राहुल कुमार
अंदर तक हिला देने वाली और बहुत से मिथक तोड़ देने वाली इस घटना में शामिल होने का जितना मुझे दुख हैै उससे कहीं अधिक रोष। घटना के बाद में देर तक यही सोचता रहा कि अगर नोट 1 हजार को होता तो क्या ऐसे हालात बनते ? पत्रकार प्रेस कांफ्रंेस का बहिष्कार करके जाते या फिर चुपचाप अंटी में लिफाफा दबाकर लंच कर चल देते। पर इस वाकया से एक बात जरूर साफ हो गई कि पत्रकारिता की औकात नेताओं के नजर में क्या रह गई है। वह भी ऐसे टूच्चे नेताओं की नजर में जो एक जिले या प्रदेश की राजनीत करते हैं।
हुआ यूं कि 1 जून को उप्र महिला कांग्रेस की नवनियुक्त महासचिव जाहिरा जैदी ने नोएडा में प्रेस वार्ता की। प्रेस वार्ता का सारा जिम्मा कांग्रेस से लोकसभा के प्रत्याशी रहे रमेश चंद्र तोमर व अन्य कथित नेताआंे पर था। वार्ता में बड़ी बड़ी बातें कहकर, खुद को देशभक्त बताकर जैदी ने प्रेस रिलीज को लिफाफे में रखकर बांटना शुरू कर दिया। पत्रकारों ने जैसे ही लिफाफा खोला उसमें सौ का नोट भी निकला। जो निश्चित रूप से पत्रकारों को रिश्वत के तौर पर था। ताकी वार्ता का कवरेज बेहतर हो। लेकिन पत्रकारों ने सौ का नोट देखकर आपा खो दिया और वार्ता का बहिष्कार कर दिया। नेताओं के होश उड़ गए। मांफी मांगते फिरे और खूब मिन्नतें कीं। लेकिन कुछ पत्रकार मान गए कुछ चल दिए।
सोचता हूं कि आखिर इन कथित नेताओं के मन में पत्रकारों की औकात क्या रह गई है ? बताया गया कि किन्हीं दलाल पत्रकारों ने उनके शुभ चिंतक होेने और अच्छा कवरेज कराने की बात कहकर उन्हें यह सलाह दी थी कि लिफाफे में 100 रुपए रख कर दे देना। नेता अखबारों और चैनल के कार्यालय में फोन करते रहे और खुद पत्रकारों की सलाह पर ऐसा कृत्य करने की बात कहते रहे।
इस घटना के बाद से मैं बड़ा आहत हूं। पत्रकारिता को लेकर जो मिथक और सपने मैंने गढ़े थे उन्हें बड़ा धक्का लगा है। खासकर धक्का उस समय घाव बन गया जब नेताओं के खिलाफ खबर न छाप कर सीधे और सही रूप मंे लिखने की बात सामने आई। मैं सोच रहा था कि खबर मुख्य पृष्ठ पर जाएगी और जाहिरा जैदी की पत्रकारिता का अपमान करने की बात पर महासचिव के पद से छुट्टी हो जाएगी। अपने हाल ही में शुरू हुए पत्रकारिता जीवन में इसतरह का यह पहला मौका था। गंदी हो चुकी राजनीति का यह कार्य सहनशीलता से बाहर है। लेकिन पत्रकारों की यह औकात आखिर बनाई किसने है ? इतना बड़ा अपमान वहां मौजूद कुछ अखबारों के संपादक और बड़े रिपोर्टर हंसते हंसते सह गए। हां मेरी उम्र के कुछ नए पत्रकारों और फोटोग्राफर ने विरोध किया और नेताओं के बुलाने का पुरजोर आग्रह करने के बावजूद वापस नहीं गए। पत्रकारिता का इसतरह से पतन देखकर मन अंदर से बहुत भारी हो गया। और लगा जैसे पत्रकारिता की धार पैसों ने कुंद कर दी। पिछले एक साल से नोएडा की पत्रकारिता की छवि देखकर अब महसूस करता हंू कि अगर नोट 1 हजार का होता तो क्या जो पत्रकार वापस आ गए या जो विरोध हुआ वह भी होता क्या ? चुनाव का मौका हो या फिर छोटा मोटा लाभ लेने की स्थिति खबरों से हमेशा ही तो समझौता होता है। लोकसभा चुनाव में पत्रकारों की हैसियत भी तो इसी बात से नापी गई थी कि किसने कितना पैसा पार्टियों से कमा पाया। जिनसे ज्यादा पाया वह ज्यादा बड़ा पत्रकार।
