10.3.09
इंदौर की यादें
दोस्तों, इंदौर की दो दिनी यात्रा मजेदार रही। सचिन बाबू से लेकर कई नए-पुराने पत्रकार मित्रों से मुलाकात हुई जो विभिन्न अखबारों में काम कर रहे हैं। साथ में इंदौर शहर को जानने-समझने का भी मौका मिला। इस यात्रा पर एक रिपोर्ट और अन्य तस्वीरों को आप भड़ास4मीडिया पर देख-पढ़ सकते हैं, क्लिक करें-
इंदौर यात्रा : जहाज, दारू, दिग्गज और विमर्श
'पत्रकारिता महोत्सव' की गूंज दूर तक सुनाई देगी
आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा।
यशवंत सिंह
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh
Labels: इंदौर दौरा, तस्वीर, भड़ास, भड़ास4मीडिया, भ्रमण, रिपोर्ट
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22 comments:
शानदार रिपोर्ट है यशवंत भाई। आपने जिस तरह से देखा और महसूस किया है उसी तरह से लिख भी दिया है। इसी को कहते हैं सच्ची रिपोर्टिंग। पत्रकारों को सीखना चाहिए इस रिपोर्ट से कि कैसी किसी जगह की लाइव और पठनीय तस्वीर उभारी जाती है। आपको साधुवाद, रिपोर्ट व तस्वीरों के जरिए इंदौर यात्रा कराने के लिए।
यशवंत जी, सबसे पहले तो अपने अनुभव बांटने के लिए धन्यवाद.
जब यह लेख पढना शुरू किया तो सोचा कुछ बेहतर पढने को मिलेगा, सोचा जिन बडे लोगों के संग आप बैठे, उनकी छोटी मोटी हरकतों को हूबहू उतारेंगे लेकिन लेख की समाप्ति पर एहसास हुआ कि आप शराब और कबाब से तो आगे ही नहीं बढ सके. सच कहूं, आपके इस लंबे लेख से मायूसी ही हुई.
पैग के बीच समाजवाद की बात थोडी अखरी. इस बात ने भी आहत किया कि आपके भीतर का पत्रकार भी मरता है. लेकिन यह सिर्फ आपका किस्सा थोडे ही है, शुक्र है आपने तो बडी साफगोई से इस मौत को स्वीकार लिया......हममें से तो कई को पता ही नहीं चलता कि उनके भीतर का पत्रकार कब मर गया.
अगले लेख में कुछ स्तरीय पढाने की कोशिश करें तो बेहतर होगा........
--
Thanks & regards
Aditya Shukla
Dainik Bhaskar
दोस्त आदित्य जी, सच को सच तरीके से कहने की कोशिश की। जिन बड़े लोगों की छोटी मोटी बातें जानने की आपके अंदर प्रबल इच्छा है, उन बड़े लोगों को दरअसल पता था कि उनके आसपास कई ऐसे लोग हैं जो उनकी छोटी मोटी हरकत को आंखों में और दिमाग में कैद कर सकते हैं। वैसे भी, आजकल का बड़ा होना यही होता है कि आप बाहर शालीन, शिष्ट, आदर्शवादी और सरोकार वाला दिखें, बंद कमरे में चाहे जो अंधेरा जिएं, उसे कौन जानता है। आपने अपनी राय बेबाक तरीके से दी है, इसलिए मैं आपकी राय का हृदय से सम्मान कर रहा हूं। दरअसल इस यात्रा में मैंने जो कुछ देखा, महसूस किया, उसे लिखने की कोशिश की है। आपको अंदाजा होगा कि अपने अंदर के द्वंद्व को लिख पाना कितना मुश्किल होता है पर मैंने किसी द्वंद्व को वो चाहे कितना ही छोटा या बड़ा हो, उसे छिपाने की कोशिश नहीं की है। वैसे, अगर आपको लगता है कि कोई ऐसी बात है जिसे लिखा जाना चाहिए तो उसे भेजिए, जरूर पब्लिश किया जाएगा लेकिन मुझे पता है भारत में लोग तमाशा देखने में ज्यादा मजा लेते हैं, अखाड़े में पहलवानी करने का शौक कम लोग ही पालते हैं।
होली की मुबारकबाद के साथ
यशवंत सिंह
आपकी भाषा में जबर्दस्त प्रवाह है. दूसरी बात है कि मदिरा प्रकरण का ज़िक्र आपने जिस साहस और खुलेपन के साथ किया है वो आम तौर पर दिखता नहीं है.
