख की इस घड़ी में उनके उत्तराधिकारी पौत्र विवेक गुप्ता तथा समस्त परिजनों, सन्मार्ग परिवार के समस्त साथियों को परमपिता संबल प्रदान करें, यही कामना है।
अराजकता के विरुद्ध नया इंकलाब
गांधीगीरी से भाईगीरी तक...
- अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
हिंदुस्तान की आजादी में जितना बड़ा योगदान गांधीजी का रहा, उतना ही क्रांतिकारियों का भी। स्वाभाविक-सी बात है कि कहीं हिंसा का प्रतिकार अहिंसा से करना मुनासिब होता है, तो कई मामलों में कांटे से भी कांटा निकालना पड़ता है। यह मौके की नजाकत पर निर्भर करता है कि कब और कहां कौन सा आचरण अपनाया जाए। फिलहाल, इसे भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की चूक कहें या असफलता, भारतीय जनमानस तीसरे रास्ते पर भी चल पड़ा है। हालिया रिलीज फिल्म 'सी कंपनी' इसी मार्ग की विचारधारा की उपज है। मतलब, गुंडा का मुकाबला गुंडई तरीके से करना। इसे आतंकवाद का 'गांधीगीरी संस्करण' भी कह सकते हैं। भ्रष्ट तंत्र के प्रति विरोध जताने के इस तौर-तरीके पर चिंतन बेहद जरूरी है। दरअसल, प्रतिरोध का भाव कब प्रतिशोध में बदल जाए, कह पाना मुश्किल है।
रील की कहानी कहीं न कहीं रियल लाइफ से ही रचती है। फलने-फूलने के हिसाब से मुंबई अंडरवर्ल्ड के लिए सबसे मुनासिब जगह रही है। भारतभर के छोटे-मोटे गुंडा-भाई और चोर-उचक्के मुंबइया अंडरवर्ल्ड को अपना आदर्श मानते रहे हैं। उन्हें अपराध करने और धन उगाही के नवीनतम तौर-तरीके मुंबइछाप अंडरवर्ल्ड से ही सीखने-समझने को मिलते हैं। भारतीय सिनेमा इस प्रशिक्षण को मनोरंजक तरीके से उपलब्ध कराता रहा है।
खैर, यहां बात भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की खामियों के विरोध में जनमानस में पनप रहे आक्रोश की हो रही है, जिसमें भ्रष्टाचार से लेकर आतंकवाद और गुंडागर्दी जैसे सभी विषय शामिल हैं। कानून और प्रशासनिक तंत्र की लचरता ने जन- मानस पर गहरा असर डाला है। वर्ष 2003 में आई 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' और हाल में रिलीज हुई 'सी कंपनी' व 'अ वेन्ज्डे' में फर्क देखिए, जनमानस के बदलते भावों का स्पष्ट आकलन किया जा सकेगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था दिनों-दिनों खराब होती जा रही है। भ्रष्टाचार और निजी हित देश को दीमक की तरह चट करने में लगे हैं।
बहरहाल जितनी तालियां मुन्नाभाई के ह्दय परिवर्तन पर बजी होंगी, उतना ही उल्लास 'अ वेन्ज्डे' और 'सी कंपनी' के दर्शकों में देखने को मिल रहा है। फिल्म समीक्षा के नजरिये से यह विश्लेषण उत्तेजक भले न हो, लेकिन सामाजिक पहलुओं के हिसाब से यह चिंताजनक स्थिति की ओर इंगित करता है।
गुलामी के काल में सिर्फ दो सिद्धांत काम करते थे, पहला अंग्रेजों को खदेड़ना और दूसरा लोकतंत्र की स्थापना। संभवतः ऐसा किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि 'नेता' इस देश में गाली का पर्याय बन जाएगा, वर्ना सुभाष चंद बोस कभी भी खुद को नेताजी कहलाना पसंद नहीं करते! चूंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था की बागडोर राजनीतिक हाथों में है, इसलिए भ्रष्टाचार और अव्यवस्थाओं का 80 प्रतिशत दोष इन्हीं के मत्थे मढा जाएगा। बाकी 20 प्रतिशत भारतीय जनता दोषी है, जो भ्रष्ट नेताओं को वोट देती है या रिश्वत, अन्याय और अन्य अव्यवस्थाओं पर चुप्पी साधे बैठी रहती है।
आतंकवाद, अंडरवर्ल्ड, रिश्वतखोरी, अन्याय-अत्याचार जैसे मसले भारतीय न्यायप्रणाली और राजनीति के दूषित होने का ही नतीजा हैं। चिंताजनक बात यह है कि इनका विरोध करने का तरीका धीरे-धीरे गांधीगीरी के इतर दूसरे रूप अख्तियार कर रहा है। 2006 में आई 'लगे रहो मुन्नाभाई' की गांधीगीरी से प्रेरित भारतीय जनमानस धीरे-धीरे दूसरे तौर-तरीके भी अपना रहा है। इसी साल आई 'अपरचित' में नायक विक्रम और 1996 में रिलीज हुई 'हिंदुस्तानी' में कमल हासन के चरित्र ने प्रतिरोध की नई परिभाषा रची थी। यहां विरोध के भाव में प्रतिशोध की झलक भी स्पष्ट देखी गई। हाल में आईं 'अ वेन्ज्डे' और 'सी कंपनी' देश और समाज के हित में एक नई लड़ाई की शुरुआत कही जा सकती हैं। इसे अरब मुल्कों की न्याय प्रणाली का देसी संस्करण माना जा सकता है। मतलब-खून का बदला खून और लूट का बदला लूट....!