अफसोस बड़े पत्रकारों की सौदेबाजी में हम जैसे रिपोर्टर की इज्जत हर कदम पर जार जार होती है। टूच्चे नेताओं में 100 रुपए देने का साहस तभी आया जब बड़े पत्रकार बड़े नेताओं से करोड़ों का सौदा करते हैं। अकसर पत्रकारिता को वैश्या कहे जाने का रिवाज खुर्शियों में आता रहा है लेकिन कुछ दलालों ने इसे वैश्या से भी गया गुजरा बनाकर छिनाल का रूप दे दिया है। क्योंकि वैश्या तो मजबूरी में पेट पालने के लिए जिस्म का सौदा करती है। पर छिनाल अपने आनंद के लिए कई लोगों के साथ हमबिस्तर होने में सुकून पाती है। ऐसी ही हालत पत्रकारिता की होती जा रही है। जो अलग अलग लोगों के फायदे के लिए धनाढ्यों की रखैल बनकर रह गई है। पैसा दो कुछ भी छपवा लो, रात को पत्रकारों को दारू पिलाओ और कुछ भी छपवा लो।
लेकिन पत्रकारिता का यह रूप कितने समय तक उसे जीवित रख सकता है। यह वाकया जरूर एक जिले का हो लेकिन यह हालत बड़े स्तर पर और भी भयावह है। पत्रकारिता के मायने खो गए हैं। एसी और लग्जरी गाड़ियों में सफर करने वाले संपादक अभी भी सावधान नहीं हैं। राज्यसभा में जाने का सपना संजोये बैठे यह संपादक आखिर इस सौ रुपए की जलालत को नहीं झेल रहे हैं। वह इस बात में फूले नहीं समाते कि अमुख नेता से उनके अच्छे संबंध हैं। मेरा नेताओं को दोष देने का मन कतई नहीं हो रहा है। क्योंकि बिकाउ तो हमारी ही बिरादरी हो गई है। और जो चीज बिकाउ हो उसे कौन नहीं खरीदना चाहता है। पैसा है तो खरीद रहे हैं। लेकिन दुख इस बात है कि बाहर से बेहतर छवि परोसने वाली पत्रकारिता किस स्तर तक गिर गई है। और ऐसे ही हालात रहे तो और किस स्तर तक गिरेगी....?
1.6.09
अगर नोट 1 हजार का होता तो.....
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22 comments:
usoolon ki jid ko nibhana aajkal bewkoofi samjhi jaati hai par duniya me sachchayi aur imandari ko kaayam rakhne ki jimmedari bhi aise hi kandhon par hoti hai...
apni jid ko barkarkar rakhiye...duniya apne aap hi badalti najar aayegi..kisi ne sahi hi kaha hai..'be the change you want to see in the world'..
wish u luck 4 ur future..
aap thik kahte hain!
राहुल
आपके साहस, सोच और संघर्ष को सलाम....
मैं आपके इस कदम, इस लेख से बेहद प्रभावित हूं। कभी मिलना चाहूंगा।
शुभकामनाओं और आभार के साथ
यशवंत सिंह
09999330099
keep it up Rahul,majorty aapke saath hai,aage se humein bhi western pre ki tareh in tatvon ke khilaf 'hue and cry" ka rasta apnana padega.
sadhuvaad Yashwant ji ka bhi jinhone B4M ko website se kahin zyada ek mukkammal aina bana diya hai jismein hamare patrkar samaj ki sadandh saaf mehsoos ki ja sakti hai,koi nahi aayega patrakarita ko bachane..humein khud meena uthana padega..har sathi ko rahul jaisa banna padega.Apko poora samarthan hai.
keep in touch
Sandeep Yash
9818425060
bhadhai, sarthak pryas.
chandan sharma,
jaipur] Rajasthan patrika.