achha likha padhkar. isme ek yatra ka jeevant varnan hai. yava lekhkon ko seekhne ke liye isme bahut kuch hai. prayas zaree rakhiye. is bar business class me travel karna lekhni aur achha likhegee.
यशवंत,
तुम सचमुच अच्छा लिखते हो. अपन को भी कुंठित कर दिया. लेकिन मुझे लगता है पत्रकारिता के जो सरोकार सामने आये, जो विरोधाभास दिखे, उन पर धारावाहिक लिखना चाहिए.
एक और बात. अभय छजलानी निपट लाला है. एक प्रभाष जोशी बचे हैं जिन से संपर्क पर नई दुनिया गर्व कर सकता है, उन्हें नहीं बुलाया क्योंकि वे खरी-खरी कहते हैं और नई दुनिया के बंटवारे में उन्होंने स्थापना करने वाले नरेन्द्र तिवारी का साथ दिया था. मेरी ये आपत्ति दर्ज की जाए . भाऊ दोस्त है, संदीप छोटा भाई है मगर ज्यादातर नाम जो तुम गिना रहे हो वे खुद पर तो सोच नहीं सकते, पत्रकारिता पर क्या विमर्श करेंगे? रही बात पद्मश्री की तो ये किसी भी चूतिये को मिल जाता है.देवी सिंह शेखावत को राष्ट्रपत्नी का पति होने पर शर्म क्यों आती है. प्रतिभा पाटिल नहीं आईं तो उन्हें बुला लिया. वरना ठाकुर साब को जानता कौन है?
एक और बात. हिन्दी भाषाई पत्रकारिता नहीं है. हिन्दी राष्ट्रीय पत्रकारिता है. ये छजलानियों को क्या पता. जो साले करोडों का वेंचर रोकडा पा कर वेबदुनिया को भड़ास नहीं बना सके, जहां खबर बाद में छपती ही और खंडन पहले--एइसे मालिक का क्या और उसके भांडों का क्या.
तुमने मज़ा किया ये अच्छी बात है.
यशवंत,
तुम सचमुच अच्छा लिखते हो. अपन को भी कुंठित कर दिया. लेकिन मुझे लगता है पत्रकारिता के जो सरोकार सामने आये, जो विरोधाभास दिखे, उन पर धारावाहिक लिखना चाहिए.
एक और बात. अभय छजलानी निपट लाला है. एक प्रभाष जोशी बचे हैं जिन से संपर्क पर नई दुनिया गर्व कर सकता है, उन्हें नहीं बुलाया क्योंकि वे खरी-खरी कहते हैं और नई दुनिया के बंटवारे में उन्होंने स्थापना करने वाले नरेन्द्र तिवारी का साथ दिया था. मेरी ये आपत्ति दर्ज की जाए . भाऊ दोस्त है, संदीप छोटा भाई है मगर ज्यादातर नाम जो तुम गिना रहे हो वे खुद पर तो सोच नहीं सकते, पत्रकारिता पर क्या विमर्श करेंगे? रही बात पद्मश्री की तो ये किसी भी चूतिये को मिल जाता है.देवी सिंह शेखावत को राष्ट्रपत्नी का पति होने पर शर्म क्यों आती है. प्रतिभा पाटिल नहीं आईं तो उन्हें बुला लिया. वरना ठाकुर साब को जानता कौन है?
