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12.10.09

हरीश भादानी हिंदी के सच्चे जनकवि‍

जनकवि हरी भादानी की स्मृति में 11 अक्टूबर, रविवार को जनवादी लेखक संघ, श्‍चि‍म बंगाल के कोलकाता स्थित राज्य कार्यालय में एक शोक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें महानगर के हिंदी के अनेक प्रमुख साहित्यकारों ने भावभीनी श्रध्दांजलि अर्पित की। इस सभा का प्रारंभ हरी जी के गीतों के गायन से हुआ। अमिताभ माहेश्‍वरी और संजय बिन्नानी ने सुरीली आवाज में 'रेत में नहाया है मन', 'प्यास सीमाहीन सागर', 'थारे लांबा जोड़ू हाथ' तथा 'काल का हुआ इशारा लोग हो गये गोरधन' आदि‍ गीतों का गायन किया। एक मिनट के मौन और हरीजी की तस्वीर पर पुष्‍पांजलि के बाद भी हरी जी के बारे में साहित्यिक सहकर्मियों द्वारा श्रद्धांजलि‍ का जो सिलसिला शुरू हुआ

प्रारंभ जलेस, प.बं. के सचिव सुब्रत लाहिरी की श्रध्दांजलि से हुआ। सभा के द्वितीय वक्ता के रूप में लेखक और मीडिया विशेषज्ञ प्रो. जगदीश्‍वर चतुर्वेदी ने साल भर पहले हरी जी की 75वीं सालगिरह के अवसर पर अपनी बीकानेर यात्रा के हवाले से बताया कि जनता के बीच इतने विस्तृत पैमाने पर अपनी पैठ बनाने वाले लेखक विरले ही पाये जाते हैं। हरी जी को एक साधारण मेहनतक आदमी से लेकर अपने-अपने क्षेत्र में ऊंचाई के शि‍खरों तक पहुंच चुके लोगों का प्रेम समान रूप से प्राप्त था।

प्रसिध्द आलोचक डा. शंभुनाथ ने साठ के दक से हरीजी से अपने परिचय का जिक्र करते हुए उनके द्वारा संपादित पत्रिका, 'वातायन' की ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि हरी जी के गीतों के दो पाटों में कठोर यथार्थ और माधुर्य की अविभाज्य एकता दिखाई देती है।

आलोचक -संपादक विमल वर्मा ने बीकानेर हर में एक रिक्शेवाले के मुँह से हरी जी के गीत को सुनने के अपने अनोखे अनुभव का उल्लेख करते हुए उन्हें हिंदी का एक सच्चा जनकवि बताया।

हरीजी की बेटी, पूर्व सांसद सरला माहेश्‍वरी ने अपने भावपूर्ण वक्तव्य में इस बात पर बल दिया कि उनके पिता जितने उनके परिवार के थे, उससे कहीं ज्यादा बाहर की दुनिया के थे। 'वसुधैव कुटुंबकम' उनके जीवन का दर्शन था। उनका घर सिर्फ घर नहीं, एक संस्थान था जिसपर हर लेखक, साहित्यकर्मी और राजनीतिक कार्यकर्ता का उतना ही अधिकार था, जितना कि परिवार के सदस्यों का।

हरी जी के अंतरंग मित्र और वातायन पत्रिका के सहयोगी कवि‍ श्री हर्ष ने हरी जी को अपना घर जला कर साहित्य की सेवा में करने वाला एकविरल व्यक्तित्व बताया। लंबे 60 र्ष से भी अधिक समय के अपने संग में उन्होंने हरी जी को सदा दुखों से जूझने और कभी कोई शि‍कायत न करने वाले एक सर्वजनप्रिय साथी के रूप में देखा था।

हरी जी के करीबी संपर्क में रही दुर्गा डागा ने हरी जी के साहित्य पर बड़े रूप में काम किये जाने की जरूरत पर बल दिया। प्रसिध्द कवि नवल जी ने हरी भाई की बीकानेर के साथ जुड़ी पहचान की तुलना आगरा के साथ डा. रामविलास र्मा की पहचान से करते हुए उन्हें आत्मप्रचार से पूरी तरह मुक्त एक बेहतरीन इंसान बताया।समाजसेवी रतनलाल शाह ने हरी जी की वेदांत संबंधी जिज्ञासाओं के प्रसंग को उठाते हुए उनकी रचनाशीलता के विविध आयामों की चर्चा की।