हर कला के पीछे कुछ उद्देश्य निहित होते हैं। यह उद्देश्य क्या हैं, यह फिल्म के जनक के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। सिनेमा रामगोपाल वर्मा भी रचते हैं और विधु विनोद चोपड़ा भी। यह जरूरी नहीं कि हरेक फिल्म में शत-प्रतिशत मनोरंजन का मसाला ही इस्तेमाल किया गया हो? 'अ वेन्ज्डे' की रचना करते समय नीरज पांडे की सोच अलग रही होगी और 'सी कंपनी' तैयार करते समय एकता कपूर की अलग। दरअसल, पिछले कुछ सालों में भारतीय सिनेमा यथार्थ को जीने लगा है...और 'द वेन्ज्डे' एवं 'सी कंपनी' ने जनमानस के भीतर की अकुलाहट और आग को ही बाहर निकाला है। यह गंभीर विषय है, जिस पर सामूहिक चिंतन अत्यंत जरूरी है।
कुछ टिप्स बीआरपी के लिए
25.9.08
फिर सुर्खियों में आया जामिया नगर
बीबीसी हिंदी डॉटकॉम से साभार
अब्दुल वाहिद आज़ाद बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए, दिल्ली से
फिर सुर्खियों में आया जामिया नगर
दिल्ली का जामिया नगर इलाक़ा फिर सुर्खियों में छाया हुआ है. शुक्रवार की सुबह पुलिस मुठभेड़ में वहाँ दो संदिग्ध चरमपंथी मारे गए.
जामिया नगर में पुलिस और चरमपंथियों के बीच मुठभेड़ की ये कोई पहली घटना नहीं है. इससे पहले भी वहाँ वर्ष 2000 में पुलिस और चरमपंथियों के बीच मुठभेड़ हो चुकी है.
पिछले वर्ष भी इसी महीने में कथित तौर पर कुरान की तौहीन को लेकर पुलिस और आम लोगों के बीच झड़पें हुईं थीं और एक पुलिस चौकी को आग लगा दी गई थी।
मुस्लिम बहुल इलाक़ा
जामिया नगर एक मुस्लिम बहुल इलाक़ा है. जाकिर नगर, बाटला हाउस, जोगा बाई, ग़फ़्फ़ार मंज़िल, नूर नगर, ओखला गाँव, अबुल फ़ज़ल एनक्लेव और शाहीन बाग सभी जामिया नगर में पड़ते हैं.
ओखला गाँव को छोड़ दें तो सभी मुहल्लों में लगभग पूरी आबादी सिर्फ़ मुसलमानों की ही है।
इन इलाक़ों में अधिकतर लोग उत्तर प्रदेश और बिहार से आकर बसे हैं.
नब्बे के दशक में जब देश में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता की लहर तेज़ थी तब दिल्ली के कई हिंदू बहुल इलाक़ो को छोड़ मुसलमान इस इलाक़े में बसते चले गए।
छात्रों की आबादी
आबादी घनी होती चली गई. अधिकारी मानते हैं कि ये शायद दिल्ली के सबसे तेज़ आबादी बढ़ने वाले इलाक़ों में से एक है.