एक और बात. हिन्दी भाषाई पत्रकारिता नहीं है. हिन्दी राष्ट्रीय पत्रकारिता है. ये छजलानियों को क्या पता. जो साले करोडों का वेंचर रोकडा पा कर वेबदुनिया को भड़ास नहीं बना सके, जहां खबर बाद में छपती ही और खंडन पहले--एइसे मालिक का क्या और उसके भांडों का क्या.
तुमने मज़ा किया ये अच्छी बात है.
Yashwant ji,
JAHAZ, Helicopter "Gasoline" se Nahi, Aviation Turbine Fuel (ATF) SE CHALTI HAI.
Europe, America Main Car aur Dusare Wahan "Gasoline" Ya "Diesel" Se Chalte Hain.
Wish you and Ajay ji, a very happy Holi.
Pushpranjan.
Alok Tomar is right, if Chhajlanis have so daring then they can do what Bhaskar has done in North India and in Gujarat. even they can do now also. But they are not in a position to take on Bhaskar or Patrika. This is slowdown time if they are planning to expand their business then it is a right time.
शानदार रिपोर्ट है यशवंत भाई। अपने अनुभव बांटने के लिए धन्यवाद.
अच्छा लगा पढ़ कर
होली की शुभकामनायें
भाई यशवंत
वाकई तुमने अच्छा लिखा है लेकिन पुराने और अवशेष पत्रकार आलोक तोमर को पता नहीं क्यों बेवजह खुजाने की आदत पड़ गई है। दुख तो तब होता है जब शराब और शबाब में डूबा रहने वाला कोई इंसान, जिसकी सिगरेट व शराब कुछ दिन पहले डाक्टर बंद करा चुके हैं, किसी को सीख दे या फिर घटिया शब्दों का इस्तेमाल करे। किसी भी पत्रकार या प्रबंधन को कोई सीख देने से पहले आलोक को अपने गिरेबां में अवश्य झांक लेना चाहिए।
प्रिय अज्ञात जी,
मुझे अवशेष बताने से पहले नाम बता देते तो जान पाटा की आपकी अवशेष बनाने की भी औकात है या नहीं. मेरी सिगरेट और शराब पीने से या बंद हो जाने से इस बात पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि तथ्य क्या हैं. तथ्य ये है कि नई दुनिया एक चल चुका कारतूस है और वेबदुनिया बेचारी तो कभी चली ही नहीं.
आपकी हिन्दी का प्रवाह देख कर लगता है कि आओ भी हिन्दी वाले हैं मगर हैरत है कि हिन्दी पत्रकारिता को भाषाई पत्रकारिता करार देने वालों की हरक़त का समर्थन कर रहे हैं. नई दुनिया को राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, राहुल बारपुते ने मानक बनाया था. अभय छजलानी को पद्मश्री क्या पत्रकारों का पेट काट कर टका कमाने के लिए दी गयी है? यशवंत तो अच्छा लिखते ही हैं.
मेरे अवशेष होने पर शोक मत जाहिर करो दोस्त. मेरी बर्बादी पर तरस खाने वालो, मुझे माफ़ करो, में अभी ज़िंदा हूँ, और तुमसे जियादा ज़िंदा.
आलोक तोमर
अभय छजलानी की औकात क्या है?