जनसत्ता के स्थानीय संपादक शैलेंद्र ने हरी जी के साथ हुई अपनी वार्ता का जिक्र करते हुए किसी भी कवि को प्रस्तुत करने में लेखक संगठनों की अहम भूमिका की बात कही।

प्रो. अमरनाथ र्मा ने हरी जी के जनगीतों का हवाला देते हुए कहा कि उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से इस विधा की अकूत संभावनाओं को उद्धाटित किया था। जलेस की हावड़ा इकाई के अध्यक्ष और नाट्यकर्मी महे यसवाल ने इप्टा द्वारा जनगीतों के एक कैसेट में हरी जी के स्वरों में ही उनके गीत की रिकार्डिंग के अपने अनुभव को बताते हुए कहा कि वे गायकी में किसी भी पेषेवर गायक से कहीं ज्यादा आगे बढ़े हुए कलाकार थे। लेखक हरेकृष्‍ण राय 'विप्लवी' ने रवीन्द्रनाथ की कहानी 'द पोस्टमास्टर' के पोस्टमास्टर और उसके द्वारा पाली गयी बच्ची रतन के प्रसंग को उठाते हुए हरी जी के जाने को रतन को छोड़ कर चले गये पोस्टमास्टर का जाना बताया।

श्रध्दांजलि सभा के अंतिम वक्ता भारतीय भाषा परिद के निदेक श्री विजय बहादुर सिंह ने हरी भादानी जैसे व्यक्तित्वों के निर्माण की कष्‍ट-साध्य प्रक्रिया का जिक्र करते हुए कहा कि व्यक्ति की सही पहचान उन लोगों के बीच होती है, जिनका व्यक्ति के साथ जुड़ाव किसी स्वार्थ के आधार पर नहीं होता। आम आदमी की नजरों को कभी धोखा नहीं दिया जा सकता। हरी भादानी इस कसौटी पर खरे उतरे थे। हरी भादानी की कविताओं को पढ़ते ही हमें कविता के भूगोल का अनुमान हो जाता है। राजस्थान की जमीन से उनके प्रगाढ़ संबंधों का अहसास उनकी रचनाओं से होता है। उन्होंने हरी भादानी की कविताओं पर और ज्यादा काम किये जाने की जरूरत की बात कही।

सभा के अंत में अध्यक्ष पद से बोलते हुए अरुण माहेश्‍वरी ने हरी भादानी की कविताओं की व्याप्ति का एक ब्यौरा दिया और प्रसिध्द कवि आलोकधन्वा से हुई बातों का जिक्र करते हुए कहा कि वे एक ऐसे सिध्द कवि थे, जिन्हें खुद के बारे में आत्मप्रचार की मुद्रा में बोलते हुए शायद ही कभी किसी ने देखा होगा।अंत में श्री माहेश्‍वरी ने शोक प्रस्ताव का पाठ किया जिसमें विस्तार के साथ हरीजी की लगभग 60 र्षों की रचनाशीलता का सिलसिलेवार जिक्र था

इस सभा में उपस्थित अन्य प्रमुख लेखकों में सर्वश्री आलोक र्मा, परशुराम, मृत्युंजय, जीतेंद्र धीर, श्रीकांत गौड़, रामआह्लाद चौधरी आदि शामिल थे।

शोक प्रस्‍ताव - हिंदी और राजस्थानी के सुप्रसिध्द कवि, गीतकार और संपादक हरी भादानी नहीं रहे। 2 अक्तूबर की तड़के सुबह 4 बजे बीकानेर में उन्होंने अंतिम सांस ली। वे कुछ अर्से से बीमार चल रहे थे। उनकी खाद्य नली में कैंसर हुआ था। वे 76 वर्ष के थे।

