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8.10.09

चीन की साठवीं बरसी पर वि‍शेष - परफेक्‍ट समाजवाद और संचारक्रांति‍


सत्य नंगा होता है। वह चाहता है उसे नग्न ही देखा जाए। वह मैडोना की फिल्म की तरह नग्नता चाहता है। नग्नता ही है जिसके कारण मैडोना चर्चित बनी। नग्नता हमारी आंखों को कायिक और कामुक आनंद देती है। नग्नता हमारी दूसरी त्वचा है। उसमें वस्त्रों जैसा कामुक आनंद नहीं है। यथार्थ के सामने सभी किसम की चीजें ,सैध्दान्तिकी आदि आत्मसमर्पण के लिए मजबूर होती हैं। यथार्थ के सामने सब बेकार होता है। यथार्थ सबसे वैध चीज है उसके सामने सब अवैध है। यथार्थ की मौजूदगी में सिर्फ यथार्थ ही वैध होता है। इसी अर्थ में यथार्थ को भूतनी की संज्ञा दी गयी। समाजवाद की सत्य से जब मुठभेड़ हुई तो समाजवाद गायब हो गया और सत्य शेष रह गया। समाजवाद विभ्रम था, सत्य विभ्रम नहीं होता।

परफेक्ट समाजवाद के बिखराव के कारणों को जरूर जानना चाहिए। हमें उस भाषा और यथार्थ को जानना चाहिए जिसके जरिए समाजवाद का संचय किया गया और बाद में वह भाषा गायब हो गयी। पहले समाजवाद ने जीवन के यथार्थ और भाषा से एक-एक करके शब्द लिए,यथार्थ लिया उन्हें समाजवाद का हिस्सा बनाया। हमारे जीवन का जितना भी विखंडित यथार्थ था उसे चित्रित किया और समाजवाद का महाख्यान तैयार किया। बाद में वह सब कैसे गायब हो गया ? हमें उन कारणों को खोजना ही होगा जिनकी वजह से टॉलस्टॉय,गोर्की,चेखव,दोस्तोयवस्की आदि लेखकों की रचनाओं के प्रभावमंडल का लोप हो गया।

यह चीज यकायक अथवा हठात् घटित नहीं हुई । समाजवाद का लगातार संचय कर रहे थे,जोड़ते जा रहे थे किंतु समाजवाद के पराभव के बाद वह संचित संपदा कहां गायब हो गयी ? सब शून्य में कैसे बदल गया ? पहले समाजवाद की उपस्थिति की शक्ति का एहसास था अब समाजवाद की अनुपस्थिति और शक्तिहीनता का एहसास होता है। इसका अर्थ यह है कि समाजवाद के नाम पर कहीं शून्य का विस्तार तो नहीं हो रहा था ? समाजवाद हमारे लिए कल्पना था,फैंटेसी था। विभ्रम था। यदि कल्पना नहीं था तो कहां गया ? वह अपने पीछे इतना भयावह यथार्थ कैसे छोड़ गया ?

आज समाजवाद सच नहीं कल्पना लगता है। अब उसे सपने के रूप में लोग सोचने के लिए तैयार नहीं हैं। आज वह वर्चुअल यथार्थ में तब्दील हो चुका है। वह है भी और नहीं भी। तुम उसके बारे में अच्छी-बुरी बातें कर सकते हो किंतु उसे स्पर्श नहीं कर सकते। तुम सुन सकते हो। किंतु महसूस नहीं कर सकते। तुम चित्रों और फिल्मों में देख सकते हो किंतु यथार्थ में जाकर उसकी पुष्टि नहीं कर सकते। यथार्थ में जाकर जिसने भी समाजवाद की पुष्टि करने की कोशिश की है उसे समाजवाद नहीं मिला बल्कि कुछ और मिला है। वह आज स्पर्श से परे है। वह महज अनुभूति है। संवेदना है। कल्पना है। उसे दूर से देखने में आनंद मिलता था और पास जाते ही उसका कठोर यथार्थ कल्पना को झकझोर देता था। आज भी समाजवादी देशों में जाने वालों को समाजवाद पर विश्वास नहीं होता। समाजवाद में सत्य का लोप महा दुर्घटना है बीसवीं सदी की।

यथार्थ में समाजवाद तब दिखाई दिया जब उसका अंत हो गया और अंत होते ही समाजवाद से जुड़ी सारी दंतकथाएं,कल्पनाएं और फैंटेसी भी गायब हो गयीं। समाजवाद के लोप के बाद समाजवाद बर्बर और कठोर नजर आने लगा। यह रूपान्तरण तब ही संभव है जब आप समाजवाद को परफेक्शन की अवस्था में ले जाएं। परफेक्शन ही वह बुनियादी वजह है जिसके कारण समाजवाद का पराभव हुआ। आज कहीं पर भी पूंजीवाद का परफेक्ट रूप नजर नहीं आता बल्कि कहीं न कहीं विकृतियां जरूर नजर आती हैं और यही पूंजीवाद के विकास का स्वस्थ लक्षण है। अपूर्ण विकास का लक्षण है।