बाबू लाभ चंद्र छजलानी गुजराती मूल के कारोबारी थे जो इंदौर आ कर बस गए थे। आजादी की लड़ाई में उन्होंने हिस्सा लिया और देश जब आजाद होने वाला ही था तो 1947 में अपने साथी बसंती लाल सेठिया के साथ मिल कर उन्होंने पहले साप्ताहिक और फिर दैनिक अखबार की शुरूआत की। नाम था नई दुनिया क्योंकि बाबूजी के अनुसार आजादी के बाद भारत एक नई दुनिया में प्रवेश कर गया था।
लाभ चंद्र छजलानी नई दुनिया निकालते थे लेकिन पुरानी दुनिया के इंसान थे। उन्हें अपना अखबार दुकानों तक साइकिल और बाद में स्कूटर के पीछे रख कर ले जाने में लाज नहीं आती थी। नई शैली थी और आजादी का सात्विक उन्माद था इसलिए नई दुनिया चल निकला। धीरे धीरे और सहयोगी जुड़े और नई दुनिया मालवा इलाके का एक सबसे बड़ा अखबार तो बन ही गया, पूरे देश के मानक हिंदी समाचार पत्र के तौर पर इसकी गिनती हुई।
सन सैतालीस में अखबार शुरू हुआ था और 1960 आते आते इसकी काफी प्रतिष्ठा हो गई थी। सर्वोदय की ओर जा चुके प्रभाष जोशी स्कूल की पढ़ाई छोड़ कर विनोबा भावे के काफिले में शामिल हो गए थे और रोज संत विनोबा की भूदान यात्रा का विवरण लिखते थे। अंग्रेजी में एमए कर रहे राजेंद्र माथुर नई दुनिया में हिंदी साहित्य का पन्ना देखते थे। शरद जोशी उस समय भी व्यंग लिखते थे और नई दुनिया के पाठकों के लिए आकर्षण का एक पात्र थे।
राहुल बारपुते के बारे में जितना सुना है, वे संत प्रवृत्ति के ज्ञानी थे और कुमार गंधर्व से ले कर उस्ताद आमीर खां और उस समय के क्रिकेट स्टार सीके नायडू के साथ उनका उठना बैठना था। नई दुनिया को प्रारंभिक भाषायी व्याकरण का संस्कार राहुल जी ने ही दिया।
अब नई दुनिया के पूरे देश से दर्जनों संस्करण हैं, रंगीन पन्नों पर छपता है और फिलहाल पत्रकारों को मोटी पगार दे रहा है। इसके संपादक आलोक मेहता ने पत्रकारिता का जीवन नई दुनिया से ही शुरू किया था और इसी साल उन्हें उनके व्यक्तिगत गुणों के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। प्रसंगवश पद्मश्री के प्रमाण पत्र पर जो भाषा लिखी होती है उस पर साफ शब्दों में लिखा होता है कि मैं भारत का राष्ट्रपति आपको आपके व्यक्तिगत गुणों के लिए पद्मश्री से अलंकृत करता हूं। आलोक जी के व्यक्तिगत गुण और प्रतिभा से सभी परिचित हैं लेकिन इस साल की पद्मश्री की सूची में किसी एक अभय छजलानी का भी नाम है जिनके व्यक्तिगत गुणों को भी भारत की महामहिम राष्ट्रपति ने अलंकृत करने लायक समझा है।