लगभग पांच दकों की लंबी रचना यात्रा में हरी जी ने हिंदी के काव्य जगत में ब्दों और बिंबों का अपना एक नया अद्वितीय संसार गढ़ा था। मरुभूमि की रेत में नहायी, मौसम की कठिन चुनौतियों से जूझती, मनुष्‍य की अद्दम्य जीजीविषा और जीवन संघर्षों से पूरी तरह जुड़ी, परंपरा और आधुनिकता के एक समग्र सांस्कृतिक परिवे से निर्मित अभिव्यक्ति की उनकी खास शैली ने हिंदी की जन-कविता और गीतों के समृध्द संसार में जो अनूठा और अविस्मरणीय योगदान किया, इसके लिये हिंदी साहित्य जगत सदा उनका ऋणी रहेगा।

'60-'70 के दशक के रूमानी ओज के साथ अपने एक खास प्रभा-मंडल वाले प्रेम और विद्रोह के आपाद-मस्तक कवि हरीश भादानी को राजस्थान और पूरे हिंदी जगत में कौन नहीं जानता। कवि सम्मेलनों में उनके ठाठ को देख कर किसी ने उन्हें राजस्थान का नीरज और बच्चन तक कहा था, तो उनसे दो कदम आगे बढ़ कर बारीक मिजाज आधुनिक कवि अज्ञेय ने कविता की उनकी अनोखी गायकी के लिये खुले आम सराहना की थी।

तीन दक से भी ज्यादा समय होगया जब जन-आंदोलनों की अग्रिम पंक्ति में खड़े एक जन कवि के रूप में हरी जी की खास पहचान कायम होगयी थी। '60 से लेकर '70 के दक के प्रारंभ, लगभग 13 वर्षों तक नियमित रूप में निकली 'वातायन' पत्रिका के संपादक के रूप में हरी जी की भूमिका हिंदी के साहित्य आंदोलनों के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखी जायेगी। 'अधूरे गीत'(1959), 'सपन की गली'(1961) के गीत और 'हंसिनी याद की'(1962) की रूबाइयां, जिनकी जुबान पर तब थे, आज भी हैं और आगे भी सदा उनके फुरसत के क्षणों के खालीपन को अनोखी मानवीय अनुभूतियों से आबाद रखेंगे। प्रेम की विस्मृतियों और सुधियों के एक विस्तृत फलक में कहीं लोरी सुनाती, तो कहीं उदबुद्ध करती, और कहीं कदम-ताल मिलाती अनगिन धुनों का वह रचना संसार एक कठोर सामंती परिवे में किसी मुक्त मन के विद्रोही स्वरों का ऐसा प्रवाह था, जिसमें डुबकी लगा कर आज भी बड़ी आसानी से मानवीय और जनतांत्रिक संवेदनाओं के पण्य को अर्जित किया जा सकता है।

'सुलगते पिंड'(1966) और 'एक उजली नजर की सूईं'(1966) की कविताएं महानगरीय जीवन के अजनबीपन को अपनी छैनी के प्रहारों या फिर आत्मीय आलिंगनों से दूर करने और जिंदगी की जिल्द के किसी नये सफे को पढ़ने का सपना पाले हुए थी। यह समय था हरीश जी के मूल विद्रोही तेवर पर कम्युनिस्ट दर्शन के प्रभाव का। यहां विद्रोही प्रेमी 'डयोढ़ी के रोज ब रोज शहर जाने और कारखाने के सायरन की सीटी से बंधी एक नियत जिंदगी जीने के पीछे के विच्छिन्नताबोध की पीड़ा के साथ 'क्षण-क्षण की छैनी' से काट कर चीजों को परखने की तरह कड़े से कड़े प्रश्‍नों से व्यवस्था को बींधने वाले विद्रोही मजदूर से एकात्म हो जाता है। 'एक उजली नजर की सुई' में उनके इस दौर के कई अमर गीत संकलित है, जैसे - 'मैंने नहीं कल ने बुलाया है', 'क्षण-क्षण की छैनी से काटो तो जानूं', 'ऐसे तट हैं क्यों इन्कारें', संकल्पों के नेजों को और तरासो', 'थाली भर धूप लिये' और 'सड़क बीच चलने वालों से'। ये सघन और जटिल महानगरीय बोध के साथ नये, बेहतर और मानवीय समाज के निर्माण की बेचैनी के गीत है। इन गीतों में उकेरे गये आधुनिक भावबोध के बिंब गीत और कविता के बीच श्रेष्‍ठता की बहस को बेमानी कर देने के लिये काफी है।

