मेरठ के कर्फ्यू की विस्तृत कवरेज़ ने अखबारों को इतना उत्साहित कर दिया है, कि वो ये भी नहीं समझ पाए कौन सी खबर खुद उनके कैमरापर्सन के लिए नुकसानदायक साबित होगी... फोटो में साफ़ है.. मीडिया का दिमाग रखने वाला कोई भी आसानी से समझ सकता है कि अगर ऐसी खबरे हम छापेंगे तो कल भीड़ सबसे पहले हमारे कैमरापर्सन को ही निशाना बनाएगी, और ऐसा अक्सर ही होता भी है... यकीन नहीं तो हर उस कैमरापर्सन से पूछ लो जिसे अपने कैमरे कि भूख मिटाने के लिए, दंगे फसाद जैसे हालातो में भी सबसे आगे डटे रहना पड़ता है... ऐसे हालातो में "कलम" तो पता ही नहीं चलती कि कहा चल रही है, और अगर हालत बिगड़ जाए तो "कलम" बंद करके हाथ बाँध लो तो भी काम चल जाता है... लेकिन कैमरा बंद करने से नौकरी चली जाती है, ऐसे एंटी-मीडिया माहोल बनाने वाली खबरों पर थोडा समझदारी से काम लेना चाहिए...
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3 comments:
सही कहा भाई,
ये तो अपने पैरों पर खुद कुल्हाडी मारने की बात है।
हम भी एक बार का भुगते हुये हैं। दंगाइयों ने ऐसी भौ बनायी थी की क्या बतायें, रिर्पोटिंग घुस गयी थी।
aapne bilkul sahi kaha
is taraf sabhi ko gambhirta se vichar karna chahiye
बात तो सही है, अपनी बिरादरी को ही सोचना होगा.
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