कांग्रेेस ने जिस तरह सभी राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुमान और न्यूज़ चैनलों के एग्जिट पोलों को गलत साबित करते हुए 206 सीटें जीती है वह निश्चित ही अप्रत्याशित है। इस तरह की जीत की उम्मीद खुद कांग्रेसी नेताआंे को भी नहीं थी। फिर भी हम देश की जनता के आभारी हैं जिसने देश की राजनीति को दो ध्रुवों में सीमित कर दिया। लेकिन प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में जिस तरह विपक्ष के नेताओं का अभिवादन नहीं हुआ वह एक गलत प्रथा को जन्म देता दिख रहा है।
चुनाव पूर्व के अपने सहयोगियों के साथ मंत्रालय को लेकर थोड़ी सी खींचतान के बाद मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद दूसरे ऐसे प्रधानमंत्री बनने का गौरव प्राप्त किया जो कि पिछली सरकार में पांच साल तक प्रधानमंत्री रहे थे। लेकिन शपथ ग्रहण समारोह में जो कुछ देखने को मिला वह कहीं से भी भारतीय परम्पराओं के अनुरूप नहीं था। विपक्ष के नेता और चुनावों में भाजपा की ओर से पीएम पद के उम्मीदवार रहे लालकृष्ण आडवाणी जब शपथ ग्रहण समारोह मंे पहुंचे तो उनके लिए अगली पंक्ति में कोई सीट तक खाली नहीं थी। भला हो एनसीपी नेता शरद पवार का जिन्होनें एक कुर्सी की व्यवस्था कर आडवाणी के बैठने की इंतजाम करवाया। राहुल गांधी जिन्हें हम बहुत सभ्य और सौम्य मानते है ने तो उनका अभिवादन करना तक जरूरी नहीं समझा।
इसी समारोह की एक और घटना की ओर हम आपको ले चलते है। पिछली यूपीए सरकार जब एनडील के मुद्दे पर वामदलों के समर्थन वापस लेने के बाद अल्पमत में आ गई थी तब समाजवादी पार्टी ने ही संसद में कांग्रेस की लाज बचाई थी। जिसके बदले में उसने केाई मंत्री पद तक नहीं मांगा था। उसी समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह और महासचिव अमर सिंह को समारोह स्थल में जगह न मिलते देख वापस लौटने लगे तब दिग्विजय सिंह ने कहीं से दो कुर्सियों की व्यवस्था कर उनको बैठाया। आडवाणी तो कांग्रेस के विपक्ष में रहे थे लेकिन मुलायम सिंह तो एक समय यूपीए सरकार के सहयोगी रहे थे साथ ही उन्होनें कभी ये नही कहा कि वे यूपीए के साथ नही है। इसे वक्त की नजाकत ही कहेंगे जो मुलायम सिंह और अमर सिंह को इस तरह की समस्या से दो चार होना पड़ा। अगर हम थोड़ा और पीछे जाए तो संसद में 14 लोकसभा के आखिरी सत्र के बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के द्वारा दी गई पार्टी मे जब आडवाणी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अभिवादन किया तब मनमोहन सिंह ने उनके अभिवादन का जबाव देना तकमुनासिब नही समझा।
क्या ये सत्ता का नशा है जो हमें अपनी परम्पराओं से दूर ले जा रहा है या फिर येे सिर्फ अपने विरोधियों को नीचा दिखाने का तरीका। जिसके बाद हम अपने आप को श्रेष्ठ समझने लगते है। देखने में भले ही ये सिर्फ अपने विरोधियों के अपमान का तरीका है लेकिन इस तरह की हरकतों से आपको भी सम्मान मिले इसकी भी उम्मीद कम ही होगी। हांलाकि ये बात सच है कि कांग्रेस इस समय दोपहर के ऐसे सुरज के समान है जो इस समय बहुत तेजी से चमक रहा है लेकिन हमें यह नही भूलना चाहिए कि दोपहर के बाद ही शाम होती है और फिर रात...
3.6.09
सत्ता का गुरूर या नासमझी है कसूर
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1 comment:
sahi me nai manytaen ban rahi hai...
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