निष्कलंक और निर्दोष समाजवाद अपराध है। शून्य है। विभ्रमों से भरा है। अंतर्वस्तुरहित है। कलंकित अथवा दोषपूर्ण समाजवाद यथार्थ है और भविष्य भी । इसमें रोशनी है, जीवन का वैविध्य है और विषमताएं भी हैं। इसमें विभ्रम नहीं हैं। आज समाजवाद के सामने चुनौती है वह अपने विभ्रमों को स्वयं नष्ट करे। समाजवादी परफेक्शन के गर्भ से जन्मे विभ्रमों को नष्ट करे। पहले चुनौती थी विभ्रम पैदा करने की आज चुनौती है विभ्रमों को नष्ट करने की। आज समाजवाद को अपनी बनायी इमेज और धारणाओं से लड़ना पड़ रहा है।

वर्चुअल युग समाजवाद को विभ्रमों के दायरे के बाहर लाता है। विभ्रमों को तोड़ता है। समाजवादी यथार्थ को यथार्थ के बाहर खदेड़ता है। यथार्थ के अभाव की ओर बार-बार ध्यान खींचता है। यही वह बिंदु है जहां पर समाजवाद और समाजवादी शक्तियां अपने को समाजवादी प्रभामंडल के बाहर नए सिरे से संकल्पबध्द कर रही हैं। यथार्थ के अभाव की पूर्ति के नाम पर चीन में समाजवाद हाइपर रियलिटी के जगत में चला गया है।

वर्चुअल पैराडाइम में शामिल होने वाला चीन पहला समाजवादी देश है। बाकी समाजवादी देशों में यह प्रक्रिया धीमी गति से चल रही है। यह विशिष्ट परिवर्तन है। चीन में पहले परफेक्ट समाजवाद था अब चरम परफेक्ट हाइपर यथार्थ है। यानी एक चरम से दूसरे चरम के जगत में दाखिल हो गए हैं। फर्क यही है कि इसमें चीन की कम्युनिस्ट पार्टी परफेक्ट समाज, व्यवस्था, जीवनशैली आदि का वादा नहीं कर रही है। किंतु उसने जो रास्ता चुना है वह परफेक्शन का ग्लोबल रास्ता है। इसकी परिणतियां वह नहीं होंगी जो समाजवाद की हुई थीं।

चीन पहले लोकल था। समाजवाद भी लोकल था। समाजवाद के चीनी वैशिष्टय पर जोर था। सोवियत संघ के पतन के बाद हठात् चीन ने लोकल को त्याग दिया और ग्लोबल परफेक्शन को अपना लिया। समाजवाद के सपने की जगह ग्लोबलाइजेशन की चकमक जिंदगी और मंत्रों को अपना लिया। यह एक तरह के परफेक्शन से दूसरे किस्म के परफेक्शन में रूपान्तरण है। यह रूपान्तरण बेहद भयावह और पीड़ादायक है। समाजवाद के निर्माण में जितनी पीड़ा मिली उससे कहीं ज्यादा पीड़ा और असुरक्षा आज चीनी समाज भोग रहा है। फर्क यह है कि हाइपर रियलिटी ने उसे ढंक लिया है। बुनियादी तौर पर पहले भी असुरक्षा थी अब भी असुरक्षा है।

हाइपर रियलिटी परफेक्शन का चरम है। यह भूमंडलीकरण का अन्तर्निहित तत्व है। भूमंडलीकरण कभी वर्चुअल रियलिटी के बिना संभव नहीं है। इंटरनेट,मल्टीमीडिया के बिना संभव नहीं है। इसी ओर भागमभाग में सारी दुनिया व्यस्त है किंतु चीन सबसे आगे निकल गया है। पहले समाजवाद ने परफेक्शन का भ्रम पैदा किया अब संचार तकनीक और उच्चतकनीकी के जरिए परफेक्शन पैदा किया है परिणाम समाजवाद की तरह ही अनिश्चित हैं। परफेक्ट समाजवाद में यथार्थ का जितना अभाव था उससे भी ज्यादा यथार्थ का अभाव हाइपररीयल में है। असल में परफेक्ट समाजवाद से हाइपररीयल की ओर प्रयाण शून्य से शून्य की ओर प्रयाण है। इसकी चकाचौंध में चीन का यथार्थ नहीं देख सकते।

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