दूसरी तरफ़ इसी इलाक़े में जामिया मिल्लिया इस्लामिया स्थित है. इस विश्वविद्यालय के कारण ये सिर्फ़ मुस्लिम बहुल इलाक़े के तौर पर ही नहीं बल्कि ऐसे इलाक़े के तौर पर भी जाना जाता है जहाँ पढ़े-लिखे मुसलमान रहते हैं.
हज़ारो की तादाद में छात्र भी वहाँ रहते हैं और वो समाज का एक अहम हिस्सा हैं. छात्र जामिया नगर के धार्मिक और राजनीतिक मामलों में काफ़ी सक्रिय भूमिका निभाते हैं.
इस सबके साथ देश में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जामात-ए-इस्लामी हिंद सहित अनेक मुस्लिम धार्मिक संगठनों और अन्य ग़ैरसरकारी संगठनों के दफ़्तर भी वहीं हैं।
सद्दाम, मोदी चर्चा का विषय
देश-दुनिया में कहीं कुछ हो, अगर उसका संबंध मुसलमानों से हो तो उस इलाक़े में उसके पक्ष या विपक्ष में आवाज़ें उठनी लाज़मी हैं. सद्दाम, मोदी, कार्टून विवाद, सभी चर्चा का गरमागरम विषय रहे हैं.
जामिया नगर के बाटला हाउस चौक पर अक्सर धार्मिक और राजनीतिक जलसे जुलूस होते रहते हैं.
मैंने देखा है कि इन भाषणों में ऐसी अनेक बाते खुल कर बोली जाती है जिन्हें हर जगह पर सार्वजनिक तौर पर बोलना आसान नहीं है. इनमें 'हिन्दुत्व के प्रतीक' लाल कृष्ण अडवाणी और बाल ठाकरे की कड़ी आलोचना शामिल है.
हालाँकि वक्ताओं के अंदर का उबाल इन भाषणों में साफ़ ज़ाहिर होता है लेकिन आम लोगों का सरोकार इन सब बातों से कम ही होता है। एक बड़ी आबादी के बावजूद किसी भी जलसे जुलूस में मैंने 200-300 से अधिक लोग मौजूद नहीं देखे हैं.
उग्र रवैया और पुलिस की गश्त
जहाँ मुसलमानों की घनी आबादी के कारण कुछ लोग उग्र भी नज़र आते हैं तो पुलिस की निगरानी भी उस इलाक़े में बहुत ज़यादा रहती है. कई मुहल्लों में पुलिस हर समय गश्त लगाती रहती है.
जामिया नगर का काफ़ी इलाक़ा अनाधिकृत है और पुलिस से लेन-देन स्थानीय नागरिकों के लिए कोई असाधारण बात नहीं है. ऐसे में अनेक लोगों को लगता है कि पुलिस उनके साथ ज़्यादती बरत रही है. ये भावना इसलिए भी ज़्यादा होती है कि क्यों कि अधिकतर पुलिस वाले ग़ैर मुसलमान होते हैं.
अनाधिकृत कॉलोनी होने के कारण जामिया नगर के अनेक इलाक़ों में नागरिक सुविधाएँ - बिजली, पानी, सीवर और सड़को की हालत ख़राब है। लेकिन मुसलमानों में ये आम धारणा है कि सरकार मुस्लिम मुहल्ला होने के कारण 'सौतेला सुलूक' कर रही है. कई आम निवासी बातचीत में यह भी अक्सर कहते हैं कि ऐसा तो पूरे भारत में हो रहा है.
थाना आया पर सुविधाएँ नहीं
अनेक निवासियों का तर्क है कि पिछले वर्ष जब पुलिस और आम लोगों की झड़पें हुईं तो वहाँ थाना बना दिया गया.
कई जगह पर चिपकाए गए पोस्टरों में ये सवाल उठाए गए हैं कि सड़क, बिजली, पानी, सीवर, अस्पताल और स्कूल की ख़राब हालत कब सुधरेगी.
वहाँ के मुसलमान निवासी ये कहते हैं कि जब भी देश में धमाका होता है तो डर लगने लगता है क्योंकि पुलिस अक्सर कई लोगों को पूछताछ के लिए उठाकर ले जाती है.
दिल्ली बम धमाकों के बाद भी यहाँ से दो लोगों को पूछताछ के लिए पुलिस ले गई थी. वो दोनों पढ़े लिखे थे. इस घटना के बाद पढ़ा-लिखा वर्ग भी सहमा हुआ है.
