विस्फ़ोट पर राम बहादुर रायका आलेख. लिब्राहन की धज्जियाँ उङी. चिन्ता वाजिब है राम बहादुरजी! मगर विकल्प क्या है? आप दिग्गज मिलकर शायद वर्तमान राजनैतिक-प्रशासनिक ढाँचा तोङ भी दें, फिर क्या होगा? बदला तो ७७ में भी था... मानव नहीं समझे; मानवका लालच बेलगाम ही बढता रहे; व्यवस्था किसके भरोसे काम करेगी? ऐसे गंभीर मुद्दों पर क्या शार्ट्कट चलते हैं? और क्या आप सचमुच नहीं जानते कि इन सारी समस्याओंका समाधान धरती पर मौजूद है! आप और गोविन्दाचार्य जैसे व्यक्ति भी मध्यस्थ दर्शन को समझने-जीनेका प्रयत्न नहीं करके .... या इससे बचने का प्रयत्न करेंगे, तो विश्वास बनेगा कैसे?... खैर ट्टिपणी देखलें....
लिब्राहन आयोग की हुई फ़जीती मित्र.
राजनीति ने नीति का खूब बिगाङा चित्र.
खूब बिगाङा चित्र, इसे ही अच्छा मानो.
घङा पापका फ़ूटेगा, निश्चित ही जानो.
पर साधक बिन समझ के क्या होगा बोलो तो.
समझ की खातिर अन्तर के ताले खोलो तो.
8.12.09
जाँच आयोग क्यों?
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