भाईसाहब इसके लिये नेताओं को गाली देने की बजाय गिरेबान में झांकना चाहिये...क्योंकि लम्पट और दलालों के बढते दखल ने पञकारिता को ऐसी स्थिति में ला खडा किया है कि नेता खैरात बांटने लगे हैं...सच ही कहा है कि एक सौ की जगह नोट हजार का होता तो क्या इतना हंगामा होता...परेशानी कम कीमत आंकने पर हो रही है...या उसूलों के साथ खिलवाड पर....खुद ही सोचें तो असलियत समझ में आ जायेगी...पहले वेल्यू बेस्ड यानीं मूल्य आधारित पञकारिता पर जोर था...अब प्राइस बेस्ड यानीं मूल्य आधारित पञकारिता पर जोर है...क्या कहें...सिवाय लम्पट लोगों की बढती जमात को टुकुर टुकुर देखने के....
bahut bhadiya rahul.
apne is jajbe ko kabhi kam nahi karna.
jitendra
साथी राहुल की भावनाएं पवित्र है और उनकी मौलिक सोंच हमेशा ज़िंदा रहे यही कामना है। राहुल को मैं यह भी कहना चाहुंगा कि मैं आपसे इस मायने में जरुर इत्तेफाक रखता हुं कि पत्रकारिता को आज न केवल बिकाऊ बल्कि बहुत ही निम्न दर्जे का व्यवसाय समझा जाने लगा है,लेकिन बाबजूद इसके मैं आपके इस तर्क से सहमत नही हुं कि सौ कि जगह हजार के नोट होते तो क्या होता ? राहुल जी अपने पेशे में जरुरत से ज्यादा बुराई जरुर आ गई है लेकिन आज भी अच्छाईयों के साथ बहुत से लोग, उसी पवित्रता के साथ पत्रकारिता कर रहें है जिस पवित्रता की वजह से पत्रकारिता को गरिमामय काम माना जाता रहा है। मैं बाकया छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर का बताना चाह रहा हूं जहां मेंरी जानकारी में एक दर्जन से अधिक युवा पत्रकारों ने भारत की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी कही जानेवाली कांग्रेस द्वारा चुनाव कवरेज के लिए दी जा रही हजारों रुपए की राशि को न केवल लेने से इंकार कर दिया बल्कि आंफर करनेवाले नेताओं को खूब खरी-खोटी भी सुनाई। दरअसल लोकसभा चुनाव के दौराण कांग्रेस की छत्तीसगढ़ इकाई ने भी राजधानी के पत्रकारों को खरीदने की कोशिश की। कांग्रेस के रणनीतिकारों द्वारा बकायदा कांग्रेस बीट कवर करनेवाले पत्रकारों के साथ ही विभिन्न समाचार चैनलों और अखबारों के ब्यूरोचीफ और राजधानी से प्रकाशित अखबार के संपादक तक की कीमतें तय की गई। प्रदेश कांग्रेस की मीडिया को चलानेवाले नेताओं ने बकायदा पत्रकारों को पैसा उपलब्ध कराया। लेकिन मैं उन तमाम साथियों को सैल्यूट करना चाहुंगा,विशेष तौर पर युवा साथियों को जिन्होंने दस हजार रुपए से लेकर बीस हजार रुपए तक की राशि को न केवल लेने से इंकार कर दिया बल्कि लिफाफा लेकर आनेवाले कांग्रेसी नेताओं को खुब खरी-खोटी सुनाकर उल्टे पांव लौटने को मजबूर कर दिया। युवा पत्रकार बह्मवीर सिंह,मोहन तिवारी,बृजेश द्विवेदी,प्रवीण पाठक सहित दर्जनों पत्रकारों ने कांग्रेस की इस सोंच के लिए न केवल पार्टी की आलोचना की बल्कि इस मुद्दे को लेकर विरोध स्वरुप कांग्रेस के किसी राष्ट्रीय नेता के प्रेस कांफ्रेस को बहिष्कार करने की योजना भी बना ली थी। लेकिन हमारी इस योजना की खबर कांग्रेस