शुक्रवार की मुठभेड़ से इलाके में क्या माहौल बनता है ये तो देखना बाक़ी है लेकिन ग़ौरतलब है कि पिछले पाँच साल से इस क्षेत्र में रहने वाले हिंदू छात्रों की संख्या बढ़ रही है. भय सा लगता है कि कहीं इस पनपती साझा संस्कृति पर विराम न लग जाए.
और भी गम है ज़माने में
पहले बाढ़ फिर बम उससे पहले सिंगूर ,संसद में लूट ,नॉएडा यानि समाचार और चर्चाये करेंट टोपिक्स पर ही होती है । इन सब में महत्वपूर्ण मुद्दे जिनको जरुरत है ध्यान देने की पीछे छूट जाते है । और हम लोग एक ही मुद्दे के पीछे पड़ जाते है उसी पर टिपणी उसी पर कहानी उसी पर चर्चा उसी पर चिट्टा ।
आज कोई किसानो की बात नहीं कर रहा ,गरीबो की बात नहीं कर रहा ,गाँव की चर्चा में तो शायद बदबू आती है इसलिए यह तो पूरी तरह वर्जित । क्यों तथाकथित बुद्धिजीवी शबाना के घर के लिए चिंतित तो थे लेकिन गाँव,गरीब, किसान, झुग्गी झोपड़ी के इंसान के लिए उनकी रूचि नहीं दिखती ।
अनाज महंगा हो गया ,सब्जी महंगी हो गई ,दाले महंगी हो गई लेकिन कभी इसके पीछे यह देखा जो इनको पैदा कर रहा है उसकी लागत तो बढ गई लेकिन उसकी आमदनी तो घट गई । मुनाफा किसकी जेब में गया इस पर कोई चर्चा नहीं होती जो होनी चाहिए ।
अमीर और ज्यादा अमीर ,गरीब और ज्यादा गरीब होता जा रहा है । वह तो गरीबो की कोई फोर्ब्स मेगजीन नहीं है अगर होती तो पहले से आखिरी नंबर तक भारतीय ही होते । हम कंप्युटर पर उंगली चलाने वाले लोग सिर्फ एक ही ओर दौड़ लगाते है । कभी इस ओर भी ध्यान दें।
मुझे मालूम है बहुत लोग यह सब बकबास समझ कर इस को पढने में अपना समय जाया नहीं करेंगे । लेकिन एक बात मान लीजिये जब गरीब की हाय नहीं सुनी जाती तब क्रांति होती है ,ओर क्रांति की आग हम वातान्कुलित कमरों में बैठ कर खाली दिमाग दौडाने वाले को जायदा तपिश देगी ।
बेचारे मजदूरों के बेचारे मजदूर मन्त्री
यह वही देश है जहां राजस्थान में पानी मांग रहे किसानों की हत्या कर दी जाती है। मायावती के गांव में आन्दोलनकारी किसानों की हत्या पुलिसवाले कर देते हैं। यहीं ग्रेटर नोएडा में ही पिछले साल एक निर्माणाधीन गोल्फ क्लब में गुस्साए मजदूरों पर भाड़े के गार्ड ने गोली बरसा दी और परिणाम मौत के रूप में सामने आया। गुड़गांव में मेरी आंख के सामने हरियाणा पुलिस ने हीरो होंडा कम्पनी के मजदूरों की बर्बर पिटाई की। और जगहों की पुलिस बेंत के डंडे रखती है लेकिन हरियाणा पुलिस शुद्ध बांस की लाठी। मारो तो सीधे फ्रैक्चर, अंग भंग हो जाए। मजदूरों के साथ छोटी-मोटी बदसलूकी की असंख्य घटनाएं तो रोज ही घटती हैं। ऐसी घटनाओं की सुधि लेने वाला कोई नहीं होता क्योंकि यह मजूरी-धतूरी करने वाले से संबंधित होती हैं।