अभय छजलानी के व्यक्तिगत गुण क्या है यह या तो प्रतिभा पाटिल जानती हाेंगी या खुद छजलानी। लेकिन इतना जरूर है कि इस गुजराती लाला को पद्मश्री से विभूषित किया गया तो पूरे देश ने जय हो का नारा नहीं लगाया और इससे शायद लाला जी बहुत आहत हुए। उन्होंने पूरे देश के पत्रकारों को जिनमें बहुत सारे अल्लू पल्लू भी थे, हवाई जहाज का टिकट दे कर इंदौर बुलाया, बड़े होटलों में ठहराया, दावतें दी और बहाना बना रहे इसलिए इंदौर प्रेस क्लब को चंदा दे कर एक सेमिनार भी करवा डाला। लाला जी से भाषायी या पत्रकारिता के सरोकारों की उम्मीद करना व्यर्थ है मगर अपने जो साथी इस सेमिनार में उत्साहपूर्वक शामिल हुए थे और जिन्होंने नई दुनिया के बहाने अभय छजलानी की शान के झंडे गाढ़ दिए थे, उन्हें भी इस सेमिनार के विषय पर कोई ऐतराज नहीं हुआ। नई दुनिया जो अपने आपको अब भी देश का मानक हिंदी अखबार कहता है, ने विषय चुना था वह यह था भाषायी पत्रकारिता में हिंदी की भूमिका।
जिसने भी यह विषय चुना था उसको सूली पर चढ़ा देना चाहिए। जिन विद्वानों ने इस विषय पर अपने उच्च विचार रखे थे उन्हें भी अपने आप से पूछना चाहिए कि अगर हिंदी सिर्फ एक भाषायी समाचार लिपि है तो फिर मैथिली और भोजपुरी क्या है? कायदे से तो इनका अपना व्याकरण है और इन्हें भाषा होना चाहिए मगर वह बरस बाद में चलती रह सकती है। अपने को तो यह हजम नहीं हो रहा कि एक वह अखबार जो अपने को मानक सिद्व करने पर तुला हुआ है, हिंदी को राष्ट्रीय की बजाय भाषायी सिद्व करने की कोशिश क्यों कर रहा है? राजभाषा और राष्ट्रभाषा के सरकारी विज्ञापन जब जारी होते हैं तो लेने में इन्हें शर्म नहीं आती। इनका एक मरियल सा वेब पोर्टल वेब दुनिया के नाम से चल रहा है और हिंदी, अंग्रेजी के संकर नाम वाले इस पोर्टल के लिए विदेशों से पूंजी जुगाड़ते वक्त हिंदी का वर्णन देश की सबसे बड़ी भाषा के तौर पर कारोबारी भीख मांगने वाले दस्तावेजों में किया जाता है। जब रोकड़ा चाहिए तो हिंदी महान वरना वह तो एक, जैसा इस प्रायोजित सेमिनार में कहा गया, हिंदी एक वर्नाक्युलर यानी देहाती और आदिवासी किस्म की भाषा है। भाषा भी नहीं वर्नाक्युलर का अनुवाद तो बोली होता है। जैसे अवधी है, बुंदेलखंडी हैं वैसे ही अभय छजलानी की राय में हिंदी भी हैं। इसी हिंदी की कमाई से वे खुद को श्रध्दांजलि देने के लिए पूरे देश से पत्रकारों को जमा करते हैं, उनकी सेवा सत्कार करते हैं और बुढ़ापे में पद्मश्री पा कर धन्य हो जाते हैं।
अभय छजलानी का दुस्साहस तो देखिए। वे कहते हैं कि नई दुनिया ने पत्रकारिता की कई पीढ़ियों को बनाया। वे कहते हैं कि राजेंद्र माथुर को हमने बनाया। शरद जोशी को हमने बनाया। प्रभाष जोशी को न वे याद करते हैं और न बुलाते हैं। इसलिए कि जब नई दुनिया कारोबार हो गया और अभय छजलानी डंडी मारने लगे तो इसका विरोध करने वालों में प्रभाष जोशी भी थे। नई दुनिया की यह औकात कभी नहीं थी कि वह राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी को बनाए। उल्टे इन लोगों ने नई दुनिया को आकार और सम्मान दिया है। राजेंद्र माथुर की विशाल दृष्टि और प्रभाष जोशी की भाषा ने नई दुनिया को रचा है और लाला अभय छजलानी किराए पर बुलाई गई भीड़ की मौजूदगी में अगर यह बात मंजूर नहीं कर रहे तो उनमें और एक परचूनिए में फर्क क्या रहा जाता है?