'एक उजली नजर की सुई' का प्रकाशन 1966 में हुआ था। इसके बाद लंबे 13 वर्षों के उपरांत प्रकाशि‍त हुई हरीश जी की आत्मालाप करती हुई लंबी कविता 'नष्‍टोमोह' '70 के दशक के काल के विद्रोही आवेग को जैसे एक शानदार श्रध्दांजलि थी। इसी दौरान, '66 से '79 के बीच में सन् '75 के आंतरिक आपातकाल की परिस्थितियों ने 'रोटी नाम सत है' के गीतों के रचयिता, हरीश भादानी के एक नये नुक्कड़कवि के रूप को जन्म दिया। 'रोटी नाम सत है' के जुझारू गीतों ने हिंदी की जन कविता के अपने एक अलग ही इतिहास की रचना की थी। हरीश जी ने अपने साहित्यिक-राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक दौर में 'भारत की भूखी जनता को अपना लेफ्टिनेंट चाहिए' की तरह के जोशीले जन-गीत और रूबाइयां आदि लिखी थी। 'रोटी नाम सत है' के गीतों को उसी हरीश भादानी का कहीं ज्यादा चेतनासंपन्न, कल्पनाप्रवर और परिपक्व पुनर्जन्म कहा जा सकता है। 'रोटी नाम सत है', 'राज बोलता सुराज बोलता' तथा 'बोल मजूरे हल्ला बोल' की तरह के उनके गीत आपातकाल के खिलाफ देश भर के जनवादी आंदोलन के अभिन्न हिस्से थे।

'नष्‍टोमोह' के दो वर्ष बाद 1981 में हरीश जी के गीतों का एक नया संकलन प्रकाशि‍त होता है, 'खुले अलाव पकाई घाटी'। तीन भागों में विभाजित इस संकलन के पहले भाग का शीर्षक है - ''अपना ही आकाश...'', लेकिन ''अपना ही आकाश बुनूं मैं'' गीत दूसरे भाग में शामिल है। नष्‍टोमोह के अंत में ''मुझे ही बनना है/आदमी के लिये/आदमी की सभ्यता, उसकी संस्कृति'' का जो संकल्प जाहिर किया गया था, 'अपना ही आकाश बुनूं' उसीका आगे विस्तार था। इस गीत की पंक्तियां हैं ''सूरज सुर्ख बताने वालो/सूरजमुखी दिखाने वालो/...पोर-पोर/ फटती देखू मैं/केवल इतना सा उजियारा/रहने दो मेरी आंखों में/...तार-तार/ कर सकू मौन को/केवल इतना शोर सुबह का/भरने दो मुझको सांसों में/ स्वर की हदें बांधने वालो/पहरेदार बिठाने वालो/...अपना ही/ आकाश बुनूं मैं/केवल इतनी सी तलाश ही/भरने दो मुझको/ पांखों में/मेरी दिशा बांधने वालो/दूरी मुझे बताने वालो।''

यह हरी जी के जीवन में विषाद का एक दौर था। 'अपना ही' आका बुनने की जिद से पैदा हुए अकेलेपन और सन्नाटे की अनुभूति एक प्रकार के अद्भुत, सम्मोहक सृजन का हेतु बनती है। इसे 'खुले अलाव पकाई घाटी' के गीतों में साफ देख सकते है, जब 'याद नहीं है' गीत में कवि कहता है- ''चले कहां से /गए कहां तक/याद नहीं है/...रिस-रिस झर-झर ठर-ठर गुमसुम/ झील होगया है घाटी में/हलचलती बस्ती में केवल/एक अकेलापन पांती में/ दिया गया या/ लिया शोर से / याद नहीं है/''। इसी संकलन में विषाद के चरम क्षणों का एक गीत है : ''टूटी गजल न गा पाएंगे'' ''सांसों का/ इतना सा माने/स्वरों-स्वरों/ मौसम दर मौसम/हरफ-हरफ/ गुंजन दर गुंजन/ हवा हदें ही बांध गई है/ सन्नाटा न स्वरा पाएंगे/ यह ठहराव न जी पाएंगे/...आसमान उलटा उतरा है/ अंधियारा न आंज पाएंगे/...काट गए काफिले रास्ता/ यह ठहराव न जी पाएंगे।''