को लग गई शायद इस बजह से भी आगे कांग्रेस के किसी राष्ट्रीय नेता की प्रेस कांफ्रेस रायपुर में नही रखी गई। मैं नही जानता कि यह विरोध कितना सार्थक था और इस विरोध का प्रदेश कांग्रेस की मानसिकता पर कोई असर भी पड़ा या नही, लेकिन मैं यह जरुर समझता हुं कि इस तरह की स्थितियां हरेक स्थानों की पत्रकारिता में है। छत्तीसगढ़ कांग्रेस ने अपनी हार की समीक्षा अभी तक नही की है मैं समझता हुं कि जब समीक्षा होगी तो कांग्रेस की मीडिया संभाल रहे कुछ मित्र जरुर इस मुद्दे का भी जिक्र करेंगे। क्योकि कांग्रेस की मीडिया संभाल रहे एक-दो साथी भी हमारे विरोध और इस सोंच से इत्तेफाक रखते थे कि दस-बीस हजार रुपए की राशि देकर पत्रकारों से अपने पक्ष में खबर छपबाने की कांग्रेस की कोशिश हमारे देश और लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।
संजय शेखर
9893623111
rahul ji, apni girehban me jhankne ka sahas sabme thore hi hota hai. yeh haal sirf noida ka nahi hai. mere darbhanga me bhi hai. par salam deepak ko jisne godda, jharkhand me 80 hazar ki rishwat na sirf thukrai balki uski baqayda recording kar e tv par dikhaya bhi. mujhe salam mat kariyega, haan thori sahanubhuti zaroor rakhiyega kyonki chote shehron me sangharsh karte hue patrakarita ki maryadaon ko maine bhi kabhi nahi tora. vijay srivastava, samvaddata, e tv bihar-jharkhand, darbhanga(bihar)
sir agar aap iske khilaf aage badhenge to mujhe hamesha apne saath payenge
Diwaker Tripathi
Raebareli
LIVE INDIA NEWS
राहुल भाई ,आपने जो देखा और महसूस किया उसे सामने लाकर हिम्मत का परिचय दिया है इसके लिए आपके साहस को साधुवाद ।लेकिन ये भी उतना ही सच है कि ऐसा करने वालों को करने की सलाह भी इसी पेशे के अपने ही साथियों ने दी होगी।पत्रकारिता को इसके अपने लोगों और मालिक बने समूहों ने बाजार के हाथों बेक दिया है।छोटी जगहों पर तो पत्रकारों को लोगों से खबर छापने के बदले जर्दा ,चाय मॉगते देखा जा सकता है ।जब तक पत्रकारों की बिरादरी अपने स्तर पर मजबूत नही होगी इसका स्तर इससे भी बदतर होता जाऐगा ।
a jajba a khudari ghukne na diya tune,lickhne ke liye varnaa soney ke kalam aatye.........
rahul ji aapke reaction ko naman...
kash yahi zazba her journalist me aa jaye. jisse gart me ja rahi journalism ko bachane ke mision ki starting ho.
Thanks
MANOJ SRIVASTAVA
RAUZAGAON, FAIZABAD (u.p.)
09784770298
rahul ji aapke reaction ko naman...
kash yahi zazba her journalist me aa jaye. jisse gart me ja rahi journalism ko bachane ke mision ki starting ho.
Thanks
MANOJ SRIVASTAVA
Rauzagaon, Faizabad (u.p.)
09784770298
rahul ji aapka lekh padha. aapki bhavna or jajbe ko salam. rahul bhai patrkarita mein yeh giravat waqt je chalte hai. lage rahiye acha daur jaroor aayega.