राजेंद्र माथुर ने तो लगभग जिंदगी भर इंदौर के गुजराती कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाई और अखबारों में हिंदी लिखी। रज्जू बाबू के बहुत सारे लिखे में ऐसे संदर्भ और इतनी प्रवाहमान कविता वाली भाषा होती थी कि अभय छजलानी की समझ में भी नहीं आती होगी। लेकिन न राजेंद्र माथुर को पद्मश्री मिली और न प्रभाष जोशी को। लाला अभय छजलानी को भी पद्मश्री इसलिए मिल गई क्योंकि उनके संपादक आलोक मेहता संपर्कशील प्राणी हैं और उनकी सरकार में इतनी चलती है कि वे अभय छजलानी तो क्या किसी मनोहर लिम्बूदिया को भी पद्मश्री दिलवा दें। पद्मश्री कैसे मिलती है ये सब जानते हैं। हमारे दोस्त सुधीर तैलंग को बयालीस साल की उम्र में पद्मश्री मिल गई थी और उन्होंने आज तक अपने को दावत नहीं दी। उनके पास हराम का पैसा नहीं हैं।
अगर आप ये समझ रहे हैं कि अभय छजलानी से अपना कोई व्यक्तिगत बैर है तो आपकी जानकारी के लिए इस लाला की आज तक अपन ने छवि भी नहीं देखी। इंदौर सैकड़ों बार जाना हुआ है लेकिन नई दुनिया परिसर में घुसने की कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। चलते चलते अभय छजलानी और उनके चमचों को दो बातें कहनी हैं। एक तो हिंदी को वर्नाक्युलर यानी क्षेत्रीय भाषा मानने की भूल मत करना और दूसरे मिल कर कामना करना कि अभय छजलानी को भारत रत्न मिल जाए। जो व्यक्ति पद्मश्री मिलने पर इतना बड़ा तामझाम खड़ा कर सकता है वह भारत रत्न मिलने पर तो पूरे देश में इमरती बंटवाएगा। रही बात राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी को रचने की तो अभय छजलानी और नई दुनिया की ये औकात कभी नहीं रही कि वे हिंदी पत्रकारिता की किवदंतियों को रच सकें। वे ज्यादा से ज्यादा पंकज शर्मा और आलोक मेहता को रच सकते हैं।
भाई यशवंत जी
बहुत अपीलिंग है आपका संस्मरण। इस नाचीज को उतनी तो सलाहियत नही है कि आपकी लेखनी का मूल्यांकन करे फ़िर भी जो लगा सो उगला। निस्संदेह आपकी लेखनी में जो भाषा का अद्भुत प्रवाह है वह मुझ जैसों के लिए किसी सबक से कम नहीं। यहाँ बताते चलें कि इस तरह सच सोचना और उसे बेहिचक आवाम को पेश कर देने का तौर तरीका बेचारे पत्रकारिता प्रिशिक्षण देने वाले दूकानदार बन्धु कहाँ सिखाते हैं ? उनकी पाठ शईली और प्रोस्पेक्टस में क्या होता है यह तो सभी जानते होंगें । खैर!
आपकी हवाई यात्रा का दूसरा चरण था यह जानकर हैरत होना भी कम बड़ी बात नही है आज के परिवेश को देखते हुए। आख़िर क्या कारण है की लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के नायकों को त्वरित हवाई यात्रा क्योंकर नही करने का मौका मिलता है? हमारे नेता अभिनेता तो मल् मूत्र त्याग हेतु भी हवाई जहाज में जाते हैं और एक हम हैं कि सिर्फ़ गर्दन उठाकर आसमान में उड़ते जहाज को देखकर ही आत्मिक रोमांचित होने भर का मौका प्राप्त कर धन्य ही जाने पर मजबूर हैं ?