खैर, ग्रेटर नोएडा में ग्रेजियानो कंपनी के सीईओ की दुखद मौत हो गई। झड़प में हुई मौत को कतई सही नहीं ठहराया जा सकता। इस घटना को टाला जा सकता था लेकिन अफसोस! कि ऐसा नहीं हो पाया। इसके पीछे के कारणों की पड़ताल होनी चाहिए। देश में कम से कम मल्टीनेशनल कंपनियों या अन्य देशी कंपनियां जिनके पास पूंजी का कोई अभाव नहीं है उनसे यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वे श्रम नियमों का सही से पालन करेंगे। इन नियमों का पालन कराने की जिम्मेदारी सरकार की है। लेकिन सरकार ऐसा कराने में अब तक विफल रही है। यहां तो मजदूरों के लिए सप्ताह में दो दिन की छुट्टी और बीमा, पीएफ से लेकर अन्य तमाम सुविधाएं मिलनी चाहिए। सुविधाओं का पिटारा सिर्फ कम्पनियों के लिए ही क्यों? मजदूरों के लिए क्यों नहीं? कंपनी को दस एकड़ भूमि की जगह पचास एकड़ भूमि क्यों? सेज के नाम पर कहीं प्रॉपर्टी डीलिंग के लिए तो नहीं भूमि दी जा रही है। इस स्थिति में अगर किसान आन्दोलन करें, कोई उनका रहनुमा बने तो वो विकास विरोधी। पुरखों की जमीन खो देने वाले किसान के दर्द का कोई पुरसाहाल नहीं।
आइए मूल मुद्दे पर चलें। अमेरिका गए प्रधानमन्त्री ने सीईओ की मौत के मामले में वहीं से हस्तक्षेप किया है। मजदूर मरता तो कोई पीएमओ हस्तक्षेप नहीं करता। दरअसल पीएमओ चिन्तित है कि इस घटना से भारत में विदेशी निवेश पर असर पड़ेगा। जहां माल की बात हो वहां मजदूर तो गौड़ हो ही जायेगा। देशवासियों गुनगुनाइए 'बाबू बड़ा न भइया सबसे बड़ा रुपैया' ।
राहुल गांधी पंजाब दौरे पर हैं। गांव-गांव, शहर-शहर घूम रहे हैं। इसे हमें लोकतन्त्र की जय के रूप में देखना चाहिए। जबकि ऊपर की घटना फेल लोकतन्त्र की प्रतीक है। लोकतन्त्र की जय इसलिए की युवराज अब घर-घर घूम रहे हैं। कभी कलावती का घर तो कभी मंगरुआ का घर उनके रात का आशियाना बन रहा है। झोपड़ी को वह एक दिन के लिए ही सही अपना ठिकामना बना रहे हैं। पहले के समय में ऐसा नहीं था। तब नेता दिल्ली से हाथ जोड़कर आता था और चुनाव जीतकर टाटा-बाय-बाय करते हुए वापस दिल्ली चला जाता था। कलेक्टर साहिब सिर्फ मीटिंग करने के लिए बने होते थे लेकिन अब अपनी साख बचाने के लिए शासन उनको कभी बंधा पर तो कभी हरिजन बस्ती में दौड़ाता है। बचपन से लेकर अब तक मैंने ऐसी स्थिति में भारी बदलाव देखा है। एक उदाहरण गोरखनाथ पीठ का देना चाहूंगा। गोरखपुर सदर संसदीय सीट पर यहां की पीठ का शुरू से कब्जा रहा है। बीच-बीच में ही कुछ लोग यहां से सांसद हो पाए हैं। पहले महन्थ दिग्विजय नाथ फिर महन्थ अवैद्य नाथ पुन: तीन बार से योगी आदित्य नाथ। योगी से पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि 'महाराज जी'(श्रद्धा से लोग यही कहते हैं) घर-घर वोट मांगने आयेंगे। पांच किलोमीटर के दायरे में किसी चौराहे पर भी इनकी सभा नहीं होती थी। एक विधानसभा क्षेत्र में केवल एक जगह पर मंच लगाकर महाराज जी लोग आशीर्वाद, साधुवाद दे दिया करते थे। लेकिन वक्त के साथ राजनीति का तकाजा भी बदला। अब घर-घर जाकर काम करना पड़ता है और वोट भी मांगना पड़ता है। जनता अब ज्यादा सजग हो गई है और उसमें जातीय या अन्य कई प्रकार की चेतना आ गई है। इसलिए अब किसी की भी सीट सुरक्षित नहीं रही। मजबूरन लोगों को गली-गली की खाक छाननी पड़ रही है। लेकिन अफसोस कि मीडिया अब भी राहुल को 'युवराज'कहता है। लोकतन्त्र में कोई राज-युवराज नहीं। वैसे भी राहुल की लोकप्रियता तो है लेकिन उनके पास वोट नहीं है।
वेद रत्न शुक्ल
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