गौर करने लायक बात है कि इस दमघोंटू ठहराव की तीव्र अनुभूतियों के बीच हरी जी अपने नये संबंधों के विकास और सोच की नयी दिशाओं के निर्माण की ओर प्रवृत्त होते हैं। और ये नये संबंध है अपनी मरुभूमि की धरती के साथ नये संपर्कों के संबंध। इसे हम हरी जी के परवर्ती रचनाकर्म का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू कह सकते हैं। ''मौसम ने रचते रहने की /ऐसी हमें पढ़ाई पाटी/...मोड़ ढलानों चौके जाए/आखर मन का चलवा/अपने हाथों से थकने की/कभी न मांडे पड़वा/कोलाहल में इकतारे पर/एक धुन गुंजवाई घाटी'' या ''सुपरणे उड़ना मन मत हार'' की तरह के भावबोध के साथ सन्नाटे में भी निरंतर रचनाषील बने रहने की अपनी नैसर्गिकता को कायम रखने की जद्दोजहद में उनके इन नये संबंधों और विचार के नये क्षेत्रों का उन्मे होता है। और, हम देखते हैं, सन्नाटे और अकेलेपन के अनोखे, मन को गहराई तक छू देने वाले गीतों के साथ ही सामने आता है हरी जी की रचना क्ति का एक और उत्कृष्‍ट नमूना - ''रेत में नहाया है मन''''इन तटों पर कभी/धार के बीच में/डूब-डूब तिर आया है मन/...गूंगी घाटी में/ सूने धोरों पर' एक आसन बिछाया है मन/...ओठ आखर रचे/ शोर जैसे मचे/ देख हिरणी लजी/ साथ चलने सजी/ इस दूर तक निभाया है मन। /''। धोरों की धरती के सौन्दर्य पर इससे खूबसूरत आधुनिक गीत क्या होगा?

अब तक 'हरीले जंगल' में खोये मन के इस प्रकार अपनी धरती के रेत के समंदर में डूबने-तिरने, उस पर आसन बिछा कर खोजाने का यह सारा उपक्रम हरी जी के सन्नाटे को एक नयी सृजनात्मक दिशा में मोड़ता है और हम पाते हैं ''सन्नाटे के शि‍लाखंड पर''(1982), ''एक अकेला सूरज खेले'', ''आज की आंख का सिलसिला''(1985), ''विस्मय के अंशी हैं'' (1988) कविता संकलन और ''पितृकल्प''(1991) तथा ''मैं-मेरा अष्‍टावक्र''(1999) की तरह की लंबी कविताओं का एक विशाल रचना भंडार।

लगभग अढ़ाई दकों तक फैली हरी जी की रचनाशीलता के इस तीसरे दौर में भाषा के स्तर पर भी उनकी कविताओं में एक बड़ा परिवर्तन आया। 'बांथा में भूगोल' (1984), ''खण-खण उकल्या हूणिया'' तथा ''जिण हाथां आ रेत रचीजै'' की तरह के राजस्थानी भाषा की कविताओं के संकलन सामने आते हैं और हिंदी की कविता भी स्थानीय भाषा और संदर्भों से लबरेज हो गयी।

हरी जी जनवादी लेखक संघ के जन्म काल से ही उसके केंद्रीय उपाध्यक्ष रहे। अभी वे जनवादी लेखक संघ, राजस्थान के अध्यक्ष थे। वे 'कलम' पत्रिका के संपादक-मंडल के भी सदस्य थे।

हरी भादानी के स्तर के काव्य-व्यक्तित्व का देहांत हिंदी साहित्य जगत के लिये नि:संदेह एक अपूरणीय क्षति है। वे अपने पीछे अपनी पत्नी, तीन बेटियां और एक बेटा तथा राजस्थान के कोने-कोने में बसे अपने सहृदय पाठकों और प्रियजनों का विशाल परिवार छोड़ गये हैं। जनवादी लेखक संघ उनके परिवार के सभी सदस्यों और प्रियजनों के प्रति गहरी संवेदना प्रेषि‍त करता है और हरी भादानी की स्मृति के प्रति आंतरिक श्रध्दांजलि अर्पित करता है।

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