शराब और जहाज का तालमेल बखूबी पेश किया है ,आप इसके लिए सभी प्रकार की प्रसंशाओं के वाहिद पात्र हैं। हालांकि जहाँ तक मुझे पता है की आप शुरू से ही बेबाक बकने और बक्वाने को ईमानदारी से प्रस्तुत करने में कुचर्चित रहे हैं । बहुत हाथ पैर मारे हैं आपने और कहीं आपको अपने लायक पराव नही मिला तो वहीं से भडास की उत्पत्ति हुई जिसे आज हम सामने देख रहे हैं।
धन्यवाद
आपका
अब्दुल्ला
yashwaji
padkar achha laga. sandeep ka langotiya hu. isliye pura yatra sansmaran pad dala. sharab aur kabab dono ka hi shoukeen hu . philhaal dd bhopal me sevaye de raha hu . sandeep hunar ka khajana hai upar wala us par hamesha meharban rahe. yahi arju hai meri.
aapki lekhani top class hai . rangpanchmi ki dher sariiiiiiii shubhkamnaye.
samir verma news editor doordarshan bhopal
I can only say "INTERESTING'.
Rahul Chauhan
Dainik Jagran
इस आयोजन में उपस्थित रह सकने की इच्छा ही रह गई. लेकिन जब जर्मनी में रहते हुए इस आयोजन के बारे में ख़बर लगी थी तो कुछ ऐसा ही चित्र सामने आया था. तस्वीरें देख कर घर की याद भर आई.
धन्यवाद
आभा निवसरकर मोंढे
बेसिकली इन्दौरी
डॉइचे वेले
बॉन
आलोकजी,,
साधुवाद जो आपने अभय छजलानी और आलोक मेहता की क्लास ली। पद्मश्री की बंदरबांट के बारे में किसी ब्लाग पर भी पढ़ा था। हकीकत यह है कि अभयजी अपने आपको बड़ा तीस मार खां समझते रहे हैं। रही सही कसर उनके बेटे विनय ने पूरी कर दी है। चाटुकारों के सिवा इस संस्था में आज तक कोई नहीं पनप सका है। खरी बात कहने वाले को तो यहां बर्दाष्त ही नहीं किया जाता है। एक परिचित और पत्रकार रहे श्री शषिकांत शुक्ला से बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि उन्होंने अभय छजलानी से जब यह सवाल किया कि इतने बड़े संस्थान में हर आदमी आप के अनुसार काम कर सके, ऐसा कैसे कर पाते हैं। इस पर अभय छजलानी ने हंसते हुए श्री शषिकांतजी को जवाब दिया था कि जिस कर्मचारी को हमें निकालना होता है उसके सामने हम हालात ही ऐसे पैदा कर देते हैं कि वह नौकरी से त्यागपत्र दे देता है। आज तक तो हमें इस मामले में किसी प्रकार की दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा।
आलोकजी,, लेकिन हाल ही में ऐसा सुनने में आया है कि यहां के एक पत्रकार ने इस मामले में नईइुनिया की इस परंपरा को तोड़ दिया और उसने त्यागपत्र देने के स्थान पर राष्ट्रपति से इच्छामृत्यु की गुहार लगा दी। यदि आप इस बारे में अधिक जानकारी दे ंतो अधिक उपयुक्त होगा।
aalok ji aapke lekh me kisi manohar limbudiya ka zikr hai. jis tareeke se apne inkaa naam liya hai usse lagta hai ki ye kisi chalte purje kaa naam hai.
krapayaa bataye ki ye shreemaan kaun hai.
rajneesh acharya
tum mujhe mir kaho,main tumhe galib..ki turj per hue aayojan ki reporting badia he...fir sandeep jaise dosto aur kai jaane maane patrkaro ke charcha ne ese aur bhi interesting bana diya he.....badhai....vaise indoor aapna bhi shher he eslie padkar aur bhi aachha laga
....alok ji ki baat hi aalag he,ve nirbhik patrkarita ke vahak hain..
-khaberchi
tum mujhe mir kaho,main tumhe galib..ki turj per hue aayojan ki reporting badia he...fir sandeep jaise dosto aur kai jaane maane patrkaro ke charcha ne ese aur bhi interesting bana diya he.....badhai....vaise indoor aapna bhi shher he eslie padkar aur bhi aachha laga
....alok ji ki baat hi aalag he,ve nirbhik patrkarita ke vahak hain..
-khaberchi
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