keep it up
राहुल जी , लेख के लिए बधाई , पत्रकारों की ईमानदारी अभी मरी नहीं है, इस समुन्दर में बहुत मछलियाँ हैं, कुछ इसे गन्दा करती रहती हैं और कुछ इसकी अस्मिता बचाने में जुटी रहती हैं, पत्रकारों की स्थिति अब उसी कहावत की तरह हो रही है, कि अपना कोढ़ बढ़ता जाये औरों को दवा बताये, हम अपनी गलतियों कुकर्मों और मनमानी को तो देखते नहीं और दुनिया भर को गलत बताने कि होड़ में लगे रहते हैं, इसलिए आजकल कई मामलों में पत्रकार भी पिट रहे हैं, बहरहाल इस लेख के लिए बधाई,
रतन जैसवानी
राहुल जी , लेख के लिए बधाई , पत्रकारों की ईमानदारी अभी मरी नहीं है, इस समुन्दर में बहुत मछलियाँ हैं, कुछ इसे गन्दा करती रहती हैं और कुछ इसकी अस्मिता बचाने में जुटी रहती हैं, पत्रकारों की स्थिति अब उसी कहावत की तरह हो रही है, कि अपना कोढ़ बढ़ता जाये औरों को दवा बताये, हम अपनी गलतियों कुकर्मों और मनमानी को तो देखते नहीं और दुनिया भर को गलत बताने कि होड़ में लगे रहते हैं, इसलिए आजकल कई मामलों में पत्रकार भी पिट रहे हैं, बहरहाल इस लेख के लिए बधाई,
रतन जैसवानी
राहुल जी , लेख के लिए बधाई , पत्रकारों की ईमानदारी अभी मरी नहीं है, इस समुन्दर में बहुत मछलियाँ हैं, कुछ इसे गन्दा करती रहती हैं और कुछ इसकी अस्मिता बचाने में जुटी रहती हैं, पत्रकारों की स्थिति अब उसी कहावत की तरह हो रही है, कि अपना कोढ़ बढ़ता जाये औरों को दवा बताये, हम अपनी गलतियों कुकर्मों और मनमानी को तो देखते नहीं और दुनिया भर को गलत बताने कि होड़ में लगे रहते हैं, इसलिए आजकल कई मामलों में पत्रकार भी पिट रहे हैं, बहरहाल इस लेख के लिए बधाई,
रतन जैसवानी
राहुल भाई,आपने बहुत अछ्छा लिखा है, मिडिया में हम लोगो को की सोच बदल जाये तो सचमुच हम लोगो की पहचान काबिले तारिफ रहेगी...ऐसे लोगो को हर वक्त बेनाक करना चाहिये।
सरफराज़ सैफी
कमाल कर दिया राहुल जी, लगता है आप पत्रकारिता में नए हैं. सौ रुपये की कोई अहमियत ही नहीं है क्या? आपने गाड़ियों या प्रोडक्ट लांच वाली प्रेस कांफ्रेंस में रेक्सीन के बैग, चाभी के छल्ले या घड़ी के लिए भिखमंगों की तरह कतार में लगे पत्रकारों को नहीं देखा है क्या? उपर बताए गए किसी भी सामान की बाजार में कीमत सौ रुपए से च्यादा नहीं होती. रुपया देने वाली नेता जी की सोच शायद यह रही होगी कि पत्रकार अपनी पसंद की चीज (या फिर बच्चों के लिए मिठाई) खरीद लें. अगर नेता जी कोई मंत्री होतीं और दीपावली पर शर्बत के छह-छह गिलास (चालीस रुपये दर्जन खरीद कर) गिफट कर देती तो आप घंटा दो घंटा उन्हें हासिल करने की मशक्कत में लगाते कि नहीं? आप चले भी आते तो आपके साथी आपको रोक लेते. यही होता आया है और आगे भी होगा... एक और बात.. क्या आपने पत्रकारिता को लेकर भी कोई सपना पाला हुआ है? बेहतर है उसे अभी ही तोड़ दें. बाद में जब समाज इसे तोड़ेगा तो ज्यादा दुख होगा.
कमाल कर दिया राहुल जी, लगता है आप पत्रकारिता में नए हैं. सौ रुपये की कोई अहमियत ही नहीं है क्या? आपने प्रोडक्ट लांच वाली प्रेस कांफ्रेंस में रेक्सीन के बैग, चाभी के छल्ले या घड़ी के लिए भिखमंगों की तरह कतार में लगे पत्रकारों को नहीं देखा है क्या? उपर बताए गए किसी भी सामान की बाजार में कीमत सौ रुपए से ज्यादा नहीं होती. रुपया देने वाली नेताइन जी की सोच शायद यह रही होगी कि पत्रकार अपनी पसंद की चीज (या फिर बच्चों के लिए मिठाई) खरीद लेंगे. अगर नेताइन जी कोई मंत्री होतीं और दीपावली पर प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर शर्बत के छह-छह गिलास (चालीस रुपये दर्जन खरीद कर) 'गिफ्ट' कर देतीं तो आप घंटा दो घंटा उन्हें हासिल करने की मशक्कत में लगाते कि नहीं? आप चले भी आते तो आपके साथी आपको रोक लेते. यही होता आया है और आगे भी होगा. एक और बात.. क्या आपने पत्रकारिता को लेकर भी कोई सपना पाला हुआ है? बेहतर है उसे अभी ही तोड़ दें. बाद में जब समाज इसे तोड़ेगा तो ज्यादा दुख होगा.
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